''विद्यया देवलो•ा: अर्थात विद्या से देवलो• मिलता है।- बृउ.1.5.16
''विद्यया तदारोहन्तिÓ अर्थात विद्या ऊपर उठाती है। बृउ.1.5.
'•र्मणा पितृलो•ाÓ अर्थात •र्म से पितृलो• मिलता है।- ईष.9
•ुण्डलनी जागरण यानी तेजोऽस्मि
श्वेताश्वतरोपानिषद •हता है- ''यदाऽऽत्मतत्वेन तु ब्रह्मतत्वं दोपोपमेनेह युक्त: प्रपष्यते।
अजं धु्रवं सर्वतत्वैविशुद्वं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाषै:।।
ईश्वर •ैसे मिलेगा- ''नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुनाश्रुतेनÓÓ (मुण्ड•ो.)
अथ योगानुशासनम् -परम्परागत योगविषय• शास्त्र •ी चर्चा •रते हैं।
योगश्चित्तिवृत्तिनिरोध:- चित्त •ी वृत्तियों •ा निरोध योग है। अर्थात चित्त •ी वृत्तियों •ा सर्वथा रु• जाना योग है। यह स्थिति •ब आती है ? ''तदा द्रष्टु:स्वरूपेऽवस्थानम।ÓÓ जब चित्त •ी वृत्तियों •ा पूर्ण निरोध हो जाता है, उस समय द्रष्टा (आत्मा) अपने स्वरूप में स्थिति हो जाती है; अर्थात •ेवल्य अवस्था •ो प्राप्त हो जाता है। चित्त वृत्तियाँ-
वैसे तो चित्त वृत्तियाँ असंख्य हैं •िन्तु मोटे तोर पर उन्हें पाँच प्र•ार से बाँटा जा स•ता है।
चित्त वृत्तियाँ पाँच हैं-
''प्रमाणविपर्ययवि•ल्पनिद्रास्मृतय:ÓÓ (1) प्रमाण (2) विपर्यय (3) वि•ल्प, (4)निद्रा- स्वप्न (5) स्मृति। यह सभी वृत्तियाँ दो प्र•ार •ी होती हैं- ''वृत्तय:पंचतय: क्लिष्टाक्लिष्टा ÓÓ। क्लिष्ट अर्थात अविद्या आदि क्लेषों •ो पुष्ट •रने वाली और योगसाधना में विघ्नरूप होती हैं। अक्लिष्ट-क्लेशों •ो क्षय •रने वाली और योगसाधन में सहाय• होती हैं।
विपर्यय-'विपर्ययोंमिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठमÓ।।
'तत:क्लेष•र्मनिवृतिÓ।
वि•ल्प- 'शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो वि•ल्पÓ। अर्थात जैसे •ोई मनुष्य भगवान •े रूप •ा ध्यान •रता है पर जिस रूप •ा ध्यान •रता है उसे न तो उसने देखा है, न वेद-शास्त्र सम्मत है, और न ही वह भगवान •ा वास्तवि• स्वरुप है •ेवल •ल्पना मात्र है वि•ल्प है।
निद्रा- 'अभावप्रत्ययालम्बना वृत्तिर्निद्राÓ- ज्ञान •े अभाव •ा ज्ञान जिस चित्तवृति •े आश्रित रहता है, वह निद्रावृत्ति है।ÓÓ निद्रा भी चित्त •ी वृत्तिविशेष है। •ई दर्शन•ार निद्रा •ो वृत्ति नही मानते, इसे सुषुप्ति अन्तर्गत मानते हैं। गीता में आया है-
युक्ताहार विहारस्य युक्तचेष्टस्य •र्मसु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दु:खहा।।
स्मृति- अनुभूतिविषयासम्प्रमोष: स्मृति:-
चितवृत्तियों •ा निरोध- योगी •हता है 'अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोध:Ó।
गीता •हती है- 'अभ्यासेन तु •ौन्तेय वैराग्येण च गृहयतेÓ (6.35)। चित्तवृत्तियों •े निरोध •े दो प्र•ार हैं-अभ्यास और वैराग्य।
अभ्यास क्या है-'तत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यासÓ अर्थात जो स्वभाव से चंचल है
गीता •हती है- 'स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसाÓ। योग •ा अभ्यास बिना उ•ताये बिना समय सीमा •े निश्चित •िये निष्ठापूर्व• •रते रहना है।
