Sunday, 14 January 2024

लोक के राम

 

                                                                       लोक के राम :   श्रीरामपूर्वतापनीयोपनिषद में कहा गया है कि जब ॐश्रीहरि दशरथ जी के यहाँ अवतीर्ण हुए, उस समय उनका नाम ‘राम’ हुआ। विद्वानों ने लोक में ‘राम’ शब्द के अर्थ की व्युत्पत्ति इस प्रकार है-‘ जो महीतलपर स्थित होकर भक्तजनों का सम्पूर्ण मनोरथ पूर्ण करते और राजा के रूप में सुशोभित होते हैं, ओ राम हैं।’ (राति राजते वा महीस्थित: सन इतिराम:) इस विग्रह के अनुसार ‘राति’ या ‘राजते’ का प्रथम अक्षर ‘रा’ और ‘महीस्थित:’ का आदि अक्षर ‘म’ लेकर ‘राम’ बनाता है।  

              इसी तरह ‘राम’ नाम को लेकर लोक में अनेक सन्दर्भ हैं । राम भगवान विष्णु के अवतार हैं। वे अभिराम होने से राम हैं। राक्षस जिनके द्वारा मरण को प्राप्त होते है, वे राम हैं । जैसे राहू मनसिज (चन्द्रमा ) को हतप्रभ कर देता है, उसी प्रकार जो राक्षसों को मनुष्य रूप में रहकर प्रभाहीन (निष्प्रभ) कर देते है, वे राम हैं । अथवा जो महीपालों को अपने आदर्श चरित्र के द्वारा धर्ममार्ग का उपदेश देते हैं वे राम हैं ।  जो नामोच्चारण करने पर ज्ञानमार्ग की प्राप्ति कराते हैं, ध्यान करने पर वैराग्य देते हैं और अपने विग्रह की पूजा करने पर ऐश्र्वर्य देते है, इसलिए वे लोक में (भूतल पर) राम हैं । इन सब विशेषताओं/ गुणों को समाटे जो लोक में ही नहीं ज्ञानी और विज्ञानियों के लिए भी अनंत, नित्यानन्दस्वरुप, चिन्मय ब्रह्म हैं और योगीजन जिनमें रमण करते हैं, वे परब्रह्म परमात्मा ही ‘राम’ हैं ।

              शास्त्रीय व्याख्या में रम्धातु में घञ्प्रत्यय के योग से ‘रामशब्द निष्पन्न होता है। रम्धातु का अर्थ रमण (निवास, विहार) करने से संबद्ध है। वे प्राणिमात्र के हृदय में रमण’ (निवास) करते हैं, इसलिए रामहैं, तथा भक्तजन उनमें रमणकरते (ध्यान निष्ठ होते) हैं, इसलिए भी वे रामहैं - रमते कणे कणे इतिराम:। आद्य शंकराचार्य ने पद्मपुराणका उदाहरण देते हुए कहा है कि नित्यानन्दस्वरूप भगवान् में योगिजन रमण करते हैं, इसलिए वे रामहैं। राम को राष्ट्र का प्रतीक मानते हुए संतों की परंपरा में राअर्थात् राष्ट्र और अर्थात् मंगल। यानी राम राष्ट्र के मंगल (कल्याण) के प्रतीक हैं।

               श्रीराम का जन्म त्रेतायुग में चैत्रेनावमिकेतिथौ।। नक्षत्रेऽदिति दैवत्येस्वोच्चसंस्थेषुपञ्चसु। ग्रहेषु कर्कटेलग्नेवाहस्पता विन्दुनासह।।अर्थात् चैत्र मास की नवमी तिथि में पुनर्वसु नक्षत्र में, पांच ग्रहों के अपने उच्च स्थान में रहने पर तथा कर्क लग्न में चन्द्रमा के साथ बृहस्पति के स्थित होने पर रामजी का जन्म देवी कौशल्या के गर्भ से अयोध्या में हुआ था। श्रीराम जी चारों भाइयों में सबसे बड़े थे। हर वर्ष चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को श्रीराम जयंती या रामनवमी का पर्व मनाया जाता है।

