Monday, 28 October 2024

क्रिया योग

भारत की कामना सम्प्रदायिक आधार पर नहीं जीवमात्र पर आधारित है। इसका प्रकटीकरण योग के बोध से हुआ।

योग शास्त्र में ऐसे सूक्ष्म सिद्धांतों की व्याख्या व स्थापना है जो आज के भौतिक विज्ञान के विद्यार्थियों के लिए भी विद्यमान है ।  

इस व्यवहारिक दर्शन का कार्यक्षेत्र भौतिक धरातल से लेकर उच्च आध्यात्मिक लोक तक फैला है। इन  विविध स्तरों से जुड़ी हुई इसकी भिन्न-भिन्न शाखाएं हैं। 

उदाहरण के लिए-  
हठयोग में केवल शारीरिक अभ्यास है । 
मंत्र योग  स्वर से संबंधित है । 
लय योग मानसिक प्रक्रिया है। 
राजयोग मन के भी परे जाकर अध्यात्म की भूमि का संस्पर्श करता है । 
कर्मयोग आध्यात्मिक की आरंभिक तैयारी करता है।  
भक्तियोग ईश्वर के प्रति प्रेम भाव पर आधारित है।
ध्यानयोग में ध्यान की क्रिया का अवलंबन होता है । 
ज्ञानयोग आत्मसाक्षात्कार द्वारा संपूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लेना है । 

आत्मविज्ञान सदा शास्त्रीय होता है और उसका मापदंड उसका सार्वभौम उपयोग होना चाहिए ।

 यह किसी वर्ग अथवा देश का एकाधिकार नहीं हो सकता।  चाहे इस ज्ञान को उद्घाटित करने का श्रेय केवल भारतीय ऋषियों को ही क्यों ना रहा हो।
दो बातें -
एक-  ऋषियों की प्राचीन साधना स्थली कहां थी ? -
उत्तर-  आर्यावर्त । जम्बूद्वीप। भरतखंड। अजनाभवर्ष  में।

दो- दुनिया के इस श्रेष्ठ मार्ग के दर्शन की भूमि और जन को यदि ' अनेकता से युक्त अशुद्ध चेतना' ने ग्रसना प्रारंभ किया (जो सतत है) तो इस विश्व कल्याणकारी दृष्टि का क्या  होगा? 

इसलिए क्या हमें नहीं लगता कि  हमें क्रिया योग द्वारा समान नागरिक आचार संहिता और नागरिकता का समर्थन करना चाहिए।
11/12/2019
खंडवा

राष्ट्र और संस्कृति rashtr aur sanskriti

 

वैदिक काल से लेकर आज तक जो भी सद्साहित्य हमारे सामने आता है, उसका उद्देश्य लोक कल्याण है । ऋग्वेद का प्रसिद्ध मन्त्र है -

संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्

देवा भागं यथा पूर्वे संजाना उपासते ।।

              हम सद्भाव में चलें, एक स्वर में बोलेंअपने मन एक मत रहेंठीक वैसे ही जैसे प्राचीन देवताओं ने बलिदान का अपना हिस्सा साझा किया था।

समानो मंत्र: समिति: समानी समानं मन: सहचित्तमेषाम्
समानं मंत्रमभिमंत्रये व: समानेन वो हविषा जुहोमि ।।

              हमारा उद्देश्य एक ही होक्या हम सब एक मन के हो सकते हैंऐसी एकता बनाने के लिए मैं एक सामान्य प्रार्थना करता हूँ।

समानि व आकूति: समाना हृदयानि व: ।
समानमस्तु वो मनो यथा व: सुसहासति ।।

              हमारा उद्देश्य एक हो, हमारी भावनाएँ सुसंगत हो। हमारा विचार संयोजन हो। जैसे इस विश्व के,  ब्रह्मांड के विभिन्न सिद्धांतों और  क्रियाकलापों में तारात्मयता और एकता है ॥ ऋग्वेद 8.49.4

              विचार करें , यह प्रार्थना अपने को सीधे विश्व से जोड़ती है । यह कौन सी संस्कृति है ? वैदिक संस्कृति, सनातन संस्कृति , हिन्दू संस्कृति । जहाँ अपने लिए नहीं सम्पूर्ण जीवमात्र के लिए है प्रार्थना है ?

