सम्पादकीय से उपजी यात्रा
सम्पादकीय यदि लिखी गई है तो पढ़ी भी
जाएगी । सम्पादकीय यदि पढ़ी गई है तो लिखी भी जाएगी। ‘साहित्य परिक्रमा’ जनवरी से मार्च- 2023
की सम्पादकीय को पढ़ा। जब तक सोच रहा था कि कुछ लिखना चाहिए, विचारों
की मधुमख्खियों ने शून्य को प्रवाह से भर दिया। कुछ उतरने सा लगा मानों परा, पश्यन्ति में ही नहीं बदली बल्कि
मध्यमा ने वैखरी को डूबने-उतराने के लिए सीधे अथाह जल राशि में धकेल दिया हो। भावांतरण रूपान्तरण होने लगा।
‘आदि कवि के मूल्य अपनी दृष्टि का आधार हो’ इस
अंक के संपादकीय का शीर्षक है।
सम्पादकीय का शीर्षक पढ़ कर लगा सम्पादक जी ने कोई आलेख जड़ दिया है। ज्यों-ज्यों आगे बढ़ा निर्णय करना कठिन हो रहा
था कि सम्पादकीय के आधार पर आलेख पढ़ रहा हूँ कि आलेखों के आधार पर सम्पादकीय। यह कोई नई बात नहीं है क्योंकि सम्पादक का यह
विशेषाधिकार होता है, वह सम्पादकीय टिप्पणी दे या कितने भी पेज की सम्पादकीय लिखे।
इसकी शायद अभी कोई सीमा भी तय नहीं हुई है । सीमा तय होती तो अनेक गंभीर पुस्तकें
आज हमारे सामने नहीं होती जो कभी किसी पुस्तक की सम्पादकीय के रूप में लिखी गई थी ।यह
भी आज तक कोई सीमा रेखा नहीं है कि सम्पादकीय सपाट अर्थात निरंतर हो या खण्डों में,
शीर्षक उप शीर्षकों में । वैसे तो सम्पादकीय भी एक जल तरंग की तरह
पूर्णिमा-अमावस्या में नया रूप बदलकर सामने आती है । मन के किरणों से मिलकर उमंग भरते -भरते शांति
का सन्देश देती इन्द्रधनुषी बन कर छा जाती है। पत्रिका का सम्पादकीय बाल्मीक और
रामायण महाकाव्य के केंद्र करुणा से प्रारम्भ होती है और गहरे आक्रोश के साथ
तरंगित हो कर कभी मंथर गति से कभी छलांग मारती अचानक भंवर बनकर एजेंडे के अनुसार
एजेंडाधारियों / वामपंथियों को, राम कथा में अपशिष्ट घोलनेवालों को, डूबोना देना चाहती है।
सम्पादकीय
राम कथा में सम्बूक बध को लेकर व्यथित है, आक्रोशित है और स्पष्टीकरण भी है। प्रश्न यह है कि यह कुपाठी कौन हैं ? वस्तुत:
रामकथा का व्याप जिस ढंग से कथा वाचकों ने मसालेदार बनाकर, मीडिया और सोशल मीडिया
ने उसमें छौंका लगाकर परोसा है, उसमें इस तरह की सम्पादकीय स्पष्टीकरण ही दे सकती
है। राम जब भी आस्था और श्रध्दा
के अधिष्ठान से उतर कर राजनीत में आये है, हर काल में इसी रूप में रहे हैं। इसीलिए तुलसी बाबा ने खल वन्दना भी की है, तो राम कथा को जैन
मतावलंबियों ने अपने युग धर्म में अलग ही दिखाया है। फिर भी सम्पादकीय ने अपने धर्म का पालन करते
हुए एक विमर्श सामने खड़ा करने का सार्थक प्रयत्न किया है।
‘जीवन और साहित्य का ‘अंतर्संबंध’ में डॉ. उदय प्रताप सिंह जी भी क्रोच पक्षी के साथ
सामने आते हैं और साहित्य की भूमिका को गहरे पड़ताल के साथ भक्ति में डुबोकर सामने
खडा करते हैं। साहित्य और जीवन की
सूक्ष्म झिल्ली को कायम रखते हुए भी लेखक बताते लिखते है कि साहित्य जीवन मूल्यों
का रक्षक और संस्कारों का संबर्द्धक है। इस आलेख में साहित्य और लोक को अनेक
संत और भक्त कवियों की पंक्तियों के साथ पुष्ट किया है, तो प्रेमचंद, अज्ञेय,
विद्यानिवास मिश्र के कथनों को भी सामने रखा है। आलेख भक्ति साहित्य के अध्येता का है इसलिए
यदि उसमें तुलसी, सूर, जायासी छूट जाएं तो
फिर लिखने का अर्थ ही क्या रहा? हाँ बनारस के बाबा विश्वनाथ जी अवश्य अनुपस्थित
हैं । फ़्रांसिसी मल्लाह और
नेपोलियन की वार्ता मानवीय संवेदना और अपने शीर्षक को चरितार्थ कराती है।
एक
प्रश्न अभी भी है कि साहित्य की इतनी गहरी यात्रा के बाद भी क्या अपनी बात
को पुष्ट करने को अन्यों को लाना आज भी आवश्यक लगता है। शोध परक दृष्टि और आलेख के लिए तो ठीक है
किन्तु प्रबुद्ध पाठक लेखक तो उस स्वतंत्र कोने को झांकना चाहता है जो उसे नयापन
दे। आलेखों में रामचंद्र
शुक्ल शैली का जितना कम उपयोग होगा आज का पाठक उतना प्रभावित होगा। लेकिन प्राध्यापकीय शैली पीछा कहाँ छोड़ती है?