              भारत में श्रीराम भारतीय संस्कृति के शिखर पुरुष और आदर्श हैं। विश्व के अनेक देशों जैसे-थाईलैंड, इंडोनेसिया, मॉरीशस आदि में भी श्रीराम पूर्वज रूप में मान्य हैं। इन्हें पुरुषोत्तम शब्द से भी अलंकृत किया जाता है। श्रीराम ने मर्यादा-पालन और लोक कल्याण के लिए राज्य, मित्र, माता-पिता, कुटुम्ब का भी परित्याग किया। राम रघुकुल में जन्मे थे, जिसकी परंपरा रघुकुल रीति सदा चलि आई। प्राण जाई पर बचन न जाई।की थी। राम के पिता दशरथ ने राम की सौतेली माता कैकेयी को दो वचन (वरदान) दिये थे। कैकेयी ने राजा दशरथ से अपने पुत्र भरत के लिए अयोध्या का राज सिंहासन और राम के लिए चौदह वर्ष का वनवास मांगा। पिता के वचन की रक्षा के लिए राम ने खुशी से चौदह वर्ष का वनवास स्वीकार किया। पत्नी सीता ने आदर्श पत्नी का उदाहरण देते हुए, पति के साथ वन जाना उचित समझा। लक्ष्मण ने भी आदर्श भ्राता के रूप में राम के साथ चौदह वर्ष वन में बिताए। भरत ने न्याय के लिए माता का आदेश ठुकराया और बड़े भाई राम के पास वन जाकर उनकी चरण पादुकाएँ ले आए, जिन्हें ही राज गद्दी पर रखकर राजकाज किया। वनवासी अवधि में ही पत्नी सीता को रावण हरण करले गया। जंगल में राम को सुग्रीव जैसा मित्र और भक्त मिला, जिसने राम के सारे कार्य पूरे कराये। राम  की विशेषता रही है कि उनके संपर्क में आनेवाले छोटे से छोटे व्यक्ति का सहयोग लिया। भारतीय वैज्ञानिकता का उपयोग करते हुए राम समुद्र में पुल बना कर लंका पहुँचे, और रावण का बध कर सीता जी को वापस ले कर अयोध्या आये। राम के अयोध्या लौटने पर भरत ने आदर्श का पालन करते हुए राज्य राम को ही सौंप दिया। राम न्याय प्रिय थे। उन्होंने शासन का एक ऐसा आदर्श सुराज स्थपित किया जिसे लोग आज भी रामराज्यकी उपमा देते हैं। भारतीय परंपरा के कई त्योहार, जैसे-दशहरा, रामनवमी  और दीपावली राम की वन-कथा से जुड़े हुए हैं तथा जीवन संघर्ष हेतु प्रेरणा देते हैं। राम शब्द का मनन (निश्चय) और त्रारण(रक्षा) करने के कारण वह मन्त्र बन गया है।

               लोक में राम का एक दरवार है जो इस प्रकार मिलता है- कौसल्यानन्दन श्रीराम अपनी प्रकृति-ह्लादिनीशक्ति श्रीसीताजी के साथ विराजमान हैं । उनका वर्ण श्याम है। वे पीताम्बर धारण किये हुए हैं। उनके सिरपर जटाभार सुशोभित है। उनके दो भुजाएँ हैं। कानों में कुण्डल शोभा पा रहे हैं। गले में रत्नों की माला चमक रही है। वे स्वभावतः धीर (निर्भय एवं गम्भीर) हैं। धनुष धारण किये हुए हैं। उनके मुखपर सदा प्रसन्नता छायी रहती है। वे संग्राम में सदा ही विजयी होते हैं। अणिमा आदि आठ ऐश्वर्यशक्तियाँ उनकी शोभा बढ़ाती हैं। इस जगत की कारणभूता मूल प्रकृतिरूपा परमेश्वरी सीता उनके वाम अंग को विभूषित कर रही हैं। सीताजी के श्रीअंगों की कान्ति सुवर्ण के सदृश गौर है। उनके भी दो भुजाएँ हैं। वे समस्त दिव्य आभूषणों से विभूषित हैं तथा हाथ में कमल धारण किये हुए हैं। उन चिदानन्दमयी सीता से सटकर बैठे हुए भगवान् श्रीराम बड़े हृष्ट-पुष्ट दिखायी देते हैं । दक्षिण भाग में श्रीरघुनाथ जी के छोटे भाई सुवर्ण-गौर कान्तिवाले श्रीलक्ष्मण जी हाथ में धनुष-बाण लिये खड़े हैं।  