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया,
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुख भागभवेत।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः

               “सभी प्रसन्न रहें, सभी स्वस्थ रहें, सबका भला हो, किसी को भी कोई दुख ना रहे। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः

              यह शान्ति कैसे मिले तो, हे परमपिता! मझे असत से सत की ओर ले चल। अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चल। मृत्यु से अमृत की ओर ले चल। 

 असतो मा सद्गमय । तमसो मा ज्योतिर्गमय । मृत्योर्मा अमृतं गमय 
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।

              यह प्रार्थना कौन कर रहा है - "वयं राष्ट्रांग्भूता” जो यह मानता है कि हम इस राष्ट्र के अंगभूत घटक हैं ।

 यह राष्ट्र क्या है? तो कहा गया राजते दीप्यते प्रकाशते शोभते इति राष्ट्रम् जो स्वयं देदीप्यमान हो वह राष्ट्र है । 

राष्ट्र का आधार क्या है ? जो कुछ भी भौतिक है वह राष्ट्र का आधार नहीं है क्योंकि राष्ट्र एक आध्यात्मिक इकाई है। 

इस आध्यात्मिक सिद्धांत को दो वस्तुएं निर्माण कराती हैं , इनमें से एक अतीत में होती है, जिसे हम स्मृतियों की विरासत और दूसरी वर्तमान में वास्तविक समझौता अर्थात् साथ रहने की इच्छा, साझी विरासत से अधिकाधिक लाभ उठाने का संकल्प।

 जैसे मनुष्य का शरीर धारण कर लेने से हर व्यक्ति मनुष्य नहीं बन जाता उसे बनने या बनाने में एक लम्बा समय लगता है, उसी तरह राष्ट्र उक्त दोनों शर्तों पर जीने वाले लोगों के प्ररिश्रम, बलिदान और निष्ठा के लम्बे अतीत का फल होता है । 

राष्ट्र बनाने के लिए एक भाषा, एक धर्म अथवा आर्थिक हितों वाले एक समुदाय की आवश्यकता नहीं होती । इसके लिए एक भावना, संवेदनशीलता, एक जीवन मूल्य की आवश्यकता होती है ।

            उदाहरण के लिए चौथाई सदी पहले तक यू.एस.एस.आर.में लातीवियाजार्जियाकजाकिस्तानआर्मेनियाउज्बेकिस्तान आदि कई राष्ट्र शामिल थेयुगोस्लाविया में भी एक से अधिक राष्ट्र थे

भारत आदिकाल से एक राष्ट्र हैइसमें बहुत से राजा थे , सिकंदर के आक्रमण के समय नंद साम्राज्य के साथ ही यहां बहुत से गणतंत्र थे

 भगवान बुद्ध का जन्म एक गणतंत्र में ही हुआ था नर्मदा के उत्तर में राजा हर्षवर्धन का राज्य था और दक्षिण में पुलकेशिन का। किन्तु भारतवर्ष का भू-भाग वृहत्तर और सांस्कृतिक था।

जर्मनी बरसों तक एक राष्ट्र रहापर 1945 से 1990 के बीच यह दो राज्यों में बंटा हुआ थाराष्ट्र और राज्य के अंतर को हमेशा याद रखना होगा

 राज्य एक राजनीतिक इकाई है जो कानून से चलती है 

कानून प्रभावकारी होइसके लिए राजा को शक्ति की आवश्यकता होती है 

यहूदियों को उनकी मातृभूमि से खदेड़ दिया गया थाऔर 1800 साल तक वे विभिन्न देशों में रहे ,पर वे कभी नहीं भूले कि फिलस्तीन उनकी मातृभूमि है 


दूसरी शर्त है साझा इतिहासआखिरकार इतिहास अतीत में घटी घटनाएं ही तो होती हैं इन घटनाओं में से कुछ के प्रति गर्व की अनुभूति होती है और कुछ लज्जा का कारण बनती हैं इतिहास की घटनाओं के प्रति खुशी और पीड़ा की एक जैसी भावनाओं वाले एक राष्ट्र बनाते हैं

 तीसरी और सबसे महत्त्व पूर्ण शर्त  है  एक  सामान जीवनमूल्य-प्रणाली में आस्था

यही मूल्य प्रणाली संस्कृति कहलाती है। दुनिया  के सभी राष्ट्र ये तीनों शर्तें पूरी करते हैं

 हमारे देश में ही इन शर्तों को लेकर विवाद हैं

भारत माता की जय और वंदे मातरम् का नारा लगाने में गर्व महसूस करने वाले कौन लोग हैंरामकृष्णचाणक्यविक्रमादित्यराणा प्रताप और शिवाजी तक अपना इतिहास मानने वाले कौन लोग हैं

वे कौन हैं जिनकी साझी मूल्य प्रणाली है?

