लोक के राम : श्रीरामपूर्वतापनीयोपनिषद में कहा गया है कि जब ॐश्रीहरि दशरथ जी के यहाँ अवतीर्ण हुए, उस समय उनका नाम ‘राम’ हुआ। विद्वानों ने लोक में ‘राम’ शब्द के अर्थ की व्युत्पत्ति इस प्रकार है-‘ जो महीतलपर स्थित होकर भक्तजनों का सम्पूर्ण मनोरथ पूर्ण करते और राजा के रूप में सुशोभित होते हैं, ओ राम हैं।’ (राति राजते वा महीस्थित: सन इतिराम:) इस विग्रह के अनुसार ‘राति’ या ‘राजते’ का प्रथम अक्षर ‘रा’ और ‘महीस्थित:’ का आदि अक्षर ‘म’ लेकर ‘राम’ बनाता है।
इसी तरह ‘राम’ नाम को लेकर लोक में अनेक
सन्दर्भ हैं । राम भगवान विष्णु के अवतार हैं। वे अभिराम होने से राम हैं। राक्षस
जिनके द्वारा मरण को प्राप्त होते है, वे राम हैं । जैसे राहू मनसिज (चन्द्रमा )
को हतप्रभ कर देता है, उसी प्रकार जो राक्षसों को मनुष्य रूप में रहकर प्रभाहीन (निष्प्रभ)
कर देते है, वे राम हैं । अथवा जो महीपालों को अपने आदर्श चरित्र के द्वारा धर्ममार्ग
का उपदेश देते हैं वे राम हैं । जो
नामोच्चारण करने पर ज्ञानमार्ग की प्राप्ति कराते हैं, ध्यान करने पर वैराग्य देते
हैं और अपने विग्रह की पूजा करने पर ऐश्र्वर्य देते है, इसलिए वे लोक में (भूतल पर)
राम हैं । इन सब विशेषताओं/ गुणों को समाटे जो लोक में ही नहीं ज्ञानी और
विज्ञानियों के लिए भी अनंत, नित्यानन्दस्वरुप, चिन्मय ब्रह्म हैं और योगीजन जिनमें
रमण करते हैं, वे परब्रह्म परमात्मा ही ‘राम’ हैं ।
शास्त्रीय व्याख्या में ‘रम्’
धातु में ‘घञ्’ प्रत्यय
के योग से ‘राम’ शब्द निष्पन्न होता है। ‘रम्’ धातु का अर्थ रमण (निवास, विहार) करने से संबद्ध है। वे प्राणिमात्र के हृदय में ‘रमण’ (निवास) करते हैं, इसलिए ‘राम’ हैं, तथा भक्तजन उनमें ‘रमण’ करते (ध्यान निष्ठ होते) हैं, इसलिए भी वे ‘राम’ हैं - ‘रमते कणे कणे इतिराम:’। आद्य शंकराचार्य ने ‘पद्मपुराण’ का उदाहरण देते हुए कहा है कि
नित्यानन्दस्वरूप भगवान् में योगिजन रमण करते हैं, इसलिए वे ‘राम’ हैं। राम को राष्ट्र का प्रतीक मानते हुए संतों
की परंपरा में ‘रा’ अर्थात् राष्ट्र और
‘म’ अर्थात् मंगल। यानी राम राष्ट्र के
मंगल (कल्याण) के प्रतीक हैं।
श्रीराम का जन्म त्रेतायुग में ‘चैत्रेनावमिकेतिथौ।।
नक्षत्रेऽदिति दैवत्येस्वोच्चसंस्थेषुपञ्चसु। ग्रहेषु कर्कटेलग्नेवाहस्पता विन्दुनासह।।’
अर्थात् चैत्र मास की नवमी तिथि में पुनर्वसु नक्षत्र में, पांच ग्रहों के अपने उच्च स्थान में रहने पर तथा कर्क लग्न में चन्द्रमा
के साथ बृहस्पति के स्थित होने पर रामजी का जन्म देवी कौशल्या के गर्भ से अयोध्या
में हुआ था। श्रीराम जी चारों भाइयों में सबसे बड़े थे। हर वर्ष चैत्र मास के शुक्ल
पक्ष की नवमी तिथि को श्रीराम जयंती या रामनवमी का पर्व मनाया जाता है।
भारत में श्रीराम
भारतीय संस्कृति के शिखर पुरुष और आदर्श हैं। विश्व के अनेक देशों जैसे-थाईलैंड,
इंडोनेसिया, मॉरीशस आदि में भी श्रीराम पूर्वज
