Wednesday, 15 November 2023

केनोपनिषद

 

 केनोपनिषद 

इसमें 'केन' (किसके द्वारा) का विवेचन होने से इसे 'केनोपनिषद' कहा गया है । इसके चार खण्ड हैं। प्रथम और द्वितीय खण्ड में गुरु-शिष्य की संवाद-परम्परा द्वारा उस (केन) प्रेरक सत्ता की विशेषताओं, उसकी गूढ़ अनुभूतियों आदि पर प्रकाश डाला गया है।  तीसरे और चौथे खण्ड में देवताओं में अभिमान तथा उसके मान-मर्दन के लिए 'यज्ञ-रूप' में ब्राह्मी-चेतना के प्रकट होने का उपाख्यान है। अन्त में उमा देवी द्वारा प्रकट होकर देवों के लिए 'ब्रह्मतत्त्व' का उल्लेख किया गया है तथा ब्रह्म की उपासना का ढंग समझाया गया है। मनुष्य को 'श्रेय' मार्ग की ओर प्रेरित करना, इस उपनिषद का लक्ष्य हैं।

 ऊँ •ेनेषितं पतति प्रेषितं मन: •ेन प्राण: प्रथम: पै्रति युक्त:।

•ेनेषितां वाचमिमां वदन्ति चक्षु: श्रोत्रं • उ देवो युनक्ति। (•ेन./1/1)

  इसे ही उपनिषदों ने •हा है - 

                         ऊँ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते।

             पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावषिष्यते।।

 तब ए• दिन मुण्ड•ोपनिषद •ा ऋषि फट•ारता हुआ •हता है-

                               परीक्ष्य लो•ान् •र्मचितान् ब्राह्मणो

                        निर्वेदमायात् नास्ति अ•ृत: •ृतेन।

                        तद्धिज्ञानार्थंं स गुरुमेवाभिगच्छेत

 इस तरह से जीवन •े सत्य •ो जानने •ी इच्छा ने शाश्वत, अविनाशी, असीम •ी खोज प्रारंभ •ी और ए• दिन उन्होंने सत्य •ो जाना-

ते ध्यानयोगानुगता अपश्यन

देवात्मशक्तिं स्वगुणैनिगूढ़ाम।। (श्वे.1/13)

-ध्यानयोग •ो विषय बना•र मन •ी खोज प्रारंभ •ी। अपने गुणों में निहित ब्रह्म •ो देखा। और गदगद •ंठ से पु•ार उठे-

 श्रृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्रा

        आ ये धामानि दिव्यानि तस्यु:।

वेदाहमेतं पुरुषं महान्तम

       आदित्यवर्णं तमस: परस्तात।

तमेव विदित्वा अतिमृत्युमेति

      नान्य: पन्था विद्यतेऽयनाय।। (श्वेता.2/5,3/8)

-अहो विश्व •े निवासियो! अमृत पुत्रो! सुनो। दिव्य लो•ों में रहने वाले देवताओं, तुम लोग भी सुनो। मैंने सूर्य •े समान चम•ीले उस महान् पुरुष •ो जान लिया है, जो समस्त अज्ञान-अन्ध•ार से परे है। •ेवल उसी •ो जान•र मृत्यु •ी विभीषि•ा •ो पार •िया जा स•ता है। इससे भिन्न दूसरा रास्ता नहीं है।

  स्वर्ग प्राप्त •ी •ामना से यज्ञ •रना उचित नही-

      प्लवा हि एते अदृढा यज्ञरूपा

          अष्टादशेक्त्म् अवरं येशु •र्म।

     एतत् श्रेयो येऽभिनन्दन्ति मूढ़

           जरामृत्युं ते पुनरेवाति यन्ति।।   (मुण्ड.1/2/5)

ऋषि •हता है, 'अरे मूर्खों ! यदि तुमने यज्ञ •ो भव सागर पार •रने •ी नौ•ा माना है तो बड़ी भूल •ी है। यह यज्ञ रूपी नौ•ा तुम्हारी जीर्ण शीर्ण है। इसमें सोलह ऋत्विज और यजमान एवं एजमान •ी पत्नी ऐेसे अठारह लोग बैठे हैं, वे सब नीच •र्म •रने वाले हैं और सब•े सब मँझधार में डूबेगें। जो मूढ़ इस यज्ञ •ो •ल्याण•र मानते हैं, वे बुढ़ापा और मृत्यु •े फन्दे में बारम्बार फँसते हैं।ÓÓ

