Saturday, 27 May 2023
भारतीय ज्ञान एवं शौर्य परम्परा
सम्पादकीय से उपजी यात्रा
सम्पादकीय से उपजी यात्रा
सम्पादकीय यदि लिखी गई है तो पढ़ी भी
जाएगी । सम्पादकीय यदि पढ़ी गई है तो लिखी भी जाएगी। ‘साहित्य परिक्रमा’ जनवरी से मार्च- 2023
की सम्पादकीय को पढ़ा। जब तक सोच रहा था कि कुछ लिखना चाहिए, विचारों
की मधुमख्खियों ने शून्य को प्रवाह से भर दिया। कुछ उतरने सा लगा मानों परा, पश्यन्ति में ही नहीं बदली बल्कि
मध्यमा ने वैखरी को डूबने-उतराने के लिए सीधे अथाह जल राशि में धकेल दिया हो। भावांतरण रूपान्तरण होने लगा।
‘आदि कवि के मूल्य अपनी दृष्टि का आधार हो’ इस
अंक के संपादकीय का शीर्षक है।
सम्पादकीय का शीर्षक पढ़ कर लगा सम्पादक जी ने कोई आलेख जड़ दिया है। ज्यों-ज्यों आगे बढ़ा निर्णय करना कठिन हो रहा
था कि सम्पादकीय के आधार पर आलेख पढ़ रहा हूँ कि आलेखों के आधार पर सम्पादकीय। यह कोई नई बात नहीं है क्योंकि सम्पादक का यह
विशेषाधिकार होता है, वह सम्पादकीय टिप्पणी दे या कितने भी पेज की सम्पादकीय लिखे।
इसकी शायद अभी कोई सीमा भी तय नहीं हुई है । सीमा तय होती तो अनेक गंभीर पुस्तकें
आज हमारे सामने नहीं होती जो कभी किसी पुस्तक की सम्पादकीय के रूप में लिखी गई थी ।यह
भी आज तक कोई सीमा रेखा नहीं है कि सम्पादकीय सपाट अर्थात निरंतर हो या खण्डों में,
शीर्षक उप शीर्षकों में । वैसे तो सम्पादकीय भी एक जल तरंग की तरह
पूर्णिमा-अमावस्या में नया रूप बदलकर सामने आती है । मन के किरणों से मिलकर उमंग भरते -भरते शांति
का सन्देश देती इन्द्रधनुषी बन कर छा जाती है। पत्रिका का सम्पादकीय बाल्मीक और
रामायण महाकाव्य के केंद्र करुणा से प्रारम्भ होती है और गहरे आक्रोश के साथ
तरंगित हो कर कभी मंथर गति से कभी छलांग मारती अचानक भंवर बनकर एजेंडे के अनुसार
एजेंडाधारियों / वामपंथियों को, राम कथा में अपशिष्ट घोलनेवालों को, डूबोना देना चाहती है।
सम्पादकीय
राम कथा में सम्बूक बध को लेकर व्यथित है, आक्रोशित है और स्पष्टीकरण भी है। प्रश्न यह है कि यह कुपाठी कौन हैं ? वस्तुत:
रामकथा का व्याप जिस ढंग से कथा वाचकों ने मसालेदार बनाकर, मीडिया और सोशल मीडिया
ने उसमें छौंका लगाकर परोसा है, उसमें इस तरह की सम्पादकीय स्पष्टीकरण ही दे सकती
है। राम जब भी आस्था और श्रध्दा
के अधिष्ठान से उतर कर राजनीत में आये है, हर काल में इसी रूप में रहे हैं। इसीलिए तुलसी बाबा ने खल वन्दना भी की है, तो राम कथा को जैन
मतावलंबियों ने अपने युग धर्म में अलग ही दिखाया है। फिर भी सम्पादकीय ने अपने धर्म का पालन करते
हुए एक विमर्श सामने खड़ा करने का सार्थक प्रयत्न किया है।
‘जीवन और साहित्य का ‘अंतर्संबंध’ में डॉ. उदय प्रताप सिंह जी भी क्रोच पक्षी के साथ
सामने आते हैं और साहित्य की भूमिका को गहरे पड़ताल के साथ भक्ति में डुबोकर सामने
खडा करते हैं। साहित्य और जीवन की
सूक्ष्म झिल्ली को कायम रखते हुए भी लेखक बताते लिखते है कि साहित्य जीवन मूल्यों
का रक्षक और संस्कारों का संबर्द्धक है। इस आलेख में साहित्य और लोक को अनेक
संत और भक्त कवियों की पंक्तियों के साथ पुष्ट किया है, तो प्रेमचंद, अज्ञेय,
विद्यानिवास मिश्र के कथनों को भी सामने रखा है। आलेख भक्ति साहित्य के अध्येता का है इसलिए
यदि उसमें तुलसी, सूर, जायासी छूट जाएं तो
फिर लिखने का अर्थ ही क्या रहा? हाँ बनारस के बाबा विश्वनाथ जी अवश्य अनुपस्थित
हैं । फ़्रांसिसी मल्लाह और
नेपोलियन की वार्ता मानवीय संवेदना और अपने शीर्षक को चरितार्थ कराती है।
एक
प्रश्न अभी भी है कि साहित्य की इतनी गहरी यात्रा के बाद भी क्या अपनी बात
को पुष्ट करने को अन्यों को लाना आज भी आवश्यक लगता है। शोध परक दृष्टि और आलेख के लिए तो ठीक है
किन्तु प्रबुद्ध पाठक लेखक तो उस स्वतंत्र कोने को झांकना चाहता है जो उसे नयापन
दे। आलेखों में रामचंद्र
शुक्ल शैली का जितना कम उपयोग होगा आज का पाठक उतना प्रभावित होगा। लेकिन प्राध्यापकीय शैली पीछा कहाँ छोड़ती है?
