Friday, 30 April 2021

The cover of academic badri Narayn's book The republic of hindutwa-

To take on the RSS, political parties like the Congress and the TMC need to create a new body and soul. 

They need to create new organizations.
While on the one hand the Sangh is deriving its strength from various sources and evolving a language and discourse which has become popular among large numbers of the rural and urban poor, it is simultaneously being targeted by the parties in the pposition.

 But the problem of the Opposition’s politics is that they are fighting with the image of the RSS which is not its reality. 

The RSS is morphing day by day and the image the opposition parties are attacking is much older and has become obsolete.

 These parties are, in fact, attacking the shadow of the RSS but are unable to understand the real RSS for their mobilization.

A few opposition leaders have now decided to fight the RSS with its own weapon. 

West Bengal chief minister and Trinamool Congress (TMC) supremo, Mamata Banerjee, announced the formation of two new outfits—Jai Hind Vahini and Bang Janani Samiti—reportedly to fight the influence of the RSS in the state. 

Banerjee said the two wings would fight to keep Bengal’s political environment secular. 

Former Congress president Rahul Gandhi too has been targeting the RSS and the BJP, saying that his fight with the two is ideological.

 The question, however, is which RSS are the two leaders actually taking on?

The RSS that Gandhi and Banerjee are claiming to fight, existed thirty to forty years back, while the RSS of today is a drastically changed organization. To fight this new RSS, these two leaders need to understand the changes that have appeared in the RSS ideology.

 To take on the RSS, political parties like the Congress and the TMC need to create a new body and soul. They need to create new organizations.

 These organizations will show that they are not only there for the politics of power and state, but to usher in a politics of social change. A strategy that RSS leaders have successfully applied is the notion of tyag (renunciation).

 The RSS mobilizes communities but does not claim power and money for itself. If the volunteers find someone suitable for politics among themselves, they send that person to join the BJP. They don’t put their own relatives into any organization.

 The notion of tyag attracts Indian people and strikes a chord with them. 

These are traditional cultural values that are rooted in the people’s psyche. The RSS produces a corpus of pracharaks who have renounced their families and have dedicated their lives to its ideology. On the other hand, Mamata Banerjee appointed her brother in the organizations that she formed to fight against the RSS. So, Banerjee lost the battle even before it began—she lost the battle of gaining people’s trust.

 The RSS is able to exert its strength because of its cultural rooting and location. Parties like the Congress and TMC need to evolve a counter hegemony through a new cultural politics.

No cultural politics can begin with an organization that does not understand Indian traditions and society. They can fight with the BJP, but it will be very difficult for them to combat the RSS, which is the womb of the power of Hindutva politics. 

The RSS is now no longer an organization where the volunteers wield spears or sticks. The volunteers today wield a far more powerful weapon, which is the mission of creating a sociocultural hegemony that would include the entire Hindu community and even many traditionally non-Hindu tribals and other minority groups

They are armed with smartphones, advance communication technology and the power of social media. It will be very difficult to counter the RSS ideology with the outmoded language of secularism and conventional party organization. 

People need to see the real RSS instead of its old shadow. Criticism of its organization-based violence and hollow talk cannot defeat the RSS, because the outfit has the strength of appropriation and inclusion.

Thursday, 29 April 2021

एक बेटा देना

उत्तर-दक्खिन पूर्व-पश्चिम
बैठे हैं प्रज्ज्वलित कर यज्ञकुंड
रावणी-आत्मघाती-आताताई 
जाने कितने राष्ट्रभक्त-प्राण
हुए न्योछवर अब तक वेदी पर 

बहुत हुए झूठे मानसम्मान सलामी 
शहीदी का वन्चनापूर्ण दिखावा 
कैसे कहें उन देशभक्तों को पागल 
देखा जिन्होंने दिवास्वप्न विश्वास पर

सर सेनापति वर्षों से सो रहे थे 
पहन जिरहबख्तर आजादी का बेपरवाह 
वह था जग रहा रक्षा की थाती लेकर
जो नहीं सह सकता उन्माद-आतंक का धरा पर
 
थे राष्ट्रनायक सुबिधा के पिंजर में बंद   
स्वर्ण मुद्रा में लेते रहे आनंद 
यहाँ यह रक्षक स्वतंत्रता का जिसे   भाता था नीला आकाश सदा सीमा पर

 
हाथों में पुरानी गौरव की ले सलाखें 
दिव्य क्रीड़ाओं में लगता सुदूर 
व्यथा सही सीमाओं में कितनी 
और कथा सौर्य की दी जग को थाती पर

 ऐसे वीर स्वतंत्रता प्रेमी सीमारक्षक अंत में 
अंगीकार किया पाशविक मृत्यु सही व्यथा 
हो गए शहीद दी आहूत खुद की 
परिवार हुआ नंगा भूखा प्यासा छलाव पर 

मत बहाना घड़ियाली आंशू 
मत सजाना शहीद पार्क 
हो सके तो इनकी याद में 
अपना भी एक बेटा देना वार सीमा पर

Wednesday, 28 April 2021

कोहराम न मचाओ



इतना कोहराम न मचाओ कि जिंदगी परेशान हो जाये।
तुम्हारी अफवाह में कहीं व्यवस्था बदनाम न हो जाये।।

जाओ  गुपचुप चमन का हाल देख आओ।
कोई लम्हा रोर से तुम्हारे परेशान न हो जाये।।

अपनी नासमझी मीडिया को जिन्न न बनाओ।
बद्दुआओं से तुम्हारी मसीहाई गुमनाम न हो जाए।।

वैसे भी सिर्फ धुंध बनना ही फितरत है तुम्हारी।
यह मौसमी निकम्मापन कहीं आम न हो जाए।।

सम्हल लो अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है, दिलजलो।
पूंछ घुमाते ही तुम्हारी लंका श्मशान न  हो जाए।।

 किश्ती को डुबोने खाई है कसम पीढ़ियों से ।
उसकी पतवार  कहीं अब  हैवान न हो जाये।।

- उमेश कुमार सिंह
28/4/21

Thursday, 15 April 2021

अथर्वा मैं वही वन हूं पर टिप्पणी

हे परिभू ! 
तुमने महाभारत से लेकर आज
तक पूछे हैं प्रश्न असंख्य ?

 क्या मेरी उत्पत्ति,
 मेरी प्रतिभा ,
 मेरे गुरु पर भी किया है विचार ? 
या
मुझे केवल गुरु ही देखा है?

दे डाली इतनी धिक्कार , फटकार!

हां, मैंने कभी अपने को गुरु नहीं कहा- " द्रोणशिष्यं तु मां विद्धि " यह तो एकलव्य ने माना था ! 

इसलिए उसने द्रोण की मिट्टी की प्रतिमा बनाई, " कृत्वा द्रोणं महीमयम् "।

मैंने तो वीर से वेतन मांगा था, " यदि शिष्योसि में वीर वेतनं दीयतामिति।"

तिस पर वेदव्यास ने भी मुझे क्या कहा, सुनोगे - " सर्वश्रेष्ठ योद्धा ब्राह्मण।" 

तो क्या मैं भी तुम्हारे जैसे , उठा दू व्यास पर जातीयता की उंगली ?

मैं तो वास्तव में प्रतिशोधी मित्र और आयुधजीवी " ही था।

मैं तो अपमानित , पीड़ित पहुंचा था हस्तिनापुर।

मुझे कौरवों और पांडवों ने अपनी सुविधा के लिए बार - बार " आचार्य और गुरु" कहा था।

द्रोपदी की आर्तभरी न्याय की पुकार और अभिमन्यु का बध, अश्वस्थामा की मृत्यु समाचार पर भी युद्ध त्याग की प्रतिज्ञा तोड़ना,  थे सब मेरे कुपक्ष,  जो चिल्ला- चिल्ला कर आज भी लांक्षित कर रहे हैं!

करें भी क्यों न जब व्यास जैसा युग चिन्तक भी मुझे  कह डाला" पापी "।

(दो)

किन्तु एकलव्य के लिए कवि ! तुमने  'आदिवासी' शब्द कहां से ले लिया? 

एकलव्य के लिए क्या तुमने जानना चाहा कभी, उसका गुण -गोत्र?

वह निषाद राज हिरण्यधनु का था पुत्र,  " ततो निषाद राजस्य हिरण्यधनुष: सुत: एकलव्य:"।

भूल गए एकलव्य था, ऋषि कवष- एलुष, शाम्बूक, शबरी , निषाद राज , सत्यवती, व्यास और विदुर की वंशवेलि , जो आज भी जीवित है।

 दे दिया तुम्हें  किसने अधिकार यह आभासी सत्य कहने का?

 हे स्वयंभू ! मुझे तुमने केवल राजवंशी गुरु ही देखा? देखी नहीं गुरुत्व की मर्यादा?

 मैं भी उतना ही वनवासी हूं, भील हूं, द्रोण रक्षित हूं, जितना एकलव्य है।

एकलव्य समान शिष्यत्व की परीक्षा देने का साहस आप में है ?

या केवल  प्रतिभा खंडन और समाज का विखंडन ही आपका कवि कर्म है? युगधर्म है?

क्या कभी एकलव्य अर्जुन का था प्रतिद्वंदी ?

यह भी कोरी कल्पना तुम्हीं ने गढ़ी है? जानते हो क्यों? क्योंकि एकलव्य को आदिवासी, वनवासी बनाने और द्रोण को ब्राह्मण-गुरु-आचार्य मंडित करने में सुविधा मिलती है तुम्हें।

हे स्वयंभू ! महाभारत युद्ध में भी नहीं समझा आपने मेरी कर्त्तव्य- निष्ठा?

यदि एकलव्य का छला जाना तुम्हें दिखता है 
तो क्या ' नरो व कुंजरो', भूल गये ?

कविवर ! युग के  सत्य को अपने जातीय  सत्य से न्याय करने का प्रयत्न मत करो।

फिर भी बताओगे तुम्हें तराजू  किसने दिया? तुम कवि से कब हो गये हो न्यायाधीश ?

नहीं , एक एकलव्य मेरा शिष्य था,  है और रहेगा, क्योंकि यह उसने स्वीकार किया है। मैंने या तुमने शिष्यत्व का यह अमोघ - अमूल्य अलंकरण उसे नहीं दिया है।

ध्यान रखना अर्जुन आयुधजीवी आचार्य की प्रतिभा का शिष्य था , तो एकलव्य शास्त्र निपुण परशुराम के शिष्य की प्रतिमा का विद्यार्थी।

प्रतिभा का चिदाभास ,  कालाजयी प्रतिमा ही देती है।

हे परिभू

हे परिभू ! 
तुमने महाभारत से लेकर आज
तक पूछे हैं प्रश्न असंख्य ?

 क्या मेरी उत्पत्ति,
 मेरी प्रतिभा ,
 मेरे गुरु पर भी किया है विचार ? 
या
मुझे केवल गुरु ही देखा है?

दे डाली इतनी धिक्कार , फटकार!

हां, मैंने कभी अपने को गुरु नहीं कहा- " द्रोणशिष्यं तु मां विद्धि " यह तो एकलव्य ने माना था ! 

इसलिए उसने द्रोण की मिट्टी की प्रतिमा बनाई, " कृत्वा द्रोणं महीमयम् "।

मैंने तो वीर से वेतन मांगा था, " यदि शिष्योसि में वीर वेतनं दीयतामिति।"

तिस पर वेदव्यास ने भी मुझे क्या कहा, सुनोगे - " सर्वश्रेष्ठ योद्धा ब्राह्मण।" 

तो क्या मैं भी तुम्हारे जैसे , उठा दू व्यास पर जातीयता की उंगली ?

मैं तो वास्तव में प्रतिशोधी मित्र और आयुधजीवी " ही था।

मैं तो अपमानित , पीड़ित पहुंचा था हस्तिनापुर।

मुझे कौरवों और पांडवों ने अपनी सुविधा के लिए बार - बार " आचार्य और गुरु" कहा था।

द्रोपदी की आर्तभरी न्याय की पुकार और अभिमन्यु का बध, अश्वस्थामा की मृत्यु समाचार पर भी युद्ध त्याग की प्रतिज्ञा तोड़ना,  थे सब मेरे कुपक्ष,  जो चिल्ला- चिल्ला कर आज भी लांक्षित कर रहे हैं!

करें भी क्यों न जब व्यास जैसा युग चिन्तक भी मुझे  कह डाला" पापी "।

(दो)

किन्तु एकलव्य के लिए कवि ! तुमने  'आदिवासी' शब्द कहां से ले लिया? 

एकलव्य के लिए क्या तुमने जानना चाहा कभी, उसका गुण -गोत्र?

वह निषाद राज हिरण्यधनु का था पुत्र,  " ततो निषाद राजस्य हिरण्यधनुष: सुत: एकलव्य:"।

भूल गए एकलव्य था, ऋषि कवष- एलुष, शाम्बूक, शबरी , निषाद राज , सत्यवती, व्यास और विदुर की वंशवेलि , जो आज भी जीवित है।

 दे दिया तुम्हें  किसने अधिकार यह आभासी सत्य कहने का?

 हे स्वयंभू ! मुझे तुमने केवल राजवंशी गुरु ही देखा? देखी नहीं गुरुत्व की मर्यादा?

 मैं भी उतना ही वनवासी हूं, भील हूं, द्रोण रक्षित हूं, जितना एकलव्य है।

एकलव्य समान शिष्यत्व की परीक्षा देने का साहस आप में है ?

या केवल  प्रतिभा खंडन और समाज का विखंडन ही आपका कवि कर्म है? युगधर्म है?

क्या कभी एकलव्य अर्जुन का था प्रतिद्वंदी ?

यह भी कोरी कल्पना तुम्हीं ने गढ़ी है? जानते हो क्यों? क्योंकि एकलव्य को आदिवासी, वनवासी बनाने और द्रोण को ब्राह्मण-गुरु-आचार्य मंडित करने में सुविधा मिलती है तुम्हें।

हे स्वयंभू ! महाभारत युद्ध में भी नहीं समझा आपने मेरी कर्त्तव्य- निष्ठा?

यदि एकलव्य का छला जाना तुम्हें दिखता है 
तो क्या ' नरो व कुंजरो', भूल गये ?

कविवर ! युग के  सत्य को अपने जातीय  सत्य से न्याय करने का प्रयत्न मत करो।

फिर भी बताओगे तुम्हें तराजू  किसने दिया? तुम कवि से कब हो गये हो न्यायाधीश ?

नहीं , एक एकलव्य मेरा शिष्य था,  है और रहेगा, क्योंकि यह उसने स्वीकार किया है। मैंने या तुमने शिष्यत्व का यह अमोघ - अमूल्य अलंकरण उसे नहीं दिया है।

ध्यान रखना अर्जुन आयुधजीवी आचार्य की प्रतिभा का शिष्य था , तो एकलव्य शास्त्र निपुण परशुराम के शिष्य की प्रतिमा का विद्यार्थी।

प्रतिभा का चिदाभास ,  कालाजयी प्रतिमा ही देती है।

जगत से ब्रह्म तक

  पूजा हो या मंदिर की पूजा अथवा जप सभी का प्रकटीकरण पूजा स्थल के बाहर व्यवहारिक जीवन में होना चाहिए। -लेखक

मानव तथाकथितवर्ग में तुम्हारे पूर्वज अर्थात परमात्मा जितना पूर्ण है उतना ही पूर्ण तुम भी है। अन्तर केवल अनुभूति का है । - लेखक


मनुष्य जीवन की चरितार्थता उसके कर्म पर आधृत होती है। जहाँ तुलसी का बिरबा अपने सम्पूर्ण वायु मण्डल को प्रदूषण मुक्त करता है वहीं बरगद का पेड़ अपनी छाया में किसी भी वनस्पति को पनपने नहीं देता।’-लेखक


कहाँ तो वटवृक्ष प्रचीनता की धरोहर माना जाता है किन्तु उसकी छत्र-छाया में जीवन के आकाँक्षी पादपों को काल का ग्रास ही बनना पड़ता है। -लेखक


मनुष्य को महानता की ओर बढऩा चाहिए। पुष्प अपने पराग भँवरों को सन्ध्या के आगमन तक सम्पूर्णता के साथ पान करने देता है। हमें भी अपने जीवन को उसके संध्याकाल तक परोपकार में लगाए रख्नना चाहिए।- लेखक


मनुष्य को अपने अन्दर सुरभि के लिए उस कमल  की भाँति अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियों को मन में, मन को अहंकार में, अहंकार को चेतना के सम्पुट में वैसे ही बन्द कर लेना चाहिये जैसे कमल सन्ध्या होते ही अपने सम्पुट बन्द कर प्रभात होने तक अपनी ऊर्जा के संचय के लिए निशा के आगोश में बन्द कर देता है।- लेखक



अनुक्रमणिका

१.  भारतीय वांग्मय  में आध्यात्मिकता और जीवन दर्शन

२.  वेद, उपनिषद, दर्शन तथा प्रस्थान त्रयी का सार

३.  ब्रह्म के स्वरूप का बोध

४.  ब्रह्म के स्वरूप का बोध  या साक्षात्कार का मार्ग

५.  साधाना के चरण कुण्डलनी जागरण

६.  साक्षात्कार की विभिन्न अनुभूतियाँ

७.  आनन्दावस्था

 


भारतीय वांग्मय में आध्यात्मिकता और जीवन दृष्टि की तलाश प्रचीनकाल से चली आ रही है। इसे इस प्रकार भी कह सकते हैं कि जीवन की दृष्टि स्थापना के साथ भारतीय वांग्मय भी स्थापित होता गया। भारतीय वांग्मय इतिहास की धरोहर हैं और वर्तमान का जीवन दृश्य जो प्राचीन बिम्ब के साथ हमारे सामने खड़ा होता है। भारतीय वांग्मय की एक विशेषता यह भी है कि वह इतिहास शब्द को सार्थक करता चलता है। इतिहास दो शब्दों ‘इति’ और ‘हास’ से बना है। ‘इति’ का अर्थ होता है ‘गति’ और ‘हास’ का अर्थ होता है ‘उल्लास’। अर्थात जो वांग्मय लोकजीवन में ‘गति और उल्लास’ दोनों प्रदान करता है वही कालजयी हो जाता है। हमारे वेद, उपनिषद कालजयी हैं। पुराण अपनी प्राचीनता को लिए जब नवीनता के  साथ जुडक़र जीवन में ‘गति और उल्लास’ भरते हैं तभी उनकी सार्थकता बढ़ती है। भारतीय वांग्मय को देखने समझने की इसी इतिहास दृष्टि ने उसे नित्य-नूतन और चिरपुरातन बना के रखा है। आज वांग्मय-दर्शन  धीरे-धीरे भारत की इसी प्राचीन दृष्टि की ओर बढ़ रहा है।

