Thursday, 30 September 2021

आत्मनिर्भर भारत और स्वदेशी

(वीणा के अक्टूबर-२०२० में प्रकाशित)

आत्मनिर्भर भारत और स्वदेशी

 

इसमें दो शब्द बड़े महत्वपूर्ण हैं, एक ‘आत्म’ जो आत्मा की पहचान कराता है। दूसरा ‘स्व’ जो हमारे ‘अस्तित्व’ का बोध कराता है। भारत अर्थात ‘ज्ञान में रत’। ‘प्रकाश में लीन।‘ भारत का एक नाम ‘अजनाभ वर्ष‘ है। अर्थात विश्व का नाभि  केंद्र। न केवल भौगोलिक बल्कि सम्पूर्ण विश्व की नाभि जहाँ से सभी को ‘आत्म प्रकाश’ प्राप्त होता है। इसलिए भी यह विषय आज बहुत ही प्रासंगिक है।

 ‘आत्मवत सर्वभूतेषु‘ और आत्मनिर्भर भारत का क्या सम्बन्ध है ? इसके लिए स्वामी विवेकानंद को समझना होगा। स्वामी विवेकानंद जी कहते थे. ‘are you own yourself’ अर्थात क्या आप ‘स्व’ में हैं ? समझना होगा कि ‘स्व’ से ही सारे सूत्र जुड़े हैं, चाहे वे स्वाबलंबन के हों या स्वस्थता के या स्वदेशी के। दूसरे शब्दों में क्या आप अपने संस्कृति-परंपरा, स्वभाषा, भूषा, भेषज, भजन, भोजन में स्वदेशी हैं ? क्या आप अपने देश, समाज, राष्ट्र में हो ? तो क्या हम आत्म निर्भर भारत में है ? यदि नहीं तो हम कैसे आत्मनिर्भर हो सकते है ?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने हालिया संबोधन में 'एक आत्मनिर्भर भारत के निर्माण' का वादा किया है। पीएम मोदी का 'आत्मनिर्भर भारत अभियान', उनकी महत्वाकांक्षी परियोजना है जिसका उद्देश्य सिर्फ़ कोविड-19 महामारी के दुष्प्रभावों से लड़ना नहीं, बल्कि भविष्य के नए भारत का र्निर्माण करना है। तभी तो वे कहते हैं, "अब एक नई प्राण शक्ति, नई संकल्प शक्ति के साथ हमें आगे बढ़ना है।"

इसका सूत्र क्या है ? तो सूत्र मिलाता है ‘स्वदेशी’ से। इसलिये प्रारंभ में ही समझ लेना चाहिए की ‘आत्मनिर्भर भारत’ और ‘स्वदेशी’ का सम्बन्ध क्या है। वस्तुत: भारत में 'स्वदेशी' एक विचार के रूप में देखा जाता है, जो भारत की संरक्षणवादी अर्थव्यवस्था का आर्थिक मॉडल रहा और राष्ट्रप्रेमी तबक़ा इस विचार की वकालत भी करता रहा है, लेकिन पीएम मोदी ने अपने भाषण में कहीं भी 'स्वदेशी' शब्द का इस्तेमाल नहीं किया। परन्तु आत्म-निर्भर भारत बनाने का पीएम मोदी का विचार 'स्वदेशी' के काफ़ी क़रीब दिखता है और उन्होंने अपने संबोधन में खादी ग्राम उद्योग के उत्पादों की अच्छी बिक्री का ज़िक्र भी किया।

 यह भी एक प्रश्न आता है की स्वतंत्रता के इतने वषों बाद आत्म निर्भरता की बात क्यों आई? वस्तुत: देश जब स्वतंत्र हुआ तो जिस समय हमें भारतीय सनातन माडल को लेकर उसे युगानुकूल बनाते हुए आत्मसात करना था, हमने विदेशी माडल का सहारा लिया। हमने प्रथम पञ्चवर्षीय योजना में हैराड-डामर माडल, बाद में मेह्लोनोबिस माडल, लियोंतिक उद्योग माडल, लैफैबेर माडल आदि को लिया जो लगभग गणितीय समीकरणों से सम्बंधित रहे। परिणाम यह हुआ कि हम जी.डी.पी. में जीने लगे, सकल घरेलू उत्पाद में।