सच कहूं तो पहले मुझे नाम के पहले डॉ. लिखने पर कालर उचकाने की इच्छा होती थी, फिर
प्रो. लिखने पर सीना फूलता था और अब अपने को खोजने और अनुपस्थित रहने की यात्रा
अच्छी लगाती है, यह भी कब तक चलेगी कह नहीं सकता। शायद आलेखों की यात्रा भी अब उदाहरणों की
सहयात्रा से एकांत चाहता है, कुछ नए कोनों के साथ उजास भरा, मिठास भरा ही नहीं तो ऋषिवाणी की स्निग्ध
पीयूषधारा के साथ जो काल की कठोरता में ओझल होती जा रही है।
डॉ रमेश वर्णवाल का
सूरदास केन्द्रित आलेख और उसके अन्दर रामकाव्य की उपस्थिति अच्छी बन पड़ी है। राम कृष्ण में है तो कृष्ण राम में यही अद्वैत
सगुनिया सूर और तुलसी का है । सूर और तुलसी ही हैं जो देसिल वयाना के साथ
सरलता में परिणत होकर व्रज की चौरासी कोसी परिक्रमा और चित्रकूट घिसते चन्दन के
साथ कोकिल कंठ से प्रकट प्रकट होते हैं और आज हिंदी साहित्य ही नहीं तो अनेक
भाषायों के बंजर भूमि में नई-नई पीकों के साथ उपस्थित हैं । कई आचार्य पाठ्यक्रमों से दूर होती इन
महत्वपूर्ण सामग्री को अपने प्रयत्नों से
सामने ला रहे हैं ।
प्रो रसाल सिंह का आलेख संत परम्परा
विशेष रूप से कश्मीर की संत लल्लद पर आधारित है,अच्छा प्रयास है। इसकी विशेषता मीरा और लल्लद के तुलनात्मक
अध्ययन पर आधारित है ।
साहित्य परिक्रमा से यह अपेक्षा रहना स्वाभाविक है कि उसके प्रत्येक अंक में कुछ
अनूदित तो कुछ अन्य प्रदेशों के साहित्यकार और रचनाओं को पाठकों के सामने लाये। सम्पादकीय से
लेकर रसाल सिंह जी के आलेख तक आप एक ही मानस भूमि पर विचरते हैं । साहित्य परिक्रमा को सम्पादकीय से पढ़ना
प्रारम्भ किया और उदय प्रताप सिंह जी का आलेख पढ़ रहा था (दोपहर के भोजन के बाद छत
पर धूप में) कब कुछ पलों को झपकी आई और पढ़ते-पढ़ते पन्ना पलट गया, कब रमेश वर्णवाल
जी का एक पेज पढ़ गया। कुछ समझ में
नहीं आया कि कब डॉ उदय प्रताप सिंह के आलेख से वर्णवाल जी के आलेख में पहुँच गया। कुछ देर में ध्यान में आया की कुछ गड्ड मड्ड
हो रहा है, तब ध्यान आया की दो पेज पलट गया।
यह हुआ विषय वस्तु की समानता और असावधानी, आलस्य और झपकी के कारण। भक्ति साहित्य ही है जो काम, क्रोध,
लोभ, मोह, मद, मात्सर्य इन छः शत्रु और ममता, तृष्णा आदि
दुष्प्रवृत्तियों से जो मनोमय कोष में छिपी रहती है,बचा लेता है।
जैसे ही
आप सूर्यकांत बाली के आलेख में पहुंचते हैं तो प्रतीत होता है कि लेख में सम्पादकीय
से लेकर लल्लद तक की यात्रा का ज्वलंत मंथन चल रहा है। मंथन, भारतीय अस्मिता में बार-बार हुए
संघातों का, आघातों का और भारत के भारत होने का। पश्चिमी तथाकथित संस्कृतिज्ञों के चार असत्यों
का यथा, (एक) भारत में ‘आर्य ’ नामक कोई रेस या नस्ल इस देश में रही है । (दो) भारत के यह आर्य भारत में कहीं बाहर से
आये हैं । (तीन) वेदों के
मन्त्र यायावर अनपढ़ों के प्रलाप हैं।
(चार) महाभारत की रचना रामायण से पहले हुई।
(पांच) वेदों की रचना 1100 से लेकर 1400 ई.पू. हुई थी, आदि आदि।
यहाँ वे जिन मुद्दों को उठा रहे हैं
उनका अपना विशेष अर्थ और सन्देश है।
कारण यह कि जैसे सम्पादकीय में भारतीय विचार के आक्रमण की बात उठाई गई है ठीक उसी
तरह आज रामचरित मानस को लेकर कुतर्क दिए जा रहे हैं, उस समय बाली जी के शब्द और
उनके कुल गोत्र की ओर संकेत को समझना बहुत महत्वपूर्ण हैं। कारण आज केवल भारत और इण्डिया, धर्मनिरपेक्ष
और सर्वधर्मभाव, संस्कृति और कल्चर जैसे शब्दों की ही लड़ाई नहीं रह गई है, तो बाली
जी के इन पौराणिक शब्दों की व्याख्या को भी नई पीढ़ी को समझाना होगा। नई पीढ़ी को ही नहीं तो असंगत आधुनिकतावादियों
के लिए भी यह उतना ही सार्थक है।
तुलसी बाबा के ‘ढोल गंवार सूद्र पशु नारी
’के अर्थ को बिना उन शब्दों के निहतार्थ को जाने नहीं समझ सकते हैं। ऐसे ही अनेक शब्दों को यहाँ संकेत के साथ
समझाया गया है- ब्राह्मणवाद और ब्राहमण धर्म जिन पर टिप्पणी देते हुए बाली जी ने
इन दोनों शब्दों को अभारतीय सिद्ध किया है।
इतनी ही नहीं शब्दों की एक पूरी सूची है मसलन - वेद ( ब्रहम की व्याख्या करनेवाला
) वर्ण, जाति, जातिप्रथा, धर्म, व्यवस्था और प्रथा, विश्वमित्र और विश्वामित्र,
