उन्नीसवीं
में खासकर १८५७ के बाद, हिन्दी प्रदेशों में हिन्दुओं और मुसलमानों
के बीच एक गहरी खाई बढ़ती गई । यह खाई दो धर्मों या पूजापंथों के बीच नहीं, एक ही जमीन पर विकसित खड़ीबोली के दो
रूपों हिन्दी और उर्दू के द्वंद्व के रूप में सामने आई । कालिदास के रघुवंश महाकाव्य के अनूदित पुस्तक
की भूमिका में राजा लक्ष्मण सिंह ने लिखा हिन्दी
और उर्दू दो बोली न्यारी- न्यारी हैं । हिन्दी इस देश के हिन्दू बोलते हैं,
और उर्दू यहाँ के मुसलमान और फारसी पढ़े हुए हिन्दुओं की बोलचाल है । उन्नीसवीं शताब्दी
में उर्दू का इतना प्रसार और दबदबा था कि हिन्दी उसके नीचे दबी हुई थी । उसके
उन्नायक तब दो ही लेखक थे,
राजा लक्ष्मण सिंह और राजा शिवप्रसाद
सिंह सितारे हिन्द । उसी समय सर सैयद अहमद मुसलमानों के ऐसे नेता के रूप में उभरे,
जिनका अंग्रेज अधिकारियों से घनिष्ट सबन्ध था और उन्होंने अंग्रेजी राज में
मुसलमानों और उर्दू के विकास के लिए सबसे अधिक कार्य किए और उर्दू को अदालती भाषा बनने का
अवसर प्राप्त हो गया । पाठशालाओं में उर्दू पढ़ाना अनिवार्य कर दिया गया । अयोध्या प्रसाद खत्री ने खड़ीबोली में
कविता लिखे जाने का आन्दोलन चलाया था । लेकिन खड़ीबोली उर्दू स्वरूप में तो कविताएँ
काफी पहले से लिखी चली आ रही थीं। भारतेन्दु युग के अधिकांश कवियों ने गजले अवश्य
खड़ीबोली में लिखीं, किन्तु खड़ी बोली में कविता लिखने में अधिक सफलता नहीं पाई । खत्री जी ने अवश्य एक कविता संकलन
खड़ी बोली में निकाला था । इस पुस्तक में इग्लैण्ड के फ्रेडरिक पिकॉट ने भूमिका लिखते हुए कहा, अफसोस फारसी मिश्रित हिन्दी अर्थात
उर्दू के अदालती भाषा बन जाने से उसकी बहुत उन्नति हुई और इसका प्रचुर साहित्य
तैयार हुआ,
तथा इसे विदेशी भाषा की तरह पढऩे को मजबूर किया जाता था । कुछ विद्यालयों में अवश्य देवनागरी
में हिन्दी सिखाई जाती थी ,
उस पर भी कई लोगों को अनुचित लग रहा था
। १८६८ ई. में संयुक्त प्रांत के शिक्षा
विभाग के अध्यक्ष एम. एस. हैवेल ने इस पर दुख जाहिर करते हुए कहा था कि, यह अधिक
अच्छा होता यदि हिन्दू बच्चों को उर्दू सिखाई जाती न कि एक ऐसी बोली में विचार
प्रकट करने का अभ्यास कराया जाता, जिसे अंत में एक दिन उर्दू के सामने सिर झुकाना पड़ेगा।
१८६८
में (इलाहाबाद) में भाषा को लेकर एक अधिवेशन हुआ, जिसमें यह बहस का विषय था कि देशी जबान हिन्दी को माने या उर्दू को
हिन्दी को पक्षपाती उसके लिए लगातार संघर्ष कर रहे थे, लेख लिख रहे थे, भाषण दे रहे थे, किन्तु प्रशासन के
द्वारा उर्दू के मुकाबल हिन्दी को कम
महत्व दिया जा रहा था ।
ऐसे ही वातावरण में खड़ीबोली के इन दोनों रूपों
फारसी लिपि में लिखी जाने वाली उर्दू एवं देवनागरी में लिखी जाने वाली हिन्दी के
बीच एक गहरी दीवार खड़ी हो गई । अब धीरे -धीरे, दो मत -पंथों और धर्मों के बीच खींचतान प्रारंभ
हो गई । राजाश्रय से दूर रहने के कारण वैसे ही हिन्दी का प्रसार नहीं हो पा रहा था, तथा शिक्षा के क्षेत्र में भी उसका
न्यून महत्व था । इसी समय भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने उर्दू में 'स्पापा' नामक व्यग्य कविता लिखी-
हे हे उर्दू हाय-हाय । कहाँ सिधारी हाय- हाय।
मेरी प्यारी हाय -हाय। मुंशी मुल्ला हाय -हाय।।
दाढी नोचें हाय - हाय। दुनिय उल्टी हाय -हाय।
रोजी बिल्टी हाय -हाय। सब मुखतारी हाय -हाय।।
बता
दें कि भारतेन्दु पहले उर्दू में गजल लिखते थे, और उनका तखल्लुस 'साज' था। किन्तु
धीरे -धीरे
उर्दू के वर्चस्व एवं उर्दू-भाषियों की महजब परस्ती से दुखी हो गए थे । उन्होंने मुसलमानों को संबोधित
करते हुए लिखा था,' मुसलमान भाइयों को भी उचित है कि इस
हिन्दुस्तान में बसकर ये लोग हिन्दुओं को नीच समझना छोड़ दें । ठीक भाइयों की भाँति
हिन्दुओं में बरताव करें,
ऐसी बात जो हिन्दुओं का जी दुखाने वाल
हो न करें । लेकिन ऐसा न होना था, न
हुआ। उर्दू का बोलवाला जारी था ।
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