Saturday, 13 January 2024

राम की व्याप्ति और विस्तार

राम की व्याप्ति और विस्तार: राम के परिचय का आधार ‘रामकथा’ हमारी स्मृति का अनिवार्य हिस्सा है। भारतीय संस्कृति और जन-मन की आन्तरिक संरचना के ताने-बाने को रचने में ‘रामकथा’ की भूमिका सर्वाधिक है। मानवीय चेतना के उदात्त-मूल्यों का सृजन ‘रामकथा’ के मूल में है।

 बाज़ारवादी और उपभोक्तावादी अमानवीय मूल्यों के वर्तमान दौर में शाश्वत मानवीय मूल्यों की भारतीय छवि को इस कथा ने निरूपित किया है। इसी रूप में इस कथा की कालजयता भी सिद्ध होती है। ‘रामकथा’ में निबद्ध संवेदना ‘औपनिवेशिक आधुनिकता’ के समानान्तर भारतीयता के मूल स्वत्वों का विस्तार करती है। समय के बदलावों में इस कथा की शक्ति कभी क्षीण नहीं हुई। ‘राम’ की कथा-संस्कृति की यह व्यापकता ही है कि इतिहास के परिवर्तन के साथ इस कथा का विस्तार होता चला गया। ‘राम’ ने अपने जीवन से लोक की संवेदना को समृद्ध किया तो लोक ने ‘रामकथा’ को युगानुरूप विकसित भी किया। राम से अधिक राम के नाम की महिमा है। तुलसीदास कहते हैं, ‘राम एक तापस तिय तारी। नाम कोटि खल कुमति सुधारी।।’

 राम को जानने का मूल आधार वाल्मीकि कृत ‘रामायण’ संस्कृत भाषा की अनुपम कृति है। यह राम का परिचय कराने वाली आदि रचना है। आदि कवि वाल्मिकि के ‘रामायण’ के बाद ही साहित्य और समाज में राम का परिचय आया। संस्कृत के साथ अन्य भारतीय भाषाओं में इस रामायण को स्रोत रूप में ग्रहण किया गया। काव्य, नाटक, कथा और अन्य साहित्यिक विधाओं में ‘रामायण’ को आधार बनाकर विपुल साहित्य का सृजन हुआ।

 राम के जीवन पर शोध करने वाले कामिल बुल्के अपने शोध ग्रन्थ ‘रामकथा’ में लिखते हैं, ‘रामकथा अनेक रूपधारण करते हुए शनै:-शनै: संपूर्ण भारतीय-संस्कृति में व्याप्त हो गयी है। उसकी अद्वितीय लोक प्रियता निरन्तर अक्षुण्ण ही नहीं वरन् शतादियों तक झलक मिलती है। इन कृतियों में ‘भुशुण्डिरामायण’, ‘योगवसिष्ठ’, ‘अध्यात्मरामायण’, ‘अद्भुत्रामायण’, ‘आनन्द -रामायण’, प्रमुख हैं।’

 वेदोत्तर काल में रामायण, उपनिषद् और बौद्ध, जैन साहित्य में भी रामकथा व्याप्त है। भारतीय दृष्टि से बौद्ध परम्परा में श्रीराम से संबंधित दशरथजातक, अनामकजातक तथा दशरथकथानक नामक तीन जातक कथाएँ उपलब्ध हैं। जैनसाहित्य में रामकथा सम्बन्धी कई ग्रंथ लिखे गये, जिनमें मुख्य हैं- विमलसूरिकृत ‘पउमचरियं’ (प्राकृत), आचार्य रविशेणकृत ‘पद्मपुराण’ (संस्कृत), स्वयंभू कृत ‘पउमचरिउ’ (अपभ्रंश), रामचंद्र चरित्रपुराण तथा गुणभद्र कृत उत्तरपुराण (संस्कृत)। परमार भोज ने भी ‘चंपुरामायण’ की रचना की थी।
 कालान्तर में पुराणों में राम के जीवन वृत्त में अवतारवाद को विशेष महत्त्व मिला। पुराणों में राम को विष्णु का अवतार माना गया। ‘राम’ का जीवन हमारे संवेगों को अधिक प्रभावित करता हैं। कुबेरनाथराय ‘रामायणमहातीर्थम्’ नामक पुस्तक में लिखते हैं, ‘श्रीराम भारतीय परंपरा में सर्वाधिक व्यापक और संकल्प-संवेग-संपन्न नायक हैं। भारतीय परंपरा पूरे एक समाज के सामने आती है और वह समाज भारत के आज के मानचित्र से ज्यादा व्यापक  है। वे लिखते हैं - “वह वंक्षुधारा से लेकर पूर्वीद्वीप समूह तक के संपूर्ण मनोमय भारत से है। यानी ‘सेरेहिन्दी’, ‘लघुहिन्दी’, ‘हिन्दखास’ एवं ‘हिन्देशिया’ के साथ-साथ महाचीन-तिब्बत तक। इस समूचे विशाल भूखण्ड में कुरतन (खोतान) से ले कर कम्पूचिया तक राम कथा के भिन्न-भिन्न संस्करण पाये जाते हैं। 