भारतीय परंपरा में वांग्मय को समझने का प्रयत्न ‘अहम’ और ‘इदम’ के रूप में  होता है । संस्कृत के ये दोनों शब्द व्यष्टि और समष्टि के सूचक हैं। इनके अन्दर मित्र-शत्रु, सद-असद के समन्वय का प्रयत्न होता है। यह एकता की दृष्टि व्यक्ति से समष्टि तक की है। यह ऋगवेद का ‘संगच्छध्वं संवदध्वम’ रूप में विश्व को देखने का महामंत्र है। यही मंत्र हमारे ‘स्व’ का  आधार है। हम समान रूप से तन-मन की भूख मिटाने को प्रयत्नशील रहते हैं। यह ‘स्व’ हमारे आचार विचार, भाषा-भूषा, के माध्यम से परिवार,समाज से होता हुआ राष्ट्र तक पहुँचता है। मनुष्य अनजाने ही निष्ठाओं का पुंज है। इनको हम राष्ट्र-निष्ठा, मनुष्य-निष्ठा, श्रम-निष्ठा, समय-निष्ठा तथा सत्य-निष्ठा के रूप में जानते हैं।

‘राष्ट’ का शाब्दिक अर्थ है रातियों का संगम-स्थल और राति शब्द ‘देन’ का पर्यायवाची है।  भूमि और जन की संयुक्त इकाई राष्ट्र है क्योंकि यह जन अपनी भूमि के लिए अपनी ‘राति’ देन राष्ट्रभूमि के चरणों में समर्पित करता है। जो ‘राति’ से इस राष्ट्र को वंचित करता है वही राष्ट्रद्रोही है। 

‘समय’ के तीन अर्थ हैं। सेकेण्ड, मिनट,घण्टा आदि कालावधियों के अनन्त प्रवाह के रूप में जो ‘समय’ व्यक्ति को जीवन काल के रूप में मिला है उसके प्रत्येक क्षण का सदुपयोग करना तथा निश्चित कार्य करने की आदत एक समय-निष्ठा है। समय का दूसरा अर्थ है ‘करार’ शर्त या वचनदान। इसके अनुसार हमने जो ‘करार’ किया है उसकी पवित्रता की रक्षा करते हुए उसको पूर्णता से निभाने के लिए तत्पर रहना ही दूसरी समय-निष्ठा है। समय का तीसरा अर्थ है-परम्परा, जैसा कि ‘कवि-समय’ की उक्ति में प्रकट होता है। इस अर्थ में समय निष्ठा को परम्परा में अन्ध-विश्वास का पर्यायवाची मानना भूल होगी। अन्धविश्वास, सत्य-निष्ठा के विरुद्ध है जिसका उल्लेख स्थायी सत्य एवं तात्कालिक सत्य के रूप में किया जा चुका है। परम्परावाचक समय निष्ठा रखने का अभिप्राय यह है कि हम उसकी पवित्रता  में विश्वास रखें और उसको छोडऩे के लिए तभी तैयार हों जब वह सत्य-निष्ठा अथवा अन्य निष्ठाओं की विरोधी सिद्ध हो जाय। इस पंच निष्ठा में सत्य का अनुसंधान, शिवं का अनुकरण तथा सुन्दरं का दर्शन का प्रयास समाविष्ट है। 

वेद

वेदों में गो सेवा का एक अपना परिवेश है। प्राचीन काल में जो सिक्के चलाए गये उन पर गाय का चित्र बना मिलता है और जिन्हें पुरातत्ववेत्ताओं ने ‘आहत मुद्राओं’ (पंच काक्र्ड क्वाइंस) की श्रेणी में रखा है। ऋगवेद में जब इंद्र (प्रतिमा) को कुछ गायों से खरीदने की बात कही गई तो संभवत:  इन्हीं गो-चिति सिक्कों से अभिप्राय था।  वैदिक परम्परा की आख्यायिका में जहाँ सहस्त्रों या लाखों गायें को दान में देने का प्रसंग आता है, वहाँ भी इनको ‘गो’ नामक मुद्राओं के अर्थ में ग्रहण करना अधिक संगत लगता है।

  गुजरात और राजस्थान के गुर्जर-समाज को गोनिष्ठ भावभूमि प्रदान करने वाली गोजाति उसके लिए एक पशुजाति मात्र नहीं थी। वैदिक साहित्य में ही वशा, विराज् आदि नाम से गो एक अद्भुत शक्ति है, जो नाना प्रकार की सृष्टि का कारण तथा शस्य, दुग्ध, तेजस्स आदि विभिन्न वस्तुओं का दोहन करने वाली है। ज्योति, गति और ज्ञान की प्रतीक गो वेद में एक रहस्यमयी शक्ति है, जिसके गुहा में छिपे हुए ‘नाम’ की अज्ञेयता का उल्लेख बार-बार होता है। इस गो का एक नाम  ‘गोपा’ है द्योतमानामनीषा शक्ति का। एक शक्तिमान है जिसको यह पराशक्ति नाना रूपों, में प्रकट करती है।

संस्कृत ‘गो’ शब्द ‘गाय’ और ‘गोपुत्र’ (वृषभ) दोनों के लिए प्रयुक्त हो सकने के कारण, पुराणों ने गाय को धरती माता का प्रतीक बनाया और गोपुत्र को शक्तिमान् शिव का वाहन। इस प्रकार ‘माता भूमि: पुत्रोऽहं पृथिव्या:’ का षोष  करता हुआ इस राष्ट्र का पृथ्विी-पुत्र भी शक्तिमान शिव की वाहक शक्ति है। धरती माता के रूप में गो शक्ति धन-धान्य प्रदात्री अन्नपूर्णा है और पापियों एवं राक्षसों से आक्रान्त अपने पुत्रों के दु:ख-दर्द को विष्णु भगवान से निवेदन करने के लिए भी जाती है। परंतु पृथिवी-पुत्र के रूप में वह अगतिमय शक्तिमान् को गति प्रदान करने वाला गो-पुत्र नन्दी है, जो अन्याय एवं अत्याचार के विरुद्ध युद्ध का दृश्य भी उपस्थित करा सकता है और समृद्धि एवं योगक्षेम के लिए कल्याणी शान्ति-व्यवस्था का वातावरण भी। इसी नान्दी को शक्ति के रूप में ही तो वसिष्ठ की ‘नन्दिनी’ की उस परिकल्पना को जन्म मिला, जिसमें असंख्य सैन्य सहित विश्वामित्र का आतिथ्य करने की भी क्षमता थी और उसको पराजित करने वाले भयंकर युद्ध रचवाने की भी। 

‘एकलिंग’ वह निष्ठा है जो धरती माता और नान्दी-वाहन का आराध्य है। यह शक्तिमान  की कल्पना है। यह राजपुत्रा आदिति की वैदिक शक्ति के साथ ही शक्तिमान की कल्पना की गई। उपनषिदों ने उसके अद्वैत रूप को ‘राजा’ की संज्ञा दी और उसे साम्राज्य, स्वराज तथा विराज् नामक विविध रूपों में व्यक्त होता देखा। इसको माण्डूक्य उपनिषद् ने तुरीय, सुषिप्ति, स्वप्र एवं जाग्रत अवस्थाओं का ओंकार बताया तथा श्री सूक्त ने इसी बात को ‘ओंकार चतुर्भुज’ कहकर दुहराया। कहने की आवश्यकता नहीं कि यही चतुर्भज ओंकार विष्णु भगवान की चतुर्भजी विग्रह का अधार बना। जिसने मध्ययुगीन भगवान राम और कृष्ण की भक्ति-धाराओं से समाज को सराबोर कर दिया। 

इसके पूर्व भी शैव संप्रदायों की दृष्टि से इसी शक्तिमान के अद्वैत रूप को एकलिंग कहा गया, तो शक्ति के अग्रितत्व की दृष्टि से इसकी संज्ञा महाकाल तथा भैरवनाथ हुई, साम-तत्व के संदर्भ में उसे सोमनाथ नाम ग्रहण किया तो सूर्य-तत्व की दृष्टि से उसे सूर्यनारायण अथवा ब्रह््मा कह कर धर्मचक्र  को संबद्ध कर दिया गया। 

अपने अद्वैत रूप में वह रिनंकार, निरंजन, निर्गुण, अलख, अक्षर आदि  कहलाकर निर्गुण-भक्ति के केन्द्र बिन्दु बना और अन्य रूपों में उसने राम, कृष्ण, शिव, भैरव आदि के अनेक मंदिरों एवं स्थानों में भक्ति की धारा प्रवाहित की। 

  इसी प्रकार दीपावली और दशहरा में जिस देवी की शक्ति तत्व की पूजा  होती है चाहे वह शक्ति पीठों में हो या मंदिरों में अथवा घरों में वह ऋगवेद की ‘राजपुत्रा अदिति’ से माना जा सकता है जो राजपूती शौर्य का प्रतीक भी है। ‘राजपूत्रा’ देवी एक ऐसे वैदिक सम्प्रदाय का आधार है जो राजपूत के रूप में हमारे सामने आया। ‘राजपूत्रा’ शक्ति के तीन तत्व हैं जिहें वेद में अग्रि, सोम और इन्द्र तथा आग में अग्रि, चन्द्र तथा सूर्य नाम भी दिया गया है। ये तीनों तत्व ज्योतिर्मय हैं, परंतु इनकी अपनी-अपनी विशेषता है। अग्रि का काम है जलाना, चन्द्र का शीतल प्रकाश देना तथा सूर्य को इन दोनों का कार्य करना पड़ता है- चलाना और जिलाना भी, क्योंकि सूर्य न केवल अनेक यक्षमिद कीटाणुओं का विनाशक है अपितु जीवनदायिनी ऊष्मा एवं जलवृष्टि के लिए भी उत्तरदायी है। इन्हीें तीनों शक्ति तत्वों की पृथक-पृथक विशेषता को अपनाकर उक्त क्षत्रिय जातियाँ भी अपने को अग्रिवंशी, चन्द्रवंशी अथवा सूर्यवंशी कहने लगी।  

सीमान्त-रक्षक  क्षत्रिय  आक्रमक शत्रु  के अभिमुख जाने के लिए सर्वदा प्रस्तुत के होने से ऋगवेद  की भाषा में ‘अभ्यावर्ती’ (चायमान) भी कहा। 

अग्निवंशी- चारों सीमान्तों का प्रहरी होने से इसी को यज्ञाग्रि से आविर्भूत चतुर्भुज चाहमान या चौहान कहकर एक रूपक खड़ा किया गया, क्योंकि उसका कार्य अग्रि के समान ही जलाना मात्र था। 

  चन्द्रवंशी - जो क्षत्रिय राहत-कार्य, सेवा-कार्य या उत्पाद कार्य में लगा हुआ है वह केवल शीतल ज्योति का स्रोत का स्रोत होने के कारण चन्द्रवंशी कहलाया।

सूर्यवंशी- शान्ति-व्यवस्था में लगा क्षत्रिय, समाज-विरोधी तत्वों का विनाश एवं जीवन-तन्तुओं का विकास करने से जिलाने तथा जिलानेवाला सूर्य-वंशी हुआ। 

विष्णु - जिष्णु अर्थात  एक रूपांतर जिष्णु अथवा वीर  की उस पूजा में देखा जा सकता है।‘वीर’- जिसने गुजरात और राजस्थान के जन-मानस को युगों तक प्रभावित किया है। बाहरी और भीतरी शत्रुओं पर विजय के लिए प्रयत्नशील मानव ‘वीर’ कहलाता है।  वह अनेक मोर्चे पर काम, क्रोध, अभाव, आपूर्ति, द्वेष मत्सर आदि से एक साथ जूझने के कारण ‘बहुवीर’ है। परंतु जब वह विजयी हो ता है तो ऋगवेद की भाषा में ऐसे ‘एकवीर’ अथवा ‘जिष्णु’ प्राकृत में ‘जिन’ होकर जैन धर्म का आधारभूत अरिहन्त या तीर्थकर का नाम हो गया और फिर पूर्व से पश्चिम की ओर यात्रा करता हुआ, तथापकर्ष को ग्रहण करे ईरानी परंपरा के ‘जिन्न’ तथा योरोप के ‘जिनिआई’ नामक दिव्य-शक्ति-संपन्न प्रेत शक्तियों का नामकरण करने मे ससमर्थ हुआ। इस अभिव्यक्ति की एक धारा काम, क्रोधादि कषायों पर विजय प्राप्त करने वाले जिनेश्वर ‘वीर’ की है तो दूसरी धर्मयुद्ध को स्वग्रखर समझने वाले जुझारू ‘वीर’ की। प्रथम धारा ने जहाँ श्वेतांबर एवं दिगम्बर संप्रदायों को जन्म दिया, वहीं दूसरी धारा ने लड़ाकू राजपूत,भीज लाट आदि शक्ति-पूजा के साज खड़ा  किए। दोनों ही धारएं जन-मानस में अभय का संचार करके मानव को ‘वीरपुत्र’ अथवा ‘वीर’ बनने के लिए प्रोत्साहित करती हैं। यह ‘जिन’ आध्यात्मिक और भौतिक दोनों क्षेत्रों में अद्भूत समन्वय के साथ प्राप्त होता है। 

स्वामी विवेकानन्द का भाषण सार- वेदान्त से-

1. जब मनुष्य भूत और भविष्य की चिन्ता का-उसका क्या होगा, इस चिन्ता का-त्याग कर देता है, जब वह देह को सीमाबद्ध और इसलिए उत्पत्ति विनाशशील जानकर देहाभिमान का त्याग कर देता है, तब वह एक उच्चतर आदर्श में पहुँच जाता है, देह भी आत्मा नहीं, मन भी आत्मा नहीं। 

2. शरीर और मन सतत परिवर्तनशील हैं। मानों एक नदी के समान हैं, जिसका प्रत्येक जल-परमाणु सतत चलायमान है, फिर भी वह नदी सदा एक अपच्छिन्न प्रवाह-सी दिखती है। इस देह का प्रत्येक परमाणु सतत परिणामशील है। यह मन का एक संस्कार है कि हम इसे एक ही शरीर समझते हैं, मन के सम्बन्ध में भी यही बात है। 

3. मृत्यु भय कब जीता जा सकता है? जब व्यक्ति यह समझ ले कि जब तक जगत् में एक भी जीवन शेष है, तब तक वह भी जीवित है। तभी वह कह सकता है कि ‘मैं सब वस्तुओं में, सब देहों में, सब प्राणियों में वर्तमान हूँ, मैं ही सब जगत् में हँू, सम्पूर्ण जगत् ही मेरा शरीर है। जब तक एक भी परमाणु शेष है, तब तक मेरी मृत्यु कहाँ ?

4. धर्म, ईश्वर परलोक सम्बन्धी ये सब धारणाएं कहाँ से आयी ? मनुष्य, ईश्वर-ईश्वर, करता क्यों घूमता फिरता है? सभी देशों में, सभी समाजों में मनुष्य क्यों पूर्ण आदर्श का अन्वेषण करता फिरता है ? इसलिए कि वह भाव तुम्हारे भीतर ही वर्तमान है। वह थी तुम्हारे हृदय की धडक़न और तुम उसे नहीं जानते थे, तुम सोचते थे कि बाहर इसकी कोई वस्तु यह ध्वनि कर रही है। तुम्हारी आत्मा में विराजमान ईश्वर ही तुम्हें अपना अनुशंधान करने को-अपनी उपलिब्ध करने को प्रेरित कर रहा है। यहाँ, वहाँ, मन्दिर में, गिरजाघर में, स्वर्ग में, मत्र्य में, विभिन्न स्थानों में, अनेक उपायों से अन्वेषण करने के बाद अन्त में हमने जहाँ से आरम्भ किया था, वहीं अर्थात अपनी आत्मा में ही हम एक चक्कर पूरा करके वापस आ जाते हैं और देखते हैं कि जिसकी हम समस्त जगत में खोज करते फिर रहे थे, जिसके लिए हमने मन्दिरों और गिरजों में जा-जा कातर होकर प्रार्थनाएं कीं, आँसू बहाये, जिसको हम सुदूर आकाश में मेघ राशि के पीछे छिपा हुआ अव्यक्त और रहस्यमय समझते रहे, वह हमारे निकट से भी निकट है, प्राणों का प्राण है, हमारा शरीर है, हमारी आत्मा है- तुम्हीं ‘मैं’ हो, मैं ही ‘तुम’ हो। यही तुम्हारा स्वरूप है- इसी को अभिव्यक्त करो।’ मनुष्य का सारा इतिहास यही है।

5. अब एक प्रश्न? इसका उपयोग क्या है? इसका फल क्या है और इसका लाभ क्या है? सभी लोग सुख की खोज में हैं। हम सुख को नश्वर और मिथ्या वस्तुओं में खोजते हैं। अतएव आत्मा में इस सुख की प्राप्ति ही मनुष्य का सबसे बड़ा  प्रयोजन है। और एक बात यह है कि अज्ञान ही सब दु:खों की महान जननी है और मूलभूत अज्ञान तो यही है कि जो अनन्तस्वरूप है, वह अपने को शान्त मानकर रोता है, चिल्लाता है, समस्त अज्ञान का आधार यही है कि हम अविनाशी, नित्य शुद्ध पूर्ण आत्मा होते हुए भी सोचते हैं कि छोटे-छोटे मन हैं, हम छोटी-छोटी देह मात्र हैं, यही समस्त स्वार्थ परता की जननी है। ज्यों ही मैं अपने को एक क्षुद्र देह समझ बैठ जाते हैं, यहीं मैं संसार के अन्यान्य शरीरों के सु:ख-दु:ख की कोई परवाह न करते हुए अपने शरीर की रक्षा में, उसे सुन्दर बनाने के प्रयत्न में लग जाता हूँ। उस समय मैं तुमसे पृथक हो जाता हूँ। आत्मा के अतिरिक्त जो कुछ भी ज्ञान अर्जित किया जाता है, वह सब आग में घी डालने के समान है उससे दूसरों के लिए प्राण उत्सर्ग कर देेनें की बात तो दूर रही, स्वार्थ पर लोगों को दूसरों की चीजों को हर लेने के लिए, दूसरों के रक्त पर फलने-फूलने के लिए एक और यंत्र-एक और सुविधा मिल जाती है। 

6. एक प्रश्र और- क्या यह व्यावहारिक है? वर्तमान समाज में क्या इसे कार्य रूप में परिणत किया जा सकता है? इसका उत्तर यह है कि ‘सत्य, प्राचीन अथवा आधुनिक किसी समाज का सम्मान नहीं करता। समाज को ही सत्य का सम्मान करना पड़ेगा, अन्यथा समाज नष्ट हो जायगा।’ समाज को सत्य के अनुरूप ढाला जाना चाहिए, सत्य को समाज के अनुसार अपने को ढालना नहीं पड़ता। सम्राट और साधु की कथा, सिपाही और विद्रोही मुस्लिम सैनिकों की कथा। अपने ‘स्व’ की पहचान। शेर और भेडिय़े की कथा। आत्मा की पहचान है।