जरा समझे यह सकल घरेलू उत्पाद क्या है ? और भारत के लिए कितना उपयोगी है। सकल घरेलू उत्पाद से तात्पर्य किसी देश में वर्ष भर में जितना उत्पाद होता है उसके बाज़ार मूल्य को जोड़कर जनसँख्या से भाग दिया जाता है। यह जी.डी.पी. की अवधारणा किसी नगरीय देश के लिए या सीमित जनसंख्यावाले देश के लिए उचित हो सकती है किन्तु भारत जैसे विविधता से भरे देश में जहाँ नगर, ग्राम, वनवासी सभी प्रकार के लोग रहते हैं और सब की आमदनी में अंतर है, वहां यह कैसे लागू हो सकती है।

दूसरा दृष्टिकोण यह भी है कि क्या यदि किसी व्यक्ति का रहन सहन ऊँचा उठ रहा है तो हम मान जाएँ की उसका विकास हो रहा है। यह पश्चिमी अवधारणा में सही है क्योकि यह वहां  ‘बास्केट आफ गुड्स एंड सर्विसेज अवलेबल फार कंजम्सन‘ पर निर्धारित किया जाता है। परिणाम अधिक संसाधनों का शोषण और अधिक उर्जाधारित उद्योग ने विश्व के सामने असंतुल कि स्थित पैदा कर दी। इस प्रकार धारणाक्षम विकास पर संकट आया और उपभोक्तावादी दृष्टकोण पैदा हुआ। परिणामत: जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता समाप्ति की और है। जिससे मानवता संकट में है।

इसमें हमें भारतीय अवधारणा को समझना और उसकी और लौटना होगा। इसका एकमात्र विकल्प ‘स्वदेशी’ है। इसलिए जब हम ‘आत्मनिर्भर भारत और स्वदेशी’ की बात करते हैं तो उसके अंदर सर्वांगीण विकास, सतत विकास, अनवरत विकास आदि की और जाते हैं। हमारे प्रधानमंत्री जी की चिंता है, सब का विकास। पंडित दीनदयाल जी जिसे अन्त्योदय कहते हैं। उनकी चिंता है की हमारा कच्चा माल विदेश जाता है और दूने-तिगुने दाम में हम पक्का मॉल विदेशों से खरीदते है। हमारे पास कृषि है, जल है, वायुमंडल है, जनसँख्या है, ऊर्जा के स्रोत हैं तो फिर हम स्वद्शी का सहारा लेकर ‘आत्मनिर्भर’ क्यों नहीं बन सकते ? अर्थात संसाधनों का दोहन करते हुए, प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा करते हुए, मानविकी का सही उपयोग कर हम ‘आत्मनिर्भर भारत’ बन सकते हैं। 

स्वतंत्रता के पूर्व सावरकर जी ने विदेशी कपड़ों की होली जलाई थी। वह एक प्रतीकात्मक विरोध था विदेशी वस्तुओं और विदेशी सत्ता का था। भारत में 'स्वदेशी' एक विचार के रूप में देखा जाता है, जो भारत की संरक्षणवादी अर्थव्यवस्था का आर्थिक मॉडल रहा और राष्ट्रप्रेमी जन इस विचार पर काम भी कर रहे हैं, लेकिन यह भी ध्यान रखना होगा की ‘आत्मनिर्भर भारत’ की चर्चा करते हुए मोदी जी ने अपने भाषण में कहीं भी 'स्वदेशी' शब्द का इस्तेमाल नहीं किया। वे ‘लोकल फार वोकल’ की बात करते हैं।

 इसका अर्थ भी समझाना होगा क्योंकि कुछ लोग स्वदेशी का अर्थ हर विदेशी वस्तु का विरोध समझते हैं। यह समझाना बहुत आवश्यक है की ‘आत्म-निर्भरता और स्वदेशी’ का अर्थ अंतर्राष्ट्रीय व्यापार से अलगाव नहीं है। गांधी जी ने हिंद स्वराज में माना है कि  स्वदेशी मॉडल, टेक्नोलॉजी के ख़िलाफ नहीं है लेकिन पश्चिमी मॉडल और उससे बे-लगाम आयात के वे विरोधी थे। 

