Sunday, 18 May 2025

न्यायालय

क्षमा करेंगे महानुभावों!
जब आपके न्यायालय संविधान की धाराओं को हथियार बना कर राज्यपाल, राष्ट्रपति पर ऐसे निर्णय दे रहे हैं, जैसे संविधान की धाराएं न होकर स्वछंद बरसाती नदी हों जो शिलाओं, वृक्षों और तटों को मदमस्त तोड़ती चलती है।

जब आपके न्यायालय कंटेम्पट के नाम पर चीफ सेक्रेटरी,एसीएस, डीजीपी, पीएस को कठघरे में ऐसे बुला लेते हैं/ खड़ा कर देते हैं जैसे निजी सेवक हों, जबकि कई बार वे दोषी भी नहीं होते।

आप जिसे चाहें आधी रात को जमानत दे दें, चाहें तो चार पीढ़ी दीवानी में  चप्पल घिसती उम्मीद लिए कई बार धरती में ही स्वर्ग -नर्क में आये जाये।

तब आपके न्यायालय को प्रोटोकॉल स्मरण नहीं रहता शायद? वास्तव में हर किसी पात्र में विक्रमादित्य ढूंढना ही व्यर्थ है।

तुलसी बाबा ने लिखा है -

बिनु विज्ञान की समता आवइ।
(विज्ञान अर्थात् तत्वज्ञान, परम्परा के संज्ञान में लाये बिना)
कोउ अवकाश कि नभ बिनु पावइ।।

श्रद्धा बिनु धर्म  नहिं होई।
 (धर्म -आचरण) 
बिनु महि गंध की पावइ कोई।।

बिनु तप तेज कि कर बिस्तारा।
जल बिनु रस कि होइ संसारा।।
(रस -स्निग्धता, प्रेम)

सील की मिल बिनु बुध सेवकाई।
(बुध -तत्वज्ञानियों का सत्संग)
जिमि बिनु तेज न रूप गोंसांई।।

कवनिउ सिद्धि कि बिनु बिस्वासा।
बिनु हरि भजन न भव भय नासा।।
(हरि भजन -लोककल्याण की कामना)

अस बिचारि मतिधीर तजि कुतर्क संसय सकल।
भजहु राम रघुबीर करुनाकर सुंदर सुखद।।
(राम रघुबीर -राष्ट्र जन की मंगल कामना)

  प्रोटोकॉल का पालन दोनों हाथ की ताली की तरह होना चाहिए। 

इसलिए अपेक्षा सही है कि आना चाहिए किन्तु सम्मान मांगने से नहीं चरित्र और व्यवहार से अर्जित किया जाता है। 

भारतीय ज्ञान परम्परा यही कहती है जो व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका तीनों में लागू होती है।

दुखद है कि न्यायालय के सर्वोच्च को टिप्पणी करनी पड़ी और मध्यप्रदेश सरकार को जनप्रतिनिधियों को सलामी देने के लिए आदेश जारी करना पड़ा।
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