वशिष्ठ (पुरातन निवासी), मनु, मनुस्मृति, कम्मोरेशन वैल्यूम आदि। इन शब्दों में से कुछ की व्याख्या समझे बिना
आज के भ्रमित विमर्श को से पार पाना कठिन ही नहीं असंभव है। मनुस्मृति को लेकर वे कहते है, यह ग्रन्थ मनु
के हजारों-हजारों वर्ष पश्चात उनकी स्मृति में उस काल और परिस्थिति के आधार पर
लिखा गया है, जिसका आज कोई सन्दर्भ जोड़ना अज्ञानता का द्योतक ही है। शब्दों की यात्रा समझें- विशिष्ठ-वस्+ष्ठ
वसिष्ठ, कनियान (छोटा ) कानि +ष्ठ - कनिष्ठ, गुरु + ष्ठ-गरिष्ठ आदि। वे ब्राहमणवाद पर प्रश्न उठाते हुए विश्वमित्र
के तप और विश्वामित्र बनने की ओर संकेत देते हैं कि राजर्षि, से ब्रह्मर्षि की
यात्रा कोई जातिगत यात्रा नहीं है, यह कर्मगत है। ब्रह्म का भाव विना बृहत्तर को समझे आ ही
नहीं सकता।
समझना होगा भारत स्वयं ज्ञान स्वरुप
है और भारतीय उसके उपासक। यही सनातनी
परम्परा है और जिसका आधार तप रहा है।
परन्तु ध्यान रखने वाला तथ्य यह है की तप से वसिष्ठ अनासक्त है तो विश्वमित्र नई
श्रृष्टि की रचना कर सत्यव्रत को इसी देह के साथ स्वर्ग पहुचाने को आशक्त है। और इसके लिए विश्वमित्र को उस महत्वपूर्ण
स्थान पर विश्वामित्र बनने गायत्रीमन्त्र का साक्षात्कार करना पडा जिसे अजयमेरू
कहते थे। दुर्भाग्य कहें या
परम्परा की अज्ञानता उसी अजयमेरू को हमने अजमेर दरगाह बना लिया है। और वह पुष्कर तो बचा है किन्तु मेरु विहीन
चिंतन के सहारे अजेय बनने अजयमेरु की हमारी अदम्यता अधूरी ही रहेगी। अजयमेरु के लिए अनासक्त भाव और परम्परा का
ज्ञान और आचरण दोनों आवश्यक हैं। क्या
राजस्थान का गौरब अजयमेरु फिर अपना स्थान आज के साहित्यकारों से प्राप्त कर सकेगा।
शेष कविता और कहानी पर इतना ही कहना
है कि अच्छी और गंभीर कविताएँ भाव जागरण कराती हैं तो कहानियां संवेदना को
प्रवाहित कराती हैं। कविता यदि
अनुभव से निकलती है तो दिल की गहराइयों तक जाती है। कहानी यदि प्रत्यक्ष भोगी व्यथा का
साक्षात्कार बनती है तो संवेदना को जगाती है। कविता गुनगुनाती है तो कहानी ह्रदय का दुलार
कराती है । अन्यथा सामान्य पत्र
पत्रिकाओं की तरह छपती और बिना स्वान्त: सुखाय बने सम्पादक और प्रबंधक की कृपा पर
सर झुकाएं खड़ी रहती है। यदि वैचारिक
अनुष्ठान इन्हीं आँखों के देखते पूरा करना है तो वैचारिक आलेख और विमर्श के लिए
युवा चाहिए।
अंत में कलाधर शर्मा जी का लोकमंथन
-2022 के समीक्षात्मक आलेख की चर्चा करना
अनिवार्य है। समीक्षा को पढ़कर लगा
इसे कुछ और अतिरिक्त गहराई में जा कर लिखना चाहिए था। 2016 भोपाल से चलकर गोहाटी तक का लोकमंथन का
यह तीसरा पड़ाव था। शायद यह वामन के तीन
पग नहीं हैं क्योकि इन्हें निरंतर चलाना और विश्वज्ञान भण्डार में भारतीय मेधा को
प्रकाशित करना आज की नियति है, अत: यह आगे भी चलेगा । इस तीसरे मंथन के बाद इसकी एक पुस्तिका बनाने की
बात आई होगी, तभी तो मेरे पास एक वयोवृद्ध जन का फोन आया और इसके आकार देने की बात
हुई। मेरे मन में आज भी
एक विषय बार-बार आता है कि क्या अब वह समय नहीं आ गया है कि बड़े और मोटे ग्रंथों
की जगह ऐसे वैचारिक मंथनों के निष्कर्षों को वैसे ही छोटी पुस्तिकाएं बनाकर बांटी
जाए, जैसे ईसाई मिशनरी और रामकृष्ण मिशन के लोग बाँटते हैं।
विचार परिवार के साथ अनेक संगठन शिक्षा, संस्कृति और भारत के भविष्य को लेकर
निरंतर काम कर रहे हैं। लोकमंथन उन
वैचारिक समूहों का नैमिषारण्य है।
प्रायः बड़े विचारक, उद्वोधक वही होते हैं जो इन समूहों से जुड़े होते हैं औ जो अपने
निरंतर कर्मपथ पर चलकर यहाँ अनुभव बाँटते हैं, जिससे कुछ नवनीत निकलता है। कला, संस्कृति, लोक साहित्य,चित्रकला, संगीत,
सिनेमा, नाटक,पत्रकारिता, साहित्य, शिक्षा, परम्परा, राजनीति आदि- आदि विषयों पर
गंभीर विमर्श होता है। इन्हीं
वैचारिक निष्कर्षों के मोटे ग्रन्थ बनते हैं और उनमें से कुछ बड़े ग्रंथालयों में जाते
भी हैं । किन्तु वह सामग्री चाह कर भी उन तक नहीं पहुँच पातीं
जिनका इन्तजार सामान्य जन के द्वारा किया जाता है। क्या हमें अपनी रणनीति पर विचार नहीं करना
चाहिए? क्या तीस-चालीस पेज की छोटी-छोटी पुस्तकें बनाकर वंचित वस्तियों, स्कूलों,
महाविद्यलयों में निःशुल्क नहीं बटनी चाहिए ?