इसलिए मोदी जी का आह्वान है कि ‘आधुनिकीकरण चाहिए किन्तु पश्चिमीकरण नहीं’। पूज्य गांधी जी ने तो अपने हिंद स्वराज में ‘भारत के पूरे आर्थिक मॉडल’ को समझाया है। गांधी के ‘स्वदेशी’ में भारत के उस औपनिवेषिक शोषण को ख़ारिज किया गया है, जिससे ब्रिटिश ख़ज़ाने भरते थे और नतीजे में भारत के ग़रीब और वंचित लोग कष्ट में ही रहते थे।

 औपनिवेशिक उपभोक्तावाद की कभी सुरसा भूख को शांत करने के लिए, असीमित औद्योगिक विकास पर आधारित पूंजीवाद, पश्चिमी आर्थिक मॉडल में, खुले बाज़ार का आदर्श बन गया, जिसकी गांधी जी ने ‘हिंद स्वराज’ में आलोचना की। हुआ यह कि यह ब्रिटिश औपनिवेशिक मॉडल अमेरिका तक पहुंचा दिया गया, और आर्थिक विकास के रामबाण के रूप में प्रचारित किया गया, जिसमें एक अपरिहार्य कारगर साधन के तौर पर, द्वंदात्मक भौतिकवाद के मुक़ाबले, तकनीकी भौतिकवाद को पेश किया गया लेकिन ये वो नहीं था, और इसी कारण हमें फिर से स्वदेशी अर्थशास्त्र की आवश्यकता है।

इसके लिये फिर एकवार महात्मा गाँधी जी को समझना होगा। ‘स्वदेशी’ के बारे में महात्मा गाँधी जी कहते हैं,” अगर हम स्वदेशी के सिद्धांत का पालन करें, तो हमारा और आपका यह कर्त्तव्य होगा की हम उन बेरोजगार पड़ोसियों को ढूंढे, जो हमारी आवश्यकता की वस्तुओं को हमें दे सकते हैं और यदि वे इन वस्तुओं को बनाना न जानते हों तो उन्हें उसकी प्रक्रिया सिखाएं। ऐसा हो तो भारत का हर एक गाँव लगभग एक स्वआश्रित और स्वयंपूर्ण इकाई बन जाये। दूसरे गांव के साथ वह उन चंद वस्तुओं का आदान-प्रदान जरूर करेगा, जिन्हें वह खुद अपनी सीमा में पैदा नहीं कर सकता। स्वदेशी व्रत लेने पर कुछ समय तक असुविधाएं तो भोगनी पड़ेंगी, लेकिन उन असुविधाओं के बावजूद यदि समाज के विचारशील व्यक्ति स्वदेशी का व्रत अपना लें, तो हम उन अनेक बुराइयों का निवारण कर सकते हैं, जिनसे हम पीडि़त हैं।’

गाँधी के इन विचारों के साथ जब हम प्रधानमंत्री नरेंद मोदी को समझें तब ध्यान में आता है कि ‘आत्म-निर्भर भारत’ पर ज़ोर, दूसरे शब्दों में स्वदेशी अर्थशास्त्र ही है। 

इसलिए कोरोना महामारी से आई आर्थिक मंदी और अंतरराष्ट्रीय स्थितियों को देखते हुए समय की मांग है कि हम हर क्षेत्र में आत्मनिर्भर बने। और भारत ने जहाँ कोशिश की वहां सफल रहा है, गेहू इसका प्रत्यक्ष उदहारण है। इससे देश का आत्मविश्वास बढा है। आर्थिक व सैन्य रूप से जिस दिन देश आत्मनिर्भर हो जाएगा उस दिन दुनिया भारत का लोहा मानना प्रारंभ कर देगी। कुछ पड़ोसी भी अपनी नापाक हरकत बंद कर देंगे। इसलिए आत्मनिर्भरता ही हम भारतीयों का एक मात्र लक्ष्य होना चाहिए।

