Monday, 28 October 2024

साहित्यकार

कविता में रस नहीं। नाटक विदूषक बन गया। उपन्यास न्यास से नाश की ओर बह रहा है। कहानी हानि दे रही है।

आप कहते हैं, पढ़िये! क्या पढूं आप ही सुझाव दें।

 अब तो साहित्यकार अपने ऊपर शोध करवाने प्राध्यापकों को पुराने रिश्तों की याद दिला रहे हैं।

थिसिस जंचने आती है तो अर्द्ध विराम,पूर्ण विराम और वर्तनी देखने में ही समय नष्ट हो रहा है। वाक्य कहां से प्रारंभ है, कहां समाप्त शोधार्थी और गाइड जाने।

ऊपर से शीघ्र रिपोर्ट भेजने का दबाव। ऐसा लगता है थिसिस न होकर रामचरित मानस का पारायण हो गया हो। जिसे चौबीस घंटे में पूरा ही करना है।

मौखिकी आन लाइन हो रही है।न इधर सुनाई देता न उधर।सुनाई देता है तो 'क्षमा करियेगा , सुनाई नहीं देता।' बस।

ऐसे में साहित्यकारों को साधुवाद दूं, निदेशक को, निर्देशक को, गाइड को, शोधार्थी को , शोधकर्ता को या व्यवस्था को।

 उच्च शिक्षा विभाग को दोष देने का कोई कारण नहीं, क्योंकि साहब अभी 'भारतीय ज्ञान परम्परा ' में व्यस्त हैं।

2 comments:

  1. यथा ....
    हर शाख पे नहीं बल्कि
    हर शाखा में ....
    आजकल 2047 के लिए विजन दे रहे हैं या दूर की चिड़िया दिखाकर हाथ की❗
    कहीं दूर की चिरैया, दूर की कौंड़ी साबित न हो जाए⁉️
    गुरु गालियों का समुच्चय हो गया है और हवा में फड़फड़ाता है❓

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