दरअसल राष्ट्रीय शिक्षा नीति -2020 को लेकर कौन क्या कर रहा है, उसका प्रकटीकरण आवश्यक है किन्तु उससे अधिक आवश्यक है समन्वय कर एक दिशा देने और उसमें चलने की।
साथ ही जिन राज्यों में नीति लागू नहीं हुई या सरकारें नहीं कर रहीं हैं वहां संगठन और सरकार को समन्वय बना कर लागू कराने की आवश्यकता है। अभी जहां नीति लागू करने वाली सरकारें हैं,हम वहीं मुगदर (सेमीनार, वेबीनार, गोष्ठी, परिचर्चाओं की जुगाली कर रहे हैं) (पेल, पसीना बहा रहे हैं) भांज रहे हैं।
परीक्षा, मूल्यांकन के दौर से स्नातक का एक सर्किल पूरा हो गया है। समीक्षा होनी चाहिए कि इंटर्नशिप, स्टार्टअप, स्वरोजगार और रोजगार का तुलनात्मक प्रतिशत कितना बढ़ा?
परिसरों में बढ़ती उदंडता,कुलगुरुओं के कर्म और व्यवहार,आये दिन जांच,जेल यात्राएं नैतिक मूल्यों की परते खोल रही हैं।
कुल गुरुओं की नियुक्ति कुलपति के आचरण को नहीं बदल पा रही है,क्यों?
नियुक्ति में मूल अर्हता को भी न देखना, वैचारिक संकीर्ण सम्बन्ध, व्यक्तिगत क्षेत्र, भाषा -भाषी जनित चहेतों की नियुक्ति में ठेलमठेल क्या इसका कारण नहीं?
मध्यप्रदेश में पिछले पन्द्रह वर्षों में कुछ ऐसे कुलपति बन गये जो न तो प्राध्यापक पद नाम प्राप्त थे,न ही दस हजार, नौ हजार एजीपी। आखिर ऐसी कौन-सी मजबूरी है?
क्या प्रतिभा व्यक्ति की दासता से मुक्त होकर कुलगुरु का दायित्व नहीं सम्हाल सकती?
कौन बोले और बोले तो कौन सुनेगा?
बाबा तुलसी ने कहा -
.......प्रिय बोलहिं भय आस।......नाश।'
एक देश में अनेक प्रकार के स्नातक से स्नातकोत्तर तक के पाठ्यक्रमों से दी जाने वाली उपाधियां?
हां , साक्षर बनाने के लिए ठीक है किन्तु यह पूरा दृश्य शिक्षा के स्तर को मापने का बड़ा अवरोध है।
अभी तक स्नातक विज्ञान और वाणिज्य का विद्यार्थी कला, संगीत, साहित्य, सामाजिक विज्ञानों से पीजी कर प्राध्यापक बन जाता था।अब नवाचार में क्या देख कर इसे बदला गया?
वैसे भी यदि शिक्षक नहीं बना तो किस विषय में स्नातक किया और किस विषय में परास्नातक क्या फर्क पड़ता है? केवल बेरोजगारों की भीड़ ही बढ़ रही है।
वर्तमान में पालीटेक्निक, आयुर्वेद, होम्योपैथी की स्नातक की पढ़ाई कर विद्यार्थी कला, मानविकी से परास्नातक करके, पीएचडी भी कर चुके हैं और शासकीय/अशासकीय महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों में शिक्षण कार्य कर रहे हैं,उनका क्या करेंगे?
क्या प्राध्यापकों की भर्ती में नियम बनाकर भूतलक्ष्यी प्रभाव से लागू करेंगे?
जब भाषा (आधार पाठ्यक्रम) के प्रश्न- पत्र वस्तुनिष्ठ कर दिए गये हैं तो विद्यार्थियों के शब्दों के व्यवहार की क्षमता कैसे पता करेंगे?
हां,न के तुक्केबाज भविष्य में शिक्षण कैसे करेंगे? वैसे शिक्षण कार्य कैसे करेंगे यह भी मजाक ही है!
मध्यप्रदेश में वस्तुनिष्ठ प्रश्न व्यवस्था को लेकर उच्च शिक्षा विभाग ने तर्क़ दिया दीर्घ और लघु प्रश्न का मूल्यांकन करने में समय लगता है और समय पर परिणाम नहीं आ पाते। है न सटीक और वैज्ञानिक जिम्मेदारी भरा उत्तर !!
भारतीय प्रशासनिक सेवा में भी क्या विषय की बाध्यता हो सकती है कि इंजीनियरिंग और मेडिकल, गणित, प्राणिशास्त्र का विद्यार्थी अपने स्नातक, स्नातकोत्तर के विषय लेकर परीक्षा देगा?
शायद यह प्रश्न भी फिजूल है क्योंकि अधिकांश तो सामाजिक विज्ञान,कला और राजनीति विज्ञान को लेकर ही यूपीएससी पास करते हैं। स्नातक चाहे जिस विधा से किया हो अर्थात् पिछली पढ़ाई का लेन-देन बंद!!
इसलिए अपने -अपने संगठनों के गैर शिक्षकीय तर्क के साथ बढ़ते कदम कभी सिंहावलोकन भी करेंगे,ऐसी अपेक्षा है।
तभी 'यशस्वी' लिखना सार्थक होगा।
जीवन के अनेक क्षेत्रों में सफल होने के अनेक मार्ग हो सकते हैं किंतु शिक्षा/विद्या के मार्ग में सार्थक होने के लिए लघु अथवा लघुतम् मार्ग ढूंढना अपने को ठगना ही है। क्योंकि शिक्षक राष्ट्र निर्माण करता है,हम सब कम से कम चाणक्य सीरीयल के बाद तो हर भाषण में दुहराने लगे हैं।
शेष आप सब अधिक जानते हैं।
23/5/2025