वैचारिक अधिष्ठान से वैचारिक यात्रा प्रतिष्ठानों के माध्यम से युवाओं तक
कैसे पहुंचे, यह आज के समय की मांग है।
सादर
pujy M S Golwalkar ji
माधव
सदाशिव राव गोलवलकर ‘गुरुजी’
‘श्री गुरुजी’
नाम सुनने पर स्वाभाविक रूप से, ‘श्री गुरुजी’
कौन थे? उनकी विशेष गुणवत्ता क्या थी? किसी संगठन के मुखिया थे क्या? देश के लिए उन्होंने
कोई बड़ा काम किया था क्या, आदि-आदि कई प्रश्न मन में आ सकते
हैं। कौन थे ‘श्री गुरुजी’? गुरुजी संघ
के दूसरे सरसंघचालक याने संघ के अखिल भारतीय मुखिया। उनका जन्म सन् 1906 में हुआ था। ‘श्री गुरुजी’ यह
उनका मूल नाम नहीं था। जब वे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में पढ़ाते थे, तब से शिक्षक से लेकर विद्यार्थी तक उनको आदर से ‘गुरुजी’
नाम से सम्बोधित करने लगे। उस समय से वही नाम संघ और देश भर में चल
पड़ा है।
उनका मूल नाम ‘माधव सदाशिवराव गोलवलकर’ था। सदाशिवराव उनके पिता जी का तथा माता जी का नाम लक्ष्मीबाई था। उनका
निवास नागपुर में था। बचपन में ‘श्री गुरुजी’ को ‘मधु’ नाम से पुकार जाता
था। उनके माता-पिता की आठ संतानें अकाल मृत्यु की गोद में चली गयी थीं। नागपुर उन
दिनों आजकल के मध्यप्रदेश में था। पिता जी अध्यापक थे। पिता जी का जहाँ-जहाँ पर
स्थानान्तरण होता रहा, वह सारा प्रदेश हिन्दी भाषा-भाषी ही
था। घर में मातृभाषा मराठी होने पर भी सार्वजनिक तौर पर हिन्दी का प्रयोग होने के
कारण मधु की हिन्दी पर अच्छी पकड़ बनी हुई थी और (विद्यालय में उसका यही नाम
प्रचलित था) अंग्रेजी में भी बहुत अच्छी प्रवीणता पनपने लगी।
सुबह जगाते समय माता जी मधुर आवाज से भक्ति के
स्तोत्र गाती थीं। उसके मन पर उनके संस्कारों की अमिट छाप पड़ती रही। बड़े होने पर
भी माता जी के गीतों को वे भावपूर्ण ढंग से स्मरण करते थे। बचपन से ही माधवराव की
तीक्ष्ण बुद्धिमत्ता और असाधारण स्मरण शक्ति का परिचय होने लगा था। एक बार उसके
महाविद्यालय के आचार्य प्रोफे. गार्डनर बाईबल का पाठ पढ़ा रहे थे। उस पाठ के बीच
में माधवराव ने खड़े होकर अपने प्राध्यापक को कहा, ‘‘इस वाक्य का आपने जो संदर्भ दिया है वह ठीक नहीं है, वास्तव में यह वाक्य ऐसा होना चाहिए।’’ ऐसा कहकर
दूसरा एक वाक्य बोलकर दिखाया। कक्षा के सारे विद्यार्थी अवाक रह गए और प्राध्यापक
गार्डनर भी, परन्तु ‘बाईबल’ लाकर जब वह संदर्भ देखा गया तो माधवराव ने जो कहा था वही सही निकला! कक्षा
समाप्त होने के बाद प्रोफेसर साहब ने प्रेम से उनकी पीठ थपथपायी। इस घटना ने न
केवल स्मरण शक्ति का परिचय कराया बल्कि साहस के साथ सत्य उदघाटित करने की मन:शक्ति
और अदभ्य आत्मविश्वास भी दिखाई।
नागपुर में इंटर तक की शिक्षा पूरी होने के बाद माधवराव वर्ष 1924 में बी.एससी. की पढ़ाई के लिए प्रख्यात काशी हिन्दू विश्वविद्यालय गए।
वहाँ के ग्रंथालय में बहुमूल्य ग्रंथों का विपुल भंडार भरा था! वहाँ जाकर माधवराव
एकाग्रचित से एक के बाद एक पुस्तक पढक़र समाप्त करते थे। एक दिन उनके पैर की अंगुली
में बिच्छू ने काटा, परन्तु माधवराव उस भाग को थोड़ा-सा
काटकर, पोटाशियम परमैगनेट के पानी में पैर रखकर पढऩे में
पूर्ववत् तल्लीन हो गए। उनके एक मित्र ने आश्चर्यचकित होकर पूछा, ‘‘इस भयानक दर्द के बीच में, आपने पढऩा कैसे जारी रखा
है? तब माधवराव ने सहजता से उत्तर दिया, ‘‘बिच्छू ने पैर में काटा है, सिर में तो नहीं!’’
आगे भी चलकर कई बार भयानक शरीर पीड़ा को भी उनके द्वारा शांतचित्त
से सहन करने के दृश्य लोगों ने देखे हैं।
काशी
से एम.एस.सी (प्राणीशास्त्र) प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कर माधवराव नागपुर
वापस आ गए और कुछ माह के पश्चात् चेन्नई के ‘मत्स्यालय’
में शोध कार्य करने हेतु चले गए। लोगों को वहाँ पर भी उनकी कठोर
अनुशासन प्रियता का भी अनुभव आया। एक बार उस प्रयोगशाला की प्रदर्शनी देखने के
लिये हैदराबाद के निजाम आने वाले थे। सबके लिए प्रवेश शुल्क तय हुआ था। निजाम जैसे
बड़े आदमी से वह शुल्क नहीं लेना चाहिए, ऐसा वहाँ के
प्रबन्धक लोग सोचने लगे। परन्तु माधव के आग्रह के कारण निजाम का भी प्रवेश शुल्क
देकर ही अंदर जाना पड़ा।
वर्ष 1929 में उनके पिता जी के सेवानिवृत्त होने से माधवराव के चेन्नई में वक्तव्य
के लिये आवश्यक धन भेजना असम्भव हुआ, इसलिये उन्हें चेन्नई
को शोधकार्य बीच में ही छोड़ कर नागपुर वापस आना पड़ा। उन दिनों माधवराव अपने
मित्रों के लिखे पत्रों में, देश के स्वाधीनता संग्राम में
लगे क्रांतिकारियों की उग्र देशभक्ति के प्रसंगों के बारे में अपने मन में उमड़
रही भावनाओं को व्यक्त करते थे।
अगस्त 1931 से माधवराव काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