ईशावास्य उपनिषद् में इस प्र•ार •े सं•ेत मात्र दिखाई देता है, जहाँ गुरु शिष्य से सिद्धांत प्रतिपादित •रते हुए •हता है- ''ईषावास्यम् इदं सर्वं यत्•िंच जगत्यां जगत्। तेन त्येक्तेन भुञ्जिथा मा गृध: •स्य स्विद् धनम।ÓÓ 

•ुर्वन्नेवेह •र्माणि जिजीविषेच्छतँ समा:। एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न •र्म लिप्यते नरे।। (ईशो-1/1-2)

  अर्जुन से सभी •ार्य •ो यज्ञ बना लेने •ो •हते हैं-

       यज्ञार्थात् •र्मणोऽन्यत्र लो•ोऽयं •र्मबंधन।

       तदर्थं •र्म •ौन्तेय मुक्तसंग: समाचर।।  (गीता-3/9)

अर्थात सारा •र्म भगवत्समर्पित बुद्धि से •र्म •रना। ए• प्रश्न •ा और समाधान भगवान •रते हैं, •हते हैं इस बहाने दुष्•र्म •ो भी भगवान •ो अर्पित •र •िया जा स•ता है क्या ? भगवान •हते हैं-

 •िं •र्म •िम•र्मेति •वयोऽप्यत्र मोहिता:।

        तŸो •र्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽषुभात।। (गीता- 4/16)

हे पार्थ! •र्म क्या है, अ•र्म क्या है इस सम्बन्ध में मनीषी जन भी भ्रमित हैं। अत: मैं •र्म •ा मर्म तुझे समझाता हँू, जिसे जान•र तू अशुभ से मुक्त हो जा।

 •र्मणो ह्यति बोद्धव्यं बोद्धव्यं च वि•र्मण:।

          अ•र्मणश्च बोद्धव्यं गहना •र्मणों गति:।।  (गीता-4/17)

अर्थात •र्म •े तीन रूप हैं- •र्म, अ•र्म और वि•र्म।  इसीलिए भगवान ने •हा-

                                              उद्धरेदात्मनात्मनं नात्मनामवसादयेत।

                                    आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन:।।  (गीता-6/5)

मनुष्य •ो चाहिए •ि वह अपना स्वयं •ा उत्थान •रे और अपने •ो गिरने न दे; क्यों•ि वह स्वयं अपना मित्र और शत्रु भी है। इस प्र•ार •र्म संस्•ार उस•ो लिप्त न •र स•ें। 

मनुष्य यह •र्म •रता हुआ सौ वर्ष त• जिये-

'पश्येम शरद: शतं जीवेम शरद: शतमं श्रृणुयाम शरद: शतं प्रब्रवाम शरद: शतमदीना: शरद: शतम्।Ó 

                                                                                                   (शुक्ल यजु. 36/24)

भगवान •हते हैं इस•ा प्रभाव यह होता है •ि -

 पश्यन् श्रृण्वन् स्पृर्शन् जिघ्रन अश्नन् गच्छन् स्वपन् श्वसन।

 प्रलपन् विसृजन् गृहणन उन्मिषन् निमिषन् अपि।

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्। (गीता-5/8-9)

अर्थात ऐसी समत्व एवं समर्पित बुद्धि से •िया गया •ार्य जब हम •रते हैं तो हमारे यह सारे •ार्य -देखना, सुनना, स्पर्शर् •रना, गंध लेना, खाना, चलना, सोना आदि सभी यज्ञमय हो जाते हैं। आगे •हते हैं -

ब्रह्मण्याधाय •र्माणि संगत्यक्त्वा •रोति य:।

 लिप्यते न स पापेन पद्यपत्रमिवाम्भसा।। (5/10)

जो ब्रह्म •ा आश्रय और आधार मान•र, आसक्ति •ा त्याग •रते हुए, •र्तव्य •र्म •रता है, वह जल में •मलपत्रवत् पाप से अलिप्त रहता है। यही गीता •ी चरमावस्था है, यही ब्रह्मनिष्ठा और स्थितप्रज्ञता है।

गीता में योग •ो दो प्र•ार से परिभाषित •िया गया है-'योगा: •र्मसु •ौशलम्Ó और 'समत्वं योग उच्यतेÓ। वस्तुत: जब इन दोनों •ो ए• साथ जोड़ा जाय तो उसे योग •हते हैं और इस•ा परिणाम तब सामने आता है। जब हम -'ब्रह्मणि आधाय •र्माणि संगं त्यक्त्वा •रोति य:Ó।  