इस प्रकार इस बहुरूपी विस्तार से इसकी आन्तरिक ऋद्धि तो समृद्धतर हुई ही है, यह तथ्य इस बात का भी संकेत देता है कि राम का वास्तविक इतिहास है।’’

 तात्पर्य यह कि भारतीय भाषाओं में राम का विचार करते ही सबसे पहले ध्यान में आता है कि राम के चरित के विभिन्न आयामों का कवियों ने जिस आधार पर वर्णन किया, उसे रामायण या रामोपाख्यान कहा गया। आज की स्थिति में रामाकथा पर आधारित ग्रंथ तीन सौ से लेकर तीन हजार तक की संख्या में विविध रूपों में मिलते हैं। श्रीराम का चरित वाल्मीकीय रामायण के बाद व्यास रचित महाभारत में भी ‘रामोपाख्यान’ के रूप में आरण्यक पर्व (वनपर्व) में प्राप्त होता है। इसकेअतिरिक्त ‘द्रोणपर्व’तथा‘शांतिपर्व’ में भी राम के सन्दर्भ उपलब्ध हैं।

 राम के वृत्त ग्रंथ संस्कृत और हिन्दीतर भारतीय भाषाओं में जैसे- मराठी, बांग्ला, तमिल, तेलुगु तथा उडिय़ा, गुजराती, कन्नड़, मलयालम, असमिया, उर्दू, आदि में मिलते हैं। गोस्वामी तुलसीदास कृत ‘रामचरितमानस’ में न केवल उत्तर भारत में विशेष स्थान पाया है, बल्कि इस ग्रंथ ने विश्व के कोने-कोने में श्रीराम के चरित को पहुँचाया है। भगवान भोलनाथ आदिदेव महादेव से प्रारंभ होकर यह राम का चरित, महर्षि नारद, लोमश, यज्ञवल्क्य, कागभुशुण्डि, महाकवि कालिदास, भट्ट, प्रवरसेन, क्षेमेन्द्र, भवभूति, राजशेखर, कुमारदास, विश्वनाथ, सोमदेव, समर्थ रामदास, संत तुकड़ोजी महाराज, केशवदास, सूरदास, स्वामी करपात्री, मैथिलीशरण गुप्त, आदि ऋषियों-मुनियों, संतों, आचार्यों और कवियों ने अलग-अलग भाषाओं में राम को जन-जन तक पहुँचाया है। अकबर की अनुमति से अब्दुल रहीम खानखाना के लिए रामायण की एक प्रति तैयार की गई। शाहजहाँ के पुत्र दारा शिकोह ने भी रामायण का फारसी में स्वयं अनुवाद किया था।

 विदेशों में भी तिब्बती रामायण, पूर्वी तुर्किस्तान की खोतानी रामायण, इंडोनेशिया की कबिन रामायण, जावा का सेरतराम,सैरीराम,पातानी रामकथा, इण्डो चायना की रामकेर्ति (रामकीर्ति), खमैर रामायण, बर्मा (म्यांम्मार) की यूतोकी रामयान, थाईलैंड की रामकियेन आदि रामचरित्र का व्यापक बखान करती है। इसके अलावा विद्वानों का ऐसा भी मानना है कि ग्रीस के कवि होमर का प्राचीन काव्य इलियड, रोम के कवि नोनस की कृति डायोनीशिया तथा रामायण की कथा में अद्भुत समानता है। विश्व साहित्य में इतने विशाल एवं विस्तृत रूप से विभिन्न देशों में विभिन्न कवियों / लेखकों द्वारा राम के अतिरिक्त किसी और चरित्र का इतनी श्रद्धा से वर्णन नही किया गया। तात्पर्य यह कि श्रीराम का प्रभाव भारत में ही नहीं अपितु विश्व भर में व्याप्त है।(क्रमशः)

Saturday, 6 January 2024

KUNDALINI JAGARAN

  

''विद्यया देवलो•ा: अर्थात विद्या से देवलो•  मिलता है।- बृउ.1.5.16

''विद्यया तदारोहन्तिÓ अर्थात विद्या ऊपर उठाती है। बृउ.1.5.