7. ‘मंै’ क्या है? क्या यह शरीर है? यदि ऐसा होता तो बालक के मूछ आने पर उसका ‘अहं’ नष्ट हो जाता। इसी तरह स्मरण से भी व्यक्तित्व का सम्बन्ध नहीं है। बचपन के पहले दो तीन वर्षों का हमें स्मरण नहीं है और यदि स्मृति और अस्तित्व एक है, तो फिर कहना पड़ेगा कि इन दो-तीन वर्षों में मेरा अस्तित्व नहीं था।




भारत के प्रमुख दर्शन


1. न्याय दर्शन - ऋषि गौतम। चार प्रमाण हैं- प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान एवं शब्द। ‘न्याय सूत्र’। न्याय दर्शन में शरीर, इन्दियाँ, चित्त, प्रवृत्ति, बुद्धि, दोष, दु:ख, फल आदि शामिल हैं। कणाद ऋषि द्वारा प्रवर्तित वैशेषिक दर्शन और गौतम मुनि प्रवर्तित न्याय दर्शन के सिद्धान्त एक जैसे हैं। न्याय दर्शन एक प्रकार से वैशेषिक सिद्धान्त की ही विस्तृत व्याख्या है या माना जाना चाहिए कि इन दोनों दर्शनों में एक ही फिलासफी है जिसका पूर्वांग वैशेषिक है और उत्तरांग न्याय। इन दोनों दर्शनकारों का ठीक-ठीक समय निश्चय करना अति कठिन है; किन्तु इतना तय है कि ये दोनों कपिल और पतञ्जलि के पीछे हुए हैं; तथा व्यास और जैमिनी  से पूर्व हुए हैं।


2. सांख्य दर्शन- कपिल मुनि। प्रकृति और पुरुष दो तत्व की मान्यता। पुरुष चेतन है, वह शरीर, मन व इन्द्रिय से भिन्न है। पुरुष प्रकृति के परिणामों का उपभोग करता है। पुरुष और प्रकृति के संयोग से सृष्टि निर्माण होती है।


3. योग दर्शन - महर्षि पतंजलि। ध्यान और समाधि मुक्ति के साधन। अष्टांग-योग:-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि। आत्मा शरीर, मन, बुद्धि आदि से ऊपर है जिसके कारण वह पाप पुण्य, सु:ख, दु:ख आदि से भी ऊपर है।


4. वैशेषिक दर्शन- वैशेषिक दर्शन के प्रर्वतक कणाद ऋषि हैं। गांधार देश में सुप्रसिद्ध तक्षशिला के पास एक यक्षशिला नामक नगरी थी। वह क्रमू नदी के किनारे बसी थी। यक्षशिला में कश्यप नाम का एक ब्राह्मण रहता था। पत्नी का नाम सुलक्षणा था। वह औषधि की जानकार थी। उनके चार पुत्र थे। क्रांतिभान सबसे छोटा था। एक बार यक्षशिला में काफी बाढ़ आई और विनाश लीला के कोपभाजन बने कश्यप अपनी पत्नी सुलक्षणा और बेटों को लेकर सरस्वती नदी के किनारे-किनारे प्रभास पट्टण पहुँच गए। वहीं सोमव्रत शर्मा के गुरुकुल में बालक काश्यप की शिक्षा-दीक्षा हुई।  कुछ दिनों के बाद लगभग आठ-नौ वर्ष की उम्र में उसके माता का निधन हो गया। वह अपनी माँ से बहुत प्यार करता था। वह आश्रम छोडक़र घर आता है किन्तु कुछ दिन बाद सोमव्रत उसे पुन: आश्रम ले जाते हैं। पिता विवाह करना चाहते हैं किन्तु वह मना कर देता है। पिता की मृत्यु के बाद वह जंगल की राह पकड़ता है। उसकी खाने-पीने के स्वाद में कोई रुचि नहीं रही। भाभी के नमक विहीन भोजन देने पर भी वह स्वाद से खाता था। भाभी के पूछने पर की आज तो भोजन हमने जानबूझकर अस्वाद बनाया था, वह कोई उत्तर नहीं देता।  विश्व का कणात्मक स्वरूप विशद करने के कारण उनका नाम कणाद पड़ा। कणाद का पहला नाम क्रांतिभान था जो बाद में काश्यप तथा कणाद के नाम से प्रसिद्ध हुआ। परमाणुवाद इनकी सबसे बड़ी देन। इनका मत है कि धर्म के दो प्रकार हैं- सामान्य धर्म और विशेष धर्म। सामान्य धर्म में- श्राद्ध, अहिंसा, सत्यवचन, ब्रह्मचर्य, पवित्र दव्य सेवन, भाव शुद्धि, प्राणहित साधन, विशेष देवता की सिद्धि आदि आते हैं। विशेष धर्म में - चार वर्ण और चार आश्रमों का पालन।

उनका प्रमुश दर्शन ग्रंथ वैशेषिक है। उसमें दस अध्याय तथा तीन सौ सत्तर सूत्र हैं। एक-एक सूत्र में महान अर्थ भरा है। प्रथम अध्याय का पहला सूत्र- ‘अथतो धर्म व्याख्यास्याम:’ अर्थात अब हम धर्म का विवेचन विश£ेषण करेंगे। इस अध्याय में ग्रंथ के हेतु को  बताया गया है। 

इसका दूसरा सूत्र ‘यतोऽभ्युदय नि:श्रेयससिद्धि सधर्म:।’ जो ऐहिक और पारलौकिक प्रगति कराता है, उसे धर्म कहते हैं। दूसरे अध्याय में- दूसरे अध्ययाय में विश्व के मूलभत पदार्थों का विवरण है। प्रत्येक पदार्थ अनेक पदार्थों के संयोग से बनता है। एक रूप में अनेक रूप होते हैं और अनेक रूप पुन: एक रूप हो जाते हैं। ‘कारणाभावात् कार्याभाव:।’ अर्थात हर कारण के पीछे कोई न कोई कारण अवश्य रहता है। इसके साथ ही इस अध्याय में पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश के गुणों का वर्णन है। तीसरे अध्याय में- आत्मा और मन पर विचार किया गया है। इन्द्रियों द्वारा मिलने वाले सुख दु:ख का वर्णन है। इसी में वेद के अर्थ को भी समझाया गया है तथा यह भी स्पष्ट किया गया है कि आत्मा एक है। चौथे अध्याय में- नित्य अनित्य की चर्चा करते हुए बताया गया है कि नित्य पदार्थ के कारण नहीं रहते किन्तु अनित्य पदार्थ के पीछे कारण रहते हैं। हर इन्द्रिय का अपना कार्य है। विश्व में असंख्य परमाणु तैरते रहते हैं और उनके संयोग से विभिन्न पदार्थ बनते बिगड़ते रहते हैं। ईश्वर एक है। पाँचवे अध्याय में- कर्म पर चर्चा है। आत्मा को हर कर्म का प्रेरणा स्थान माना गया है। छठे अध्याय में- ज्ञान, त्याग, अहिंसा आदि सद्गुणों की चर्चा है। इसके एक सूत्र में कहा गया है  ‘नित्यं परिण्डलम्।’ अर्थात परमाणु नित्य है। सातवें अध्याय में- कार्यगुण और कारण गुणों की चर्चा है। महत् परिमाण दृष्टिगोचर हैं किन्तु अणुपरिमाण अगोचर हैं। यहाँ हर वस्तु एक दूसरे बड़ी भी है और छोटी भी। जैसे खस के दाने से राई का दाना।  आठवे अध्याय में- यह बताने का प्रयत्न है कि विशेषणों के द्वारा ही हमें किसी वस्तु के गुणों का पता चलता है। कर्म और गुण असंख्यात हैं। विशेष ज्ञान से विशिष्ट बुद्धि उत्पन्न होती है। भाषा और जिह्वा, तेज और आँखें, वायु और त्वचा इनके सम्बन्धों को समानाधिकार कहते हैं। नवम् अध्याय में- इसमें कार्य निर्मित को पूर्व अभाव का प्राग्भाव कहा गया है। आत्मा और मन इन दोनों के संयोग को आत्मसाक्षात्कार कहा गया है। अनुमान को एक ज्ञानसाधन बताया गया है। प्रत्यक्ष और अनुमान से ही संस्कार बनते हैं और संस्कारों से ही स्मृति बनती है। इन्द्रिय दोष तथा संस्कार दोषों से अविद्या बनती है। इस प्रकार इस अध्याय में आत्मा कार्य, कारण योग, विरोध समवाय, मन, संस्कार, स्वप्र, धर्म आदि विषयों को सम्बन्ध में बताया गया है। दशम अध्याय में- इष्ट, अनिष्ट, कारण भेद, सुख, दु:ख इत्यादि विषयों का विवेचन है। वेदों की मान्यता बताई गयी है। जहाँ अन्य दर्शनों में मूल तत्वों की संख्या चौबीस मानते हैं वहीं कणाद इन्हें पच्चीस मानते हैं।


5. मीमांसा दर्शन- जैमिनी ऋषि। कर्म की प्रधानता। वेदों के प्रति अटूट श्रद्धा। संसार में जितने जीव उतनी आत्माएँ हैं। आत्मा अविनाशी है। सृष्टि अनादि और अनंत है।


6. वेदांत दर्शन- वादरायण व्यास। आत्मा परमात्मा का अंश है। सब कुछ ब्रह्म ही ब्रह्म है। गौड़पाद ने अद्वैत वेदांत की प्रतिष्ठा की। शंकराचार्य ने वेदान्त का विशद विवेचन किया।








प्रस्थान त्रयी


1. प्रस्थान त्रयी- उपनिषद, गीता तथा ब्रह्म-सूत्र को मिलाकर प्रस्थान त्रयी कहा जाता है। 

उपनिषद सार -सनातन वैदिक धर्म के ज्ञानकाण्ड को उपनिषद् कहते हैं। सहस्त्रों वर्ष पूर्व भारतवर्ष में जीव-जगत तथा तत्सम्बन्धी अन्य विषयों पर गम्भीर चिन्तन के माध्यम से उनकी जो मीमांसा की गयी थी, उपनिषदों में उन्हीं का संकलन है।


1-श्रीमद्भगवतगीता -

रुशह्म्स्र ्यह्म्द्बह्यद्धठ्ठड्ड ह्यश्चशद्मद्ग ह्लद्धद्ग क्चद्धड्डद्दड्ड1ड्डस्र-त्रद्बह्लड्ड शठ्ठ ह्लद्धद्ग ड्ढड्डह्लह्लद्यद्गद्घद्बद्गद्यस्र शद्घ ्यह्वह्म्ह्वद्मह्यद्गह्लह्म्ड्ड द्बठ्ठ ३१०२ क्च.ष्ट.; द्भह्वह्यह्ल श्चह्म्द्बशह्म् ह्लश ह्लद्धद्ग ष्शद्वद्वद्गठ्ठष्द्गद्वद्गठ्ठह्ल शद्घ ह्लद्धद्ग रूड्डद्धड्डड्ढद्धड्डह्म्ड्डह्लड्ड 2ड्डह्म्. ञ्जद्धद्बह्य स्रड्डह्लद्ग ष्शह्म्ह्म्द्गह्यश्चशठ्ठस्रह्य ह्लश १७०० 4द्गड्डह्म्ह्य ड्ढद्गद्घशह्म्द्ग रूशह्यद्गह्य, २५०० 4द्गड्डह्म्ह्य ड्ढद्गद्घशह्म्द्ग क्चह्वस्रस्रद्धड्ड, ३००० 4द्गड्डह्म्ह्य ड्ढद्गद्घशह्म्द्ग छ्वद्गह्यह्वह्य ड्डठ्ठस्र ३८०० 4द्गड्डह्म्ह्य ड्ढद्गद्घशह्म्द्ग रूशद्धड्डद्वद्वद्गस्र. स्श द्घद्बह्म्ह्यह्ल ड्डठ्ठस्र द्घशह्म्द्गद्वशह्यह्ल द्बह्ल ह्यद्धशह्वद्यस्र ड्ढद्ग ष्द्यद्गड्डह्म्द्य4 ह्वठ्ठस्रद्गह्म्ह्यह्लशशस्र ह्लद्धड्डह्ल ह्लद्धद्ग द्गह्लद्गह्म्ठ्ठड्डद्य द्मठ्ठश2द्यद्गस्रद्दद्ग शद्घ ह्लद्धद्ग क्चद्धड्डद्दड्ड1ड्डस्र-त्रद्बह्लड्ड द्धड्डह्य ठ्ठशह्ल ड्ढद्गद्गठ्ठ द्बठ्ठद्घद्यह्वद्गठ्ठष्द्गस्र ड्ढ4 क्चह्वस्रस्रद्धद्बह्यद्व, ष्टद्धह्म्द्बह्यह्लद्बड्डठ्ठद्बह्ल4, ॥द्गड्ढह्म्द्ग2द्बह्यद्व शह्म् ढ्ढह्यद्यड्डद्व; द्घशह्म् ह्लद्धद्गह्यद्ग ह्म्द्गद्यद्बद्दद्बशठ्ठह्य स्रद्बस्र ठ्ठशह्ल द्ग3द्बह्यह्ल ड्डह्ल ह्लद्धड्डह्ल ह्लद्बद्वद्ग ड्डठ्ठस्र 2द्गह्म्द्ग द्गह्यह्लड्डड्ढद्यद्बह्यद्धद्गस्र द्वद्बद्यद्यद्गठ्ठद्बह्वद्वह्य द्यड्डह्लद्गह्म्. 


  भारतीय आध्यात्मिक वांग्ड्मय का सर्वोपरि सर्वमान्य ग्रंथ है। इसे ब्रह््मविद्या उपनिषद कहा जाता है। यह योगशास्त्र तथा नीतिशास्त्र भी है। श्रीकृष्ण ने गीता में बड़े ही युक्तिपूर्वक आध्यात्मिक जीवन की कला का प्रतिपादन किया। एक ओर उन्होंने अर्जुन को उपदेश दिया- ‘सर्वधर्मान परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज’ और दूसरी ओर पूरी स्वाधीनता देते हुए कहते हैं ‘विमृष्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु’। इस प्रकार गीता आध्यात्मिक सिद्धांतों का प्रतिपादन करते हुए आध्यात्मिक और भौतिक दोनों प्रकार के समन्वित जीवन जीने का उपदेश देती है। हाँ यहाँ एक बात अवश्य स्पष्ट कर लेना चाहिए कि गीता को भगवान ने गाया है किन्तु उसे छंदबद्ध महामुनि व्यास जी ने ही किया। अर्जुन और कृष्ण के संवाद को जब हम यह कहते हैं कि कृष्ण ने गीता गायी तो उसका अर्थ केवल इतना ही है कि वह एक भावपूर्ण अवस्था में किया गया अत्यन्त निर्मल और सुमधुर प्रवोधन था। जिस पर व्यास जी ने अपनी लेखनी चलाई। तभी तो कहा जाता है-

नमोऽस्तु ते व्यास विशालबुद्धे

        फुल्लारविन्दायतपत्रनेत्र।

येन त्वया भारत तैलपूर्ण:

        प्रज्वालितो ज्ञानमय: प्रदीप:।। 

‘-हे खिले हुए कमलदल के समान नेत्र वाले, विशाल-बुद्धि व्यास जी। आपको नमस्कार, जो आपने महाभारत रूपी तैल लेकर ज्ञानमय प्रदीप प्रज्वलित कर दिया।’

गीता पर आचार्य शंकर से लेकर रामानुज, मधुसूदन सरस्वती आदि प्राचीन आचार्यों ने भाष्य-टीकाएं आदि लिखी हैं। आधुनिक काल में भी श्री तिलक, श्री अरविंद, महात्मागांधी, डॉ. राधाकृष्णन आदि मनीषियों ने भी अपने विचार लिपिबद्ध किये है। स्वामी विवेकानंद ने गीता पर व्याख्यान दिये है। इस प्रकार हम देखते हैं कि गीता एक ऐसा उपनिषद है जिस पर सभी मनीषियों ने चिंतन किया तथा उसे समाजोपयोगी बनाने के लिए सरल से सरल टीकाएं लिखी। स्वामी अडग़ड़ानंद ने भी गीता पर अपने सरल सुबोध विचार रखे। गीता केवल आध्यात्मिक व्याख्या के रूप में हमारे सामने नहीं आयी बल्कि उसकी वैज्ञानिक व्याख्या भी की गई है। जिसमें विज्ञान, नैतिकता, तथा आध्यात्म का सुंदर समन्वय है।

गीता के बारे में कहा गया -

         पार्थाय प्रतिबोधितां भगवता नारायणेन स्वयं।

       व्यासेन ग्रथितां पुराणमुनिना मध्ये महाभारतम।।

       अद्वैतामृतवर्षिणीं भगवतीम् अष्टादशाध्यायिनीम।

       अम्ब त्वामनुसन्दधामि भगवद्गीते भवद्वेषिणीम।।

          सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनन्दन:।

        पार्थो वत्स: सुधीर्भोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत।।

अर्थात पार्थ अर्जुन को प्रतिबोधित करने के लिए साक्षात् स्वयं भगवान् ने जिसको प्रकट किया, जिसे पुराणमुनि व्यास ने श्लोकबद्ध कर महाभारत के बीच ग्रंथित किया, जो अठारह अध्यायों वाली और अद्वैतामृत की वर्षा करती है, जो भवरोग को दूर करनेवाली भगवती है, ऐसी हे भगवद्गीते, मैं तुझ पर ध्यान करता हूूँ। समस्त उपनिषद् गाय हैं, उनके दुहने वाले गोपाल नंदन हैं, पार्थ अर्जुन बछड़ा है और गीता अमृतरूप इस दूध का पान करने वाले सुधीजन हैं।’ इस तरह गीता का विषय ब्रह्मजीव का अद्वैत या एकत्व ही है। उपनिषद शब्द संस्कृत में स्त्रीलिंग में चलता है, इसीलिए उसके विशेषण में ‘भगवद्गीत’ न कह ‘भगवद्गीता’ कहा है। अर्थात गीत का मतलब जो गाई गयी हो। 

इसलिए यहाँ गीता की चर्चा के साथ अन्य उपनिषदों को भी उद्धृत करते चलेगें। गीता पर सुंदर रूपक और उपमा का उपयोग किया गया हैं-