इसीलिए भगवान •हते हैं-

                          •र्मणिएव अधि•ारस्ते मा फलेषु •दाचन।

                            मा •र्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्व•र्मणि।।  (गीता-2/47)

दो आदमी हैं, दोनों •टहल •ाट रहे हैं। •टहल •ाटने •े बाद देखा तो ए• •े हाथ में दूध ही दूध चिप•ा है तो दूसरे •े हाथ में ए• भी बूँद दूध नही लग पाया। इसमें •र्म •ी •ुशलता •िसमें है तो स्पष्ट है जिस•े हाथ में ए• भी बँूद दूध नहीं लगा। 

इसे ही 'पद्यपत्रमिवाम्भसाÓ •हा।

  गीता ने •हा-

                           सहजं •र्म •ौन्तेय सदोशम् अपि न त्यजेत।

                          सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृता:।। (18/48)

                ऊँ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते।

     पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावषिष्यते।।

             ऊँ शांति शांति शंति: ।।

        ऊँ ईषा वास्यमिदँ् सर्वं यत्•िंच जगत्यां जगत्।

        तेन त्येक्तेन भुंजीथा मा गृध: •स्यस्विद्धनम।। 

        •ुर्वन्नेवेह •र्माणि जिजीविषेच्छतँ् समा:।

        एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न •र्म लिप्यते नरे।।-2

   

 

 •ेन-उपनिषद



ऊँ  शांति मंत्र

ऊँ आप्यायनतु ममांगानि वा•् प्राणश्चक्षु:

श्रोत्रमयो बलम् इन्द्रियाणि च सर्वाणि।

सर्वं  ब्रह्मौपनिषदं, माहं ब्रह््म निरा•ुयां, मा मा ब्रह््म निरा•रोद्,

अनिरा•रणमस्तु, अनिरा•रणं मेंऽस्तु।

तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु धर्मास्तेमयि सन्तु, ते मयि संन्तु।

ऊँ शांति शांति शांति:


ऊँ •ेनेषितं पतति प्रेषितं मन:

        •ेन प्राण: प्रथम: प्रैति युक्त:।

 •ेनेषितां वाचमिमां वदन्ति

        चक्षु श्रोत्रं • उ देवो युनक्ति।। 1

 

गुरु •ा उत्तर- 

श्रोत्रस्य श्रोत्रं मनसो मनो यद्

   वचो ह वाचं स उ प्राणस्य प्राण:।

 चक्षुशष्चक्षु:  अतिमुच्य धीर:

    प्रेत्यास्माल्लो•ादमृता भवन्ति।।2

समाधान- इसमें •ोई दोष नहीं है। अन्य श्रुतियाँ भी •हती हैं- 'आत्मना एवं अयं ज्योतिषा अस्तेÓ। (बृ.उ.4/3/6)-

तब वह पुरुष आत्मा •ी ज्योति से स्थित रहता है।

'तस्य भाषा सर्वम् इदं विभातिÓ। (•.उ.2/2/15, श्वे.उ.6/1/4, मु.उ.2/2/10) -उस•े प्र•ाश से ही यह सब प्र•ाशित होता है।

'येन सूर्य: तपति तेजसा इन्द:Ó (तै.ब्रा.3/12/9/7)- जिस•े तेज से प्रदीप्त हो•र सूर्य तपता है।

'यदि आदित्यगतं तेजो जगद्धासयते अखिलमÓ (. गीता 15/12)- सूर्य •ा जो प्र•ाश सारे जगत •ो प्र•ाशित •रता है, उसे तू मेरा ही समझ।

'क्षेत्रं क्षेत्री तथा •ृत्स्नं प्र•ाशयति भारतÓ (गीता 13/33)- हे अर्जुन,उसी प्र•ार ए• ही आत्मचैतन्य संपूर्ण शरीर •ो प्र•ाशित •रता है।ÓÓ

'नित्यो अनित्यानां चेतन: चेतनानाम:Ó। (•ठो.उ.3/12/9/7)-अनित्य वस्तुओं में वह नित्य है, चेतनामय पदार्थों में वह चैतन्य (आत्मा) है।

'स उ प्राणस्य प्राण:Ó वह प्राणों •ा भी प्राण है। •ेन.