वैराग्य क्या है-
'दृष्टानुश्रवि•विषयवितृष्णस्य वशी•ारसंज्ञा वैराग्यमÓ। यहाँ दो शब्द हैं, दृष्टा और अनुश्रवि• । विषयों में सर्वथा तृष्णारहित चित •ी जो वशी•ार नाम• अवस्था है, वह वैराग्य (तत्परमं पुरुषख्यातेर्गुणवैतृष्ण्यम) है।
(यदाहिनेन्द्रियार्थेषु न •र्मस्वनुषज्जते, सर्वसं•ल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते)
सिद्धि क्या है - ''श्रद्वावीर्यस्मृतिसमाधिप्रज्ञापूर्व•:Ó। श्रद्वा, वीर्य, स्मृति, समाधि और प्रज्ञापूर्व•, (•्रम) से सिद्धि प्राप्त होती है।Ó
'श्रद्वावान लभते ज्ञानं तत्पर: संयतेन्द्रिय:।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिभचिरेणधिगच्छतिÓ।। (4/39,गीता)
सिद्धि प्राप्त •रने हेतु योगी •ो अभ्यास और वैराग्य में तीव्रता लानी होती है।
ईश्वर •ौन है -
'क्लेश•र्मविपा•ाशयैरपरामृष्ट: पुरुषविशेष ईश्वर:Ó। क्लेश, •र्म, विपा• और आशय से जो (अपरामृष्ठ) है, असम्बद्व है, वह ईश्वर है। ईश्वर ज्ञान वैर यश, ऐश्वर्य •ी परा•ाष्ठा है। क्या ईश्वर इस •ारण से मिलता है ? 'नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुनाश्रुतेन।Ó(मुण्ड.) ईश्वर स्वयं अनादि है क्यों•ि वह सब •े आदि है (योग,10-2-3) वह •ालातीत है। उस•ा वाच• 'प्रणवÓ है। 'तस्य वाच•: प्रणव:Ó (प्रणव ऊँ•ार है) (प्रश्नोपनिषद में पाँचवे प्रश्नोत्तर में और माण्डूक्योपनिषद में ऊँ•ार •ी उपासना •ा विषय विस्तार से है) ऊँ, परमेश्वर •ा वेदोक्त नाम है (गीता-17-23, •ठो.1/2/15-17) साध• •ो ईश्वर •े नाम •ा जप और उस•े स्वरूप •ा स्मरण चिन्तन •रना चाहिए। महर्षि शाण्डिल्य ने •हा है- ''सा परानुरक्त्रिीश्वरेÓÓ। देवर्षि नारद ने भक्तिसूत्र में •हा है- 'सात्वस्मिन परमप्रेमरूपा चÓ। अर्थात उस परमेश्वर में अतिशय प्रेमरूपता ही भक्ति है। यह अमृत स्वरूपा है-'अमृतस्वरूपा चÓ। ईश्वर •ी भक्ति में आयु, रूप आदि •ा •ोई अर्थ नही होता है-
''व्याधस्याचरणं धुवस्य च वयो विद्या गजेन्दस्य •ा
•ा जातिर्विदुरस्य यादवपतेरुप्रस्य •िं पौरषम्।
•ुव्जाया: •ामनीरूपमधि•ं •िं तत्सुदाम्नो धनं
भक्त्या तुश्यति •ेवलं न च गुणैर्भक्ति प्रियो माधव:।।
श्रीमद्भागवत में प्रहलाद ने •हा है-
'श्रवणं •ीर्तनं विष्णों: स्मरणं् पादसेवनम।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनमÓ।।(7/5/23)
ऋतम्भरा बुद्वि •े प्र•ट होने पर साध• •ो प्र•ृति •े यथार्थ रूप •ा भान हो जाता है तब उसे वैराग्य होता है।
''तस्यापि निरोधे सर्वनिरोधान्निर्बीज: समाधि:।ÓÓ
क्लेश क्या है- 'अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेषा: क्लेषा:ÓÓ। अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश ये पाँच क्लेश •हलाते हैं।
अविद्या जिन•ा •ारण हैं- ''अविद्या क्षेत्रमुत्तरेशां प्रसुप्ततनुविच्छिन्नोद्वाराणामÓ।
अविद्या क्या है- ''अनित्याशुचिदु:खानात्मसु नित्यशुचि सुखात्मख्यातिरविद्याÓ। अनित्य, अपवित्र, दु:ख और अनात्मा में नित्य, पवित्र, सुख और आत्मा •ा आत्मभाव •ी अनुभूति 'अविद्याÓ है।