रूप में मान्य हैं। इन्हें पुरुषोत्तम शब्द से भी अलंकृत किया जाता है। श्रीराम ने
मर्यादा-पालन और लोक कल्याण के लिए राज्य, मित्र, माता-पिता, कुटुम्ब का भी परित्याग किया। राम रघुकुल
में जन्मे थे, जिसकी परंपरा ‘रघुकुल
रीति सदा चलि आई। प्राण जाई पर बचन न जाई।’ की थी। राम के
पिता दशरथ ने राम की सौतेली माता कैकेयी को दो वचन (वरदान) दिये थे। कैकेयी ने
राजा दशरथ से अपने पुत्र भरत के लिए अयोध्या का राज सिंहासन और राम के लिए चौदह
वर्ष का वनवास मांगा। पिता के वचन की रक्षा के लिए राम ने खुशी से चौदह वर्ष का
वनवास स्वीकार किया। पत्नी सीता ने आदर्श पत्नी का उदाहरण देते हुए, पति के साथ वन जाना उचित समझा। लक्ष्मण ने भी आदर्श भ्राता के रूप में राम
के साथ चौदह वर्ष वन में बिताए। भरत ने न्याय के लिए माता का आदेश ठुकराया और बड़े
भाई राम के पास वन जाकर उनकी चरण पादुकाएँ ले आए, जिन्हें ही
राज गद्दी पर रखकर राजकाज किया। वनवासी अवधि में ही पत्नी सीता को रावण हरण करले
गया। जंगल में राम को सुग्रीव जैसा मित्र और भक्त मिला, जिसने
राम के सारे कार्य पूरे कराये। राम की
विशेषता रही है कि उनके संपर्क में आनेवाले छोटे से छोटे व्यक्ति का सहयोग लिया।
भारतीय वैज्ञानिकता का उपयोग करते हुए राम समुद्र में पुल बना कर लंका पहुँचे,
और रावण का बध कर सीता जी को वापस ले कर अयोध्या आये। राम के
अयोध्या लौटने पर भरत ने आदर्श का पालन करते हुए राज्य राम को ही सौंप दिया। राम
न्याय प्रिय थे। उन्होंने शासन का एक ऐसा आदर्श सुराज स्थपित किया जिसे लोग आज भी ‘रामराज्य’ की उपमा देते हैं। भारतीय परंपरा के कई
त्योहार, जैसे-दशहरा, रामनवमी और दीपावली राम की वन-कथा से जुड़े हुए हैं तथा
जीवन संघर्ष हेतु प्रेरणा देते हैं। राम शब्द का मनन (निश्चय) और त्रारण(रक्षा)
करने के कारण वह मन्त्र बन गया है।
लोक में राम का एक दरवार है जो इस प्रकार मिलता
है- कौसल्यानन्दन श्रीराम अपनी प्रकृति-ह्लादिनीशक्ति श्रीसीताजी के साथ विराजमान
हैं । उनका वर्ण श्याम है। वे पीताम्बर धारण किये हुए हैं। उनके सिरपर जटाभार सुशोभित
है। उनके दो भुजाएँ हैं। कानों में कुण्डल शोभा पा रहे हैं। गले में रत्नों की
माला चमक रही है। वे स्वभावतः धीर (निर्भय एवं गम्भीर) हैं। धनुष धारण किये हुए
हैं। उनके मुखपर सदा प्रसन्नता छायी रहती है। वे संग्राम में सदा ही विजयी होते
हैं। अणिमा आदि आठ ऐश्वर्यशक्तियाँ उनकी शोभा बढ़ाती हैं। इस जगत की कारणभूता मूल प्रकृतिरूपा
परमेश्वरी सीता उनके वाम अंग को विभूषित कर रही हैं। सीताजी के श्रीअंगों की
कान्ति सुवर्ण के सदृश गौर है। उनके भी दो भुजाएँ हैं। वे समस्त दिव्य आभूषणों से
विभूषित हैं तथा हाथ में कमल धारण किये हुए हैं। उन चिदानन्दमयी सीता से सटकर बैठे
हुए भगवान् श्रीराम बड़े हृष्ट-पुष्ट दिखायी देते हैं । दक्षिण भाग में श्रीरघुनाथ
जी के छोटे भाई सुवर्ण-गौर कान्तिवाले श्रीलक्ष्मण जी हाथ में धनुष-बाण लिये खड़े
हैं।