तब ऋषि •हता है -

न तत्र चक्षुर्गच्छति न वाग्-गच्छति नो मनो।

न विद्यो न विजानीमो यथैतदनुशिष्यात।। 3

भावार्थ- वहाँ (ब्रह्म में) नेत्र नहीं जाते, वाणी नहीं जाती और मन भी नहीं जाता। हम ब्रह्म •ा लक्षणों •ो भी नहीं जानते, अत: मन वाणी •े अतीत होने •े •ारण हमें नहीं मालूम •ि उस•ा वर्णन •ैसे •रूँ।

अन्यदेव तद्धिदितादधो अविदितादधि

इति शुश्रुम पूर्वेषां यं नस्तद्धयाचचक्षिरे।

भावार्थ- यह ब्रह्म ज्ञात वस्तुओं से भिन्न है और फिर अज्ञात वस्तुओं से भी परे है- ऐसा हमने अपने पूर्वजों से सुना है, जिन्होंने हमारे लिए इस•ी व्याख्या •ी थी।

ब्रह््म ज्ञान •े अतिरिक्त देवताओं •े विजय •े अभियान •े समान जीव •ो •र्त्तव्य, भोक्तृत्व •ा अभियान •रना व्यर्थ है।

' ब्रह््म  ह देवेम्यो विजिग्ये। तस्य ह

             ब्राह्मणों विजये देवा अमहीयन्त।। Ó 14. •ेन

उन यक्ष •ो न जाने हुए देवतागण भय •े साथ आपस में विर्मर्श •र जातवेद: अग्नि •ो जो जन्म से ज्ञानी होने से जातवेद •हलाते हैं •ो •हा •ि जाओं और पता •रों •ि यह पूज्यमूर्ति •ौन है।16

  

आगे उपनिषद •हता है- 'तास्ते प्रेत्याभिगच्दन्तिÓ, अज्ञान से आच्छादित हो•र पशु और वनस्पतियोंं •े रूप हमें प्राप्त होते हैं। 'असुरो •ा लो•ाÓ अर्थात 'तमसावृता:Ó •ो असुर लो• •हा। 'आत्महनो जनाÓ आत्मा •ो माने वाले अर्थात 'तमसावृता:Ó •ो असुर लो• •हा। यही आत्म हत्या है। तभी हमारा ऋषि •हता है  'तमसो मां ज्योर्तिगमयÓ। हम अमर हैं, यह बोध प्राप्त न होना ही आत्मघाती स्थिति है। 

आत्मा •ो •ैसे समझे ? इस•ा लक्षण क्या है? 

''स पर्यगाच्छु•्रम•ायमव्रणमस्नाविरं शुद्धम पापविद्धम।

 (न अन्यो अतो अस्ति द्रष्टा। बृउ 3/8/11 अर्थात इस आत्मा •े अतिरिक्त •ोई द्रष्ट्रा नहीं है।) परिभू: •ा दूसरा अर्थ बिना माता पिता •े जन्म लेने वाला।



Monday, 13 November 2023

वेद

मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः

सूक्त 1

1

अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्नधातमम् ।। (अग्निम् ईळे) में।

 दिव्यज्वालारूप अग्निदेवकी उपासना करता हूं जो (पुरः- हितम्) पुरोहित है, (यज्ञस्य देवम् ऋत्विजम्) यज्ञका दिव्य ऋत्विक् है, (होतारम् ) ऐसा आवाहक है जो ( रत्नधातमम्) आनन्दैश्वर्यको अत्यधिक प्रतिष्ठित करता है।

2

अग्निः पूर्वेभिर्ऋषिभिरीड्यो नूतनैरुत । स देवाँ एह वक्षति ॥ (पूर्वेभिः ऋषिभिः)

 प्राचीन ऋषियों द्वारा (ईड्यः) उपास्य वह (अग्निः) अग्निदेव (नूतनैः उत) नवीन ऋषियों द्वारा भी (ईड्यः) उपास्य है। (सः) वह (देवान्) देवोंको (इह) यहाँ (आ वक्षति) लाता है।

3

अग्निना रयिमश्नवत् पोषमेव दिवेदिवे । यशसं वीरवत्तमम् ।। 

(अग्निना) अग्निदेवके द्वारा मनुष्य ( रयिम् अश्नवत्) उस ऐश्वर्यंका उपभोग करता है जो (दिवे-दिवे पोषम् एव) निश्चय ही दिन-प्रतिदिन बढ़ता जाता है, (यशसम्) यशसे उज्ज्वल है और (वीरवत्तमम्) वीरशक्तिसे अतिशय पूर्ण है ।

अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वतः परिभूरसि । स इद् देवेषु गच्छति ॥

 (अग्ने) हे अग्निदेव ! ( यम् अध्वरं यज्ञं विश्वतः) जिस यात्रा-यज्ञके चारों ओर तू (परिभू: असि) अपनी सर्वतोव्यापी सत्तासे विद्यमान होता है, वह यज्ञ सचमुच ही (देवेषु गच्छति) देवोंमें पहुंचता ।

भरत तत् सत्यमरः ॥ (अ) अग्निदेव! (दाचे) बारमदान करने ( गए भरम्) को कल्याणकारी भलाई (करिष्यमि करेगा है वह परम सत्य जो निश्चय ही राय है, उसे अपना परम सत्य ही प्राप्त करा देगा ] हे अंगिरा ।

7

उपत्याने दिवेदिवे दोषावस्तथिया वयम्। नमो भरन्त एमसि ।।

 (अग्ने) हे अग्निदेव ! (वर्ष) हम (दिवे-दिवे) दिन-प्रतिदिन (दोषा- न्तः) अंधकार और प्रकाशके समय (धिया) अपने विचारके द्वारा (नमः मन्तः) नमस्कारको वहन करते हुए (त्वा उप आ इमसि) तेरे निकट हैं।

राज्ञन्तमध्वराणां गोपामृतस्य दीदिविम् । वर्धमानं स्वे दमे ॥ 

(अध्वराणां राजन्तम्) यात्रारूप यज्ञोके शासक, (ऋतस्य दीदिवि नाम्) सत्यके देदीप्यमान संरक्षक, (स्वे दमे वर्धमानम्) अपने घरमें वर्ध- [त्या उपजा इमसि ] तुझ अग्निदेवके निकट हम जाते हैं।

स नः पितेव सूनवेऽन्ते सूपायनो भव । सचस्वा नः स्वस्तये ॥

 (सः) ऐसा तू. [ इसलिए तू ] (अग्ने) हे अग्निदेव ! (नः) हमारे लिए इनके पिता इब) पुनके लिए पिताकी तरह (सु-उपायनः भव) सुगमतासे न्त होनेवाला बन । (स्वस्तये) हमारी सुखपूर्ण स्थितिके लिए तू (नः (स्व) हमारे साथ दृढ़ता से जुड़ा रह ।
       ….....................

1. श्रीअरविन्द की कृति Hymns to the Mystic Fire (गुह्य अग्निके सूक्त ) के प्रथम मण्डलके सूक्तोंका अनुवाद । --अनुवादक
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मेधातिथिः काण्वः

सूक्त 12

अग्नि दूतं वृणीमहे होतारं विश्ववेदसम् । अस्य यज्ञस्य सुक्रतुम्। (अग्नि वृणीमहे) हम अग्निका वरण करते हैं जो (होतारं) अ है, (विश्ववेदसम्) सर्वज्ञ है, (दूतं) देवोंका दूत है और (अस्य यज्ञस्य यज्ञका (सुक्रतुम् ) सिद्धिकारक संकल्प है।1

2- अग्निमग्न हवीमभि: सदा हवन्त विश्पतिम् । हव्यवाहं पुरुप्रियम् (विश्पति)।

 प्रजाओंके अधिपति, (हव्यवाहं) हमारी [ समर्पणरूप ] के वाहक, (पुरुप्रियं) बहुविध अभिव्यक्तिके प्रेमपात्र, (अग्निम् अि प्रत्येक अग्नि-ज्वालाको [ यज्ञके कर्ता ] (हवीमभिः) देवोंका आह्वान कर सूक्तोंके द्वारा (सदा हवन्त) सदा पुकारते हैं और [ पुरुप्रियं हवन्त] एकमेव भगवान को पुकारते हैं जिसमें अनेक प्रिय पदार्थ विद्यमान हैं।

3- अग्ने देवाँ इहा वह जज्ञानो वृक्तर्बाहषे । असि होता न ईड्यः ॥

 (अग्ने) हे अग्निदेव ! तू (जज्ञान:) उत्पन्न होकर (वृक्तबर्हिषे) यज्ञकर्ताके लिए जिसने पवित्र आसन बिछा रखा है (देवान् इह आ देवोंको यहाँ ला । (न: ईड्य: होता असि ) तू हमारा वरणीय आव पुरोहित है ।