'•र्मणा पितृलो•ाÓ अर्थात •र्म से पितृलो• मिलता है।- ईष.9


•ुण्डलनी जागरण यानी तेजोऽस्मि

श्वेताश्वतरोपानिषद •हता है- ''यदाऽऽत्मतत्वेन तु ब्रह्मतत्वं दोपोपमेनेह युक्त: प्रपष्यते।

अजं धु्रवं सर्वतत्वैविशुद्वं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाषै:।।

ईश्वर •ैसे मिलेगा- ''नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुनाश्रुतेनÓÓ (मुण्ड•ो.)

अथ योगानुशासनम् -परम्परागत योगविषय• शास्त्र •ी चर्चा •रते हैं।

योगश्चित्तिवृत्तिनिरोध:- चित्त •ी वृत्तियों •ा निरोध योग है। अर्थात चित्त •ी वृत्तियों •ा सर्वथा रु• जाना योग है। यह स्थिति •ब आती है ? ''तदा द्रष्टु:स्वरूपेऽवस्थानम।ÓÓ जब चित्त •ी वृत्तियों •ा पूर्ण निरोध हो जाता है, उस समय द्रष्टा (आत्मा) अपने स्वरूप में स्थिति हो जाती है; अर्थात •ेवल्य अवस्था •ो प्राप्त हो जाता है। चित्त वृत्तियाँ-

वैसे तो चित्त वृत्तियाँ असंख्य हैं •िन्तु मोटे तोर पर उन्हें पाँच प्र•ार से बाँटा जा स•ता है। 

चित्त वृत्तियाँ पाँच हैं- 

''प्रमाणविपर्ययवि•ल्पनिद्रास्मृतय:ÓÓ (1) प्रमाण (2) विपर्यय (3) वि•ल्प, (4)निद्रा- स्वप्न (5) स्मृति। यह सभी वृत्तियाँ दो प्र•ार •ी होती हैं- ''वृत्तय:पंचतय: क्लिष्टाक्लिष्टा ÓÓ। क्लिष्ट अर्थात अविद्या आदि क्लेषों •ो पुष्ट •रने वाली और योगसाधना में विघ्नरूप होती हैं। अक्लिष्ट-क्लेशों •ो क्षय •रने वाली और योगसाधन में सहाय• होती हैं। 

विपर्यय-'विपर्ययोंमिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठमÓ।। 

'तत:क्लेष•र्मनिवृतिÓ। 

वि•ल्प- 'शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो वि•ल्पÓ। अर्थात जैसे •ोई मनुष्य भगवान •े  रूप •ा ध्यान •रता है पर जिस रूप •ा ध्यान •रता है उसे न तो उसने देखा है, न वेद-शास्त्र सम्मत है, और न ही वह भगवान •ा वास्तवि• स्वरुप है •ेवल •ल्पना मात्र है वि•ल्प है। 

 निद्रा- 'अभावप्रत्ययालम्बना वृत्तिर्निद्राÓ- ज्ञान •े अभाव •ा ज्ञान जिस चित्तवृति •े आश्रित रहता है, वह निद्रावृत्ति है।ÓÓ निद्रा भी चित्त •ी वृत्तिविशेष है। •ई दर्शन•ार निद्रा •ो वृत्ति नही मानते, इसे सुषुप्ति अन्तर्गत मानते हैं। गीता में आया है- 

युक्ताहार विहारस्य युक्तचेष्टस्य •र्मसु। 

युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दु:खहा।।


स्मृति- अनुभूतिविषयासम्प्रमोष: स्मृति:- 

चितवृत्तियों •ा निरोध- योगी •हता है 'अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोध:Ó। 

गीता •हती है- 'अभ्यासेन तु •ौन्तेय वैराग्येण च गृहयतेÓ (6.35)। चित्तवृत्तियों •े निरोध •े दो प्र•ार हैं-अभ्यास और वैराग्य। 

अभ्यास क्या है-'तत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यासÓ अर्थात जो स्वभाव से चंचल है 

गीता •हती है- 'स निश्चयेन  योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसाÓ। योग •ा अभ्यास बिना उ•ताये बिना समय सीमा •े निश्चित •िये निष्ठापूर्व• •रते रहना है।  