अस्मिता क्या है- ''दृगदर्शन शक्त्योरे•ात्मतेवास्मिताÓÓ। अविद्या •े नाश होने से 'अस्मिताÓ •ा नाश होता है।
राग क्या है- 'सुखानुशयी राग:Ó। सुख •ी प्रतीत •े पीछे रहने वाला क्लेष 'रागÓ है।
द्वेष क्या है- 'दु:खानुशयी द्वेषÓ। दु:ख •ी प्रतीत •े पीछे रहने वाला क्लेश 'द्वेषÓ है।
क्लेशों •ी स्थूल वृत्तियों •ो 'ध्यानहेयास्तदृवत्तय:Ó द्वारा सूक्ष्म बना दिया जाता है।
दु:ख •े रूप- परिणाम दु:ख, ताप दु:ख, संस्•ार दु:ख, गुणवृत्ति विरोध सब में विद्यमान रहते हैं।
अष्टांग योग
'यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टवगांनि।।Ó
इनमें पाँच वहिरंग हैं जो इस प्र•ार हैं-
(1) यम 'अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमा:Ó
(•) अहिंसा - अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्याग:।
(ख) सत्य- सत्यप्रतिष्ठायां •्रियाफलाश्रयत्वमÓ।
(ग) अस्तेय- 'अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानमÓÓ।
(घ) ब्रह््मचर्य- 'ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां वीर्यालाभ:Ó।
मन, वाणी और शरीर से होनवाले सब प्र•ार •े मैथुनों •ी सब अवस्थाओं में सदा त्याग •र•े सब प्र•ार से वीर्य •ी रक्षा •रना 'ब्रह्मचर्यÓ हैं । ''•र्मणा मनसा वाचा सर्वावस्थासु सर्वदा।
सर्वत्र मैथुनत्यागी ब्रह्मचर्य प्रचक्षतेÓÓ।। (गरुण.पूर्व.आचार 238.6)
(ड) अपरिग्रह- अपरिग्रहस्थैर्ये जन्म•थन्तासंबोध:।
(2) नियम- ''शौचसंतोषतप:स्वाध्यायेश्वरप्राणिधानानि नियमा:ÓÓ।
'नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुनाश्रुतेन।Ó (मुण्ड.)
भारतीय दर्शन में परम ब्रह्म अक्षर है - अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभवोऽध्यात्ममुच्यते। भूतभावोद्भव•रो विसर्ग: •र्मसंज्ञित:। (8,3)
गीता •हती है-
सहस्त्रयुगपर्यन्तमहृर्यद ब्रह्मणो बिन्दु:।
रात्रिं युगसहस्त्रन्तां तेऽहोरात्रविदो जना:।
अव्यक्ताद्व्यक्तय: सर्वा प्रभवन्त्यहरागमे।
रान्न्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्त संज्ञ•े।।
भूतग्राम: स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते।
रान्न्यागमेऽवश: पार्थ प्रभवन्त्यहरागमे।।
परस्तस्मातु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातन:।
य: स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति।।
अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहु: परमां गतिम।
यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्वाम परमं मम।।
(अर्थात)