   भीष्मद्रोणतटा जयद्रथजला

             गंाधारनीलोत्पला।

     शल्यग्राह्वती कृपेण वहनी।

              कर्णेन वेलाकुला।

    अश्वत्थामाविकर्णघोरमकरा

                दुर्योधनावर्तिनी।

     सोतीर्णा खलु पाण्डवै: रणनदी

            कैवतर्क: केशव:।1

                         पाराशर्यवच: सरोजममलं 

                            गीतार्थगन्धोत्कटम

           नानाख्यानककेसरं 

हरिकथासम्बोधनाबोधितम।

लोके सज्जनषट्पदैरहरह: पेपीयमानं मुदा।

भूयद्भारतपंकजं कलिमलप्रध्वंसिन: श्रेयसे।। 2


गीता स्वतंत्र भारत में न्यायपालिका में हिन्दुओं के सपथ का मान्य ग्रंथ है। यद्यपि यह कोई बहुत उचित मूल्यांकन नहीं है कि एक ओर गीता तो दूसरी ओर बाइबल या कुरान से कसम खाई जाय। किन्तु एक बात इससे मान्य होती है कि गीता को धर्म का ग्रंथ संवैधानिक रूप से माना जाता है। वस्तुत: गीता इससे बहुत ऊपर है किन्तु यही गीता की विशेषता भी है कि इतना महान ब्रह््मज्ञान प्राप्त कराने बाला ग्रंथ जो साक्षात नारायण के मुख से निकला हो वह भौतिक और पराभौतिक दोनों का संरक्षण करता है। अभी हाल ही में (वर्ष 2013) में रूस में गीता को आतंकवाद का प्रेरक होने का कारण बताकर न्यायलाय से उस पर प्रतिबंध लगाने की बात कही गई किन्तु न्यायालय ने इसे अमान्य करते हुए गीता को प्रतिबंधित करने से मना कर दिया। इसी तरह मध्यप्रदेश हाईकोर्ट में ईसाई मिशनरियों द्वारा एक दायर याचिका में मा. न्यायमूर्ति ने यह कह कर गीता को स्कूलों में पढ़ाने से रोकने पर मना कर दिया कि गीता कोई धर्म ग्रंथ नहीं जीवन दर्शन है। इधर भारतीय जनता पार्टी की नेता सुषुमा स्वराज ने गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित करने की माँग कर दी। परन्तु गीता को राष्ट्रीय गं्रथ की सीमा में बाँधना क्या उचित है? भूमि का सीमाबद्ध होना अलग बात है किन्तु विचार या दर्शन का सर्वव्यापी होना दूसरी बात है। तत्व देश-काल की सीमा में नहीं बँधता। गीता जगत के कल्याण का सूूत्र छिपाए है। जो गीता ‘मेरे-तेरे’ के धागे को तोडऩे की बात करती है उसे राष्ट्र के सीमारूपी धागे में बाँधना अज्ञानता या गीता को राजनीतिक नजरों से देखने का परिणाम है। गीता का नाम महाभारत या भारत नहीं है। वह कृष्ण गीता भी नहीं है। हिन्दू गीता भी नहीं है। सनातन गीता भी नहीं है। उसे श्रीमद्भगतगीता कहा। भगवान किसी देश काल में नहीं बँधा होता। उसका उपासक देशकाल की सीमा में होता है। प्रात:-सांध्य की देश-काल की सीमा नहीं होती। गीता भगवान कृष्ण की तरह सामान्य गोप बालाओं से लेकर दैत्य और नरकासुर तथा कंस तक होता हुआ महाभारत तक पहुँचता है। जहाँ-जहाँ कृष्ण का रूप दिखाई देता है वहाँ ब्रह्म स्वयं उपस्थित है। अर्थात वहाँ उपनिषद रूप में गीता उपस्थित है।

गीता महाभारत के समान अठारह अध्याय में विभाजित गं्रथ है। महाभारत ग्रंथ तथा महाभारत युद्ध दोनों में अठारह सर्ग तथा अठारह औक्षहिणी सेना थी। ग्यारह कौरवों की और सात पाण्डवों की ओर। गीता में कृष्ण का सारा उपदेश है। 

       ‘‘गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यै: शास्त्रविस्तरै:।

         या स्वयं पद्यनाभस्य मुखपद्याद्विनि:सृता।।’’


जैसा ऊपर बताया गया है कि गीता का नाम कृष्ण गीता नहीं है। श्रीमद्भगवत गीता है। क्योंकि इसमें भगवान की चर्चा है। गीता में दूसरे अध्याय से श्रीकृष्ण बोलना प्रारम्भ करते है। किन्तु कहीं भी श्रीकृष्ण उवाच नहीं होता। उसमें हर जगह श्री भगवानुवाच ही आता है। हमें आज के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के निर्माता डॉ. हेडगेवार जी याद आते हैं। उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की किन्तु उसका नाम न तो डॉ. हेडगेवार संघ रखा और न ही हिन्दू स्वयंसेवक संघ। कारण उनका भी आराघ्य राष्ट्र है जिसे देवता माना है। स्पष्ट है डॉ. साहब के जीवन में गीता कितना प्रभाव रखती है।

गीता में कृष्ण और अर्जुन सखा भाव में आते हैं किन्तु गुरु-शिष्य भाव में परिणत हो जाते हैं। लाखों-करोड़ों जीवों में से प्रत्येक जीव का भगवान के साथ नित्य विशिष्ट सम्बन्ध है यह स्वरूप कहलाता है। भक्तियोग की प्रक्रिया द्वारा यह स्वरूप जागृत किया जा सकता है। तब यह अवस्था स्वरूप-सिद्धि कहलाती है-यह स्वरूप की अर्थात स्वभाविक या मूलभूत स्थिति की पूर्णता कहलाती है। अतएव अर्जुन भक्त था और मैत्री में वह भगवान के सम्पर्क में था। अर्जुन भगवद्गीता में कहते हैं-

                      परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान।

                    पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम।।

                   आहुस्त्वामृषय: सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा।

                   असितोदेवलोव्यास: स्वयं चैव ब्रवीशि मे।।

                    सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव।

                    न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवा:।।

‘‘अर्जुन कहते हैं: आप भगवान, परम-धाम, पवित्रतम परमसत्य हैं। आप शाश्वत, दिव्य आदि पुरुष, अजन्मा तथा महानतम हैं। नारद, असित, देवल तथा व्यास जैसे समस्त महामुनि आपके विषय में इस सत्य की पुष्टि करते हैं और अब आप स्वयं मुझसे इसी की घोषणा कर रहे हैं। हे कृष्ण! आपने जो कुछ कहा है उसे पूर्णरूप से मैं सत्य मानता हँू। हे प्रभु! न तो देवता और न असुर ही आपके व्यक्तित्व को समझ सकते हैं।’’ ‘सर्वमेतदृतं मन्ये- ‘‘आप जो कुछ कहते हैं, उसे मैं सत्य मानता हूँ।’’

जब तक अर्जुन श्रीकृष्ण को गुरु नहीं मान लेता तब तक उसका मोह नष्ट नहीं होता। इसका प्रत्यक्ष है कि अर्जुन ग्यारहवें अध्याय में कहता है-

‘मदनुग्रहाय परमं गुहमध्यात्मसंज्ञितम्।

यत्वोक्तं वचस्तेन ममोहोऽयं बिगतो मम’ (गीता-11/1)

मोह तो नष्ट हुआ किन्तु विराट रूप देखने की इच्छा जागृत हो गई। क्यों हुआ ऐसा तो अर्जुन स्वयं कहता है- 

‘भाप्ययौ  हि भूतानां श्रुतौ विस्तरशो मया।

               त्वत्त: कमलपत्राक्ष माहात्यमपि चाव्ययम्।। (गीता-11/2)

क्योंकि अर्जुन भगवान की वाणी से भूतों की उत्पत्ति और प्रलय तथा विस्तार की कथा और अविनाशी प्रभाव सुन चुका है। और अर्जुन कहता है मेरा मोह चला गया। विचार करें क्या अर्जुन का मोह चला गया। मोह के साधन  श्रवण्ेान्द्रियों का मोह तो चला गया किन्तु आँखों से देखने की इच्छा नहीं गई। तभी तो वह भगवान का विश्वरूप देखना चाहता है। यहाँ गुण और रूप का द्वैत स्पष्ट है। भगवान अर्जुन को द्वैत से हटाना चाहते हैं। दूसरी बात कृष्ण के साथ रहते-रहते अर्जुन को भ्रम हो जाता है कि वह परमपिता परमात्मा के स्वरूप को इन्हीं चक्षुओं से देश सकता है। तब उसके भ्रम का निवारण करते हुए भगवान श्री योगेश्वर कहते हैं। तू इन आँखों से हमारे दिव्य स्वरूप को नहीं देख सकता इसलिए तुझे मैं दिव्य दृष्टि दे रहा हँू। -

न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा।

दिव्यं ददामि ते चक्षु:पश्य में योगमैश्वरम्। (गीता-11/8)

यह भगवान की भक्त के प्रति कृपालता है। यही दृष्टि योग मार्ग है। आगे जब अर्जुन भगवान् के विश्वरूप को देखकर भयभीत हो गये, तब भगवान् ने कहा कि यह तेरा मूढ़भाव (मोह) है; अत: तेरे को मोहित नहीं होना चाहिये-

‘मा ते व्यथा मा च विमूढ़भावो दृष्टा रूपं’ (गीता-11/49)

भगवान के इस वचन से यही सिद्ध होता है कि अर्जुन का मोह सर्वथा नहीं गया था। परन्तु आगे जब अर्जुन ने सर्वगुह्यात्मवाली बातों को सुनकर कहा कि आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया और मुझे स्मृति प्राप्त हो गयी-

‘नष्टो मोह: स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत.

स्थितोऽस्मि गतसन्देह: करिष्ये वचनं तव।।’ (गीता-18/73)

अर्जुन के मुख से अन्त में निकली इस बात को सुन भगवान कुछ नहीं बोलते, मौन रहे और उन्होंने आगे उपदेश देना समाप्त कर दिया। 

गीता का प्रवचन यहाँ समाप्त हो गया और महाभारत का परिणाम भी संजय धृतराष्ट को सुना देता है- 

व्यासप्रसादाच्छ्रुतवानेतद्गुहयहं पर्।

योगं योगेश्वरात्कृष्णात्ससाक्षात्कथयत: स्वयंम्।।  (गीता-18/74)

यहाँ भगवत् स्वरूप को संजय देख पाता है, और कहता है मैैं उस दृश्य को देख कर बार-बार आश्चर्य चकित हो रहा हँू।

विस्मयो संस्मृत्य संस्मृत्य  रूपमत्यभदुतं हरे:।

विस्मयो में महान्रान्हृष्यामि च पुन: पुन:।। (गीता-18/77)

यह बात धृतराष्ट्र को सुनाता है और होने वाले महाभारत का परिणाम भी घोषित करता हुआ कहता है-

 यत्र योगेश्वर: कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धर:।

तत्र श्रीर्विजया भूतिध्र्रुवा नीतिर्मतिर्मम।। (गीता-18/78)

गीता में अर्जुन ही मोहग्रस्त नही है। वहाँ धृतराष्ट्र भी मोहग्रस्त है। कौरवों पाण्डवों की खड़ी सेना में संजय से धृतराष्ट्र पहले अपने पुत्रों के बारे में पूछते हैं पश्चात पाण्डु पुत्रों का समाचार पूछते हैं।

      धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सव:।

मामा: पाण्डाश्चै किमकुर्वत संजय।। (गीता-1/1)

गीता बड़ा मनोवैज्ञानिक ग्रंथ है। दुर्योधन जब अपनी सेना का निरीक्षण करते हुए भीष्म के पास जाता है तब संशय को उद्घाटित करता हुआ यह बताने का प्रयत्न करता है कि सिंहासन से बँधे भीष्म चाहे दुर्योधन के सेना नायक हो किन्तु उनका मोह पाण्डवों से ही है। इस बात को बिना याद दिलाए वह नहीं रहता। इसी प्रकार जब द्रोणाचार्य के पास जाता है तो वह यह बताना नहीं भूलता कि द्रोणाचार्य के (शिष्य) दुश्मन दु्रपद का पुत्र ही पाण्डवों की सेना का नायक है। 

पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महती चमूम।

           व्यूढां दु्रपदपुत्रेण तब शिष्येण धीमता।। (गीता-1/2)

इधर उत्तेजना और उधर मोह में फसे अर्जुन को उपदेश देते कृष्ण यह बताने का प्रयत्न करते हैं कि तुम मात्र निमित हो, यह सब तो पहले से ही मरे हुए हैं। तुम अपना क्षत्रिय धर्म निभाओ। 

एक बात स्पष्ट है कि अपने नेतृत्व पर जहाँ दुर्योधन को विश्वास नहीं है, वहीं अर्जुन को अपने सखा पर पूरा भरोसा है। बिना नेतृत्व के विश्वास के हम अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकते।

सामान्यत: सभी उपनिषदों का उद्देश्य ब्रह््मज्ञान कराना है। गीता में भी कर्म, भक्ति और ज्ञान की बात कही जाती है। गीता में तीन लोगों को ज्ञानदृष्टि प्राप्त है। भगवान श्रीकृष्ण, कृष्ण द्वैयपायन व्यास तथा विदुर को। व्यास नेे अपने शिष्य संजय को यह ज्ञान दृष्टि दी। कारण वह अंधे धृतराष्ट को यथातथ्य वर्णन कर सके। दोनों ओर के सारथियों को ज्ञानदृष्टि प्राप्त है। अन्तर इतना है कि एक स्वयं भगवान है जो सभी कुछ आगे पीछे का जानते हैं दूसरा साधारण मनुष्य है जो सामने की सभी बातों को देखता है। वह उसमें किन्तु परन्तु कर घोषणा नहीं कर सकता। सुझाव नहीं दे सकता। दिशा नहीं बता सकता किन्तु दूसरा भगवान के मुह से सब कुछ कहा जाता है। संजय के अन्दर दिव्य दृष्टि होते हुए भी वह अपनी तरफ  से कभी न तो अहंकार में पड़ता और न ही अतिरिक्त व्याख्या करने या धृतराष्ट को कुछ अधिक जानकारी देता। हम आज थोड़ा सामथ्र्य या अधिकार प्राप्त होते ही सब कुछ करने को उताबले हो उठते हैं।

गीता सर्वसाधारण के लिए लिखी गई गयी है, जबकि अन्य उपनिषद सामान्यत: सन्यासी के लिए हैं ऐसा माना जाता है तथा उपनिषद ब्रह्म की ही बात सदा-सर्वदा करते हंै। गीता में अर्जुन जीव का प्रतिनिधित्व करता है। यहाँ एक और प्रश्न उठता है कि इतने उपनिषद थे फिर गीता की आवश्यकता क्यों ? मनुष्य शारीरिक भोजन के साथ मानसिक भोजन भी चाहता है। मानसिक भोजन की पूर्ति समय-समय पर सम्प्रदायों से की जाती है। सम्प्रदायों के उद्भव का कारण भी यही है। एक बार एक संत नदी के किनारे छोटी सी कुटिया में रहते थे। उनकी धुइनी लगी रहती थी और वे सदा चिलम पीते रहते थे। साथ ही वेदांत दर्शन का अध्ययन करते रहते थे। किसी ने उनसे पूछा, महाराज आप एक ओर चिलम पीते हैं, दूसरी ओर वेदांत दर्शन पढ़ते हैं। दोनों कार्य एक साथ देखकर कुछ अटपटा सा लगता है। उन्होंने कहा, देखो भाई शरीर की भूख इस गाँजे से मिटती है और आत्मा की भूख इन ग्रंथों के अध्ययन, मनन से मिटती है। जब तक शरीर है वह अपना धर्म पालन करेगा और आत्मा अपना धर्म पालन करेगी। गाँजा पीने का अर्थ केवल यहाँ शरीर रक्षण और सांसारिक कर्तव्य पालन तक ही मानना चाहिए।

शिष्य ने कहा महाराज आत्मा का तो कोई धर्म ही नहीं होता। वह न तो चलती है, न जल सकती इत्यादि। गीता में कहा:

‘या एनं वेति हन्तारं यश्चैन मन्यते हतम्।

   उभौ तौ न  विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते।।

न जायते म्रियते वा कदाचि न्नायं भूत्वा भविता वा न भूय:।

               अजो नित्य: शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय

नवानि गृह्याति नरोऽपराणि

तथा शरीराणि विहाय जीर्णा

न्यन्यानि संयाति नवानि देही।।

नैनं छिन्दति शस्त्राणि नैनं दहति पावक:।

                  न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत:।। (गीता-2/19-22)

संत ने कहा हमारी नजरों में आत्मा नहीं चलती, यह सत्य है। फिर आप कोई मरता है तो उसकी आत्मा की शांति के लिए ईश्वर से प्रार्थना क्यों करते हो। एक कथा आती है- एक तपस्वी शिष्य जिसके नाम के कारण उसके गुरु का बड़ा सम्मान था वह गुरु एक दिन मर गया। शिष्य दहाड़ मार कर रो रहा था। उसके गुरु भाई, शिष्य सभी उसको आश्चर्य से देेख रहे थे। बाद में एक शिष्य ने पूँछा महात्मन आप त्याग और वैराग्य के लिए जाने जाते हैं फिर मरे हुए व्यक्ति के लिए क्यों रो रहे थे। सन्यासी ने  कहा, हम आत्मा के लिए नहीं शरीर के लिए रो रहे थे। जिस शरीर ने आत्मा को अपने अन्दर धारण कर रखा था वह आज नष्ट हो गया। अब वह कभी नहीं मिलेगा। तत्पर्य यह कि ‘शरीर माध्यक खलु धर्म साधनम्’। यह जो प्रश्न तुम्हारे अन्दर आया यही ब्रह्म की जिज्ञासा की ओर ले जाता है। गीता में अर्जुन भी साधारण आदमी की तरह प्रश्न खड़ा करता है। अर्जुन महाबली है। अवतारी है। महान व्यक्ति है। पाण्डवों में सबसे ज्ञानी और चतुर तथा वीर भी है। तभी तो युधिष्ठिर के रहते भगवान ने अर्जुन को ही गीता का उपदेश दिया। फिर भी अर्जुन के मन में संशय उत्पन्न होता है। एक छोटा सा प्रश्न हमारे मन में जगा की हम कौन हैं, तो समझों प्रभु की हम पर कृपा वर्षा प्रारंभ हो गई। नोबल पुरस्कार विजेता एलेक्सिस करेल ने एक पुस्तक लिखी है। उसका नाम है ‘‘मैन दि अननोन’’। उसमें वे मानव जीवन के उठने वाले प्रश्नों का उल्लेख करते हैं। वस्तुत: जानने की प्रक्रिया ही जीवन की प्रक्रिया है। आप कह सकते हैं कि हम अपने को जानते हैं। 

भगवान श्रीकृष्ण गीता में पहले उवाच में जो कहते हैं उसका समाधान अर्जुन से अन्तिम श्लोक में पूछते हैं-

कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमें समुपस्थितम्।

अनार्यजुष्टमस्वग्र्यकीर्तिकरमर्जुन।

क्लैव्यं मा स्म गम: पार्थ नैतत्त्वपपद्यते।

क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंतप।। (गीता-2/2)

इस प्रकार हे, अर्जुन तू नपुंसकता को छोड़ और युद्ध कर। किन्तु गीता के अन्तिम अध्याय के अन्तिम वचन के रूप में भगवान युद्ध के लिए नहीं कहते है, बल्कि कुछ इस प्रकार पूछते हैं-

कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा।

कच्चिदाज्ञानसंमोह: प्रनष्टस्ते धनंजय।। (गीता-18/72)

हे, पार्थ क्या यह मेरा वचन तूने एकाग्रचित्त से श्रवण किया? और धनन्जय तेरा अज्ञान से उत्पन्न मोह नष्ट हुआ।

तब अर्जुन जो उत्तर देता है वह भी सुनें-

नष्टो मोह: स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।

स्थितोऽस्मि गतसन्देह: करिष्ये वचनं तव।। (गीता-18/73)

आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया है और मुझे स्मृति प्राप्त हुई है, इसलिये मैं संशय रहित हुआ स्थित हूँ और आपकी आज्ञा पालन करूँगा। यहाँ दो बाते हैं एक तो शिष्य को ज्ञान देने के बाद कृष्ण पूर्णरूपेण विश्वस्त है कि अब अर्जुन को मेरे पूर्व में कहे वाक्य याद होंगे, इसीलिये यह नहीं कहते कि युद्ध कर। बल्कि यह पूछते हैं कि क्या तुमने मेरी सारी बाते ध्यान से सुनी और तेरा अज्ञान से उत्पन्न मोह नष्ट हो गया। दूसरी बात यह कि मोह जो अर्जुन को हुआ है वह अज्ञान के कारण। अन्यथा अर्जुन विवेकवान है।



केनोपनिषद

साधारण व्यवहार में भी देखने को मिलता है कि हम अपने को बाह्य रूप से दो प्रकार से जानते हैं। एक वह जो हमें दूसरा बतलाता है अर्थात हमारे गुण और दुर्गुण तथा हमारा बाह्य रूप अंग प्रत्यंग। दूसरा वह रूप जो केवल हमारा मन जानता है। बुद्धि विचार करती है अथवा चित में जो कुछ भी चलता है। किन्तु इसके अतिरिक्त जो एक बड़ा प्रश्न केनोपनिषद खड़ा करता है। 

ऊँ केनेषितं पतति प्रेषितं मन: केन प्राण: प्रथम: पै्रति युक्त:।

केनेषितां वाचमिमां वदन्ति चक्षु: श्रोत्रं क उ देवो युनक्ति। (केन./1/1)

हम बोलते क्यों है, हमें सुनाई क्यों देता है आदि-आदि। यह ऐसे प्रश्न हैं जो ब्रह्म ज्ञान की ओर ले जाते हैं। यह आधिदैविक ज्ञान हैं। इसके जानने का साधन क्या हैं यही बात हमारे उपनिषदों का मूल विषय है। तुलसीदास ने साधारण भाषा में कहा -‘जो जानई जेंहि देउ जनाई। जानत तुम्हई तुम्हई होइ जाई।’ यह तुम्हई होई जाई की बात ही महाभारत में गीतोपदेश में आती है। किन्तु जानने के लिए गहरे पानी में उतरना पड़ता है। कबीर कहते हैं-

जिन खोजा तिन पाइयो, गहरे पानी पैठ।

मैं  बौरी खोजन गई, रही  किनारे पैठ।।

किसी ने कबीर से पूँछा जब आप जानते है कि गहरे पानी पैठने से ही राम मिलेंगे तो आप किनारे क्यों बैठे रहे गये? कबीर कहते हैं-

जिन खोजा तिन पाइयो, गहरे पानी पैठ।

हौ बौरा डूबन डरा, रहा किनारे बैठ।।

कभी कभी लगता है कि हमारी इन्द्रियाँ ही हमारे जानने के साधन हैं। किन्तु क्या हम इन इन्द्रियों के द्वारा अपने को जान सकते हैं। इद्रियाँ तो मन के प्रति उत्तरदायी होती हैं। अत: उनकी सीमा मन से आगे की नहीं है। फिर उनके माध्यम से हम अज्ञात वस्तु को कैसे जान सकते हैं। दूसरा विकल्प आता है मन। मन बड़ा वेगवान है। वह एक क्षण में ही संकल्प विकल्प से तमाम लोकों की यात्रा कर आता है। किन्तु अति वेगवान होते हुए भी जब वह कहीं जाता है और वहाँ आत्म तत्व का चिंतन करता है तो देखता है कि यह न चलने वाला आत्मतत्व यहाँ पहले से विराजमान है। अत: अपने से वेगवान, सामथ्र्यवान को मन कैसे पकड़ सकता है। तब मन की गति भी यहाँ रुक जाती है। और तब यहाँ कर्म, भक्ति और ज्ञान को आधार बना उपनिषदों में आत्मतत्व या आत्मा और परमात्मा का जानने का प्रयत्न प्रारंभ होता है। उपनिषद जिसे कहता है - ‘अथतो ब्रह्म जिज्ञासा’। ब्रह्म को समझने के लिए योग का मार्ग अपनाया गया। भारत में ऋषियों ने मन को टटोला। मन सामान्यत: चार अवस्थाओं में रहता है- जागृत, स्वप्न, सुषुप्त और समाधि या तुरीय अवस्था।

जिस प्रकार स्वप्र की अवस्था में स्वप्र के शरीर का अनुभव होता है, परन्तु यह स्वप्र है- मिथ्या ठहरता है, उसी तरह यद्यपि इस स्थूल शरीर का पहले अनुभव होता है, तथापि इसे स्वप्रवत मान लेने पर वासनाओं का क्षय होने से यह भी ‘असत’ ही हो जाता है। जैसे स्वप्न के ज्ञान से स्वप्रावस्था का शरीर शान्त हो जाता है, उसी प्रकार जाग्रत-अवस्था के ज्ञान से शरीर को भी स्वप्नवत् समझ लेने पर वासनाओं के क्षीण होने से यह शरीर शान्त हो जात है। जैसे स्वप्र-शरीर का  और मनोरथ कल्पित कल्पनामय शरीर का अन्त होने पर इस जाग्रत्-शरीर का भान होता है, उसी प्रकार जगद्-भवना (स्थूल शरीर में अहं-भावना)-का अन्त होने पर अतिवाहिक (सूक्ष्म) शरीर का उदय (अनुभव ) होता ही है। जैसे  स्वप्रावस्था के वासना बीज से रहित होने पर सुषुप्ति- अवस्था उदित (प्राप्त) होती है, उसी तरह जाग्रत्-अवस्था भी जब वासनाबीज से रहित हो जाती है, तब  जीवनन्मुक्ति की प्रान्ति होती है। जिसमें वासनाएँ सुप्त अवस्था में विलीन हो जाती हैं, उस प्रगाढ् निद्रा का नाम सुषुप्ति है। जिस अवस्था में वासनाओं का सर्वथा क्षय हो जाता है, उसे ‘तुरीय’ कहते हैं। जाग्रत-अवस्था में भी परम पद का अनुभव होने पर (वासनाओं का मूल नाश हो जाने के कारण) तुर्यावस्था होती है। जीवित पुरुषों के जीवन की वह अवस्था, जिसमें वासनाओं का सर्वथा लय हो जाता है,जीवन्मुक्ति कहलाती है। अज्ञानी बद्ध जीव इसका अनुभव नहीं कर पाते।

मन सुषुप्त अवस्था में ही कुछ क्षण को शांत रहता है किन्तु उस समय मन के स्वभाव को आखिर जाने कैसे। क्योंकि वह ही तो जानने का साधन है। योग मन के प्रवाह को रोकता है। मन को बड़ी सावधानी से रोकना पड़ता है अन्यथा वह विद्रोह कर देता है और उसे दबाने का फल क्रिया की प्रतिक्रिया के रूप में हमारे सामने आती है। हमारे ऋषियों ने इस गुत्थी को सुलझाया। ‘‘संसार में रहने पर मन सदैव चंचल बना रहता है। तब उसने सोचा क्यों न एकांत में जाकर जंगली फल फूलों का सेवन करते हुए मन को साधा जाय।’’ और यह उस समय संभव भी था। क्या आज संभव है ? भले ही हिमालय में कुछ लोगों को यह संभव हो पर सर्वसुलभ नहीं है। कबीर यहाँ बड़ी व्यवहारिक बात कहते हैं। परमात्मा को ढूढऩे के लिए कहीं जाना नहीं है। अपने गहरे में गोता लगाना है। उस समय दो प्रकार की घटनाएँ घटेंगी। 

हेरत हेरत हे सखी, रह्या कबीर हेराय।

बँूद समानी समुद्र में, सो कत हेरी जाय।।

परन्तु कबीर को सन्तुष्टि नहीं हुई और उन्होंने कहा बूँद को समुद्र में क्यों समाना चाहिए? क्या समुद्र बूँद में नहीं समा सकता? तब कहते हैं- 

हेरत हेरत हे सखी, रह्या कबीर हेराय।

समुद्र समाना बँूद में, सो कत हेरी जाय।।

समुद्र बूँद में समाने को व्याकुल है किन्तु बँूद को अपनी विशालता प्रकट करनी होती है। समुद्र को समाने के लिए भूमि तैयार करनी होती है।  और इसे ही उपनिषदों ने कहा है - 

                         ऊँ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते।

             पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावषिष्यते।।

                                              ऊँ शांति शांति शंति:

दूसरा एक और प्रश्न खड़ा होता है। देवताओं की कल्पना हमने कैसे की। ध्यान में आता है कि मनुष्य ही नहीं सभी प्राणियों का स्वभाव है कि अपने से बड़े को पहले वह अपने बस में करना चाहता है किन्तु जब नहीं हो पाता तो स्वयं ही उसके आधीन हो जाता है। बन प्रांतर में रहने वाले मनुष्य ने देखा कोई बड़ी आँधी आती है और बबंडर के साथ हमारे झोपड़े उड़ा ले जाती है। हम विवश से देखते रहते हैं। कोई अग्नि का रूप आता है और पूरा कबीला ही जला डालता है। कोई बादल आता है और गाँव का गाँव बहा देता है। मनुष्य इनसे अपनी नजदीकी बढ़ाता है। अग्नि का धुंध आकाश की ओर जाता है उसे लगता है अग्नि देवता का निवास कहीं आकाश में ही है। और वह आहुतियाँ देना प्रारंभ कर वन्दना करता है। और यहीं से हमारी वैदिक ऋचाएँ प्रारंभ होती है। इसी प्रकार वह जल के लिए वरुण तथा वायु के लिये मातरिश्वा या पवन देवता का मानवीकरण करता है। वह जैसा है वैसे ही अपने देवता को गढ़ता है और इन सब का कोई निवास आकाश में है अत: वहीं से स्वर्ग की कल्पना करता है। और हमारे वैदिक कर्मकाण्ड का यही आधार है। किन्तु क्या ये सब वास्तव में देवता हैं?

मन का आवागवन असीमित होते हुए भी संकल्प विकल्प पर निर्भर करता है। संकल्प विकल्प हमारी कल्पना के आघार पर हो सकते हैं और वे सीमित होते हैं। अत: सीमित मन की कल्पना से असीमित को कैसे जाना जा सकता है। फिर स्वर्ग का सुख कर्मफल पर आधारित है अत: सीमित कर्मफल के आधार पर असीमित सुख कैसे मिल सकता है। फिर सुख और दुख तो एक सिक्के के पहलू हैं और दोनों बंधनकारक है। हमें तो आनंद चाहिए। जो सुख दुख दोनों से परे है।

यहीं से कुछ बुद्धिमान चिंतकों ने, ऋषियों ने उस स्थायी परम् आनंद की खोज प्रारंभ की और कालान्तर में बलि और जीवबलि को तिरस्कृति कर आत्मतत्व की खोज प्रारंभ की। तब एक दिन मुण्डकोपनिषद का ऋषि फटकारता हुआ कहता है-

                               परीक्ष्य लोकान् कर्मचितान् ब्राह्मणो

                        निर्वेदमायात् नास्ति अकृत: कृतेन।

                        तद्धिज्ञानार्थंं स गुरुमेवाभिगच्छेत

                        समित्पाणि: श्रोतियं  ब्रह्मनिष्ठम।।

-कर्म से प्राप्त लोको की परीक्षा करके ब्राह्मण को कर्मों से वीतराग हो जाना चाहिए, क्योंकि कृत (सीमित और अनित्य) से अकृत (असीम और नित्य) नहीं मिल सकता। यदि उसे असीम और नित्य को जानने की चाह है, तो वह समित्पाणि होकर श्रोतिय, ब्रह्मनिष्ठ गुरु के पास विधिपूर्वक जाए। (मुण्डकोपनिषद 1/2/12)

इस तरह से जीवन के सत्य को जानने की इच्छा ने शाश्वत, अविनाशी, असीम की खोज प्रारंभ की और एक दिन उन्होंने सत्य को जाना-

ते ध्यानयोगानुगता अपश्यन

देवात्मशक्तिं स्वगुणैनिगूढ़ाम।। (श्वे.1/13)

-ध्यानयोग को विषय बनाकर मन की खोज प्रारंभ की। अपने गुणों में निहित ब्रह्म को देखा। और गदगद कंठ से पुकार उठे-

 श्रृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्रा

        आ ये धामानि दिव्यानि तस्यु:।

वेदाहमेतं पुरुषं महान्तम

       आदित्यवर्णं तमस: परस्तात।

तमेव विदित्वा अतिमृत्युमेति

      नान्य: पन्था विद्यतेऽयनाय।। (श्वेता.2/5,3/8)

-अहो विश्व के निवासियो! अमृत पुत्रो! सुनो। दिव्य लोकों में रहने वाले देवताओं, तुम लोग भी सुनो। मैंने सूर्य के समान चमकीले उस महान् पुरुष को जान लिया है, जो समस्त अज्ञान-अन्धकार से परे है। केवल उसी को जानकर मृत्यु की विभीषिका को पार किया जा सकता है। इससे भिन्न दूसरा रास्ता नहीं है।

यहाँ श्वेताश्वर उपनिषद का ऋषि कहता है -ध्यानयोग से वह ईश्वर का साक्षात्कार करता है- यहाँ दो शब्द आये हैं, ध्यान और योग। यह जानना आवश्यक है कि योग का जन्म ध्यान से आया। जितने भी योग हैं सब ध्यान की स्थिति से उत्पन्न हुए। ध्यान की स्थिति में शरीर विशेष-विशेष प्रकार की स्थितियों में जाता है, वहीं से मुद्राओं की स्थिति प्राप्त होती है। ध्यान की स्थिति में अनेक मुद्राएँ बनती है और इन्हीं के विस्तार से मुद्रओं का शास्त्र बन गया। तात्पर्य यह कि कोई चीज बाहर से नहीं अन्दर से आती है और उसे ध्यान के मार्ग से ही साक्षात्कार किया जा सकता है।

यहाँ एक बात स्पष्ट है कि कर्म करना, यज्ञ करना आवश्यक है किन्तु इससे हम मृत्यु की खाई नहीं काट सकते। केवल सत्य का चिन्तन ही इसका एक मार्ग है। स्वर्ग प्राप्त की कामना से यज्ञ करना उचित नही-

      प्लवा हि एते अदृढा यज्ञरूपा

          अष्टादशेक्त्म् अवरं येशु कर्म।

     एतत् श्रेयो येऽभिनन्दन्ति मूढ़

           जरामृत्युं ते पुनरेवाति यन्ति।।   (मुण्ड.1/2/5)

ऋषि कहता है, ‘अरे मूर्खों ! यदि तुमने यज्ञ को भव सागर पार करने की नौका माना है तो बड़ी भूल की है। यह यज्ञ रूपी नौका तुम्हारी जीर्ण शीर्ण है। इसमें सोलह ऋत्विज और यजमान एवं एजमान की पत्नी ऐेसे अठारह लोग बैठे हैं, वे सब नीच कर्म करने वाले हैं और सबके सब मँझधार में डूबेगें। जो मूढ़ इस यज्ञ को कल्याणकर मानते हैं, वे बुढ़ापा और मृत्यु के फन्दे में बारम्बार फँसते हैं।’’

यह बड़ा महत्वपूर्ण श्लोक है। यह कई संदेश अपने साथ लाता है। एक ओर यह निर्माण की बात करता है, अपने को ज्ञान मार्ग की ओर ले जाता है। सत्य का दर्शन बिना कर्मकाण्ड के कराता है। जो सांसारिक सुख नहीं जीवन का सत्य जानना चाहते हैं, उन्हें राह दिखाता है। यही वेदांत है। क्योंकि यही से उपनिषद आते हैं। इसे ही वेद का ज्ञानकाण्ड कहा जाता है।

कालातर में वेदों के इन दो भागों में- कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड में बड़ा कौन होता है। कर्म और ज्ञान के समन्वय का काम पहलीवार ईशोपनिषद करता है। इसमें ज्ञान और कर्म के समन्वय के जो बीज दिखाई देते हैं वहीं अंकुरित और पल्लवित होकर भगवद्गीता में विशाल वटवृक्ष की तरह दिखाई देते हैं। गीता का मानना है कि बिना दुराग्रह छोड़े जंगल में भी जाकर हम ईश्वर साक्षात्कार नहीं कर सकते। कर्म और ज्ञान का एक अंतर और हमारे सामने आता है। कर्म में भय है, आसक्ति है, वहीं ज्ञान में निर्भयता और अनासक्ति है। कर्म और ज्ञान वेद के पूर्वमीमांसा और उत्तर मीमांसा कहलाते हैं। कर्मकाण्ड ‘पूर्वमीमांसा’ जहाँ कर्मकाण्ड को यज्ञों के द्वारा देवताओं को प्रसन्न कर स्वर्ग-प्राप्ति को ही जीवन का लक्ष्य मानता था वहीं ज्ञानकाण्ड स्वर्ग को भी मत्र्यलोक की ही एक आवृत्ति समझकर, चिन्तन और मनन के द्वारा जीवन के आधार भूत सत्यों को पकडऩे के लिए आकुल था। इसकी घोषणा है कि अज्ञान ही समस्त दुखों का कारण है। गीता भाष्य नहीं गायन है यह कृष्ण की अनुभूति की उच्छ्वास है। कहते हैं जब महाभारत का युद्ध समाप्त हो गया तो एक दिन कृष्ण और अर्जुन दोनों एकांत में साथ बैठे थे तब अर्जुन ने कहा भगवन महाभारत के समय आपने जो गीता हमें सुनाई थी उसे फिर से एक बार सुनाइये। भगवान ने कहा नहीं अर्जुन अब मैं वह गीता तुम्हें नहीं सुना सकता। उस समय मैं जिस योग अवस्था में था, वह अब संभव नही। इससे स्पष्ट है गीता लिखी नहीं भगवान द्वारा गाई गयी और यह एक विशिष्ट अवस्था में जिसे जीवन की उच्च अवस्था कहते हैं, का परिणाम है।