4-  ताँ उशतो वि बोधय यदग्ने यासि दृत्यम् । देवैरा सत्सि बर्हिषि ।।

 (अग्ने) हे अग्निदेव ! (यत्) जब तू. (दूत्यम् यासि) हमारा दूत कर जाता है तब (तान्) उन देवोंको (वि बोधय) जगा दे जो (उश हमारी भेंटोंको चाहते हैं । तू (बर्हिषि) पवित्र कुशापर (देवः) दे साथ (आ सत्सि अपना स्थान ग्रहण कर ।

5

अग्ने त्वं रक्षस्विनः ॥ घृताहवन दीदिवः प्रति हम रिषतो दह ।

(अग्ने) हे अग्निदेव ! (घृत- आहवन) मनकी निर्मलताओंकी भेंटो से पुकारे जाते हुए (दीदिवः) देदीप्यमान देव ! (त्वम्) तू (रिपतः रक्षस्विनः) सीमामें बांधनेवाले द्वेषियोंका ( प्रति दह स्म) अवश्य ही विरोध कर और उन्हें भस्मीभूत कर दे ।

afearfग्नः समिध्यते कविर्गृहपतिर्युवा । हव्यवाड् जुह्वास्यः ॥ 

(अग्निना) अग्निसे ही (अग्निः) अग्निदेव ( सम् इध्यते) पूर्णतया प्रदीप्त किया जाता है जो (कविः) द्रष्टा है, (गृहपतिः) घरका स्वामी है, (युवा) युवा है, (हव्यवाट्) भेंटको वहन करनेवाला है और (जुहु-आस्यः) जिसका मुख हवियोंको ग्रहण करता है ।

7- कविमग्निमुप स्तुहि सत्यधर्माणमध्वरे । देवममीवचातनम् ।।

 तू (अग्निम् उप स्तुहि) उस दिव्य अग्निके निकट पहुंच और उसके स्तुतिगीत गा जो (कविम्) द्रष्टा है और (सत्यधर्माणम्) सत्य ही जिसका विधान है, जो (देवम्) प्रकाशस्वरूप है और (अमीव- चातनम् ) सब बुराइयों- का नाशक है।

8- यस्त्वामग्ने हविष्पतिर्दूतं देव सपर्यति । तस्य स्म प्राविता भव ॥

 (देव अग्ने) हे अग्निदेव ! (हविः पतिः) हवियोंका जो स्वामी ( दूतं त्वाम् सपर्यति) तुझ दिव्य दूतकी पूजा करता है, (तस्य प्र अविता भव स्म ) उसका तू रक्षक बन ।

9- यो अग्नि देववीतये हविष्माँ आविवासति । तस्मै पावक मूळय || (यः)

 जो (देववीतये) देवोंके दिव्य जन्मके लिए (हविष्मान्) भेंटोंको लिए हुए (अग्निम् आविवासति) दिव्य शक्तिके पास पहुंचता है (पावक) हे पवित्र करनेवाले देव ! (तस्मै मृळय) उसपर दया करो ।

10- स नः पावक दीदिवोऽग्ने देव इहा वह ।

 ( दीदिव: अग्ने) हे देदीप्यमान अग्नि ! (पावक) हे पवित्र करने- वाले ! (सः) वह तू (देवान्) देवोंको (इह) यहाँ (नः हविः यज्ञं च) उप यज्ञं हविश्च नः ॥ हमारी भेंटों और हमारे यज्ञके (उप आ वह) पास ले आ।

11- स नः स्तवान आ भर गायत्रेण नवीयसा । राय वीरवतीमिषम् ।।

 (नः नवीयसा गायत्त्रेण) हमारे नवीन छन्दोंसे (स्तवानः) स्तुति किया हुआ (सः) वह तू (रयिम्) आनन्दको और (वीरवतीम् इषं) वीरके सामर्थ्य से पूर्ण प्रेरणा शक्तिको (आ भर) ले आ ।

12-  अग्ने शुक्रेण शोचिषा विश्वाभिर्देवहूतिभिः । इमं स्तोमं जुषस्व नः ॥

(अग्ने) हे अग्नि ! (शुक्रेण शोचिषा) अपनी शुभ्र दीप्तियोंके साथ,
 विश्वाभिः देव-हूतिभिः) देवोंका आह्वान करनेवाली अपनी समस्त दिव्य
 _चाओंके साथ आकर (न: इमं स्तोमम्) हमारी इस दृढ़तासाधक स्तुतिको
नुषस्व ) स्वीकार कर ।