सच कहूं तो पहले मुझे नाम के पहले डॉ. लिखने पर कालर उचकाने की इच्छा होती थी, फिर
प्रो. लिखने पर सीना फूलता था और अब अपने को खोजने और अनुपस्थित रहने की यात्रा
अच्छी लगाती है, यह भी कब तक चलेगी कह नहीं सकता। शायद आलेखों की यात्रा भी अब उदाहरणों की
सहयात्रा से एकांत चाहता है, कुछ नए कोनों के साथ उजास भरा, मिठास भरा ही नहीं तो ऋषिवाणी की स्निग्ध
पीयूषधारा के साथ जो काल की कठोरता में ओझल होती जा रही है।
डॉ रमेश वर्णवाल का
सूरदास केन्द्रित आलेख और उसके अन्दर रामकाव्य की उपस्थिति अच्छी बन पड़ी है। राम कृष्ण में है तो कृष्ण राम में यही अद्वैत
सगुनिया सूर और तुलसी का है । सूर और तुलसी ही हैं जो देसिल वयाना के साथ
सरलता में परिणत होकर व्रज की चौरासी कोसी परिक्रमा और चित्रकूट घिसते चन्दन के
साथ कोकिल कंठ से प्रकट प्रकट होते हैं और आज हिंदी साहित्य ही नहीं तो अनेक
भाषायों के बंजर भूमि में नई-नई पीकों के साथ उपस्थित हैं । कई आचार्य पाठ्यक्रमों से दूर होती इन
महत्वपूर्ण सामग्री को अपने प्रयत्नों से
सामने ला रहे हैं ।
प्रो रसाल सिंह का आलेख संत परम्परा
विशेष रूप से कश्मीर की संत लल्लद पर आधारित है,अच्छा प्रयास है। इसकी विशेषता मीरा और लल्लद के तुलनात्मक
अध्ययन पर आधारित है ।
साहित्य परिक्रमा से यह अपेक्षा रहना स्वाभाविक है कि उसके प्रत्येक अंक में कुछ
अनूदित तो कुछ अन्य प्रदेशों के साहित्यकार और रचनाओं को पाठकों के सामने लाये। सम्पादकीय से
लेकर रसाल सिंह जी के आलेख तक आप एक ही मानस भूमि पर विचरते हैं । साहित्य परिक्रमा को सम्पादकीय से पढ़ना
प्रारम्भ किया और उदय प्रताप सिंह जी का आलेख पढ़ रहा था (दोपहर के भोजन के बाद छत
पर धूप में) कब कुछ पलों को झपकी आई और पढ़ते-पढ़ते पन्ना पलट गया, कब रमेश वर्णवाल
जी का एक पेज पढ़ गया। कुछ समझ में
नहीं आया कि कब डॉ उदय प्रताप सिंह के आलेख से वर्णवाल जी के आलेख में पहुँच गया। कुछ देर में ध्यान में आया की कुछ गड्ड मड्ड
हो रहा है, तब ध्यान आया की दो पेज पलट गया।
यह हुआ विषय वस्तु की समानता और असावधानी, आलस्य और झपकी के कारण। भक्ति साहित्य ही है जो काम, क्रोध,
लोभ, मोह, मद, मात्सर्य इन छः शत्रु और ममता, तृष्णा आदि
दुष्प्रवृत्तियों से जो मनोमय कोष में छिपी रहती है,बचा लेता है।
जैसे ही
आप सूर्यकांत बाली के आलेख में पहुंचते हैं तो प्रतीत होता है कि लेख में सम्पादकीय
से लेकर लल्लद तक की यात्रा का ज्वलंत मंथन चल रहा है। मंथन, भारतीय अस्मिता में बार-बार हुए
संघातों का, आघातों का और भारत के भारत होने का। पश्चिमी तथाकथित संस्कृतिज्ञों के चार असत्यों
का यथा, (एक) भारत में ‘आर्य ’ नामक कोई रेस या नस्ल इस देश में रही है । (दो) भारत के यह आर्य भारत में कहीं बाहर से
आये हैं । (तीन) वेदों के
मन्त्र यायावर अनपढ़ों के प्रलाप हैं।
