हजारी प्रसाद द्विवेदी लिखते हैं- " रूपगत सुंदरता को माधुर्य (मिठास) और लावण्य (नमकीन) कहना बिल्कुल झूठ है क्योंकि रूप न तो मीठा होता है न नमकीन। फिर भी कहना पड़ता है क्योंकि अन्तर्जगत के भावों को बहिर्जगत की भाषा में व्यक्त करने का यही एक मात्र उपाय है।"
निरुक्त में कहा गया है कि " पुरा नवम करोति इति पुराणम्।" अर्थात् जो पुरानी कथाओं को नये ढंग से प्रस्तुत करे वह पुराण है।
वर्तमान परिदृश्य में विमर्श को मिथक कह कर भटकाया जा रहा है।
मिथक संस्कृत शब्द नहीं माना जाता। यह संस्कृत के दो निकटवर्ती शब्दों का साथी है। 'मिथस' या 'मिथ' जिसका अर्थ है परम्परा।
और दूसरा मिथ्या जो असत्य का वाचक है। इसलिए जब परम्परा में समयगत मिथ्या तथ्यों को विलोपित कर दें तो मिथक परम्परा के साथ सार्थक दिखता है। अन्यथा वाममार्गियों की जमात में उपविस कर जाता है और समष्टि मन से दूर हो जाता है।
अंग्रेज़ी संगति के कारण " भारतीय ज्ञान परम्परा " भी "भारतीय ज्ञान प्रणाली" तक पहुंच गई।
अब परम्परा, प्रणाली और पद्धति में मिथक कहां घुस गया , बहुत कठिन है विद्वानों का तर्क।
असरकारी जन कुछ भी कहें मान्य तो सरकारी ही होगा!!
जब तक बाबरी मस्जिद जैसे ज्ञान बापी मस्जिद भी अपने परम्परागत स्वरूप में नहीं आ जाती।
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