Monday, 6 November 2023

ईशोपनिषद:

 

ईशोपनिषद:  

यह उपनिषद् कलेवर  में छोटा है किन्तु विषय के कारण अन्य उपनिषदों के बीच महत्त्वपूर्ण  है। इस उपनिषद् के पहले मंत्र ‘‘ईशावास्यमिदंसर्वंयत्किंच जगत्यां-जगत…’’से लेकर अठारहवें मंत्र ‘‘अग्ने नय सुपथा राये अस्मान् विश्वानि देववयुनानि विद्वान्…’’  तक   में ईश्वर, ब्रह्मांड और सात्विक जीवन शैली को बताया गया है। इसमें ‘असुर्या’ वह लोक जहाँ सूर्य नहीं पहुँच पाता में कहा गया है कि जो लोग आत्म को, ‘स्व’ को नहीं पहचानते हैं, उन्हें मृत्यु के पश्चात् उसी असुर्या नामक लोक में जाना पड़ता है । आत्म’ में ब्रह्म को एकाकार करते हुए बताया है कि वह एक साथ, एक ही समय में भ्रमणशील है, साथ ही अभ्रमणशील भी । वह पास है और दूर भी।  वह सर्वव्यापी, अशरीरी, सर्वज्ञ, स्वजन्मा और मन का शासक है। इस उपनिषद् में विद्या एवं अविद्या दोनों की बात की गई है कि विद्या एवं अविद्या दोनों की उपासना करने वाले घने अंधकार में जाकर गिरते हैं, हाँ विद्या एवं अविद्या को एक साथ जान लेने वाला, अविद्या को समझकर विद्या द्वारा अनुष्ठानित होकर अमरत्व को समझ लेता है। इसमें ब्रह्म के मुख को सुवर्ण पात्र से ढके होने की बात साथ ही सूर्य से पोषण करने वाले से प्रार्थना की। अंतिम श्लोकों में किए गए सभी कर्मों को मन के द्वारा याद किए जाने की बात आती है और अग्नि से प्रार्थना कि पंञभौतिक शरीर के राख में परिवर्तित हो जाने पर वह उसे दिव्य पथ से चरम गंतव्य की ओर उन्मुख कर दे।

  •र्म •ा विधान •िसे ?

अज्ञानी तथा स•ाम व्यक्ति •े लिये •र्म आवश्य• है।  ''सो अ•ामयत जाया में स्यातÓÓ (वृ.उ.1/4/17)

 वही उपनिषद •हता है- ' •िं प्रजया •रिश्यमों मे षां नो अयमात्मा अयं लो•:Ó अर्थात 'हमारी आत्मा ही हमारा लो• है अत: हम संतान ले•र हम क्या •रेगे? (बृ.उ. 4/4/22)। 

अत: श्वेतोपनिषद •ा ऋषि •हता है- '' अत्याश्रमिम्य: परमं पवित्रं प्रोवच सम्य•् ऋषि संगजुष्टमÓÓ । 1/6/21.

•र्म•ाण्ड और उपासना •ा समुच्चय होना चाहिए- ''अन्ध तम: प्रविशन्ति येऽपिद्यामुपासते। विद्यायाम = देवतोपासना और अविद्यायाम= •र्म•ाण्ड।

विद्या- 'सा विद्या या विमुक्तयेÓ।

''विद्या चाविद्यां च यस्तद्वेदोभय सह।

अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुतूÓ -ईष-11

देवताओं •ी पूजा •र•े आदमी सिद्धि •ो प्राप्त •रता है- 'ईश्वरीय गुणों •ो ऐश्वर्य •हते हैं। आठ ऐश्वर्य या सिद्धियाँ इस प्र•ार हैं-

''अणिमा महिमा तथा गरिमा लघिमा तथा।

ईषित्वं च वषित्वं च प्राप्ति: प्र•ाम्यमेव च।।

अर्थात शूक्ष्म हो जाना, विषाल हो जाना, भारी हो जाना, हल्•ा हो जाना, शास• बन जाना, वश में •र लेना, इच्छानुसार वस्तु •ी प्राप्ति और जैसा चाहे  वैसा रूप बना लेना।