 इस मूल्य प्रणाली का एक मुख्य सिद्धांत है विश्वासों और धर्मों की बहुलता में विश्वास करना सारी दुनिया इन लोगों को हिंदू के रूप में जानती हैइसलिए यह हिंदू राष्ट्र है

 इसका इस बात से कुछ लेनादेना नहीं है कि आप आस्तिक हैं या नास्तिकआप मूर्तिपूजा में विश्वास करते हैं या नहींआप वेदों को मानते हैं अथवा किसी अन्य धार्मिक ग्रंथ को

हमारे संविधान निर्माता इस बात को समझते थेइसीलिए संविधान की धारा 25 में कहा गया है कि ‘हिंदू शब्द में सिखजैन और बौद्ध धर्मावलाम्बियों का भी समावेश है.’ ।

यह ईसाइयत और इस्लाम को मानने वालों पर लागू क्यों नहीं होना चाहिए?

इसको एक विद्वान के संस्मरण से समझें -

"सत्रह साल तक मैं एक ईसाई कॉलेज में पढ़ाता था1957 में  एक वरिष्ठ ईसाई प्राध्यापक ने मुझसे पूछा क्या वे आर.एस.एस के सदस्य बन सकते हैं?

 मेरे हां कहने पर उन्होंने सवाल किया,‘इसके लिए मुझे क्या करना होगा?’ मैंने उत्तर दिया,आपको  चर्च छोड़ना पड़ेगा बाइबिल में विश्वास आप ईसा मसीह में अपनी आस्था भी बनाये रख सकते हैंपर आपको अन्य विश्वासोंधर्मों की वैधता को भी स्वीकारना होगा’ इसपर उन्होंने कहा मैं यह स्वीकार नहीं कर सकता यदि मैं यह स्वीकारता हूं तो अपने धर्म का प्रसार नहीं कर पाऊंगा’ इस पर मैंने कहा-तब आप आरएसएस के सदस्य नहीं बन सकते हिंदू’ के बारे में हमारी समझ में जो भ्रम है, वह हिंदूवाद को एक पंथ मानने के कारण है। यह धर्म नहीं है "

साहित्य जनमानस को सकारात्मक सोच तथा लोक कल्याण के कार्यों के लिए सदैव प्ररेणा देने का कार्य करता रहा है। प्रत्येक देश का साहित्य अपने देश की भौगोलिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक परिस्थितियों से जुड़ा होता है ।भाषा के बिना यदि संस्कृति सर्मथहीन है तो संस्कृति के आभाव में भाषा अंधी।

 संस्कृति के पूरक तत्व भाषा के साथ-साथ देश के रहन-सहन, आचार-विचार, रीति-रिवाज, ज्ञान-विज्ञान, परम्परागत अनुभव, कला-प्रेम, जीवन यापन के भारतीय संस्कृति का मूलमंत्र उसकी उदारता, सहिष्णुता और समस्त वसुधा को एक कुटुंब मानने में है । भारतीय संस्कृति गिरि शिखरों की भाँति उदात्त, गंगा की भांति निरंतर प्रवाहमान , समुद्र की तरह विशाल है।

 वह विधा-अविधा, श्रेय और प्रेय, अभ्युदय और निह्श्रेयस,  द्यावा-पृथिवी  सभी को आत्मसात करती हुई  विश्व को  ज्योतिर्मय करती आ रही है। 'आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतः।' सभी दिशाओं से शुभ विचार मेरी ओर आएँ।

सोहन लाल द्विवेदी कहते हैं -

पर्वत कहता शीश उठाकर , तुम भी ऊंचे बन जाओं ।

सागर कहता  लहराकर , मन में गहराई लाओ ।

पृथ्वी कहती धैर्य न छोड़ों , कितना ही हो सर पर भार।

नभ कहता है फैलो इतना , ढंक लो तुम सारा संसार।  (सोहनलाल द्विवेदी )

  

साहित्यकार

कविता में रस नहीं। नाटक विदूषक बन गया। उपन्यास न्यास से नाश की ओर बह रहा है। कहानी हानि दे रही है।

आप कहते हैं, पढ़िये! क्या पढूं आप ही सुझाव दें।

 अब तो साहित्यकार अपने ऊपर शोध करवाने प्राध्यापकों को पुराने रिश्तों की याद दिला रहे हैं।

