वैदिक काल से लेकर आज तक जो भी सद्साहित्य हमारे सामने आता है, उसका उद्देश्य लोक कल्याण है । ऋग्वेद का प्रसिद्ध मन्त्र है -
संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्
देवा भागं यथा पूर्वे संजाना उपासते ।।
हम सद्भाव में चलें, एक स्वर में बोलें; अपने मन एक मत रहें; ठीक वैसे ही जैसे प्राचीन देवताओं ने बलिदान का अपना हिस्सा साझा किया था।
समानो मंत्र:
समिति: समानी समानं मन: सहचित्तमेषाम्
समानं मंत्रमभिमंत्रये व: समानेन वो हविषा जुहोमि ।।
हमारा उद्देश्य एक ही हो; क्या हम सब एक मन के हो सकते हैं? ऐसी एकता बनाने के लिए मैं एक सामान्य प्रार्थना करता हूँ।
समानि व
आकूति: समाना हृदयानि व: ।
समानमस्तु वो मनो यथा व: सुसहासति ।।
हमारा उद्देश्य एक हो, हमारी भावनाएँ सुसंगत हो। हमारा विचार संयोजन हो। जैसे इस विश्व के, ब्रह्मांड के विभिन्न सिद्धांतों और क्रियाकलापों में तारात्मयता और एकता है ॥ ऋग्वेद 8.49.4
विचार करें , यह प्रार्थना अपने को सीधे विश्व से जोड़ती है । यह कौन सी संस्कृति है ? वैदिक संस्कृति, सनातन संस्कृति , हिन्दू संस्कृति । जहाँ अपने लिए नहीं सम्पूर्ण जीवमात्र के लिए है प्रार्थना है ?
सर्वे भवन्तु
सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया,
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुख भागभवेत।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः
“सभी प्रसन्न रहें, सभी स्वस्थ रहें, सबका भला हो, किसी को भी कोई दुख ना रहे। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः
यह शान्ति कैसे मिले तो, हे परमपिता! मझे असत से सत की ओर ले चल। अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चल। मृत्यु से अमृत की ओर ले चल।
ॐ असतो मा सद्गमय । तमसो मा ज्योतिर्गमय । मृत्योर्मा अमृतं गमय ।
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।
यह प्रार्थना कौन कर रहा है - "वयं राष्ट्रांग्भूता” जो यह मानता है कि हम इस राष्ट्र के अंगभूत घटक हैं ।
यह राष्ट्र क्या है? तो कहा गया ‘राजते दीप्यते प्रकाशते शोभते इति राष्ट्रम्’ जो स्वयं देदीप्यमान हो वह राष्ट्र है ।
राष्ट्र का आधार क्या है ? जो कुछ भी भौतिक है वह राष्ट्र का आधार नहीं है क्योंकि राष्ट्र एक आध्यात्मिक इकाई है।
इस आध्यात्मिक सिद्धांत को दो वस्तुएं निर्माण कराती हैं , इनमें से एक अतीत में होती है, जिसे हम स्मृतियों की विरासत और दूसरी वर्तमान में वास्तविक समझौता अर्थात् साथ रहने की इच्छा, साझी विरासत से अधिकाधिक लाभ उठाने का संकल्प।
जैसे मनुष्य का शरीर धारण कर लेने से हर व्यक्ति मनुष्य नहीं बन जाता उसे बनने या बनाने में एक लम्बा समय लगता है, उसी तरह राष्ट्र उक्त दोनों शर्तों पर जीने वाले लोगों के प्ररिश्रम, बलिदान और निष्ठा के लम्बे अतीत का फल होता है ।
राष्ट्र बनाने के लिए एक भाषा, एक धर्म अथवा आर्थिक हितों वाले एक समुदाय की आवश्यकता नहीं होती । इसके लिए एक भावना, संवेदनशीलता, एक जीवन मूल्य की आवश्यकता होती है ।
उदाहरण के लिए चौथाई सदी पहले तक यू.एस.एस.आर.में लातीविया, जार्जिया, कजाकिस्तान, आर्मेनिया, उज्बेकिस्तान आदि कई राष्ट्र शामिल थे।युगोस्लाविया में भी एक से अधिक राष्ट्र थे।
भारत आदिकाल से एक राष्ट्र है, इसमें बहुत से राजा थे , सिकंदर के आक्रमण के समय नंद साम्राज्य के साथ ही यहां बहुत से गणतंत्र थे।
भगवान बुद्ध का जन्म एक गणतंत्र में ही हुआ था। नर्मदा के उत्तर में राजा हर्षवर्धन का राज्य था और दक्षिण में पुलकेशिन का। किन्तु भारतवर्ष का भू-भाग वृहत्तर और सांस्कृतिक था।
जर्मनी बरसों तक एक राष्ट्र रहा, पर 1945 से 1990 के बीच यह दो राज्यों में बंटा हुआ था।राष्ट्र और राज्य के अंतर को हमेशा याद रखना होगा।
राज्य एक राजनीतिक इकाई है जो कानून से चलती है।
कानून प्रभावकारी हो, इसके लिए राजा को शक्ति की आवश्यकता होती है।
यहूदियों को उनकी मातृभूमि से खदेड़ दिया गया था, और 1800 साल तक वे विभिन्न देशों में रहे ,पर वे कभी नहीं भूले कि फिलस्तीन उनकी मातृभूमि है।
दूसरी शर्त है साझा इतिहास।आखिरकार इतिहास अतीत में घटी घटनाएं ही तो होती हैं। इन घटनाओं में से कुछ के प्रति गर्व की अनुभूति होती है और कुछ लज्जा का कारण बनती हैं। इतिहास की घटनाओं के प्रति खुशी और पीड़ा की एक जैसी भावनाओं वाले एक राष्ट्र बनाते हैं।
तीसरी और सबसे महत्त्व पूर्ण शर्त है एक सामान जीवनमूल्य-प्रणाली में आस्था।
यही मूल्य प्रणाली संस्कृति कहलाती है। दुनिया के सभी राष्ट्र ये तीनों शर्तें पूरी करते हैं ।
हमारे देश में ही इन शर्तों को लेकर विवाद हैं।
भारत माता की जय और वंदे मातरम् का नारा लगाने में गर्व महसूस करने वाले कौन लोग हैं? राम, कृष्ण, चाणक्य, विक्रमादित्य, राणा प्रताप और शिवाजी तक अपना इतिहास मानने वाले कौन लोग हैं?