वैराग्य क्या है-

'दृष्टानुश्रवि•विषयवितृष्णस्य वशी•ारसंज्ञा वैराग्यमÓ। यहाँ दो शब्द हैं, दृष्टा और अनुश्रवि• । विषयों में सर्वथा तृष्णारहित चित •ी जो वशी•ार नाम• अवस्था है, वह वैराग्य (तत्परमं पुरुषख्यातेर्गुणवैतृष्ण्यम) है।  

 (यदाहिनेन्द्रियार्थेषु न •र्मस्वनुषज्जते, सर्वसं•ल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते) 

 

 सिद्धि क्या है -  ''श्रद्वावीर्यस्मृतिसमाधिप्रज्ञापूर्व•:Ó। श्रद्वा, वीर्य, स्मृति, समाधि और प्रज्ञापूर्व•, (•्रम) से सिद्धि प्राप्त होती है।Ó

'श्रद्वावान लभते ज्ञानं तत्पर: संयतेन्द्रिय:।

ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिभचिरेणधिगच्छतिÓ।। (4/39,गीता)

सिद्धि प्राप्त •रने हेतु योगी •ो अभ्यास और वैराग्य में तीव्रता लानी होती है।  

ईश्वर •ौन है -

'क्लेश•र्मविपा•ाशयैरपरामृष्ट: पुरुषविशेष ईश्वर:Ó। क्लेश, •र्म, विपा• और आशय से जो (अपरामृष्ठ) है, असम्बद्व है, वह ईश्वर है। ईश्वर ज्ञान वैर यश, ऐश्वर्य •ी परा•ाष्ठा है। क्या ईश्वर इस •ारण से मिलता है ? 'नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुनाश्रुतेन।Ó(मुण्ड.) ईश्वर स्वयं अनादि है क्यों•ि वह सब •े आदि है (योग,10-2-3) वह •ालातीत है। उस•ा वाच• 'प्रणवÓ है। 'तस्य वाच•: प्रणव:Ó (प्रणव ऊँ•ार है) (प्रश्नोपनिषद में पाँचवे प्रश्नोत्तर में और माण्डूक्योपनिषद में ऊँ•ार •ी उपासना •ा विषय विस्तार से है) ऊँ, परमेश्वर •ा वेदोक्त नाम है (गीता-17-23, •ठो.1/2/15-17) साध• •ो ईश्वर •े नाम •ा जप और उस•े स्वरूप •ा स्मरण चिन्तन •रना चाहिए। महर्षि शाण्डिल्य ने •हा है- ''सा परानुरक्त्रिीश्वरेÓÓ। देवर्षि नारद ने भक्तिसूत्र में •हा है- 'सात्वस्मिन परमप्रेमरूपा चÓ। अर्थात उस परमेश्वर में अतिशय प्रेमरूपता ही भक्ति है। यह अमृत स्वरूपा है-'अमृतस्वरूपा चÓ। ईश्वर •ी भक्ति में आयु, रूप आदि •ा •ोई अर्थ नही होता है-

''व्याधस्याचरणं धुवस्य च वयो विद्या गजेन्दस्य •ा 

 •ा जातिर्विदुरस्य यादवपतेरुप्रस्य •िं पौरषम्।

•ुव्जाया: •ामनीरूपमधि•ं •िं तत्सुदाम्नो धनं

भक्त्या तुश्यति •ेवलं न च गुणैर्भक्ति प्रियो माधव:।।

श्रीमद्भागवत में प्रहलाद ने •हा है-

'श्रवणं •ीर्तनं विष्णों: स्मरणं् पादसेवनम।

अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनमÓ।।(7/5/23)

 ऋतम्भरा बुद्वि •े प्र•ट होने पर साध• •ो प्र•ृति •े यथार्थ रूप •ा भान हो जाता है तब उसे वैराग्य होता है।

''तस्यापि निरोधे सर्वनिरोधान्निर्बीज: समाधि:।ÓÓ

 क्लेश क्या है- 'अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेषा: क्लेषा:ÓÓ। अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश ये पाँच क्लेश •हलाते हैं। 

अविद्या जिन•ा •ारण हैं- ''अविद्या क्षेत्रमुत्तरेशां प्रसुप्ततनुविच्छिन्नोद्वाराणामÓ।

 