थिसिस जंचने आती है तो अर्द्ध विराम,पूर्ण विराम और वर्तनी देखने में ही समय नष्ट हो रहा है। वाक्य कहां से प्रारंभ है, कहां समाप्त शोधार्थी और गाइड जाने।

ऊपर से शीघ्र रिपोर्ट भेजने का दबाव। ऐसा लगता है थिसिस न होकर रामचरित मानस का पारायण हो गया हो। जिसे चौबीस घंटे में पूरा ही करना है।

मौखिकी आन लाइन हो रही है।न इधर सुनाई देता न उधर।सुनाई देता है तो 'क्षमा करियेगा , सुनाई नहीं देता।' बस।

ऐसे में साहित्यकारों को साधुवाद दूं, निदेशक को, निर्देशक को, गाइड को, शोधार्थी को , शोधकर्ता को या व्यवस्था को।

 उच्च शिक्षा विभाग को दोष देने का कोई कारण नहीं, क्योंकि साहब अभी 'भारतीय ज्ञान परम्परा ' में व्यस्त हैं।

Saturday, 19 October 2024

सम्पादकीय पांचजन्य

 

यह सम्पादकीय पांचजन्य की है। 

 (पांचजन्य से साभार ऐसे फेसबुक मित्रों और  विद्यार्थियों के लिए जिनके पास पांचजन्य नहीं आता या जो आनलाइन नहीं पढ़ पाते। विश्वास है संघ में अवगाहन करने का आनन्द उठा सकेंगे। रा स्वयंसेवक संघ अपने सौ वर्ष पूरा करने जा रहा है। ऐसे में हम सब वैचारिक विमर्श में अपना सहभाग कर सकते हैं। सादर)

संघ कार्य एक कठिन साधना

रा. स्व.संघ भारतीय समाज को उसकी जड़ों से जोड़ने और उसे जाग्रत करने की दिशा में कार्यरत है। संघ के स्वयंसेवक आज समाज के हर क्षेत्र में सक्रिय हैं, फिर चाहे वह शिक्षा हो, स्वास्थ्य हो, व्यापार हो या सामाजिक सेवा।

राष्ट्र सेवक की अवधारणा में निहित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा एक अनूठा उदाहरण है, जो व्यक्ति की आकांक्षा से जन्म लेकर सामाजिक जागरूकता और राष्ट्र निर्माण का माध्यम बनी है। संघ कार्य केवल संगठनात्मक कामकाज तक सीमित नहीं है, बल्कि एक गहन और कठिन साधना है।

संघ कार्य और विचार, सत्य पर आधारित हैं। किसी के विरोध अथवा द्वेष पर नहीं। संघ को समझना आसान भी है और असंभव भी। आप श्रद्धा, भक्तिभाव और पवित्र मन से जिज्ञासा लेकर आएंगे तो संघ को समझना आसान है, लेकिन यदि मन में किसी प्रकार का पूर्वाग्रह रखकर अथवा किसी उद्देश्य को लेकर आएंगे तो संघ समझ में नहीं आएगा।

संघ को सुनकर, पढ़कर समझना टेढ़ी खीर है। संगठन का बनना, चलना और इतने लंबे समय तक अपने ध्येय और स्वभाव को शाश्वत तौर पर साधे रहना कोई सामान्य बात नहीं है। यह सामान्य सांगठनिक क्रियाकलाप नहीं, बल्कि साधना की-सी स्थिति है। अन्य कोई संभवत: इस लंबी साधना में जड़ हो जाता, किन्तु यह अनूठी कार्यपद्धति है, जिसने संघ को चिरजीवंत बनाए रखा है।

संघ की स्थापना 27 सितंबर, 1925 को विजयादशमी के दिन नागपुर के महाल इलाके में डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार द्वारा की गई थी। डॉ. हेडगेवार ने अपने गहन चिंतन और राष्ट्र के प्रति समर्पित दृष्टिकोण से यह महसूस किया कि हिंदू समाज में फैले विभाजन और कमजोरी को दूर किए बिना राष्ट्र का पुनरुत्थान कर पाना संभव नहीं है। स्थानीय लोगों ने जब पहले-पहल इसे देखा तो उन्हें यह एक साधारण व्यायामशाला ही प्रतीत हुई। लोगों को लगा भी कि डॉक्टरी की पढ़ाई पढ़ने के बाद केशव जीने यह क्या किया है? किन्तु संघ स्थापना का उद्देश्य केवल शारीरिक शक्ति नहीं, बल्कि मानसिक और आध्यात्मिक रूप से सशक्त समाज का निर्माण करना था।