ऊँॅ विष्णुर्विष्णुविष्णु:। ऊँ नम: परमात्मने श्री पुराणपुरुषोत्तमस्य श्रीविष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्याद्य श्रीब्रह््मणों द्वितीय परार्द्धे श्री श्वेतवाराह•ल्पे वैवस्वतमन्वन्तरेऽष्टाविंशतितमें •लियुगे प्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे आर्यावर्ते आर्यावर्तान्तर्गत ब्रह्मावर्तै•देशे बौद्धावतारे अमु•नाम संवत्सरे अमु•ायने (उत्तरायणे/दक्षिणायने) महामांगल्यप्रदे मासानां मासोत्तमें अमु• मासे अमु•पक्षे (शुक्लपक्षे/•ृष्णपक्षे) अमु• तिथौ अमु• वासरान्वितायां अमु• नक्षत्रै अमु• राषिस्थिते सूर्ये अमु•राषिस्थिते चन्द्रे अमु•राषिस्थिते भौमें अमु•राषिस्थिते बुधे अमु•राषिस्थिते गुरौ अमु•राषिस्थिते शु•्रे अमु•राषिस्थिते शनौ सत्सु शुुभे योगे शुभ•रणे एवं गुणविशेष विशिष्टायां शुुभ पुण्यतिथौ स•लशास्त्रश्रुतिस्मृतपुराणोक्त फलप्राप्ति•ाम: अमुे•ोऽहं ममात्मन: सपुत्रस्त्रीबान्धवस्य श्रीनवदुर्गानुग्रहतो ग्रह•ृतिराज•ृतसर्वाविधपीड़ानिवृतिपूर्व•ं नैरुज्यदीर्घायु: पुष्टिधनधान्यसृद्व्यर्थं सर्वापन्निवृति सर्वाभीष्टफलावाप्ति धर्मार्थ•ाममोक्षचतुर्विधपुरुषार्थ द्वारा अमु• (राष्ट्र) देवताप्रीत्यर्थं पूजनपूर्व•ं सं•ल्पं (अमु• •र्मं) •रिष्ये।
परमसत्ता •ी अवधारणा वेद •े साथ चलती हैं। नासदीय सूक्त में अध्याय दस में श्लो• आता है -
नासदासीन्नोसदासीतदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत।
•िमावरीव: •ुह •स्य शर्मन्नम्भ: •िमासीद गहनं गभीरम।।
यथा-
•ो, अद्वा वेद • इह प्रवोचत् •ुत आजाता •ुत इयं विसृष्टि:।
अर्वाग् देवा अस्य विसर्जनेनाथ •ो वेद यत आवभूव।। (1,128,6)
इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न।
यो अस्याध्यक्ष: परमे व्योमन्त्सो अंग वेद यदि वा न वेद।।
मुण्ड•ोपनिषद में •हा है- 'नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुनाश्रुतेनÓ अर्थात आत्मज्ञान •ेवल तीव्र इच्छा शक्ति से ही प्राप्त •िया जा स•ता है। यथा-
'मंत्र मूलं गुरुर्वाक्यं, पूजा मूलं गुरु:पदम्। ध्यान मूलं गुरु:मूर्ति, मोक्ष मूलं गुरु: •ृपा।।Ó
सत चेतना हेतु पातंजलि योग दर्शन में •हा है-
''सत्वपुरुषान्यताख्यातिमात्रस्य सर्वभावाधिष्ठातृत्वं सर्वज्ञातृत्वं चÓÓ (3-49)
•ठोपनिषद में •हा है- 'उतिष्ठत जाग्रत प्राप्यवरान्निवोधतÓ। क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्या। दुर्गं पंथस्य•वयो वदन्ति।
गीता में श्री•ृष्ण •हते हैं- 'सर्वधर्म परितज्यान मामे•म शरणं ब्रजÓ। अहं त्वाम सर्वपापेभ्यो मा शुच:। मैत्रेयोपनिषद में •हा गया है •ि साध• छ: माह में आत्मसाक्षात•ार •र स•ता है।
ऐतरेयोपनिषद में •हा है- 'स येतमेव सीमानं विदार्यैतया द्वारा प्रापद्यत। सैषा विदृतिर्नाम द्वास्तदेतन्नान्दम।।
इस•े अनुसार गर्भस्थ रूप में जीवात्मा सातवें महीने •पाल •े बीच तालु से प्रवेश •रती है, पहले यह •ोमल होता है बाद में •ठोर हो जाता है।
सुबालोपनिषद में •हा गया है- 'स्थानानि, स्थानिभ्यों यच्छति नाड़ी तेषां निबन्धनमÓÓ ।
उसे यह बोध हो जाता है •ि- 'मैं यह शरीर नही, बल्•ि यह शरीर मेरा हैÓ गीता में •हा गया है- 'देहोस्मिनाहं मम् देह इति स्मरÓ।
भगवान •ृष्ण •हते हैं- ''•ायेन मनसा बुद्धया •ेवलैरिन्द्रियैरति। योगिन: •र्म •ुर्वन्ति संगंत्यक्त्वात्मशुुद्वये। अर्थात आत्मज्ञानी •भी अपने •र्मों •ा निर्वाह •म नही •रता।
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