कृष्ण ने ‘यज्ञ’ शब्द का प्रयोग किया किन्तु उसका अर्थ उसी तरह बदल दिया जिस तरह बादशाही सिक्के को आगे के राज चलाने वालों ने बदल दिया। सोना या धातु वही किन्तु उसमें आकृति बादशाह की जगह विक्टोरिया की अथवा किसी और की भी आती है या आ सकती है। तात्पर्य यह कि जो शाश्वत तत्व होते हैं, उनका बाह्य रूप भी काल के साथ प्रवाह में खोटा हो जाता है तब ईश्वर अवतार ले उसके रूप में परिवर्तन करते हैं। यही ईश्वर के अवतार का हेतु भी होता है।

यज्ञ का अर्थ पूर्व में बलि से लगाया जाता था। कृष्ण ने इस परम्परा का विरोध किया और अपने ही कुल में गोर्वधन पूजा को खत्म करवाया। ईशावास्य उपनिषद् में इस प्रकार के संकेत मात्र दिखाई देता है, जहाँ गुरु शिष्य से सिद्धांत प्रतिपादित करते हुए कहता है- 

‘‘ईषावास्यम् इदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत्। 

तेन त्येक्तेन भुञ्जिथा मा गृध: कस्य स्विद् धनम।’’ 

कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतँ समा:।

एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे।। (ईशो-1/1-2)

यह सारा संसार भगवान् का बैठक खाना है; यही भाव त्याग का मूल है; इस ज्ञान की जीवन में धारणा कर सभी कर्तव्य-कर्म करते चले जाओं और किसी के धन का लालच मत करो।’ निष्काम कर्म, वासनाओं की तृप्ति के लिए नहीं। गीता इसी का विस्तार है। गीता में भगवान अर्जुन से सभी कार्य को यज्ञ बना लेने को कहते हैं-

       यज्ञार्थात् कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबंधन।

       तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंग: समाचर।।  (गीता-3/9)

अर्थात सारा कर्म भगवत्समर्पित बुद्धि से कर्म करना। एक प्रश्न का और समाधान भगवान करते हैं, कहते हैं इस बहाने दुष्कर्म को भी भगवान को अर्पित कर किया जा सकता है क्या ? भगवान कहते हैं-

 किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिता:।

        तŸो कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽषुभात।। (गीता- 4/16)

हे पार्थ! कर्म क्या है, अकर्म क्या है इस सम्बन्ध में मनीषी जन भी भ्रमित हैं। अत: मैं कर्म का मर्म तुझे समझाता हँू, जिसे जानकर तू अशुभ से मुक्त हो जा।

 कर्मणो ह्यति बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मण:।

          अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणों गति:।।  (गीता-4/17)

अर्थात कर्म के तीन रूप हैं- कर्म, अकर्म और विकर्म। विकर्म शस्त्रनिन्दित अैर विपरीत या अशुभ कर्म को कहते हैं। जिस कार्य को समाज ठीक नहीं समझता या जिसे हम नैतिक दृष्टि से ठीक नहीं समझते, उसे विकर्म कहते हैं। अकर्म उसे कहते हैं, जिसमें जड़ता, आलस्य और तमोगुण की प्रधानता हो, जहाँ शुभ कर्म का नितांत अभाव हो और व्यक्ति प्रमादी और निठल्ला हो। यहाँ विकर्म और अकर्म से बचने को कहा जा रहा है। कारण यह कि जो कार्य समाज  विरोधी है, वह आत्मविरोधी भी हैं। इसीलिए भगवान ने कहा-

                                              उद्धरेदात्मनात्मनं नात्मनामवसादयेत।

                                    आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन:।।  (गीता-6/5)

मनुष्य को चाहिए कि वह अपना स्वयं का उत्थान करे और अपने को गिरने न दे; क्योंकि वह स्वयं अपना मित्र और शत्रु भी है। इस प्रकार कर्म संस्कार उसको लिप्त न कर सकें। मनुष्य यह कर्म करता हुआ सौ वर्ष तक जिये-

‘पश्येम शरद: शतं जीवेम शरद: शतमं श्रृणुयाम शरद: शतं प्रब्रवाम शरद: शतमदीना: शरद: शतम्।’ 

                                                                                                   (शुक्ल यजु. 36/24)

हम सौ वर्ष तक जीते रहें, हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ सौ वर्ष तक काम करती रहें। (वैदिक वांड्मय में चक्षु को सब ज्ञानेन्द्रियों का और वाणी को सब कर्मेन्द्रियों का उपलक्षण मानते हैं।) सौ वर्ष तक ज्ञान का संचय करते रहें (वेदों को श्रुति कहा इसीलिये ‘हम सुनते रहें’ का अर्थ है, हमकों ज्ञान की प्राप्ति होती रहे।) ईशोपनिषद का पहला मंत्र बतलाता है कि किस प्रकार का आचरण करने से मनुष्य कर्म-फल से अलिप्त रह सकता है। समस्त जगत् को ईश्वर से आच्छादित करना चाहिये। ऐसा मानना चाहिये कि समस्त जगत् में ईश्वर भीतर और बाहर व्याप्त है। समस्त जगत्  उसकी अभिव्यक्ति है। ऐसी अवस्था में एक वस्तु को पसंद करने और दूसरी को ना पसंद करने का प्रश्र ही नहीं उठ सकता। इसलिये जो कुछ यदृच्छया प्राप्त हो जाय, उसका त्याग के द्वारा असंगभाव से उपभोग करना चाहिये। त्याग सक्रिय भाव है। अन्त में मंत्र यह कहता है कि किसी के अर्थात दूसरों के धन की लालच मत करो। यह सुनने में  बड़ी स्थूल-सी बात प्रतीत होती है, परंतु इसका वास्तविक आशय यह है कि मनुष्य को चाहिये कि विषयों की, जो दूसरों अर्थात्  इन्द्रियों के धन हैं, कामना न करे। यदि ध्यान से देखा जाय तो सारी भगवद्गीता ने दोनों मन्त्रों की व्याख्या है।

हमारी प्रत्येक क्रिया यज्ञमय कैसे बनती है? जब हम अपने कार्य को ईश्वर समर्पित बुद्धि से करते हैं। भगवान कहते हैं इसका प्रभाव यह होता है कि -

 पश्यन् श्रृण्वन् स्पृर्शन् जिघ्रन अश्नन् गच्छन् स्वपन् श्वसन।

 प्रलपन् विसृजन् गृहणन उन्मिषन् निमिषन् अपि।

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्। (गीता-5/8-9)

अर्थात ऐसी समत्व एवं समर्पित बुद्धि से किया गया कार्य जब हम करते हैं तो हमारे यह सारे कार्य -देखना, सुनना, स्पर्र्श करना, गंध लेना, खाना, चलना, सोना आदि सभी यज्ञमय हो जाते हैं। आगे कहते हैं -

ब्रह्मण्याधाय कर्माणि संगत्यक्त्वा करोति य:।

 लिप्यते न स पापेन पद्यपत्रमिवाम्भसा।। (5/10)

जो ब्रह्म का आश्रय और आधार मानकर, आसक्ति का त्याग करते हुए, कर्तव्य कर्म करता है, वह जल में कमलपत्रवत् पाप से अलिप्त रहता है। यही गीता की चरमावस्था है, यही ब्रह्मनिष्ठा और स्थितप्रज्ञता है।

जब हम ‘ड्यूटी फार ड्यूटी सेक’ अर्थात कर्म के लिये कर्म के भाव से काम करते हैं तो उसे गीता उचित नहीं मानती। कर्तव्य का निर्वहन इस भाव से किया गया तो इसमें एक खीझ रहती है। एक पिता अपने काम से घर वापस आ रहा है उसे रास्ते में बाजार मिला। उसे अपने बालक की याद आयी और उसने उसके लिए कुछ कपड़े खरीदे। अगर यही कपड़े वह बालक के कहने पर खरीदता तो वह कर्तव्य निर्वहन होता किन्तु यह कपड़ा खरीदना बच्चे से निर्हेतुक लगाव का कारण था। ईश्वर समर्पित कार्य भी कुछ ऐसा ही होता है। हम नित्य प्रति शाखा जाते हैं क्यों? क्या उसमें अपना स्वार्थ है? नहीं, तो वह यज्ञ कर्म है। अपने को स्मरण कर परमात्मा के कार्य योग्य बनाने का सतत प्रयत्न है। वहाँ सुख नहीं आनंद मिलता है, जिसे बाँटा तो जा सकता है किन्तु किसी से खरीदा नही जा सकता। बिक्रय भी नहीं किया जा सकता। इसीलिए वहाँ से आकर समाज के लिए समर्पित हो दिन भर अपनी दिनचर्या में इस कामना के साथ लगना कि ‘हे प्रभु’ ! मैं तेरी ही प्रसन्नता के लिए यह कर्म कर रहा हूँ। जो कर्म तूने मेरे लिए निर्धारित किया है, उसे मैं अपनी सारी कुशलता और शक्ति के साथ करूँगा, और उसका फलाफल तुम्हारे चारणों में समर्पित है। अथवा फलाफल तुम जानों। क्योंकि समर्पित करने का अधिकार भी नहीं है, कारण उसे तो अभी हमने प्राप्त ही नहीं किया। किन्तु जो भी परिणाम होगा वह मंजूर है। साथ ही कर्म का अटल सिद्धांत है कि जो कर्म तुम करोगे उसका फल अवश्य मिलेगा। अच्छा मिले तो हमारा अन्यथा दैव का। ऐसी नहीं तो प्रयत्न यह रहे कि फल की इच्छा ही नहीं सो किसी भी प्रकार का फल आया तो मन प्रसन्न रहेगा। दूसरी अर्थ यह भी की जब हम बुरा काम करेंगे ही नहीं तो बुरा फल आने वाला ही नहीं। कोई छात्र वर्षभर निष्ठा से पढ़ाई कि तो परिणाम तो अच्छा आने ही बाला है। किन्तु किसी कारण परीक्षा के समय बीमार पड़ गया या अन्य कारण से कार्य का सम्पादन ठीक ढंग से नही हो पाया तो पछतावा नही क्योंकि उसमें हमारी कोई भी सांसरिक सामथ्र्य नहीं चली तो यह प्रभु की इच्छा। यह समर्पण परिणाम आने के बाद करना ही है तो अच्छा यह कि जो वर्तमान में है उसे ही परमात्मा को समर्पित कर कार्य करते रहना। इससे दो लाभ होते हैं, एक तो हम सदा वर्तमान में रह कर्म में निरत रहते हैं, दूसरा न तो भविष्य में भटकते और न ही भूत में। इन दोनों से बचना ही योग है। दूसरे एक और पक्ष को विचार करें कि जहाँ स्वयं के अहंकार से प्रेरित व्यक्ति कार्य के अनुरूप फल न प्राप्त करने पर निराशा, कुंठा आदि से ग्रसित होता है, वहीं प्रभु को समर्पित व्यक्ति को यदि परिणाम विपरीत आता है तो वह ईश्वर से यही तो कहता है कि ‘प्रभु असफलता का दु:ख तो अवश्य पर पर इसके पीछे भी कोई आपकी मंगल कामना छिपी होगी ।’ और वह फिर से कार्य में लग जाता है। इसका सबसे अच्छा उदाहरण देश में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ है। आजादी के काल से लेकर महात्मा गांधी और आपातकाल की स्थिति तक की कठिन परिस्थिति में निरंतर ईश्वर पर इस विश्वास के साथ कि यह कार्य परमात्मा का कार्य है आज नहीं तो कल शुभ कार्य का शुभ फल अवश्य दिखाई देगा कार्य में अहर्निश कटिबद्ध है। और अयोध्या के भूमि विवाद के मामले में आज लखनऊ बेंच के निर्णय ने यह बात साबित भी कर दिया। राज सत्ता को लोक आस्था के सामने झुकना पड़ रहा है। यह दैवी कार्य मानकर करने का परिणाम ही हैं कि लाखों कार्यकर्ता निरंतर उत्साह से कार्य कर रहे हैं।

गीता में योग को दो प्रकार से परिभाषित किया गया है-‘योगा: कर्मसु कौशलम्’ और ‘समत्वं योग उच्यते’। वस्तुत: जब इन दोनों को एक साथ जोड़ा जाय तो उसे योग कहते हैं और इसका परिणाम तब सामने आता है। जब हम -‘ब्रह्मणि आधाय कर्माणि संगं त्यक्त्वा करोति य:’। ब्रह्म का आश्रय और आधार मानकर अपने कार्यों को संपन्न करने से बुद्धि संतुलित बनी रहती है। यहाँ आस्था का ही आधार होता है। आज कई लोग प्रश्न खड़ा करते हैं। ईश्वर है कहाँ ? और ऐसे लोग अपने को विज्ञानवादी कहते हैं। सारी चीजे विज्ञान के माप पर होनी चाहिए। जरा विचार करे विज्ञान का आधार क्या है। अनुमान ही न ! शून्य क्या है? अक्षाँस और देशांन्तर रेखाएं कोई खींच कर बता सकता है। बिन्दु और सरल रेखा का आधार क्या है। बिन्दु वह है जिसमें न लम्बाई है न चौड़ाई है फिर कोई वैज्ञानिक इस बिन्दु को खीच सकता है। यहीं बिन्दु वह ईश्वरीय सत्ता का आस्था बिन्दु है। जिसे खीचा नहीं, माना और अनुभूत किया जा सकता है। फिर भी भगवान की सत्ता को कैसे समझे यहाँ थोड़ा विचार करना आवश्यक है। ईश्वर को क्यों माने ? ईश्वर है, इसलिए माने। संसार में जो भी वस्तु दीखती है, उसका कोई-न-कोई निर्माणकर्ता होता है; क्योंकि निर्माणकर्ता के बिना कोई भी वस्तु निर्मित नहीं होती। प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइन्स्टीन कहता है- ‘विज्ञान की अपनी अपनी अन्तिम खोज करते समय हमे ईश्वर का अस्तित्व समझ में आया।’ 

ऐसे ही समुद्र, पृ

अत: कर्म को कुशलता से और समत्व भाव से जब हम करते हैं तो योग होता है। फिर एक बात और है जितने समय में किए गये कार्य के फल का चिंतन करेंगे उतने में ही हम और आगे का कार्य कर लेंगे तो हमारे खाते में किए गये कार्य की बृद्धि ही होगी और अटल सत्य के आधार पर उसका परिणाम अर्थात फल भी आवेगा। फिर फल की चिन्ता में हम बुरे फल को भी सोचते हैं, फिर उसका कारण किसी न किसी को ठहराते हैं और निरर्थक उसके लिए मन में कटुता उत्पन्न होती है। यदि ऐसा नहीं किया और फल की इच्छा भी नहीं की और यह मानकर कि सभी हमारे ही आत्मा के अंश है अत: इसका परिणाम सभी को प्रभावित करेगा और कोई इसके दुखद पक्ष का परिणामी नहीं होगा तो हमें सहज आनन्द की अनुभूति होगी। दैनिक जीवन में यदि कोई हमारी प्रशंसा करता है तो हम प्रसन्न होते हैं, निन्दा करता है तो दुखी। दोनों हमारे मन कि स्थितियाँ है। हम कभी-कभी ऐसे व्यक्ति के कारण दुखी हो जाते है जो हमारे समाने कभी नहीं रहता, मात्र हमारी कल्पना का हिस्सा होता है। अत: हमें ऐसी हिस्सेदारी क्यों करनाी। हम अपना सदा प्रयत्न उस परमात्मा के स्मरण में क्यों नहीं लगाते और उसी को स्मरण करते करते अपना यज्ञ कर्म करते रहते है।

इसीलिए भगवान कहते हैं-

                            कर्मणिएव अधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।

                            मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि।।  (गीता-2/47)

दो आदमी हैं, दोनों कटहल काट रहे हैं। कटहल काटने के बाद देखा तो एक के हाथ में दूध ही दूध चिपका है तो दूसरे के हाथ में एक भी बूँद दूध नही लग पाया। इसमें कर्म की कुशलता किसमें है तो स्पष्ट है जिसके हाथ में एक भी बँूद दूध नहीं लगा। इसे ही ‘पद्यपत्रमिवाम्भसा’ कहा।

कार्य की कुशलता और कार्य से उत्पन्न दोष दोनों का विचार करे। कार्य की कुशलता तो हमने कटहल के काटने से देखी। अब आग जलती है तो धुआ निकलता है ऐसा सभी मानते है। अत: कर्म करेंगे तो उसका फल तो मिलेगा ही किन्तु आसक्ति नहीं रही तो जैसे आग का काम जलना है, धुआँ निकलता है कि नहीं यह आग नहीं देखती। उसमें कौन सा पदार्थ जल रहा है, धुआँ उस परिणाम में और प्रकार में निकलेगा। घी का दीपक जलाओगे तो धुआँ दिखेगा नहीं। तेल का दीपक जलाओंगे तो धुआँ स्वभावजन्य दोष होने से निकलेगा। यदि उसके ऊपर कोई सामग्री ढक दी तो उसका धुआँ वहीं सीमित हो जावेगा और नहीं तो वह वातावरण को खराब करेगा। अत: परमात्मा को फल समर्पण वही ढंक्कन है जो हमें धुएं से बचाता है।

गीता ने कहा-

                           सहजं कर्म कौन्तेय सदोशम् अपि न त्यजेत।

                          सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृता:।। (18/48)

हे कौन्तेय! जो स्वभाव-प्राप्त कर्म हैं, उनमें दोष दीखने पर भी उनका त्याग नहीं करना चाहिए। उनमें दोष दीखने पर भी उनका त्याग नहीं करना चाहिए। जैसे आग के साथ धुआँ रहता है उसी तरह प्रत्येक कर्म के साथ कोई न कोई दोष अवश्य जुड़ा रहता है।

हे कौन्तेय! जो स्वभाव-प्राप्त कर्म हैं, उनमें दोष दीखने पर भी उनका त्याग नहीं करना चाहिए, जैसे आग के साथ धुआ रहता है उसी तरह प्रत्येक कर्म के साथ कोई न कोई दोष अवश्य जुड़ा रहता है।