संघ की शुरुआत बड़े-बड़े लोगों की जगह छोटे-छोटे बाल स्वयंसेवकों के साथ हुई। सामाजिक एकता, सद्भाव और राष्ट्रभक्ति की भावना जाग्रत करने की संघ की यह दुरूह, संघर्षपूर्ण और दृढ़ संकल्पित यात्रा सतत जारी है।

आज जब संघ अपने शताब्दी वर्ष में प्रवेश कर रहा है तो सामाजिक परिवर्तन के इस वैचारिक सांगठनिक अभियान की विस्तृत यात्रा के आयामों को समझना बेहद आवश्यक है।

पाञ्चजन्यके पन्ने सदा ही संघ के अनूठेपन को आत्मीयता और तथ्यों के साथ समाज के सामने रखने का प्रामाणिक स्रोत रहे हैं। आने वाले पूरे वर्ष में संघ से जुड़ी बौद्धिक जिज्ञासा को शांत करने के लिए इस विषय में अधिकतम जानकारी देने का हमारा प्रयास रहेगा।

स्वतंत्रता संग्राम में रा. स्व. संघ की भूमिका को लेकर कई तरह की भ्रांतियां फैलाई गईं। संघ के आलोचक कभी नहीं चाहते कि स्वतंत्रता आंदोलन में संघ की भूमिका कभी समग्रता से देश और समाज के सामने आए या इस विषय में तथ्यों पर कभी खुलकर चर्चा हो, लेकिन तथ्य यह है कि डॉ. हेडगेवार ने स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रियता से भाग लिया था। ब्रिटिश सरकार ने उन्हें दो बार जेल भी भेजा। एक बार 1921 में और फिर 1930 में।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जब देश का विभाजन हुआ तो यह बेहद संघर्षपूर्ण समय था। उस समय संघ के स्वयंसेवकों ने लाखों लोगों की जान बचाई। शरणार्थियों की सहायता करने के लिए संघ ने करीब 3,000 राहत शिविर स्थापित किए थे। संघ के स्वयंसेवकों ने अपनी जान की परवाह न करते हुए बड़ी संख्या में लोगों को सुरक्षित स्थानों तक पहुंचाया था। गोवा मुक्ति संग्राम और भाग्यनगर सत्याग्रह भी स्वतंत्रता आंदोलन में संघ के योगदान को इंगित करने वाले महत्वपूर्ण अध्याय हैं।

1954 में संघ के स्वयंसेवकों ने दादरा और नगर हवेली को पुर्तगाली शासन से मुक्त करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। संघ के कार्यकर्ताओं ने देश की स्वतंत्रता के बाद भी सामाजिक और सांस्कृतिक पुनरुत्थान के लिए कई महत्वपूर्ण कदम उठाए। 1952 में वनवासी कल्याण आश्रम की स्थापना हुई, जो अब भारत के 52,000 गांवों में जनजातीय समुदायों के कल्याण के लिए कार्य कर रहा है।

क्षणिक राजनीति में समाज उलझे और लड़खड़ाए, इसकी बजाय राष्ट्रहित के दीर्घकालिक लक्ष्यों पर ध्यान केंद्रित करना संघ की कार्य और विचार पद्धति का स्वभाव है। उदाहरण के लिए, संघ ने अनुच्छेद-370 को हटाने की मांग 1950 के दशक से ही उठाई थी, जिसकी परिणति 2019 में इसके उन्मूलन के साथ हुई।

ऐसा कौन-सा सकारात्मक कार्य है जिसे संघ के स्वयंसेवक नहीं कर रहे हैं? समाज और जीवन के विविध क्षेत्रों में स्वयंसेवकों और संघ प्रेरित संगठनों ने निष्ठा, कर्मठता और संस्कारित शैली के माध्यम से अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है।

संघ का आनुषांगिक संगठन विद्या भारती आज देशभर में 20,000 से अधिक विद्यालयों का संचालन करता है। इन विद्यालयों में करीब 35 लाख छात्रों को शिक्षा दी जा रही है। संघ प्रेरणा से स्थापित अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (अभाविप) आज दुनिया का सबसे बड़ा छात्र संगठन है, जो 4,500 से अधिक नगरों, ग्रामों और कस्बों में सक्रिय है।