वे कौन हैं जिनकी साझी मूल्य प्रणाली है?
इस मूल्य प्रणाली का एक मुख्य सिद्धांत है विश्वासों और धर्मों की बहुलता में विश्वास करना। सारी दुनिया इन लोगों को हिंदू के रूप में जानती है।इसलिए यह हिंदू राष्ट्र है।
इसका इस बात से कुछ लेनादेना नहीं है कि आप आस्तिक हैं या नास्तिक; आप मूर्तिपूजा में विश्वास करते हैं या नहीं, आप वेदों को मानते हैं अथवा किसी अन्य धार्मिक ग्रंथ को।
हमारे संविधान निर्माता इस बात को समझते थे।इसीलिए संविधान की धारा 25 में कहा गया है कि ‘हिंदू शब्द में सिख, जैन और बौद्ध धर्मावलाम्बियों का भी समावेश है.’ ।
यह ईसाइयत और इस्लाम को मानने वालों पर लागू क्यों नहीं होना चाहिए?
इसको एक विद्वान के संस्मरण से समझें -
"सत्रह साल तक मैं एक ईसाई कॉलेज में पढ़ाता था।1957 में एक वरिष्ठ ईसाई प्राध्यापक ने मुझसे पूछा क्या वे आर.एस.एस के सदस्य बन सकते हैं?
मेरे हां कहने पर उन्होंने सवाल किया,‘इसके लिए मुझे क्या करना होगा?’ मैंने उत्तर दिया,‘आपको न चर्च छोड़ना पड़ेगा, न बाइबिल में विश्वास आप ईसा मसीह में अपनी आस्था भी बनाये रख सकते हैं।पर आपको अन्य विश्वासों, धर्मों की वैधता को भी स्वीकारना होगा।’ इसपर उन्होंने कहा ‘मैं यह स्वीकार नहीं कर सकता। यदि मैं यह स्वीकारता हूं तो अपने धर्म का प्रसार नहीं कर पाऊंगा।’ इस पर मैंने कहा- ‘तब आप आरएसएस के सदस्य नहीं बन सकते।’ ‘हिंदू’ के बारे में हमारी समझ में जो भ्रम है, वह हिंदूवाद को एक पंथ मानने के कारण है। यह धर्म नहीं है। "
साहित्य जनमानस को सकारात्मक सोच तथा लोक कल्याण के कार्यों के लिए सदैव प्ररेणा देने का कार्य करता रहा है। प्रत्येक देश का साहित्य अपने देश की भौगोलिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक परिस्थितियों से जुड़ा होता है ।भाषा के बिना यदि संस्कृति सर्मथहीन है तो संस्कृति के आभाव में भाषा अंधी।
संस्कृति के पूरक तत्व भाषा के साथ-साथ देश के रहन-सहन, आचार-विचार, रीति-रिवाज, ज्ञान-विज्ञान, परम्परागत अनुभव, कला-प्रेम, जीवन यापन के भारतीय संस्कृति का मूलमंत्र उसकी उदारता, सहिष्णुता और समस्त वसुधा को एक कुटुंब मानने में है । भारतीय संस्कृति गिरि शिखरों की भाँति उदात्त, गंगा की भांति निरंतर प्रवाहमान , समुद्र की तरह विशाल है।
वह विधा-अविधा, श्रेय और प्रेय, अभ्युदय और निह्श्रेयस, द्यावा-पृथिवी सभी को आत्मसात करती हुई विश्व को ज्योतिर्मय करती आ रही है। 'आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतः।' सभी दिशाओं से शुभ विचार मेरी ओर आएँ।
सोहन लाल द्विवेदी कहते हैं -
पर्वत कहता शीश उठाकर , तुम भी ऊंचे बन जाओं ।
सागर कहता लहराकर , मन में गहराई लाओ ।
पृथ्वी कहती धैर्य न छोड़ों , कितना ही हो सर पर भार।
नभ कहता है फैलो इतना , ढंक लो तुम सारा संसार। (सोहनलाल द्विवेदी )
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