(चार) महाभारत की रचना रामायण से पहले हुई।
(पांच) वेदों की रचना 1100 से लेकर 1400 ई.पू. हुई थी, आदि आदि।
यहाँ वे जिन मुद्दों को उठा रहे हैं
उनका अपना विशेष अर्थ और सन्देश है।
कारण यह कि जैसे सम्पादकीय में भारतीय विचार के आक्रमण की बात उठाई गई है ठीक उसी
तरह आज रामचरित मानस को लेकर कुतर्क दिए जा रहे हैं, उस समय बाली जी के शब्द और
उनके कुल गोत्र की ओर संकेत को समझना बहुत महत्वपूर्ण हैं। कारण आज केवल भारत और इण्डिया, धर्मनिरपेक्ष
और सर्वधर्मभाव, संस्कृति और कल्चर जैसे शब्दों की ही लड़ाई नहीं रह गई है, तो बाली
जी के इन पौराणिक शब्दों की व्याख्या को भी नई पीढ़ी को समझाना होगा। नई पीढ़ी को ही नहीं तो असंगत आधुनिकतावादियों
के लिए भी यह उतना ही सार्थक है।
तुलसी बाबा के ‘ढोल गंवार सूद्र पशु नारी
’के अर्थ को बिना उन शब्दों के निहतार्थ को जाने नहीं समझ सकते हैं। ऐसे ही अनेक शब्दों को यहाँ संकेत के साथ
समझाया गया है- ब्राह्मणवाद और ब्राहमण धर्म जिन पर टिप्पणी देते हुए बाली जी ने
इन दोनों शब्दों को अभारतीय सिद्ध किया है।
इतनी ही नहीं शब्दों की एक पूरी सूची है मसलन - वेद ( ब्रहम की व्याख्या करनेवाला
) वर्ण, जाति, जातिप्रथा, धर्म, व्यवस्था और प्रथा, विश्वमित्र और विश्वामित्र,
वशिष्ठ (पुरातन निवासी), मनु, मनुस्मृति, कम्मोरेशन वैल्यूम आदि। इन शब्दों में से कुछ की व्याख्या समझे बिना
आज के भ्रमित विमर्श को से पार पाना कठिन ही नहीं असंभव है। मनुस्मृति को लेकर वे कहते है, यह ग्रन्थ मनु
के हजारों-हजारों वर्ष पश्चात उनकी स्मृति में उस काल और परिस्थिति के आधार पर
लिखा गया है, जिसका आज कोई सन्दर्भ जोड़ना अज्ञानता का द्योतक ही है। शब्दों की यात्रा समझें- विशिष्ठ-वस्+ष्ठ
वसिष्ठ, कनियान (छोटा ) कानि +ष्ठ - कनिष्ठ, गुरु + ष्ठ-गरिष्ठ आदि। वे ब्राहमणवाद पर प्रश्न उठाते हुए विश्वमित्र
के तप और विश्वामित्र बनने की ओर संकेत देते हैं कि राजर्षि, से ब्रह्मर्षि की
यात्रा कोई जातिगत यात्रा नहीं है, यह कर्मगत है। ब्रह्म का भाव विना बृहत्तर को समझे आ ही
नहीं सकता।
समझना होगा भारत स्वयं ज्ञान स्वरुप
है और भारतीय उसके उपासक। यही सनातनी
परम्परा है और जिसका आधार तप रहा है।
परन्तु ध्यान रखने वाला तथ्य यह है की तप से वसिष्ठ अनासक्त है तो विश्वमित्र नई
श्रृष्टि की रचना कर सत्यव्रत को इसी देह के साथ स्वर्ग पहुचाने को आशक्त है। और इसके लिए विश्वमित्र को उस महत्वपूर्ण
स्थान पर विश्वामित्र बनने गायत्रीमन्त्र का साक्षात्कार करना पडा जिसे अजयमेरू
कहते थे। दुर्भाग्य कहें या
परम्परा की अज्ञानता उसी अजयमेरू को हमने अजमेर दरगाह बना लिया है। और वह पुष्कर तो बचा है किन्तु मेरु विहीन
चिंतन के सहारे अजेय बनने अजयमेरु की हमारी अदम्यता अधूरी ही रहेगी। अजयमेरु के लिए अनासक्त भाव और परम्परा का