में अध्यापन कार्य करने लगे। उस कालखंड में माधवराव के और कई अनोखे सद्गुण प्रकाश
में आने लगे। अपने विद्यार्थियों पर असीम प्रेम के कारण उनकी पढऩे में वे हर
प्रकार की सहायता करते थे, यदि कोई विद्यार्थी गरीब होता तो
उसको आवश्यक पुस्तक खरीद कर देते और परीक्षा का शुल्क भरने के लिये आर्थिक मदद
करते थे। उसके लिए अपने वेतन का काफी बड़ा भाग खर्च करने में उनको आनंद का ही
अनुभव होता था। अपने विषय के ही नहीं दूसरे विषयों के विद्यार्थियों को भी पढ़ाने
में सहायता करने के लिए स्वयं उन विषयों का गहराई से अध्ययन करते थे। इस प्रकार की
सहायता करते समय माधवराव के मन में किसी प्रकार की अपेक्षा नहीं थी। इन कारणों से
तब तक माधवराव नाम से पुकारने वाले विद्यार्थी अब उन्हें ‘श्री
गुरुजी’ के नाम से सम्बोधित करने लगे।
गुरुजी की प्रतिभा और विद्यार्थियों पर उनका
प्रगाढ़ स्नेह ध्यान में आने से पंडित मदनमोहन मालवीय जी उन पर विशेष प्रेम करने
लगे। डॉक्टर जी के द्वारा विद्यार्थी के नाते वहाँ पर भेजे गए नागपुर के स्वयंसेवक
श्री भैयाजी दाणी के द्वारा श्री गुरुजी संघ के संपर्क में आए और उस शाखा के
संघचालक भी बने।
अध्यापन की निर्धारित अवधि पूर्ण होने पर गुरुजी सन् 1933 के फरवरी मास के प्रारम्भ में नागपुर लौट आए तथा यहाँ पर 1935 में उन्होंने कानून की पढ़ाई पूर्ण की। इस बीच ‘श्री
गुरु जी’ का निकट से निरीक्षण करने के लिए डॉक्टर जी उनको
अपने सहवास में रखने का प्रयास भी करते थे और उनकी असामान्य कार्यक्षमता एवं
बुद्धिप्रतिभा को पहचान कर श्री गुरुजी को बढ़ते हुए दायित्व सौंपने लगे।
उन दिनों माता-पिता के मन में ‘मधु’ के विवाह के बारे में चिंता स्वाभाविक थी ।
गुरुजी की माता जी ने उनके सामने यह प्रस्ताव आग्रहपूर्वक रखते समय कहा कि यदि वह
शादी नहीं करेंगे तो गोलवलकर वंश ही समाप्त हो जायेगा। तो श्री गुरुजी ने कड़े
शब्दों में उत्तर दिया कि ‘‘मुझ जैसे अनेक के वंश भी निर्वश
होकर समाज का भला होता हो तो यह आज की परिस्थिति में आवश्यक ही है। इसलिए वंश नष्ट
होने की मुझे यत्किंचित भी चिंता नहीं है। उसके पश्चात् उनके विवाह की चर्चा का
पूर्ण विराम हो गया।
श्री गुरुजी अपने जीवन की दिशा तय करने
के चिंतन में लगे रहते थे। उस समय उनके मन में दो तरफ की खींचातानी का तूफान मच
रहा था। एक ओर मन में हिन्दू समाज की घोर दुर्दशा एवं देश की दास्यता की पीड़ा
सुलग रही थी। दूसरी ओर उनकी जन्मजात आध्यात्मिक पिपासा का जोर था। उन्हीं दिनों
में श्री गुरुजी नागपुर के रामकृष्ण आश्रम के प्रमुख स्वामी भास्करेश्वरानंद जी के
पास जाने लगे। वहाँ श्री अमिताभ महाराज से उनकी प्रगाढ़ मित्रता हुई और पता चला कि
बंगाल की सारगाछी आश्रम में पूज्य रामकृष्ण परमहंस के एक प्रमुख शिष्य स्वामी
अखण्डानन्द जी का आश्रम है। अमिताभ महाराज की सूचना पाकर आध्यात्मिक सद्गुरु की
तलाश में लगे श्री गुरुजी एक दिन वर्ष 1936 में किसी को
भी न बताते हुए अचानक सारगाछी चले गए। उनके माता-पिता या अन्य किसी को भी श्री
गुरुजी कहाँ गए यह पता ही नहीं चला। डॉक्टर केशव बलीराम हेडगेवार को जब श्रीगुरुजी
को आने वाले दिनों में अधिकाधिक दायित्व देने की बात सोच रहे थे, तब श्री गुरुजी एकाएक सारगाछी चले गए। डॉक्टरजी श्री गुरुजी के माता पिता
के समान काफी चिंतित हो गए।
सारगाछी में श्री गुरुजी के व्यक्तित्व का एक और उज्ज्वल पक्ष सामने आया। वहाँ
पर उन्होंने स्वामी अखण्डानन्द जी की सब प्रकार की व्यक्तिगत व्यवस्था और सेवा में
स्वयं को झोंक दिया। उनके कपड़े धोना, उन्हें नहलाना,
चाय बनाकर पिलाना, भोजन की, सोने की व्यवस्था करना आदि श्री गुरुजी का नित्य काम ही बना हुआ था।
स्वामी जी वयोवृद्ध थे और अस्वस्थ भी। कभी-कभी श्री गुरुजी रात भर उनके सिर के पास
बैठकर उनकी आवश्यक सेवा में लगे रहते थे। इस प्रकार पाँच-छ: महीने बीत गए। पूज्य
स्वामी जी ने श्री गुरुजी की निरलस और श्रद्धापूर्ण सेवा से अति प्रसन्न होकर एक
दिन उनको दीक्षा देने का तय किया।
दीक्षा ग्रहण कर श्री गुरुजी भावविभोर हो
गए। उसका वर्णन करते हुए उन्होंने कहा, ‘‘असंख्य जन्मों
के पश्चात् प्राप्त होने वाला सौभाग्य आज मुझे प्राप्त हो गया। मेरा सारा शरीर
रोमांचित हुआ और मुझे लगा कि मैं पूर्ण रूप से बदला हुआ व्यक्ति हूँ।’’ दीक्षा ग्रहण का वह मंगल दिन 13 जनवरी, 1937 मकर संक्रान्ति का था। 24 जनवरी को गुरु
अखंडानन्द महाराज ने श्री गुरुजी को
आशीर्वाद देते हुए कहा, ‘‘मुझ में जो अच्छाई है, वह तुम्हें दे रहा हूँ और तुझमें जो बुराई है वह मुझको दे दो।’’ उस दिन स्वामी जी श्री गुरुजी और अमिताभ महाराज दोनों को पास बिठाकर