1983 में विश्व हिंदू परिषद (विहिप) ने अनुसूचित जातियों के उत्थान और सामाजिक समरसता के लिए समरसता मंच की स्थापना की थी। यह मंच जातिगत भेदभाव को समाप्त करने और समाज के सभी वर्गों के बीच समानता की भावना को बढ़ावा देने का कार्य कर रहा है। विहिप के प्रयासों से देशभर में कई धार्मिक और सामाजिक सुधार हुए हैं, जिनका उद्देश्य हिंदू समाज को एकजुट करना और इसके विभिन्न वर्गों के बीच सामंजस्य स्थापित करना है।

संघ ने कन्वर्जन को रोकने और जनजातीय समुदाय की पारंपरिक पहचान को अक्षुण्ण रखने के गहन प्रयास किए हैं। इसके परिणामस्वरूप ही कई राज्यों में कन्वर्जन विरोधी कानून पारित हुए हैं। संघ प्रेरित हिंदू स्वयंसेवक संघ (एचएसएस) 156 देशों में कार्यरत है, जो वैश्विक स्तर पर हिंदू समाज को संगठित और सशक्त बनाने का कार्य कर रहा है। संघ देश के भीतर और बाहर कई संकटों में राहत कार्य करता रहा है। किसी भी तरह की आपदा के दौरान संघ के स्वयंसेवक हमेशा सबसे पहले राहत पहुंचाने वाले होते हैं। फिर चाहे वह ओडिशा में आया सुपर साइक्लोन हो, भुज में आया भूकंप हो या चेन्नै में आई बाढ़।

संघ का कार्य केवल सामाजिक सेवा तक सीमित नहीं है, बल्कि इसका उद्देश्य राष्ट्रीय एकता और अखंडता को बढ़ावा देना भी है। राम जन्मभूमि आंदोलन संघ के सबसे महत्वपूर्ण आंदोलनों में से एक रहा है, जिसका परिणाम आज अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण के रूप में दिखाई दे रहा है। संघ स्वदेशीविचारधारा को भी प्रोत्साहित करने का कार्य करता है जो मेक इन इंडियाऔरवोकल फॉर लोकलजैसे अभियानों में प्रतिबिंबित होती है।

रा.स्व.संघ भारतीय समाज को उसकी जड़ों से जोड़ने और उसे जाग्रत करने की दिशा में कार्यरत है। संघ के स्वयंसेवक आज समाज के हर क्षेत्र में सक्रिय हैं, चाहे वह शिक्षा हो, स्वास्थ्य हो, व्यापार हो या सामाजिक सेवा। संघ ने यह प्रमाणित किया है कि जब समाज की सुप्त शक्तियों को जगाया जाता है, तो राष्ट्र निर्माण की दिशा में एक नई ऊर्जा का संचार होता है।

 

 

Friday, 18 October 2024

श्री नवग्रह स्तोत्रम्



जपाकुसुमसंकाशं काश्यपेयं महाद्युतिम्।
 तमोऽरिं सर्वपापघ्नं प्रणतोऽस्मि दिवाकरम् ॥१

 दधिशङ्खतुषाराभं क्षीरोदार्णवसम्भवम् । नमामि शशिनं सोमं शम्भोर्मुकुटभूषणम् ॥ २ ॥

 धरणीगर्भसम्भूतं विद्युत्कान्तिसमप्रभम्। 
कुमारं शक्तिहस्तं तं मङ्गलं प्रणमाम्यहम् ॥ ३ ॥

 प्रियङ्गुकलिकाश्यामं रूपेणाप्रतिमं बुधम् । सौम्यं सौम्यगुणोपेतं तं बुधं प्रणमाम्यहम् ॥ ४ ॥

 देवानां च ऋषीणां च गुरु काञ्चनसंनिभम्। बुद्धिभूतं त्रिलोकेशं तं नमामि बृहस्पतिम् ॥ ५ ॥

 हिमकुन्दमृणालाभं दैत्यानां परमं गुरुम् । सर्वशास्त्रप्रवक्तारं भार्गवं प्रणमाम्यहम् ॥ ६ ॥

 नीलाञ्जनसमाभासं रविपुत्रं यमाग्रजम् । छायामार्तण्डसम्भूतं तं नमामि शनैश्चरम् ॥ ७ ॥

 अर्धकायं महावीर्य चन्द्रादित्यविमर्दनम् । सिंहिकागर्भसम्भूतं तं राहुं प्रणमाम्यहम् ॥ ८ ॥

 पलाशपुष्पसंकाशं तारकाग्रहमस्तकम् ।
 रौद्रं रौद्रात्मकं घोरं तं केतुं प्रणमाम्यहम् ॥ ९ ॥

॥ महर्षिव्यासविरचितं नवग्रहस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