ज्ञान और आचरण दोनों आवश्यक हैं। क्या
राजस्थान का गौरब अजयमेरु फिर अपना स्थान आज के साहित्यकारों से प्राप्त कर सकेगा।
शेष कविता और कहानी पर इतना ही कहना
है कि अच्छी और गंभीर कविताएँ भाव जागरण कराती हैं तो कहानियां संवेदना को
प्रवाहित कराती हैं। कविता यदि
अनुभव से निकलती है तो दिल की गहराइयों तक जाती है। कहानी यदि प्रत्यक्ष भोगी व्यथा का
साक्षात्कार बनती है तो संवेदना को जगाती है। कविता गुनगुनाती है तो कहानी ह्रदय का दुलार
कराती है । अन्यथा सामान्य पत्र
पत्रिकाओं की तरह छपती और बिना स्वान्त: सुखाय बने सम्पादक और प्रबंधक की कृपा पर
सर झुकाएं खड़ी रहती है। यदि वैचारिक
अनुष्ठान इन्हीं आँखों के देखते पूरा करना है तो वैचारिक आलेख और विमर्श के लिए
युवा चाहिए।
अंत में कलाधर शर्मा जी का लोकमंथन
-2022 के समीक्षात्मक आलेख की चर्चा करना
अनिवार्य है। समीक्षा को पढ़कर लगा
इसे कुछ और अतिरिक्त गहराई में जा कर लिखना चाहिए था। 2016 भोपाल से चलकर गोहाटी तक का लोकमंथन का
यह तीसरा पड़ाव था। शायद यह वामन के तीन
पग नहीं हैं क्योकि इन्हें निरंतर चलाना और विश्वज्ञान भण्डार में भारतीय मेधा को
प्रकाशित करना आज की नियति है, अत: यह आगे भी चलेगा । इस तीसरे मंथन के बाद इसकी एक पुस्तिका बनाने की
बात आई होगी, तभी तो मेरे पास एक वयोवृद्ध जन का फोन आया और इसके आकार देने की बात
हुई। मेरे मन में आज भी
एक विषय बार-बार आता है कि क्या अब वह समय नहीं आ गया है कि बड़े और मोटे ग्रंथों
की जगह ऐसे वैचारिक मंथनों के निष्कर्षों को वैसे ही छोटी पुस्तिकाएं बनाकर बांटी
जाए, जैसे ईसाई मिशनरी और रामकृष्ण मिशन के लोग बाँटते हैं।
विचार परिवार के साथ अनेक संगठन शिक्षा, संस्कृति और भारत के भविष्य को लेकर
निरंतर काम कर रहे हैं। लोकमंथन उन
वैचारिक समूहों का नैमिषारण्य है।
प्रायः बड़े विचारक, उद्वोधक वही होते हैं जो इन समूहों से जुड़े होते हैं औ जो अपने
निरंतर कर्मपथ पर चलकर यहाँ अनुभव बाँटते हैं, जिससे कुछ नवनीत निकलता है। कला, संस्कृति, लोक साहित्य,चित्रकला, संगीत,
सिनेमा, नाटक,पत्रकारिता, साहित्य, शिक्षा, परम्परा, राजनीति आदि- आदि विषयों पर
गंभीर विमर्श होता है। इन्हीं
वैचारिक निष्कर्षों के मोटे ग्रन्थ बनते हैं और उनमें से कुछ बड़े ग्रंथालयों में जाते
भी हैं । किन्तु वह सामग्री चाह कर भी उन तक नहीं पहुँच पातीं
जिनका इन्तजार सामान्य जन के द्वारा किया जाता है। क्या हमें अपनी रणनीति पर विचार नहीं करना
चाहिए? क्या तीस-चालीस पेज की छोटी-छोटी पुस्तकें बनाकर वंचित वस्तियों, स्कूलों,
महाविद्यलयों में निःशुल्क नहीं बटनी चाहिए ?
वैचारिक अधिष्ठान से वैचारिक यात्रा प्रतिष्ठानों के माध्यम से युवाओं तक
कैसे पहुंचे, यह आज के समय की मांग है।
सादर
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