रात्रि साढ़े तीन बजे तक अध्यात्म के रहस्य सुनाते रहे।
एक दिन स्वामी जी ने अमिताभ महाराज को
कहा, ‘‘ऐसा लगता है कि गोलवलकर डॉ. हेडगेवार के साथ रहकर
काम करेगा।’’ अपने स्मरण के नाते स्वामी जी ने कमण्डलु आदि
निजी वस्तुएँ श्री गुरुजी की दीं। कुछ दिनों के पश्चात् फरवरी 1937 में पू. स्वामी जी का शरीर पंचतत्व में विलीन हो गया। बाद में श्री
गुरुजी बेलूर मठ के रामकृष्ण आश्रम में कुछ दिनों तक रहकर अमिताभ महाराज के साथ
नागपुर वापस आ गए।
नागपुर में श्री गुरुजी के जीवन में एकदम नए मोड़ का शुभारम्भ हो गया।
डॉक्टर जी के सान्निध्य में उन्होंने एक अत्यन्त प्रेरणादायक राष्ट्र समर्पित
व्यक्तित्व को देखा। किसी आप्त व्यक्ति के द्वारा इस विषय पर पूछने पर श्रीगुरुजी
ने कहा, ‘‘मेरा रुझान अध्यात्म के समान ही राष्ट्र संगठन के
कार्य की ओर भी प्रारम्भ से है। वह कार्य संघ में रहकर अधिक परिणामकारिता से मैं
कर सकूँगा ऐसा मेरा विश्वास है। इसलिए मैंने संघ कार्य में ही स्वयं को समर्पित कर
दिया। मुझे लगता है स्वामी विवेकानंद के तत्वज्ञान और कार्यपद्धति से मेरा यह आचरण
सर्वथा सुसंगत है।’’
इस कार्य में अपने शरीर को चंदन-सा घिसने वाले डॉक्टर जी के जीवन को भी
श्री गुरुजी देख रहे थे। श्री गुरुजी ने 1938 के पश्चात्
संघकार्य को ही अपना जीवन कार्य मान लिया। डाक्टर जी के साथ निरंतर रहते हुए अपना
सारा ध्यान संघ कार्य की वृद्धि पर ही केंद्रित किया, इससे
डॉक्टरजी की सारी चिंता दूर हो गई।
श्री गुरुजी कहते थे कि हमारे प्राचीन आचारों में प्रात:काल सूर्योदय से
पूर्व उठ जाना भी एक आचार है। एक बार एक साधु ने अपनी बाल्यावस्था का मुझसे वर्णन
किया। उसने बताया कि किस प्रकार उसकी माता बहुत सबेरे उठा करती थी और गृहस्थी के
साधारण कार्य करते हुए अपने मधुर स्वर में देवी जगन्माता की महानता का वर्णन करने
वाले विविध पदों का पाठ किया करती थी तथा किस प्रकार उस जगज्जननी के पवित्र
आशीर्वचनों का आव्हान करने वाले शब्दों से उसे जगाती थी। साधू ने बताया कि उन्हीं
पवित्र शब्दों ने जिन्हें मैं निद्रा का त्याग करते समय प्रात:काल सुना करता था,
मुझमें बहुत गहराई से प्रविष्ट होकर मुझे शुद्ध किया, सभी सांसारिक प्रलोभनों पर विजय प्राप्त करने की श्रद्धा एवं शक्ति दी तथा
अपने आपको उस माता की सेवा में समर्पित करने की प्रेरणा दी। यही होते हैं हिन्दू
संस्कार। हम अपने जीवन को दिनभर प्रात: से रात्रि तक अनुशासन के भाव से एक आकार
प्राप्त करें। हिन्दू का जन्म अनुशासन एवं आत्मसंयम से परिपूर्ण जीवन-क्रम में
प्रशिक्षित होने के लिए हुआ है, जो उसे जीवन में श्रेष्ठतम
लक्ष्य प्राप्त करने के लिए आवश्यक शुद्धता और शक्ति प्रदान करता है।
कभी-कभी लोग यह समझ नहीं पाते कि परिधान भी मस्तिष्क पर कितना निर्णायक
प्रभाव डाल सकते हैं। प्रथम विश्व युद्ध के समय की एक रोचक घटना है। उस समय की
अंग्रेज सरकार ने एक आपातकालीन अध्यादेश जारी कर समस्त सेवानिवृत्त सैनिकों का
तुरन्त सेना में आने का आदेश दिया। एक
सैनिक की इच्छा सेना में पुन: जाने की नहीं थी, अत: वह गाँव
में ही रह गया। जब पुलिस तलाशी वारंट लेकर गाँव में आई, वह
महिलाओं के वस्त्र पहनकर घर में छिप गया। उसी ने पुलिस को बताया कि वह घर में नहीं
है, केवल उसकी बहन ही उसके साथ है, परन्तु
पुलिस को संदेह हो गया। तथाकथित ‘बहन’ को
पुकारा और सत्य सामने आ गया और वे उसे पकडक़र ले गए। उसे अपनी पुरानी टुकड़ी की ओर
भेज दिया गया। वहाँ उसे सैनिक वेश देकर सैनिक टुकड़ी में सम्मिलित होने के लिए कहा
गया। जब वह सैनिक वेश में तैयार हो गया तब उससे पूछा गया कि क्या वह घर लौटना
चाहता है? उसने कडक़कर कहा अब वह एक सैनिक है। अत: घर वापस
जाने का प्रश्न ही नहीं है, अब वह युद्धस्थल पर जाएगा। निस्संदेह यह परिवर्तन वेश -भूषा के कारण ही हो
सका।’
गुरुजी का मानना था कि स्त्री एक माता के रूप में बच्चों को वीरों के रूप
में ढाल सकती है, उनमें भगवद्भक्ति की भावना भर सकती है और
देश प्रेम और समाज सेवा की प्रवृत्ति का निर्माण कर सकती है। माँ को अपनी भूमिका
अपने घर तक सीमित न रखते हुए वैयक्तिक हैसियत से आसपास की कम भाग्यवान् महिलाओं व
बच्चों की चिन्ता करनी चाहिए। महिलाएँ संगठित रूप से भी कार्य कर सकती हैं और
उन्हें करना चाहिए। संगठित कार्य ही सामाजिक कार्यों की गति को बढ़ा सकती है। वे
किसी के काम में न हस्तक्षेप करते थे और न बिन माँगी जाने पर भी बिना इस बात का
आग्रह किये कि उनकी माँग मानी जाये, वे अपनी सलाह दिया करते
थे। श्री गुरुजी दार्शनिक विचारक थे। राष्ट्रजीवन के प्राय: सभी पहलुओं पर