''सम्भूतिं च विनाशं च यस्तद्वेभीय सह।

विनाशेन मृत्युं तीर्त्वा सम्भूत्यामृतमश्नुतेÓÓ -

अर्थात जो असंम्भूत अर्थात •ारण ब्रह्म तथा विनाश अर्थात •ार्य ब्रह्म (हिरण्यगर्भ)-दोनों •ो साथ साथ उपासना •रने योग्य जानता है, वह •ार्य-ब्रह्म •ी उपासना से मृत्यु •ो पार •र•े •ारण-ब्रह्म •ी उपसना से अमृत अर्थात् प्र•ृतिलय •ी अवस्था •ो प्राप्त •रता है। ईषा-14  अर्थात सभी जीव अपनी आत्मा ही हो जाते हैÓÓ ('आत्मा-एव-अभूद्-विजानत:Ó)

ऋषि •हता है-

''हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम।

 तत्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये।।

अर्थात हे जगत •े पोश•! (पूषा) सूर्यदेव स्वर्णिम पात्र (हिरण्यगर्भ) •े द्वारा सत्य (•ार्यब्रह्म) •ा जो मुँह ढ•ा हुआ है, मुझ सत्यधर्मा (उपास•) •े दर्शन हेतु वह ढक्कन हटा दीजिए। ईषा.15

''पूषान्ने•र्षे यम सूर्य प्रजापत्य व्यूह रश्मीन्समूह तेजा 

यत्ते रूपं •ल्याणतमं तत्ते पश्यामि योऽसावसौ पुरुष: सोऽहमास्मि।। 16 ईषा

अर्थात जगत •ा पोशण •रने •े •ारण सूर्य •ो पूषा •हते है; अत: हे पूषा! (गगन में) ए•ा•ी विचरण •रने •े •ारण वे ए•र्षि •हे जाते हैं; (अत:) हे ए•र्षि, प्राणों तथा रसों •ो खीच लेने •े •ारण वे सूर्य •हलाते हैं; (अत:) हे सूर्य! प्रजापति •े पुत्र होने से वे प्राजापत्य हैं: (अत:) हे प्राजापत्य! अपनी रश्मियों •ो व्यूह अर्थात हटाइये। अपने तेज अर्थात् ताप देनेवाले प्र•ाश •ो ए•त्र •र•े खीच लीजिए।16, ईषा.

''वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्त शरीरम।

ऊँ •्रतो स्मर •ृतँ स्मर •्रतो स्मर •ृतँ स्मर।।

अर्थात अब मेरा प्राण सर्वव्यापी वायु में विलीन हो जाय; मेरा शरीर भस्म में परिणत हो जाय। ऊँ, हे मेरे मन! अब त• अपने द्वारा •िये हुए •र्म तथा उपासनाओं •ा स्मरण •रो, स्मरण •रो।17 ईषा.

व्याहृतियाँ- भू:, भुव: तथा स्व:- ये तीन व्याहृतियाँ हैं। (तै.उ. 1/5/1) । इनमें से 'भू:Ó अर्थात पृथ्वी •ा सिर है, 'भुव:Ó अर्थात आ•ाश उस•ी दो भुजाएं हैं और 'स्व:Ó अर्थात स्वर्ग उस•े दो चरण हैं। (बृ.उ.5/5/3)

''अग्रे नय सुपथा राये अस्मान्विश्वानि देव वयुनानि विद्वान।

युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठंते नम उक्तिं विधेम।।ÓÓ 18

अर्थात हे अग्नि! हे देव! आप हमारे समस्त •र्म फलों •े ज्ञाता हैं; हमें अपने •र्मफलों •ा भोग •राने •े लिए अच्छे मार्ग से ले चलिए। •ुटिल पापों •ो हमसे दूर •ीजिए। हम आप•ो बारम्बार नमन •रते हैं।

इस तरह से ईषोपनिषद में ऋषि सूर्य और अग्नि देव से प्रार्थना •रता है •ि उसे अमृत •ी ओर ले चलो।

इस तरह से ऋषि अविद्या (•र्म) •े द्वारा मृत्यु •ो पार •र•े विद्या (उपासना) •े द्वारा अमृतत्व •ो प्राप्त •र लेता हैÓÓ  वह विनाश •े (•ार्यब्रह््म) •े द्वारा मृत्यु •ो पार •र•े, सम्भूति (•ारणब्रह्म) •ी उपासना से अमृतत्व •ी प्राप्ति •र लेता है।ÓÓ