Thursday, 15 April 2021

हे परिभू

हे परिभू ! 
तुमने महाभारत से लेकर आज
तक पूछे हैं प्रश्न असंख्य ?

 क्या मेरी उत्पत्ति,
 मेरी प्रतिभा ,
 मेरे गुरु पर भी किया है विचार ? 
या
मुझे केवल गुरु ही देखा है?

दे डाली इतनी धिक्कार , फटकार!

हां, मैंने कभी अपने को गुरु नहीं कहा- " द्रोणशिष्यं तु मां विद्धि " यह तो एकलव्य ने माना था ! 

इसलिए उसने द्रोण की मिट्टी की प्रतिमा बनाई, " कृत्वा द्रोणं महीमयम् "।

मैंने तो वीर से वेतन मांगा था, " यदि शिष्योसि में वीर वेतनं दीयतामिति।"

तिस पर वेदव्यास ने भी मुझे क्या कहा, सुनोगे - " सर्वश्रेष्ठ योद्धा ब्राह्मण।" 

तो क्या मैं भी तुम्हारे जैसे , उठा दू व्यास पर जातीयता की उंगली ?

मैं तो वास्तव में प्रतिशोधी मित्र और आयुधजीवी " ही था।

मैं तो अपमानित , पीड़ित पहुंचा था हस्तिनापुर।

मुझे कौरवों और पांडवों ने अपनी सुविधा के लिए बार - बार " आचार्य और गुरु" कहा था।

द्रोपदी की आर्तभरी न्याय की पुकार और अभिमन्यु का बध, अश्वस्थामा की मृत्यु समाचार पर भी युद्ध त्याग की प्रतिज्ञा तोड़ना,  थे सब मेरे कुपक्ष,  जो चिल्ला- चिल्ला कर आज भी लांक्षित कर रहे हैं!

करें भी क्यों न जब व्यास जैसा युग चिन्तक भी मुझे  कह डाला" पापी "।

(दो)

किन्तु एकलव्य के लिए कवि ! तुमने  'आदिवासी' शब्द कहां से ले लिया? 

एकलव्य के लिए क्या तुमने जानना चाहा कभी, उसका गुण -गोत्र?

वह निषाद राज हिरण्यधनु का था पुत्र,  " ततो निषाद राजस्य हिरण्यधनुष: सुत: एकलव्य:"।

भूल गए एकलव्य था, ऋषि कवष- एलुष, शाम्बूक, शबरी , निषाद राज , सत्यवती, व्यास और विदुर की वंशवेलि , जो आज भी जीवित है।

 दे दिया तुम्हें  किसने अधिकार यह आभासी सत्य कहने का?

 हे स्वयंभू ! मुझे तुमने केवल राजवंशी गुरु ही देखा? देखी नहीं गुरुत्व की मर्यादा?

 मैं भी उतना ही वनवासी हूं, भील हूं, द्रोण रक्षित हूं, जितना एकलव्य है।

एकलव्य समान शिष्यत्व की परीक्षा देने का साहस आप में है ?

या केवल  प्रतिभा खंडन और समाज का विखंडन ही आपका कवि कर्म है? युगधर्म है?

क्या कभी एकलव्य अर्जुन का था प्रतिद्वंदी ?

यह भी कोरी कल्पना तुम्हीं ने गढ़ी है? जानते हो क्यों? क्योंकि एकलव्य को आदिवासी, वनवासी बनाने और द्रोण को ब्राह्मण-गुरु-आचार्य मंडित करने में सुविधा मिलती है तुम्हें।

हे स्वयंभू ! महाभारत युद्ध में भी नहीं समझा आपने मेरी कर्त्तव्य- निष्ठा?

यदि एकलव्य का छला जाना तुम्हें दिखता है 
तो क्या ' नरो व कुंजरो', भूल गये ?

कविवर ! युग के  सत्य को अपने जातीय  सत्य से न्याय करने का प्रयत्न मत करो।

फिर भी बताओगे तुम्हें तराजू  किसने दिया? तुम कवि से कब हो गये हो न्यायाधीश ?

नहीं , एक एकलव्य मेरा शिष्य था,  है और रहेगा, क्योंकि यह उसने स्वीकार किया है। मैंने या तुमने शिष्यत्व का यह अमोघ - अमूल्य अलंकरण उसे नहीं दिया है।

ध्यान रखना अर्जुन आयुधजीवी आचार्य की प्रतिभा का शिष्य था , तो एकलव्य शास्त्र निपुण परशुराम के शिष्य की प्रतिमा का विद्यार्थी।

प्रतिभा का चिदाभास ,  कालाजयी प्रतिमा ही देती है।

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