उन्होंने अपने विचार प्रगट किए हैं।
राष्ट्र की अर्थनीति आदि विषयों पर आपने
मूलगामी चिंतन प्रगट किया है। उनका चिंतन/विचार हमेशा समग्र चिंतन रहा करता था।
चिंतन की मूलाधारा शाश्वत, सनातन है इसलिए ‘सत्य’ रहती थी। यद्यपि उनका चिंतन हिन्दू समाज के संदर्भ में चलता रहा,
फिर भी उसमें वैश्विकता थी। मानव जाति के व्यापक संदर्भ में वे अपने
विचार प्रगट करते रहे। चिंतन की जड़ में अध्यात्म
रहा करता था।
विचारों का प्रकटीकरण अनुभूति के आधार पर होने के कारण खोखले शब्द,
शुष्क तर्कवाद, प्रतिपक्ष के खंडन में आनंद यह
उनकी विषेशता कभी नहीं रही। सत्य को समाज के सामने रखते समय वे हमेशा निर्भय,
निर्वैर रहा करते थे। उनके किसी भी चिंतन का अध्ययन करते समय इन
विशेषताओं को ध्यान में रखना पड़ता है। सामाजिक समरसता के संदर्भ में श्री गुरुजी
के विचार बहुत महत्त्वपूर्ण थे। श्री गुरुजी ने आदर्श समाज की स्थिति वर्णव्यवस्था,
जाति व्यवस्था, अस्पृश्यता, वनवासी बाँधवों की स्थिति समाज धारणा में धर्म का स्थान, समाज को उन्नत दिशा में ले जाने में धर्माचार्यों का योगदान, जातिभेद और राजनीति, भेदों को दूर करने के उपाय,
दरिद्र नारायण की उपासना इन विषयों पर अपना चिंतन स्पष्ट शब्दों में
समाज के सामने रखा है।
आदर्श समाज स्थिति का सपना अनेक तत्त्वविदों ने, समाज
शास्त्रियों ने, मनीषियों ने रखा है। आधुनिक काल में कालमार्क्स
ने समतायुक्त, शोषणमुक्त, शासनविहीन
समाज का सपना रखा। महात्मा गाँधी ने अहिंसा और सत्य पर आधारित सर्वोदय समाज का
सपना देखा। डॉ. बाबा साहेब आंबेडकर से स्वतंत्रता, समता,
बंधुता और न्याय पर आधारित समाज रचना का सपना देखा। श्री गुरुजी ऐसा
कोई काल्पनिक आदर्श समाज का चित्र नहीं रखते। वे अपने प्राचीनतम इतिहास के आयने
में देखकर श्रेष्ठ समाज रचना का चित्र, जो किसी समय वास्तविकता थी, सम्मुख रखते
हैं। उनका मानना था कि अखंड मंडलाकार विश्व को एकात्मता का साक्षात्कार कराने वाले
धर्म के आधार पर प्रत्येक अपनी प्रकृति को जानकर दूसरे के सुख के लिए काम करता है।
सत्ता न होते हुए भी केवल धर्म के कारण न तो एक दूसरे पर आघात होते थे, न आपस में संघर्ष ही होता था। चराचर के कारण एकात्मता का साक्षात्कार होने
के कारण किसी प्रकार बाहृा नियंत्रण न होते हुए भी मनुष्य ‘नायं
हन्ति न हन्यते’ के भाव के अनुसार पूर्ण शांति व्यवहार करता
है। यह सतयुग की कल्पना है।’’
आदर्श समाज का कैसे निर्माण होगा, इस पर उनके विचार
थे कि युग की परिभाषा में कहना होगा तो आज हम कलियुग से गुजर रहे हैं। इर्ष्या,
स्पर्धा, द्वेष, अविश्वास,
भोग लालसा आदि इस युग की विशेषताएँ हैं। सब प्रकार की असमानता,
शोषण, अन्याय इस युग की पहचान है। आर्थिक,
राजनीतिक, वैचारिक आदि सभी आधारों पर लोग
संघर्ष के लिए तैयारी कर रहे हैं। आत्मौपम्य बुद्धि कम हो गई है। धर्म की कमी के
कारण उत्पन्न आज का दु:ख दैन्य और अशांति से परिपूर्ण जीवन ही रह जाता है।
आदर्श समाज कैसे निर्माण हो इस पर श्री गुरुजी कहते थे कि आदर्श समाज की
रचना केवल रट लगाने से नहीं होगी। उस लक्ष्य प्राप्ति के लिए निरंतर कष्ट उठाने
पड़ेंगे। सम्पूर्ण समाज की एकात्मता का अनुभव पूर्ण राष्ट्र की सेवा। अपना
सुख-दु:ख भूलकर भी अपने बंधुओं के लिए सर्वस्वार्पण करते जाना। इसी से संपूर्ण
मानव समाज के साथ समान सुख-दु:ख की भूमिका उत्पन्न होगी। यह सारा कार्य धर्मभाव
जागरण से ही संभव होगा। जैसे मानवीय शरीर में विविध अवयव होते हैं, उनके आकार और कार्य भी अलग-अलग होते हैं। लेकिन कोई भी अवयव शरीर की बुराई
के लिए काम नहीं करता। परस्पर पूरक तथा परस्पर-अनुकूल व्यवहार उनका होते रहता है।
शरीर रचना और उनके विभिन्न अंगों में विद्यमान सामरस्य भाव समाज में भी उत्पन्न हो
सकता है। वे मानते हैं कि ‘‘अपने मूल रूप में उस समाज
व्यवस्था में घटकों के मध्य बड़े-छोटे अथवा ऊँच-नीच की भावना का कोई निशान नहीं
था। समाज के संबंध में यह भावना रखी गई कि वह उस सर्व शक्तिमान परमात्मा का
चतुर्दिक अभिव्यक्त स्वरूप है जो सभी के लिए अपनी-अपनी क्षमता एवं पद्धतियों से
पूजनीय है।
जातिप्रथा की सबसे भयानक उपज अस्पृश्यता
की रूढि़ है। हिन्दू धर्म तत्त्वज्ञान सभी जीवों में एक ही चैतन्य, आत्मतत्व देखने को कहता है। सभी मानवों में ईश्वर का निवास देखने को कहता
है। भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते
हैं- ‘सर्वस्य चाहं
हृदि संन्निविष्टो’- सभी के हृदय में मेरा निवास है। इतना
श्रेष्ठ तत्वज्ञान रहते हुए भी अपने ही समाज के अंग रहे करोड़ों बंधुओं को ‘अस्पृश्य’ माना गया। उनको गाँव से बाहर रखा गया।