इसलिए स्वदेशी अर्थव्यवस्था से तात्पर्य उस अर्थव्यवस्था से है जो अपने भौगोलिक क्षेत्र में अपने आर्थिक लक्ष्यों की प्राप्ति एवं अपनी आवश्यकताओं की प्राप्ति के लिए अपने ही संसाधनों व प्रौद्योगिकी का उपयोग करती है। भारत में स्वदेशी अर्थव्यवस्था की वकालत करनेवाले महात्मा गाँधी, वीर सावरकर, पंडित दीनदयाल उपाध्याय, राममनोहर लोहिया आदि रहें हैं। वर्तमान में स्वदेशी जागरण मंच, बाबा रामदेव, गायत्री परिवार, एस गुरुमूर्ति, स्व. राजीव दीक्षित ने स्वदेशी का अत्यधिक जागरण किया।

केंद्र की  सरकार आने के साथ ही मोदी जी ने इस दिशा में भारत को फिर से ले जाने का कार्य प्रारम्भ किया। ‘स्वदेशी’ की आत्मनिर्भर भारत बनाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका है। इसका लक्ष्य प्रमुख रूप से देश के समस्त नगरिकों की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति (रोटी, कपड़ा, मकान की गारंटी), राष्ट्रीय सुरक्षा, एकात्मता और अखंडता, के साथ एक ‘आत्म निर्भर भारत’ का निर्माण करना है। 

और यह तब संभव है जब भारत केन्द्रित सोच विकसित हो। भारतीय संस्कृति के मूल्यों का संरक्षण हो, गुलामी की मानसिकता से मुक्ति हो, स्वरोजगार की ओर युवाओं का ध्यान जाएँ। अत: सुचिता के साथ धर्म आधारित आर्थिक संरचना का आधार खड़ा करना, देश के प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर उपयोग करना, राष्ट्र का सर्वान्गीण विकास करना होगा । इसका निहितार्थ यह भी है कि सभी वर्गों को सामान विकास का अवसर उपलब्ध कराना, भौतिक ऊर्जा से लेकर भारतीय ज्ञान संपदा का युगानुकूल विकास करना।

स्वदेशी के माध्यम से आत्मनिर्भर भारत बनाने के लिए आवश्यक है की हम स्वभाषा, स्वभूषा, स्वभोजन, स्वभेषज, स्वशिक्षा, स्वरीति-रिवाज, स्वरोजगार, जैविक कृषि, लघु उद्योग आदि पर बल दें।

थोड़ा विचार करें स्वतंत्र भारत में ‘स्वदेशी’ की अवहेलना कहाँ से प्रारंभ हुई ? जब हम स्वतंत्र हुए तो हम वषों तक औपनिवेसिक मानसिकता से बहार नहीं आ पाए। उस समय हमारे पास तीन विकल्प थे, पहला कोलोनियल माडल, जिसका लगभग 80 साल का इतिहास रहा, दूसरा- पूंजीवाद जिसका इतिहास 200 साल का । हमारे पास तीसरा विकल्प स्वदेशी का था, ‘स्व’ के चिंतन का था जो वैदिक ऋषियों के काल से चाणक्य और दीनदयाल जी के माडल तक आता है।  किन्तु हमने उसकी लम्बे समय तक उपेक्षा की।

आत्मनिर्भर भारत के परिणाम क्या होंगे ? यह दो प्रकार से हमारे सामने आता है। भौतिक विकास, सबको रोटी, कपड़ा, मकान, सभी के स्वस्थ्य की चिंता, निरोगी काय। सभी को शिक्षा और चौथा, हर हाथ को काम। चलो मान लिया के ये चारों बातें पूरी हो गई तो क्या आत्मनिर्भर भारत हो गया ? उत्तर – नहीं। तो फिर क्या करना है ?