अविद्या क्या है- ''अनित्याशुचिदु:खानात्मसु नित्यशुचि सुखात्मख्यातिरविद्याÓ। अनित्य, अपवित्र, दु:ख और अनात्मा में नित्य, पवित्र, सुख और आत्मा •ा आत्मभाव •ी अनुभूति 'अविद्याÓ है।

अस्मिता क्या है- ''दृगदर्शन शक्त्योरे•ात्मतेवास्मिताÓÓ। अविद्या •े नाश होने से 'अस्मिताÓ •ा नाश होता  है।  

राग क्या है- 'सुखानुशयी राग:Ó। सुख •ी प्रतीत •े पीछे रहने वाला क्लेष 'रागÓ है।

द्वेष क्या है- 'दु:खानुशयी द्वेषÓ। दु:ख •ी प्रतीत •े पीछे रहने वाला क्लेश 'द्वेषÓ है।

  क्लेशों •ी स्थूल वृत्तियों •ो 'ध्यानहेयास्तदृवत्तय:Ó द्वारा सूक्ष्म बना  दिया जाता है।

दु:ख •े रूप- परिणाम दु:ख, ताप दु:ख, संस्•ार दु:ख, गुणवृत्ति विरोध सब में विद्यमान रहते हैं।

  अष्टांग योग

'यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टवगांनि।।Ó

इनमें पाँच वहिरंग हैं जो इस प्र•ार हैं-

(1)  यम 'अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमा:Ó

(•) अहिंसा -   अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्याग:।  

(ख) सत्य- सत्यप्रतिष्ठायां •्रियाफलाश्रयत्वमÓ।  

(ग) अस्तेय- 'अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानमÓÓ।  

(घ) ब्रह््मचर्य- 'ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां वीर्यालाभ:Ó।  

मन, वाणी और शरीर से होनवाले सब प्र•ार •े मैथुनों •ी सब अवस्थाओं में सदा त्याग •र•े सब प्र•ार से वीर्य •ी रक्षा •रना 'ब्रह्मचर्यÓ हैं ।     ''•र्मणा मनसा वाचा सर्वावस्थासु सर्वदा।

          सर्वत्र मैथुनत्यागी ब्रह्मचर्य प्रचक्षतेÓÓ।। (गरुण.पूर्व.आचार 238.6) 

 

(ड) अपरिग्रह- अपरिग्रहस्थैर्ये जन्म•थन्तासंबोध:।  

(2) नियम- ''शौचसंतोषतप:स्वाध्यायेश्वरप्राणिधानानि नियमा:ÓÓ।

  'नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुनाश्रुतेन।Ó (मुण्ड.)

भारतीय दर्शन में परम ब्रह्म अक्षर है - अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभवोऽध्यात्ममुच्यते। भूतभावोद्भव•रो विसर्ग: •र्मसंज्ञित:। (8,3) 

 गीता •हती है- 

सहस्त्रयुगपर्यन्तमहृर्यद ब्रह्मणो बिन्दु:। 

रात्रिं युगसहस्त्रन्तां तेऽहोरात्रविदो जना:।

अव्यक्ताद्व्यक्तय: सर्वा प्रभवन्त्यहरागमे।

रान्न्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्त संज्ञ•े।।

भूतग्राम: स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते।

रान्न्यागमेऽवश: पार्थ  प्रभवन्त्यहरागमे।।

परस्तस्मातु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातन:। 

य: स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति।।

अव्यक्तोऽक्षर  इत्युक्तस्तमाहु: परमां गतिम।

यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्वाम परमं मम।।

(अर्थात)

 