उनका स्पर्श तथा छाया भी अपवित्र मानी गयी। उन पर सामाजिक दासता थोपी गई। उन्होंने
कौन-सा व्यवसाय करना, कौन-से कपड़े-गहने पहनना, कहाँ रहना, क्या खाना इस संदर्भ में कड़े नियम बनाए।
उनका कठोरता से तथा निर्दयता से पालन किया गया। अछूत बंधु की अवस्था जानवर से भी
निकृष्टतम की गई।
इसमें सबसे बुरी बात यह रही कि अस्पृश्यता को ही
धर्म माना गया। अस्पृश्यता की रूढि़ का पालन नहीं करना याने धर्म द्रोही वर्तन
करना यह आम धारणा बनाई गई। यह धारणा लोगों के दिलो-दिमाग पर छाई रही। इस कुप्रथा
को अपने समाज में से जड़ से निकालकर कैसे फेंके इसकी चिंता उनके अंत:करण में सदैव
रहा करती थी। अस्पृश्यता की रूढि़ को उन्होंने तीन खेमों में बाँटा- एक है सवर्ण समाज
जो अस्पृश्यों को अस्पृश्य कहता है। दूसरा है अस्पृष्य समाज को खुद को अस्पृष्य
समझता है और तीसरा है धर्माचार्यों का वर्ग जो इस रूढि़ को धार्मिक मान्यता प्रदान
करता है। गुरुजी ने इन तीनों मोर्चों पर ऐतिहासिक कार्य करके समाज में समरसता लाने
का भरसक प्रयास किया।
पूज्य धर्माचार्यों का ऐतिहासिक निर्देश इस प्रकार है, समस्त हिन्दू समाज को अविभाज्य एकात्मता के सूत्र में पिरोकर संघटित करने
एवं स्पृश्य-अस्पृश्य की भावना व प्रवृत्ति से प्रेरित विघटन को रोकने के उद्देश्य
की प्राप्ति हेतु विश्वभर में हिंदुओं को अपने पारस्परिक व्यवहार में एकात्मता एवं
समानता की भावना को बराबर रखना चाहिए।
गुरुजी के जीवन-दर्शन का सबसे बड़ा वैशिष्टय यह
था कि वे जैसा बोलते थे वैसा ही व्यवहार किया करते थे। तत्त्व चर्चा में जाति भेद, अस्पृष्यता का खंडन और व्यवहार में उसका आचरण ऐसी बात उनके जीवन में नहीं
थी। दो घटनाओं से इसे समझना चाहिए-
बिहार की एक उपेक्षित बस्ती में श्री गुरुजी गए थे। बस्ती के लोगों ने
उनका स्वागत किया। गपशप हुई, चायपान हुआ और वे गाड़ी से आगे
निकल पड़े। थोड़े ही समय के बाद गाड़ी के (ड्रायवर को) चालक को मिचली-सी आ गई और
उल्टी हुई, थोड़ी देर बाद एक-एक कर के अन्य चार लोगों को भी
उल्टी हो गई। सारे लोग श्री गुरुजी को उल्टी होने के राह देखने लगे और चायपान के
संबंध में बातें करते रहे। श्री गुरुजी पर इस बात का कोई असर न हुआ और उन्हें
उल्टी भी न हुई। उनके सहकारियों ने उनकी पाचन शक्ति के बारे में पूछा तब श्री
गुरुजी ने कहा, आप लोगों का ध्यान बस्ती की अस्वच्छता,
गंदगी पर रहा, उसकी जगह उन लोगों के आतिथ्य,
अकृत्रिम स्नेह की तरफ आप लोग ध्यान देते तो आपको चाय हजम हो जाती।
आपने वहाँ की गंदगी पी डाली और मैंने वहाँ का प्यार, स्नेह।
उसी अमृत पर तो मैं जी रहा हूँ। उसी से मेरा पोषण होता है, तो
ऐसे स्नेह से मिचली कैसे हो?
उनका मत था कि वनों में रहने वाले
बंधुजनों के साथ हमको समरस होना चाहिए, इसलिए क्या करना
चाहिए यह बताते हुए श्री गुरुजी कहते हैं, ‘‘अब यह हमारा परम
कर्तव्य है कि हम इन उपेक्षित बंधुओं के बीच जाएँ और उनके जीवन स्तर में सुधार
लाने हेतु पूरी शक्ति से जुट जाएँ। हमें ऐसी योजनाएँ बनानी होंगी। जिनसे उनकी
मूलभूत भौतिक आवश्यकताओं एवं सुख-साधनों की पूर्ति हो सके। उन्हें इन योजनाओं से
लाभान्वित कराने हेतु हमें विद्यालय, छात्रावास व प्रशिक्षण
केन्द्र खोलने होंगे।’’ शेष समाज के साथ उनको समरस करने हेतु
‘हमें ऊँच-नीच की मिथ्या धारणाओं का परित्याग कर समता की
भावना के साथ उनमें घुलना-मिलना चाहिए।’’
वनवासी बंधु शेष समाज से इसलिए कटे रहे क्योंकि
सैकड़ों सालों तक हिन्दू समाज ने उनकी ओर ध्यान ही नहीं दिया। स्नेह-संपर्क का
आभाव रहा। उन्हें शिक्षा से वंचित रखा गया। उपयुक्त तकनीकी शिक्षा तथा अन्य
प्रशिक्षण के अभाव के कारण उनकी उत्पादन क्षमता घटी और वे गरीब बनते गए। धर्म का
ज्ञान भी उनके पास न जाने के कारण अंधविश्वास और उससे जुड़े कर्मकाण्डों में वे
फँसे रहे। वे समस्त समाज को स्मरण दिलाते हैं कि कितनी भी कठिनाइयों से गुजरना
पड़े, कितना भी कष्ट उठाने पड़े, हमें
वनवासी आँचलों में जाकर कार्य करना पड़ेगा। शेष हिन्दू समाज का कार्य है कि वह
उनके बीच जाएँ, उन्हें शिक्षित बनाएँ और उनके सांस्कृतिक
स्तर तथा जीवन स्थितियों में उत्कर्ष लाकर अपनी भूल का प्रायश्चित करें।’’
वे आगे कहते हैं ‘‘भारत के अल्पसंख्यकों की अपनी
पृथकता की बात न करते हुए राष्ट्र जीवन के साथ समरस होना ही चाहिए। यदि वे अपनी
पृथकता की बात सोचते रहे, तो वह बढ़ती ही जाएगी। यह भी दिखाई
देता है कि इस अलगाव को उकसाते रहने से वह बढ़ता ही जा रहा है। राष्ट्र-जीवन के
साथ समरस होने तथा पृथकता को सर्वथा त्याज्य मानने से अल्पसंख्यक राष्ट्र जीवन में
पूर्णत: विलीन होंगे, यही इस समस्या का हल है।