 आत्मनिर्भर भारत का महत्वपूर्ण पहलू है विश्व की ही नहीं तो जीवमात्र की चिंता। मानवता की चिंता। इसलिए मनुष्य का सम्पूर्ण विकास– शरीर, मन, बुधि से आत्मा के बोध तक की यात्रा, और यह यात्रा चार पुरुषार्थों- अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष के साथ करनी है। 

यह आत्मनिर्भरता पश्चिम के व्यक्ति आधारित विकास से नहीं तो एकात्मता आधारित विकास से प्राप्त करनी है। इसलिए समझना होगा कि आत्मनिर्भर भारत के अर्थ हैं – भारतीय संस्कृति का संरक्षण, समाज में न्यासी के रूप में जीने की अवधारणा, पूजीवाद और समाजवाद का निषेध, आर्थिक लोकतंत्र, अनावश्यक भारी उद्योगीकरण का निषेध, विकेन्द्रित नीति। आज भारत एक बार फिर 'आत्म-निर्भर' बनने के लिए भीतर की ओर देख रहा है।

भारत के लिए पीएम मोदी के दृष्टिकोण में आत्मनिर्भरता ना तो बहिष्करण है और ना ही अलगाववादी रवैया। यह अपनी दक्षता में एक तरह की गुणात्मक विस्तार का प्रयत्न है। इसके अतिरिक्त दुनिया के साथ स्वस्थ प्रतिस्पर्धा करते हुए दुनिया की मदद करना, जो भारत की ‘वसुधैव’ सस्कृति के अनुरूप है, यह सरकार करने जा रही है। 

कोरोना महामारी के बाद आर्थिक राष्ट्रबोध का जागरण सभी देशों में आएगा। वैसे भी "हम तो वर्षों से आत्म-निर्भरता और स्वदेशी मॉडल की वकालत कर रहे हैं। अब हमें लोकल चीज़ों को लेकर वोकल होना है।“ यानी भारतीयों को स्थानीय चीज़ों के बारे में ज़्यादा बात करनी चाहिए, खुलकर बात करनी चाहिए। यही विश्व गुरु बनाने का रास्ता है। जिसे वंकिमचंद ने, “तुम दुर्गा दसप्रहरण धारणीम” कहा है।

 

 

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Monday, 20 September 2021

 सावरकर लिखते हैं- संस्कृत भाषा चिरकाल तक हमारी जाति की अनमोल धरोहर बनकर स्थित रहेगी। कारण, हमारे लोगों की मूलभूत एकता उसके द्वारा दृढ़  नींव पर खड़ी हुई है। हमारा जीवन उसने सम्पन्न किया। हमारी आकांक्षाएँ उसने उदात्त बनाई और हमारे जीवन स्त्रोत निर्मल किया।ज्ज्

Thursday, 16 September 2021

 