ऊँॅ विष्णुर्विष्णुविष्णु:। ऊँ नम: परमात्मने श्री पुराणपुरुषोत्तमस्य श्रीविष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्याद्य  श्रीब्रह््मणों द्वितीय परार्द्धे श्री श्वेतवाराह•ल्पे वैवस्वतमन्वन्तरेऽष्टाविंशतितमें •लियुगे प्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे आर्यावर्ते आर्यावर्तान्तर्गत  ब्रह्मावर्तै•देशे बौद्धावतारे अमु•नाम संवत्सरे  अमु•ायने (उत्तरायणे/दक्षिणायने) महामांगल्यप्रदे मासानां मासोत्तमें  अमु• मासे अमु•पक्षे (शुक्लपक्षे/•ृष्णपक्षे) अमु• तिथौ अमु• वासरान्वितायां अमु• नक्षत्रै अमु• राषिस्थिते सूर्ये  अमु•राषिस्थिते चन्द्रे अमु•राषिस्थिते  भौमें अमु•राषिस्थिते बुधे अमु•राषिस्थिते गुरौ अमु•राषिस्थिते शु•्रे अमु•राषिस्थिते शनौ सत्सु शुुभे योगे शुभ•रणे एवं गुणविशेष विशिष्टायां शुुभ पुण्यतिथौ स•लशास्त्रश्रुतिस्मृतपुराणोक्त फलप्राप्ति•ाम: अमुे•ोऽहं ममात्मन: सपुत्रस्त्रीबान्धवस्य श्रीनवदुर्गानुग्रहतो ग्रह•ृतिराज•ृतसर्वाविधपीड़ानिवृतिपूर्व•ं नैरुज्यदीर्घायु: पुष्टिधनधान्यसृद्व्यर्थं सर्वापन्निवृति सर्वाभीष्टफलावाप्ति धर्मार्थ•ाममोक्षचतुर्विधपुरुषार्थ द्वारा अमु• (राष्ट्र) देवताप्रीत्यर्थं पूजनपूर्व•ं सं•ल्पं (अमु• •र्मं) •रिष्ये।

 परमसत्ता •ी अवधारणा वेद •े साथ चलती हैं। नासदीय सूक्त में अध्याय दस में श्लो• आता है -

नासदासीन्नोसदासीतदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत।

•िमावरीव: •ुह •स्य शर्मन्नम्भ: •िमासीद  गहनं गभीरम।।

 यथा-

•ो, अद्वा वेद • इह प्रवोचत् •ुत आजाता •ुत इयं विसृष्टि:।

अर्वाग् देवा अस्य विसर्जनेनाथ •ो वेद यत आवभूव।। (1,128,6)

इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न।

यो अस्याध्यक्ष: परमे व्योमन्त्सो अंग वेद  यदि वा न वेद।। 

मुण्ड•ोपनिषद में •हा है- 'नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुनाश्रुतेनÓ अर्थात आत्मज्ञान •ेवल तीव्र इच्छा शक्ति से ही प्राप्त •िया जा स•ता है।   यथा-

'मंत्र मूलं गुरुर्वाक्यं, पूजा मूलं गुरु:पदम्। ध्यान मूलं गुरु:मूर्ति, मोक्ष मूलं गुरु: •ृपा।।Ó

 सत चेतना हेतु पातंजलि योग दर्शन में •हा है- 

''सत्वपुरुषान्यताख्यातिमात्रस्य सर्वभावाधिष्ठातृत्वं सर्वज्ञातृत्वं चÓÓ (3-49)

•ठोपनिषद में •हा है- 'उतिष्ठत जाग्रत प्राप्यवरान्निवोधतÓ। क्षुरस्य धारा निशिता  दुरत्या। दुर्गं पंथस्य•वयो वदन्ति।

  गीता में श्री•ृष्ण •हते हैं- 'सर्वधर्म परितज्यान मामे•म शरणं ब्रजÓ। अहं त्वाम सर्वपापेभ्यो मा शुच:। मैत्रेयोपनिषद में •हा गया है •ि साध• छ: माह में आत्मसाक्षात•ार •र स•ता है। 

 ऐतरेयोपनिषद में •हा है- 'स येतमेव सीमानं विदार्यैतया द्वारा प्रापद्यत। सैषा विदृतिर्नाम द्वास्तदेतन्नान्दम।।

इस•े अनुसार गर्भस्थ रूप में जीवात्मा सातवें महीने •पाल •े बीच तालु से प्रवेश •रती है, पहले यह •ोमल होता है बाद में •ठोर हो जाता है।  

सुबालोपनिषद में •हा गया है- 'स्थानानि, स्थानिभ्यों यच्छति नाड़ी तेषां निबन्धनमÓÓ ।

 उसे यह बोध हो जाता है •ि- 'मैं यह शरीर नही, बल्•ि यह शरीर मेरा हैÓ गीता में •हा गया है- 'देहोस्मिनाहं मम् देह इति स्मरÓ। 

भगवान •ृष्ण •हते हैं- ''•ायेन मनसा बुद्धया •ेवलैरिन्द्रियैरति। योगिन: •र्म •ुर्वन्ति संगंत्यक्त्वात्मशुुद्वये। अर्थात आत्मज्ञानी •भी अपने •र्मों •ा निर्वाह •म नही •रता।