                ऊँ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते।

     पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावषिष्यते।।

             ऊँ शांति शांति शंति: ।।

(अर्थ:- वह, निरुपाधिक, परोक्ष, कारण ब्रह्म), इदम्- यह (सोपाधिक, कार्य ब्रह्म), पूर्णम-पूर्ण है, पूर्णात-उस पूर्ण से, पूर्णम-यह पूर्ण, उद्दच्यते-उद्भूत होता है। प्रलय या ज्ञानकाल में पूर्णस्य कार्य ब्रह्म, पूर्णम् पूर्णत्व को आदाय-ग्रहण करके, पूर्णम्-निरूपाधिक ब्रह्म एवं ही अविशिष्यते-शेष बचा रहता है।

ऊँ वह कारणात्मक निर्गुण-निराकार  ब्रह्म पूर्ण है, यह कार्यात्मक सोपाधिक (जगत) ब्रह्म भी पूर्ण है। उस पूर्ण से यह पूर्ण प्रकट होता है। (ज्ञान या प्रलय के समय) कार्यात्मक ब्रह्म को स्वयं में लीनकर परब्रह्म ही रह जाता है।  ऊँ शांति शांति शंति: ।।

        ऊँ ईषा वास्यमिदँ् सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत्।

        तेन त्येक्तेन भुंजीथा मा गृध: कस्यस्विद्धनम।। 

(जगत्याम-इस विश्व-ब्रह्मांण्ड में, यत् किंच-जो कुछ भी, जगत-परिवर्तनशील है, इदम-इन, सर्वम-सबको, ईषा-परमात्मा के द्वारा, वास्यम-आच्छादित कर देना चाहिए, तेन-इस, त्यक्तेन-त्याग के द्वारा, भुंजीथा:-पालन-पोषण करना चाहिए, कस्य स्वित् -किसी के भी, धनम-धन का , मा गृध:-लोभ मत करो।)

इस संसार में चर-अचर जो कुछ भी परिवर्तनशील है, सबको ईश्वर से आच्छादित कर लेना चाहिए। इस त्याग के द्वारा अपना पालन करो। किसी के भी धन का लोभ मत करो।

        कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतँ् समा:।

        एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे।।-2

  (इह-यहाँ, इस लोक में, शरीर में, कर्माणि-कर्मों को, कुर्वन-करते हुए एवं -ही, शतम-सौ, समा:- वर्षों तक, जिजीविशेेत-जीवित रहने की इच्छा करनी चाहिए, एवं-ऐसे, त्वयि-तुम, नर-मनुष्य के लिए, इत: -इसे छोडक़र, अन्यथा -दूसरा मार्ग, विकल्प, न-नहीं,अस्ति-है, येन-जिससे, कर्म-कर्म के दोष, न लिप्यते-लिप्त न हों।) 

जगत में शास्त्र विहित कर्म करते हुए ही सौ वर्ष जीवित रहने की इच्छा करनी चाहिए। तुम जैसे मनुष्य के लिए कर्मों में अलिप्त रहने का इसके अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग नहीं।





3- केन-उपनिषद



ऊँ  शांति मंत्र

ऊँ आप्यायनतु ममांगानि वाक् प्राणश्चक्षु:

श्रोत्रमयो बलम् इन्द्रियाणि च सर्वाणि।

सर्वं  ब्रह्मौपनिषदं, माहं ब्रह््म निराकुयां, मा मा ब्रह््म निराकरोद्,

अनिराकरणमस्तु, अनिराकरणं मेंऽस्तु।

तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु धर्मास्तेमयि सन्तु, ते मयि संन्तु।

ऊँ शांति शांति शांति:

अन्वयार्थ- अप्यायन्तु-पुष्ट हों, औपनिषदम्-उपनिषदों का प्रतिपाद्य, निराकुर्याम-परित्याग न करूँ, निराकरोत-परित्याग न करे, अनिराकरणम-परित्याग न हो,

भावार्थ- ऊँ। मेरे सभी अंग-वाणी, नेत्र, प्राण, कान आदि ज्ञानेन्द्रियाँ, बल तथा समस्त कर्मेन्द्रियाँ-पुष्ट हों। जगत में सब कुछ उपनिषदों का प्रतिपाद्य ब्रह्म ही है। ब्रह्म की मैं उपेक्षा न करूँ, ब्रह्म भी मेरी उपेक्षा न करे। ब्रह्म के द्वारा मेरा परित्याग न हो और मैं भी ब्रह्म का परित्याग न करूं। उपनिषदों में कथित सत्य, तप आदि धर्म आत्मोपलब्धि में प्रयासरत मुझ साधक को प्राप्त हों, वे सब मुझे प्राप्त हों। त्रिविध तापों की शांति हो।

 ऊँ केनेषितं पतति प्रेषितं मन:

        केन प्राण: प्रथम: प्रैति युक्त:।

 केनेषितां वाचमिमां वदन्ति

        चक्षु श्रोत्रं क उ देवो युनक्ति।। 1

अन्वयार्थ- केन-किसके द्वारा, इषितम-इच्छित होकर, प्रेषितम-भेजा गया।

भावार्थ- किसकी इच्छा से भेजा जाकर मन विषयों की ओर दौड़ता है? किसके द्वारा नियुक्त होकर मुख्य प्राण अपने कार्य में लगता है? किसकी इच्छा से यह वाणी बोलती है और कौन-से देव चक्षु-कर्ण आदि ज्ञानेन्द्रियों को उनके विषय में नियोजित करते हैं ?

(इशितम् अर्थात इच्छा, इशितम् में इष्ट का आगम होने से इच्छा बना तथा प्र उपसर्ग लगने से प्रषितम् बना। प्रषितम अर्थात प्रेषित करने वाला, इसी से के ने षितम -किसकी इच्छा से, कौन भेजा)।

गुरु का उत्तर- 

श्रोत्रस्य श्रोत्रं मनसो मनो यद्

   वचो ह वाचं स उ प्राणस्य प्राण:।

 चक्षुशष्चक्षु:  अतिमुच्य धीर:

    प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति।।2

भावार्थ- यत-चूँकि स: उ - वह कान का भी कान है, मन का भी मन है, वाणी का भी वाणी है, प्राण का भी प्राण है और नेत्रों का भी नेत्र है। अर्थात इन सब के पीछे एक चैतन्य सत्ता तत्व है, अत: विवेकी लोग (शरीर इन्द्रिय में मंै, मेरा भाव त्यागकर) इस लोक से प्रयाण करने के बाद अमृतत्व की प्राप्ति करते हैं।

समाधान- इसमें कोई दोष नहीं है। अन्य श्रुतियाँ भी कहती हैं- ‘आत्मना एवं अयं ज्योतिषा अस्ते’। (बृ.उ.4/3/6)-

तब वह पुरुष आत्मा की ज्योति से स्थित रहता है।

‘तस्य भाषा सर्वम् इदं विभाति’। (क.उ.2/2/15, श्वे.उ.6/1/4, मु.उ.2/2/10) -उसके प्रकाश से ही यह सब प्रकाशित होता है।

‘येन सूर्य: तपति तेजसा इन्द:’ (तै.ब्रा.3/12/9/7)- जिसके तेज से प्रदीप्त होकर सूर्य तपता है।

‘यदि आदित्यगतं तेजो जगद्धासयते अखिलम’ (. गीता 15/12)- सूर्य का जो प्रकाश सारे जगत को प्रकाशित करता है, उसे तू मेरा ही समझ।

‘क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत’ (गीता 13/33)- हे अर्जुन,उसी प्रकार एक ही आत्मचैतन्य संपूर्ण शरीर को प्रकाशित करता है।’’

‘नित्यो अनित्यानां चेतन: चेतनानाम:’। (कठो.उ.3/12/9/7)-अनित्य वस्तुओं में वह नित्य है, चेतनामय पदार्थों में वह चैतन्य (आत्मा) है।

‘स उ प्राणस्य प्राण:’ वह प्राणों का भी प्राण है। केन.

तब ऋषि कहता है -

न तत्र चक्षुर्गच्छति न वाग्-गच्छति नो मनो।

न विद्यो न विजानीमो यथैतदनुशिष्यात।। 3

भावार्थ- वहाँ (ब्रह्म में) नेत्र नहीं जाते, वाणी नहीं जाती और मन भी नहीं जाता। हम ब्रह्म का लक्षणों को भी नहीं जानते, अत: मन वाणी के अतीत होने के कारण हमें नहीं मालूम कि उसका वर्णन कैसे करूँ।

अन्यदेव तद्धिदितादधो अविदितादधि

इति शुश्रुम पूर्वेषां यं नस्तद्धयाचचक्षिरे।

भावार्थ- यह ब्रह्म ज्ञात वस्तुओं से भिन्न है और फिर अज्ञात वस्तुओं से भी परे है- ऐसा हमने अपने पूर्वजों से सुना है, जिन्होंने हमारे लिए इसकी व्याख्या की थी।

केनोपनिषद का अर्थ है- केन अर्थात कौन ? क्या जिसका प्रमाण नहीं वह सत्य नहीं है। क्या ब्रह््माण्ड भी अज्ञात होने से असत है। जो विश्व-ब्रह््मांण्ड का नियन्ता है, कठिनाई से जानने योग्य है, जो देवताओं के विजय और असुरों के पराजय का कारण है, ऐसा ब्रह््म भला अस्तित्व हीन हो सकता है ? क्या वह शून्यरूप हो सकता है। अर्थात नही।

अथवा

ब्रह्म ज्ञान के कारण ही अग्नि, इन्द्र आदि देवताओं को श्रेष्ठता प्राप्त हुई ?

अथवा

ब्रह्म को जानना कठिन है। इन्द्र, अग्नि आदि तेजस्वी होकर भी काफी कष्ट उठाकर ब्रह््म को जान सके।

अथवा

ब्रह््म ज्ञान के अतिरिक्त देवताओं के विजय के अभियान के समान जीव को कत्र्तव्य, भोक्तृत्व का अभियान करना व्यर्थ है।

‘ ब्रह््म  ह देवेम्यो विजिग्ये। तस्य ह

             ब्राह्मणों विजये देवा अमहीयन्त।। ’ 14. केन

कहते हैं देवासुर संग्राम में ब्रह््म ने देवताओं के लिये विजय प्राप्त की। ब्रह््म की इस विजय में देवतागण स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करने लगे। वे देवता लोग सोचने लगे कि यह विजय हमारी ही है और यह गौरव भी हमारा ही है। ब्रह्म ने उनकी इस बात (मिथ्याभिमान) को जान लिया और उनके सामने प्रकट हुए, किन्तु देवतागण यह नहीं जान सके कि यह पूज्यमूर्ति कौन है।

उन यक्ष को न जाने हुए देवतागण भय के साथ आपस में विर्मर्श कर जातवेद: अग्नि को जो जन्म से ज्ञानी होने से जातवेद कहलाते हैं को कहा कि जाओं और पता करों कि यह पूज्यमूर्ति कौन है।16

अग्नि जब यक्ष के पास गये तो यक्ष ने पूँछा, तुम कौन हो? अग्नि ने कहा मैं ही प्रसिद्ध अग्नि हँू और मैं ही जन्म से ज्ञानी जात वेद हूूूँ। 17

यक्ष ने कहा तुम जातवेद हो तुम में क्या क्षमता है। उत्तर आया-इस पृथ्वी पर जो कुछ भी है, उस सब को मैं जला सकता हूँ। 18

यक्ष ने उस अग्नि के सामने एक तिनका रखा और कहा इसे जलाकर दिखाओ और यदि नहीं जला सके तो अपने जलाने का अभिमान छोड़ दो। अग्नि पूरा सामथ्र्य लगाकर भी उसे न जला सका और वापस चला गया।19

तत्पश्चात देवताओं ने वायु को कहा कि तुम पता करो यह पूज्यमूर्ति कौन है? ‘किम यतत् यक्षम’ 20

वायु से यक्ष ने पूछा तुम कौन हो ? वायु ने कहा में प्रसिद्ध वायु हूँ, मैं ही पूरे अंतरिक्ष में घूमने बाला मातरिश्वा हूँ। 21

यक्ष ने पूछा तुम जैसे नाम गुण वाले में क्या क्षमता है ? तब वायु ने कहा, इस पृथ्वी में जो कुछ भी है उसे मैं उड़ा सकता हूँ।22

यक्ष ने वही तिनका वायु को दिया और कहाँ इसे उड़ाओ ? सारे प्रयत्न के बाद वायु भी निराश होकर वापस चला गया। 

तब देवताओं ने इन्द्र को कहा, आप जाकर पता करें कि यह पूज्यमूर्ति कौन है। इन्द्र जैसे ही यक्ष के नजदीक गये यक्ष अंर्तधान हो गये। 24

उसी स्थान पर एक सुन्दर अलंकार से युक्त युवती प्रकट हुई, जिसके पास इन्द्र ने जाकर पूछा उमा (उमा रूपी ब्रह्म विद्या) यह यक्ष कौन है ? 25

उमा ने बताया कि यह यक्ष ही वह ब्रह्म है जिन्होंने तुम देवताओं को असुरों के युद्ध से जिताया है।। 26

यहाँ एक बात और साफ होती है कि यह वही घटना है जब इद्र, अग्नि और वायु ब्रह्म से या तो वार्ता करने का अवसर पाते हैं या उनके दर्शन का इसीलिए ये तीनों देवताओं में पूज्य या श्रेष्ठ माने जाते हैं।

चँूकि इन्द्र, अग्नि और वायु को ईश्वर का सानिध्य तो प्राप्त होता है किंतु वे उन्हें जान न सके और उमा अर्थात उन्हें ब्रह्म विद्या के माध्यम से ही उन्हे ज्ञान प्राप्त हुआ इसलिए भी इन्हें देवताओं में श्रेष्ठ माना गया। 27

इन तीन देवताओं में भी इन्द्र ने ब्रह््म विद्या अर्थात उमा के माध्यम से ब्रह््म को जाना इसीलिए इन्द्र श्रेष्ठ कहलाया। 28

वस्तुत: यह उपमा के द्वारा ब्रह््म का ध्यान विषयक उपदेश है। यह वैसा ही है जैसे विद्युत का चमकना और पलकों का झपकना। यह ब्रह््म का अधिदैविक उपदेश है। 29

इसके बाद ब्रह््म का अध्यात्म-विषयक उपदेश दिया जाता है- मन जो ब्रह््म में जाता हुआ प्रतीत होता है, अर्थात साधक मानो उसे मन के द्वारा अत्यन्त घनिष्ठ रूप से स्मरण करता है और मन के द्वारा जो ब्रह््म विषयक धारणा करता है। यह ब्रह््म का अध्यात्म विषयक उपदेश हुआ। आध्यात्म अर्थात अन्तरात्मा-विषयक उपदेश बताया जाता है। आधिदैविक उपासना। 40

आध्यात्मिक -निरुपाधिक-मन के द्वारा-मन के पार। जो ब्रह््म सब प्राणियों के जानने योग्य है उसे ‘तद्वेन’; कहते हैं। जो कोई इस ब्रह््म की उपासना करता है, उसकी समस्त प्राणीगण प्रार्थना करते हैं। 31

तब शिष्य कहता है- हे, भगवन! मुझे ‘ब्रह््म विद्या बताइये।; गुरु ने कहा, तुम्हे उपनिषद बताई जा चुकी है। ‘मैने तुम्हें ब्रह्म सम्बन्धी रहस्य विद्या ही बताई है।’


4-जीवेद वर्षम् शतम्

सौ वर्ष तक कैसे जिए? ईषावास्य उपनिषद कहता है ‘कुर्वन्नेवेह कर्माणि’ और आगे कहता है ‘नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नर:’’। दो बातें- मनुष्य के जीने की लालशा स्वाभाविक है। उपनिषद कहता है ‘सौ वर्ष जिओं’। किन्तु अकमण्र्य होकर नहीं तो कर्म करते हुए। यही अन्तिम रास्ता है। अब कर्म कैसा तो अलिप्त होकर। गीता में कहा ‘कर्मण्ये फला......’ दूसरा पहले श्लोक में कहता है ‘तेन त्यक्तेन भुंजिथा’, त्याग के साथ जिओ। यहाँ किस त्याग की बात कहीं जा रही है। -‘एषणाओं का त्याग; कर्म का नहीं, कर्मफल का त्याग। उदाहरण के लिए हमने गृहस्थ धर्म स्वीकारा। पुत्र-पोत्रादि की प्राप्ति की, धन-ऐश्वर्य की भी प्राप्त की। किन्तु हमने उनका भोग करते समय ‘तेन त्यक्तेन’ एवं मा गृध:, लोभ न करो एवं ‘कस्य स्वित धनम’; का परहेज नही किया। यहाँ तीन बाते पुत्र-पौत्रदि की प्राप्ति, धन की प्राप्ति, को त्यागपूर्वक भोगना और अन्याय और  अनीत से धनार्जन नही करना। प्रत्येक कर्म को ईश्वर समर्पित होकर करना। यहाँ न तो संचय का भाव है और न आसक्ति का। पर यह कार्य सहज नहीं है। इसलिए ऋषि मार्ग दिखाता है- ‘ईष’ (ईष्ट इति ईष्ट तेन ईषा:) परमेश्वर जगत व्यापी है, यह धारणा सुनिश्चित करना। तुलसी ने कहा ‘सीय राम मय सब जग जानी’। उपनिषद कहता है-सचराचर जगत परिवर्तनशील है। इसे ईश्वरत्व से आच्छादित करो। जगत क्या है। हमारी इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य विषय जगत है। मन, चित्त, बुद्वि, अहंकार के अन्दर बसता है, संसार। फिर इनका धीरे-धीरे (एषणाओं का त्याग कर) सभी चीजों को परमात्मा अर्थात अपने अन्दर आत्मा है और वह सर्वव्यापी उस परमात्मा का अंश है, बोध करना और धीरे-धीरे उसके अंदर प्रवेश करना। कबीर कहता है- बूँद समानी समुद्र में से कत हेरी जाय। पर सन्तुष्ट नहीं होता इसलिए कबीर फिर कहते हैं-हेरत हेरत हे सखी मैं भी गई हेराई। समुद्र समानी बूँद में सो कत होरी जाय। , अथवा ‘फूटा घट जल जलहि समाना।’ आदि। यह घट शरीर है, संसार है। जीवेत वर्षम् शतम् का अर्थ केवल इतना ही है कि  हमारे ऋषियों ने इस शरीर की मर्यादा सौ बर्ष मानी। अत: इन सौ वर्षों को किस तरह जिया जाय इसका विचार किया। सभी प्राणियों में ‘सर्वभूतहितेरता:; का भाव बोध हो। साक्षात्कार करते करते इस काया को जैसा कहा ‘ऊँ पूर्णमद: पूर्णमिदं’ को साकार करें। यही निग्रह है। यही परमात्मा का साक्षात्कार का मार्ग है।