उन्नीसवीं  में खासकर १८५७ के बाद, हिन्दी प्रदेशों में हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच एक गहरी खाई बढ़ती गई । यह खाई दो धर्मों या पूजापंथों के बीच नहीं, एक ही जमीन पर विकसित खड़ीबोली के दो रूपों हिन्दी और उर्दू के द्वंद्व के रूप में सामने आई ।  कालिदास के रघुवंश महाकाव्य के अनूदित पुस्तक की भूमिका में राजा लक्ष्मण सिंह ने लिखा हिन्दी  और उर्दू दो बोली न्यारी- न्यारी हैं । हिन्दी इस देश के हिन्दू बोलते हैं, और उर्दू यहाँ के मुसलमान और फारसी पढ़े हुए हिन्दुओं की बोलचाल है । उन्नीसवीं शताब्दी में उर्दू का इतना प्रसार और दबदबा था कि हिन्दी उसके नीचे दबी हुई थी । उसके उन्नायक तब दो ही लेखक थे, राजा लक्ष्मण सिंह और राजा शिवप्रसाद सिंह सितारे हिन्द । उसी समय सर सैयद अहमद मुसलमानों के ऐसे नेता के रूप में उभरे, जिनका अंग्रेज अधिकारियों से घनिष्ट सबन्ध था और उन्होंने अंग्रेजी राज में मुसलमानों और उर्दू के विकास के लिए सबसे अधिक कार्य किए और उर्दू को अदालती भाषा बनने का अवसर प्राप्त हो गया । पाठशालाओं में उर्दू पढ़ाना अनिवार्य कर दिया गया । अयोध्या प्रसाद खत्री ने खड़ीबोली में कविता लिखे जाने का आन्दोलन चलाया था । लेकिन खड़ीबोली उर्दू स्वरूप में तो कविताएँ काफी पहले से लिखी चली आ रही थीं। भारतेन्दु युग के अधिकांश कवियों ने गजले अवश्य खड़ीबोली में लिखीं, किन्तु खड़ी बोली में कविता लिखने में अधिक सफलता नहीं पाई । खत्री जी ने अवश्य एक कविता संकलन खड़ी बोली में निकाला था । इस पुस्तक में इग्लैण्ड के फ्रेडरिक पिकॉट ने भूमिका लिखते हुए कहा, अफसोस फारसी मिश्रित हिन्दी अर्थात उर्दू के अदालती भाषा बन जाने से उसकी बहुत उन्नति हुई और इसका प्रचुर साहित्य तैयार हुआ, तथा इसे विदेशी भाषा की तरह पढऩे को मजबूर किया जाता था । कुछ विद्यालयों में अवश्य देवनागरी में हिन्दी सिखाई जाती थी , उस पर भी कई लोगों को अनुचित लग रहा था । १८६८ ई. में  संयुक्त प्रांत के शिक्षा विभाग के अध्यक्ष एम. एस. हैवेल ने इस पर दुख जाहिर करते हुए कहा था कि, यह अधिक अच्छा होता यदि हिन्दू बच्चों को उर्दू सिखाई जाती न कि एक ऐसी बोली में विचार प्रकट करने का अभ्यास कराया जाता, जिसे अंत में एक दिन उर्दू के सामने  सिर झुकाना पड़ेगा।

१८६८ में (इलाहाबाद) में भाषा को लेकर एक अधिवेशन हुआ, जिसमें यह बहस का विषय था कि देशी जबान हिन्दी को माने या उर्दू को हिन्दी को पक्षपाती उसके लिए लगातार संघर्ष कर रहे थे, लेख लिख रहे थे, भाषण दे रहे थे, किन्तु प्रशासन के द्वारा उर्दू के मुकाबल हिन्दी को कम  महत्व दिया जा रहा था ।

       ऐसे  ही वातावरण में खड़ीबोली के इन दोनों रूपों फारसी लिपि में लिखी जाने वाली उर्दू एवं देवनागरी में लिखी जाने वाली हिन्दी के बीच एक गहरी दीवार खड़ी हो गई । अब धीरे -धीरे,  दो मत -पंथों और धर्मों के बीच खींचतान प्रारंभ हो गई । राजाश्रय से दूर रहने के कारण वैसे ही हिन्दी का प्रसार नहीं हो पा रहा था, तथा शिक्षा के क्षेत्र में भी उसका न्यून महत्व था । इसी समय भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने उर्दू में 'स्पापा' नामक  व्यग्य कविता लिखी-

हे हे उर्दू हाय-हाय । कहाँ सिधारी हाय- हाय।

मेरी प्यारी हाय -हाय। मुंशी मुल्ला हाय -हाय।।

दाढी नोचें हाय - हाय। दुनिय उल्टी हाय -हाय।

रोजी बिल्टी हाय -हाय। सब मुखतारी हाय -हाय।।

बता दें कि भारतेन्दु पहले उर्दू में गजल लिखते थे, और उनका तखल्लुस 'साज' था। किन्तु धीरे -धीरे उर्दू के वर्चस्व एवं उर्दू-भाषियों की महजब परस्ती से दुखी हो गए थे । उन्होंने मुसलमानों को संबोधित करते हुए लिखा था,' मुसलमान भाइयों को भी उचित है कि इस हिन्दुस्तान में बसकर ये लोग हिन्दुओं को नीच समझना छोड़ दें । ठीक भाइयों की भाँति हिन्दुओं में बरताव करें, ऐसी बात जो हिन्दुओं का जी दुखाने वाल हो न करें । लेकिन ऐसा न होना था, न हुआ। उर्दू का बोलवाला जारी था ।

 

उन्नीसवीं में खासकर १८५७ के बाद, हिन्दी प्रदेशों में हिन्दुओं और मूसलमानों के बीच एक गहरी खाई बढ़ती गई। यह खाई दो धर्मों या पूजापंथों के बीच नहीं, एक ही जमीन पर विकसित खड़ीबोली के दो रूपों हिन्दी और उर्दू के द्वंद्व के रूप में सामने आई।  कालिदास के रघुवंश महाकाव्य के अनूदित पुस्तक की भूमिका में राजा लक्ष्मण सिंह ने लिखा च्हिन्दी  और उर्दू दो बोली न्यारी न्यारी हैं। हिन्दी इस देश के हिन्दू बोलते हैं और उर्दू यहाँ के मुसलमान और फारसी पढ़े हुए हिन्दुओं की बोलचाल है।ज् उन्नीसवीं शता४दी में उर्दू का इतना प्रसार और दबदबा था कि हिन्दी उसके नीचे दबी हुई थी। उसके उन्नायक तब दो ही लेखक थे, राजा लक्ष्मण सिंह और राजा शिवप्रसाद सिंह च्सितारे हिन्दज्। उसी समय सर सैयद अहमद मुसलमानों के ऐसे नेता के रूप में उभरे जिनका अंग्रेज अधिकारियों से घनिष्ट स६बन्ध था और उन्होंने अंग्रेजी राज में मुसलमानों और उर्दू केविकास के लिए सबसे अधिक कार्य किए और उर्दू को अदालती भाषा बनने का अवसर प्राप्त हो गया। पाठशालाओं में उर्दू पढ़ाना अनिवार्य कर दिया गया। अयोध्या प्रसाद खत्री ने खड़ीबोली में कविता लिखे जाने का आन्दोलन चलाया था । लेकिन खड़ीबोली उर्दू स्वरूप में तो कविताएँ काफी पहले से लिखी चली आ रही थीं। भारतेन्दु युग के अधिकांश कवियों ने गजले अवश्य खड़ीबोली में लिखीं किन्तु खड़ी बोली में कविता लिखने में अधिक सफलता नहीं पाई। खत्री जी ने अवश्य एक कविता संकलन खड़ी बोली में निकाला था। इस पुस्तक में इग्लैण्ड के फ्रेडरिक पिकॉट ने भूमिका लिखते हुए कहा, अफसोस फारसी मिश्रित हिन्दी अर्थात उर्दू के अदालती भाषा बन जाने से उसकी बहुत उन्नति हुई और इसका प्रचुर साहित्य तैयार हुआ तथा इसे विदेशी भाषा की तरह पढऩे को मजबूर किया जाता था।ज् कुछ विद्यालयों में अवश्य देवनागरी में हिन्दी सिखाई जाती था, उस पर भी कई लोगों को अनुचित लग रहा था। १८६८ ई्र में  संयुक्त प्रांत के शिक्षा विभाग के अध्यक्ष एम एस हैवेल ने इस पर दुख जाहिर करते हुए कहा था कि यह अधिक अच्छा होता यदि हिन्दू बच्चों को उर्दू सिखाइ्र्र जाती न कि एक ऐसी बोल में विचार प्रकट करने का अभ्यास कराया जाता जिसे अंत में एक दिन उर्दू के सामने  सिर झुकाना पड़ेगा।

१८६८ में (इलाहाबाद)में भाषा को लेकर एक अधिवेशन हुआ, जिसमें यह बहस का विषय था कि देशी जबान हिन्दी को माने या उर्दू को हिन्दी को पक्षपाती उसके लिए लगातार संघर्ष कर रहे थे। , लेख लिख रहे थे, व्या२यान दे रहे थे। किन्तु प्रशासन के द्वारा उर्दू के मुकाबल हिन्दी को कम  महत्व दिया जा रहा था। ऐसे  ही वातावरण में खड़ीबोली के इन दोनों रूपों फारसी लिपि में लिखी जाने वाली उर्दू एवं देवनागरी में लिखी जाने वाली हिन्दी के बीच एक गहरी दीवार खड़ी हो गई। अब धीरे धीरे यह दो मत पंथों और धर्मों के बीच खींचतान प्रारंभ हो गई। राजाश्रय से दूर रहने केकारण वैसे ही हिन्दी का प्रसार नहीं हो पा रहा था, तथा शिक्षा के क्षेत्र में भी उसका न्यून महत्वथा। इसी समय भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने उर्दू में स्पापा नामक  व्यग्य कविता लिखी९

हे हे उर्दू हाय९हाय । कहाँ सिधारी हाय९ हाय।

मेरी प्यारी हाय ९हाय। मुंशी मुल्ला हाय ९हाय।।

दाढी नोचें हाय ९ हाय। दुनिय उल्टी हाय ९हाय।

रोजी बिल्टी हाय ९हाय। सब मुखतारी हाय ९हाय।।

बता दें कि भारतेन्दु पहले उर्दू में गजल लिखते थे और उनका तखल्लुस च्रसाज् था। किन्तु धीरे ९धीरे उर्दू के वर्चस्व एवं उर्दू९भाषियों की महजब परस्ती से दुखी हो गए थे। उन्होंने मुसलमानों को स६बोधित करते हुए लिखा था,च् मुसलमान भाइयों को भी उचित है कि इस हिन्दुस्तान में बसकर ये लोग हिन्दुओं को नीचाा समझना छोड़ दें। ठीक भाइयों की भाँति हिन्दुओं में बरताव करें, ऐसी बात जो हिन्दुओं का जी दुखाने वाल हो न करें।ज् लेकिन ऐसा न होना था, न हुआ। उर्दू का बोलवाला जारी था।

Sunday, 12 September 2021

शब्द की चेतना

मैकाले को दोष देनेवाले स्वतंत्र राष्ट्र के बौद्धिको
 या तो मेकाले के नाम पर रोना बंद करें या NEP जैसे विदेशी शब्दों का उपयोग बंद करें।। 

स्वतंत्रता/स्वाधीनता के 75 वर्ष किसी राष्ट्र के लिए लघु काल हो सकता है, किंतु राजकीय सत्ता के लिए वानप्रस्थ अवस्था होती हैं। 

सीधे शब्दों में समझें तो राजसत्ता के विकास की बौद्धिक अवस्था। यदि राज सत्ता ठीक दिशा में स्वत्वों का आधार लेती हुई बढ़ती है तो , इसके बाद यह सीमा टूटती है, और राज सत्ता क्रमशः राष्ट्र सत्ता (आध्यात्मिक) की छाया में प्रवेश करती है। 

दूसरे शब्दों में राजसत्ता रूपी शिशु राष्ट्र सत्ता की गोद में किलकारी भरता है। तब कहीं यौवन को प्राप्त करता हुआ ,  राजसत्ता की केंचुल उतार संसृति का आधार (नित्य नूतन चिर पुरातन राष्ट्र) शेषनाग बनता है।

एन ई पी तो ज्वलंत उदाहरण है। ऐसे अनेक शब्द हैं, जिनका हिन्दी में सुंदर उपयोग हो सकता है , यथा- योग, राम, कृष्ण , स्वतंत्रता, स्वाधीनता किंतु  योगा,रामा,कृष्णा , आजादी जैसे शब्दों का व्यवहार न केवल बौद्धिक जगत के आत्मगौरव का दिवालियापन दिखाता है अपितु भावी पीढ़ी के लिए व्याकरण और स्वभाषी शब्दों का भ्रम भी पैदा करता है।

हिंदी भाषा पखवाड़ा/पक्ष , हिन्दी दिवस के स्थान पर राजभाषा पखवाड़ा/पक्ष या राजभाषा दिवस कहने से हिन्दी स्वयं मान्य होती है। अन्यथा हिन्दी पक्ष/दिवस से ऐसा प्रतीत होता है,मानों यह केवल हिन्दी भाषियों का उत्सव है।शेष उदासीन रहते हैं। 

राष्ट्र की आराधना में हमारी बौद्धिक चेतना पुष्ट हो, राजभाषा की शुभकामनाओं के साथ । 
सादर
उमेश कुमार सिंह
13/9/21