5- कर्मकाण्ड के बाद ही निवृत मार्ग आया।

उपनिषद कहता है- ‘असूया नाम ते लोका’ अंधकार में जीना अर्थात इस शरीर में ही जीना। आत्महत्या क्या है? ‘असूया नाम ते लोका, अन्धेन तमसा वृता। प्रश्न है आत्मा अमर है। नैनम् छिंदन्ति ....; फिर ‘आत्महंन्ते ते जना:; क्यों कहा? क्या आत्मा कुछ नहीं करती? नहीं भी हाँ भी? देखें- ‘अनेजदेकं मनसो जीवयो’, वह स्थिर है किन्तु मन से भी तेज गति से चलता है। इन्द्रियाँ चूकि मन और आत्मा के बीच में आ नहीं पाती इसलिए वे तो पकड़ ही नहीं पाती। कभी-कभी लगता है कि मन ही सब करता है और हमारा योगी मन को साधता है। मन संकल्प विकल्प से सभी लोको की यात्रा करता है किन्तु वह सभी जगह अपने से पहले इस आत्म तत्व को वहाँ उपस्थित पाता है। प्राण वायु को ‘मातरिश्वा’ कहा। क्योंकि वह सर्वत्र विचरण करता है। मन भी उसी प्राणवायु के कारण सर्वत्र विचरण करता है। किन्तु यह ‘मातरिश्वा’ आखिर इस शरीर को जब आत्मा छोड़ देती है तब क्यों नहीं घूमता और यह मन की गति भी क्यों रुक जाती है। इसका अर्थ हुआ की कर्मकाण्ड चलता रहता है। इनका माध्यम बनती हैं हमारी इन्द्रियाँ और मन। किन्तु कर्मकाण्ड करते हुए भी यदि  अलिप्त रह कर उस आत्मा में प्रवेश करना है उससे पहचान करनी है। तो कर्मकाण्ड के फल का त्याग करना पड़ेगा। यहाँ दो बाते आती हैं-एक कर्मकाण्ड पूर्वजन्म के संस्कारों के आधार पर आता है और निवृति मार्ग की प्राप्ति इन फलों को त्याग करने पर मिलती है। पहले प्राप्ति है फिर निवृति है। पहले सिद्धि है फिर प्रसिद्ध है। पंच तत्वों का पंचतत्वों में विलय केवल रूप परिवर्तन होता है जिसे देह धारण करना कहते हैं। 

आगे उपनिषद कहता है- ‘तास्ते प्रेत्याभिगच्दन्ति’, अज्ञान से आच्छादित होकर पशु और वनस्पतियोंं के रूप हमें प्राप्त होते हैं। ‘असुरो का लोका’ अर्थात ‘तमसावृता:’ को असुर लोक कहा। ‘आत्महनो जना’ आत्मा को माने वाले अर्थात ‘तमसावृता:’ को असुर लोक कहा। यही आत्म हत्या है। तभी हमारा ऋषि कहता है  ‘तमसो मां ज्योर्तिगमय’। हम अमर हैं, यह बोध प्राप्त न होना ही आत्मघाती स्थिति है। 3

क्या आत्मा हिलती है ? चल फिर सकती है? उत्तर हाँ में आता है। यद्यपि आत्मा को अनेजदेकं अर्थात न हिलता हुआ कहा। किन्तु साथ कहा मनसो जीवयो मन से भी अधिक वेग वाला। इसीलिये जब हम कहते है कि आत्मा चलती है तो उत्तर आता है, हाँ किन्तु जब हम इसे इन्द्रियों और मन की गति से पकडऩा चाहते हैं या देखना चाहते हैं तो उत्तर आता है, न। यहाँ एक बात स्पष्ट है कि जब वह शरीर में ‘तिष्ठश्रस्मिन्नयो’ अर्थात स्थिति रहती है तभी यह प्राण तत्व अर्थात ‘मातरिश्वा’ विचरण कर सकता है। इसीलिये हम कहते हैं कि बिना साक्षात्कार के नहीं समझ सकते कि वह चलती है। आत्मा को जब हम मन, बुद्धि, चित्त और अंहकार के वशीभूत हो कर देखते है, या समझने का प्रयत्न करते हैं तो वह हमें शोकाकुल और प्रसन्न दिखती है। क्योंकि मन की गति उतनी ही है जितना वह संकल्प और विकल्प कर सकता है। संकल्प विकल्प की क्षमता उतनी ही है जितनी हम देख या बुद्धि से कल्पना कर सकते हंै। अर्थात जो कल्पनातीत है। इन्द्रियों से परे है उसे हम इन्द्रिय जनित सुख-दुख में कैसे बाँध सकते हैं। इसीलिए तुलसी दास ने कहा ‘जानति तुम्हहि तुम्हहि होई जाई’ फिर जानने के लिए कुछ बचता ही नहीं। जब तक हम ‘तमसावृत्ता’ है तब तक उसे जान नहीं सकते और जब तमस से बाहर आते हैं तो उसी के प्रकाश में समाहित हो जाते हैं तब जानने और जनाने बाले का अस्तित्व ही नहीं रहता।

आत्मा अपने शुद्ध चैतन्यरूप में स्थिर है। मन संकल्प विकल्प के सहारे गतिमान है। अपने वेग के कारण पार्थिव देह में स्थित मन ब्रह््मलोक आदि तक जाता है। किन्तु आत्म चेतन्य का प्रतिबिम्ब वहाँ पहले से उपस्थित होता है, अत: इसे मन से भी ज्यादा वेगवान कहा। इसी नित्य, चैतन्य-स्वरूप आत्मतत्व के होनेे पर ही मातरिश्वा अंतरिक्ष में चलने के कारण समस्त जीवों में प्राण का पोशण करने वाला, गतिशील स्वभाव (इन्द्रिय = बाह्य करण, मन बुद्धि =अन्त: करण) इसी मातरिश्वा’ के कारण जगत को धारण करते हैं। अथवा उस आत्मतत्व के भय से ही वायु बहता है। (भीशास्मात् वात: पवते-2/8/1 तैत.) ‘तदेजति तन्नेजति.....’’ क्या परमात्मा चलता है ? तुलसी दास ने कहा - ‘‘बिन पग चले सुनै बिन काना, बिन कर करे करम बिधि नाना।’’ तो क्या यह असत्य है ? नहीं। उपनिषद कहता है। वह चलता है। तदेजति। वह नहीं भी चलता है, तन्नेजति। (तत् ऐजति= वह चलता है), (तत न ऐजति = वह नहीं चलता है), (तत् दूरे = वह दूर है), (तत् अन्तिके = वह पास है), ( सर्वस्य अंतर:, अस्य सर्वस्य बाह्यत:),(ईषा.), (बृहदो-3/4/1 कहता है- ‘या आत्मासर्वान्तर:’’ अर्थात जो आत्मा सब के भीतर है तथा प्रज्ञानघन एव ’’ अर्थात जो चेतन्य का घनीभूत रूप है) अर्थात यह निरन्तर तथा शून्य रहित है।

6-मनुष्य घृणा से कैसे मुक्त हो

जो ज्ञानी व्यक्ति सभी जीवों को अपनी आत्मा में देखता है और अपनी आत्मा को सभी जीवों में देखता है वह इस अनुभूति के कारण किसी से घृणा नहीं करता है। अर्थात ‘मैं इस कार्यरूप (मन, इन्द्रिय, बुद्धि आदि) करण के संघात रूप शरीर की आत्मा हूँ- ‘सर्ववृतिज्ञान का साक्षीभूत हूँ, (मन, इन्द्रिय, बुद्धि आदि) का प्रकाशक, एकाकी गुणातीत हूँ; वैसे ही इस साक्षी रूप से अव्यक्त (प्रकृति) से तृण पर्यन्त सबकी आत्मा में हूँ।’’ अब विचारणीय प्रश्न यह है कि मनुष्य किसी से घृणा क्यों करता है। क्यों कि वह मानता है कि यह वस्तु उससे अलग है। 

7- एकात्मभाव ही मोह और शोक को भगाता है- ‘‘एस्मिन्सर्वाणि...एकत्वमनुपश्यत’’। अर्थात अविद्या के फलस्वरूप मोह और शोक होता है। बुद्ध की कथा आती है। श्रावस्ती में एक महिला रहती थी। वह बुद्ध के पास गई । बुद्ध ने कहा तुम इस तरह भीगी और दुखी क्यों हो। महिला ने कहा, मेरा बेटा मर गया है और मैं उसके शोक में हूूूँ। मैं उसके लिये रोज स्नान करती हूँ। बुद्ध ने कहा, यह श्रावस्ती तुम्हारी है? तुम यहाँ के लोगों को अपना बेटा मानती हो। उसने कहा हाँ। तो यहाँ कितने लोग रोज मरते है। उसने कहा बीस पच्चीस तक और कभी-कभी दो, एक भी। क्या तुम उन सब के लिए शोक करती हो ? नहीं ? क्यों ? क्योंकि उन्हें मैंने अपना नहीं माना। अभी तो कह रही थी कि सभी अपने हैं। फिर ऐसा क्यों। महिला को बात ध्यान में आ गई। और उसने कहा प्रभु, मैं अब शोक रहित हूँ। अपने को कुछ से जोड़ लेना और कुछ से पृथक मानना यही शोक और घृणा का कारण है। किन्तु यह इतना सरल नहीं है। इसके लिए सतत अभ्यास और चिंतन की आवश्यकता है। आत्मा और परमात्मा को समझने की आवश्यकता है।

8- आत्मा को कैसे समझे ? इसका लक्षण क्या है? 

‘‘स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरं शुद्धम पापविद्धम।

कविर्मनीषी परिभू: स्वयम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान व्यदधाच्छाश्वतीभ्य: समाभ्य:।’’

पर्यगात अर्थात सब ओर गया हुआ। अपापविद्धम = पापरहित, शुक्रम=शुद्ध, तेजामय, अव्रणम=क्षतरहित, कवि=सर्वद्रष्टा, परिभू= सबसे ऊपर रहने वाला। उसी आत्मा ने नित्य संवत्सर (वर्ष) नामक प्रजापतियों के लिए यथायोग्य कर्तव्यों का विधान किया है। कवि का अर्थ है अतीतदर्शी। (न अन्यो अतो अस्ति द्रष्टा। बृउ 3/8/11 अर्थात इस आत्मा के अतिरिक्त कोई द्रष्ट्रा नहीं है।) परिभू: का दूसरा अर्थ बिना माता पिता के जन्म लेने वाला।

यहाँ दो बाते आयी है, ‘ईषा वास्यं इदं सर्वं...’’, कुर्वन्नेवेह  कर्माणि’’, अर्थात सब को ईश्वर से आच्छादित कर लेना चाहिए। किसी के भी धन का लोभ मत करो।’’ यह प्रथम वेदार्थ है। जीने की इच्छा रखने वाले को ज्ञान निष्ठा नहीं कर्म निष्ठा आवश्यक है। 


9. कर्म का विधान किसे ?

अज्ञानी तथा सकाम व्यक्ति के लिये कर्म आवश्यक है।  ‘‘सो अकामयत जाया में स्यात’’ (वृ.उ.1/4/17) उसने कामना की मुझे पत्नी हो’’ तथा ‘‘मन एव अस्य आत्मा वाग्जाया’’  ‘मन ही उसकी आत्मा है और वाणी उसकी पत्नी।’ आगे फिर वही उपनिषद कहता है- ‘ किं प्रजया करिश्यमों मे षां नो अयमात्मा अयं लोक:’ अर्थात ‘हमारी आत्मा ही हमारा लोक है अत: हम संतान लेकर हम क्या करेगे? (बृ.उ. 4/4/22)। यह विषय सामान्य जन को समझ में नहीं आता। अत: श्वेतोपनिषद का ऋषि कहता है- ‘‘ अत्याश्रमिम्य: परमं पवित्रं प्रोवच सम्यक् ऋषि संगजुष्टम’’ । 1/6/21. ऋषि संघों द्वारा सेवित उस परम पवित्र तत्व को अंत्याश्रमियों (संन्यासियों)के लिए भलीभांति कहा गया है।’’

अन्त में विचार करना पड़ेगा कि कर्मकाण्ड और उपासना का समुच्चय होना चाहिए- ‘‘अन्ध तम: प्रविशन्ति येऽपिद्यामुपासते। विद्यायाम = देवतोपासना और अविद्यायाम= कर्मकाण्ड।

विद्या- ‘सा विद्या या विमुक्तये’।

‘‘विद्या चाविद्यां च यस्तद्वेदोभय सह।

अविद्यया मृत्युं तीत्र्वा विद्ययामृतमश्नुतू’ -ईष-11

जो व्यक्ति उपासना (देवता-ज्ञान) तथा कर्म-दोनों को साथ साथ जानता है, वह कर्म के द्वारा मृत्यु को पार करके उपासना के द्वारा अमृत (देवत्व) को प्राप्त कर लेता है।

देवताओं की पूजा करके आदमी सिद्धि को प्राप्त करता है- ‘ईश्वरीय गुणों को ऐश्वर्य कहते हैं। आठ ऐश्वर्य या सिद्धियाँ इस प्रकार हैं-

‘‘अणिमा महिमा तथा गरिमा लघिमा तथा।

ईषित्वं च वषित्वं च प्राप्ति: प्रकाम्यमेव च।।

अर्थात शूक्ष्म हो जाना, विषाल हो जाना, भारी हो जाना, हल्का हो जाना, शासक बन जाना, वश में कर लेना, इच्छानुसार वस्तु की प्राप्ति और जैसा चाहे  वैसा रूप बना लेना।

‘‘सम्भूतिं च विनाशं च यस्तद्वेभीय सह।

विनाशेन मृत्युं तीत्र्वा सम्भूत्यामृतमश्नुते’’ -

अर्थात जो असंम्भूत अर्थात कारण ब्रह्म तथा विनाश अर्थात कार्य ब्रह्म (हिरण्यगर्भ)-दोनों को साथ साथ उपासना करने योग्य जानता है, वह कार्य-ब्रह्म की उपासना से मृत्यु को पार करके कारण-ब्रह्म की उपसना से अमृत अर्थात् प्रकृतिलय की अवस्था को प्राप्त करता है। ईषा-14  अर्थात सभी जीव अपनी आत्मा ही हो जाते है’’ (‘आत्मा-एव-अभूद्-विजानत:’)

ऋषि कहता है-

‘‘हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम।

 तत्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये।।

अर्थात हे जगत के पोशक! (पूषा) सूर्यदेव स्वर्णिम पात्र (हिरण्यगर्भ) के द्वारा सत्य (कार्यब्रह्म) का जो मुँह ढका हुआ है, मुझ सत्यधर्मा (उपासक) के दर्शन हेतु वह ढक्कन हटा दीजिए। ईषा.15

‘‘पूषान्नेकर्षे यम सूर्य प्रजापत्य व्यूह रश्मीन्समूह तेजा यत्ते रूपं कल्याणतमं तत्ते पश्यामि योऽसावसौ पुरुष: सोऽहमास्मि।। 16 ईषा

अर्थात जगत का पोशण करने के कारण सूर्य को पूषा कहते है; अत: हे पूषा! (गगन में) एकाकी विचरण करने के कारण वे एकर्षि कहे जाते हैं; (अत:) हे एकर्षि, प्राणों तथा रसों को खीच लेने के कारण वे सूर्य कहलाते हैं; (अत:) हे सूर्य! प्रजापति के पुत्र होने से वे प्राजापत्य हैं: (अत:) हे प्राजापत्य! अपनी रश्मियों को व्यूह अर्थात हटाइये। अपने तेज अर्थात् ताप देनेवाले प्रकाश को एकत्र करके खीच लीजिए।16, ईषा.

‘‘वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्त शरीरम।

ऊँ क्रतो स्मर कृतँ स्मर क्रतो स्मर कृतँ स्मर।।

अर्थात अब मेरा प्राण सर्वव्यापी वायु में विलीन हो जाय; मेरा शरीर भस्म में परिणत हो जाय। ऊँ, हे मेरे मन! अब तक अपने द्वारा किये हुए कर्म तथा उपासनाओं का स्मरण करो, स्मरण करो।17 ईषा.

व्याहृतियाँ- भू:, भुव: तथा स्व:- ये तीन व्याहृतियाँ हैं। (तै.उ. 1/5/1) । इनमें से ‘भू:’ अर्थात पृथ्वी का सिर है, ‘भुव:’ अर्थात आकाश उसकी दो भुजाएं हैं और ‘स्व:’ अर्थात स्वर्ग उसके दो चरण हैं। (बृ.उ.5/5/3)

‘‘अग्रे नय सुपथा राये अस्मान्विश्वानि देव वयुनानि विद्वान।

युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठंते नम उक्तिं विधेम।।’’ 18

अर्थात हे अग्नि! हे देव! आप हमारे समस्त कर्म फलों के ज्ञाता हैं; हमें अपने कर्मफलों का भोग कराने के लिए अच्छे मार्ग से ले चलिए। कुटिल पापों को हमसे दूर कीजिए। हम आपको बारम्बार नमन करते हैं।

इस तरह से ईषोपनिषद में ऋषि सूर्य और अग्नि देव से प्रार्थना करता है कि उसे अमृत की ओर ले चलो।

इस तरह से ऋषि अविद्या (कर्म) के द्वारा मृत्यु को पार करके विद्या (उपासना) के द्वारा अमृतत्व को प्राप्त कर लेता है’’  वह विनाश के (कार्यब्रह््म) के द्वारा मृत्यु को पार करके, सम्भूति (कारणब्रह्म) की उपासना से अमृतत्व की प्राप्ति कर लेता है।’’ 

‘‘विद्यया देवलोका: अर्थात विद्या से देवलोक  मिलता है।- बृउ.1.5.16

‘‘विद्यया तदारोहन्ति’ अर्थात विद्या ऊपर उठाती है। बृउ.1.5.

‘कर्मणा पितृलोका’ अर्थात कर्म से पितृलोक मिलता है।- ईष.9

स्वामी विवेकानंद जी कहते हैं- ‘‘उपनिषद् शक्ति की विशाल खान है। उपनिषदों में ऐसी प्रचुर शक्ति विद्यमान है कि वे समस्त संसार को तेजस्वी बना सकते हैं। उनके द्वारा समस्त संसार पुनरूज्जीवित, सशक्त और वीर्यसम्पन्न हो सकता है। समस्त जातियों को, सकल मतों को, भिन्न-भिन्न सम्प्रदाय के दुर्बल, दु:खी, पददलित लोगों को स्वयं अपने पैरों खड़े होकर मुक्त होने के लिए वे उच्च स्वर में उद्घोष कर रहे हैं। मुक्ति अथवा स्वाधीनता दैहिक स्वाधीनता, मानसिक स्वाधीनता, आघ्यात्मिक स्वाधीनता यही उपनिषदों के मूल मंत्र हैं।’’

10-कुण्डलनी जागरण यानी तेजोऽस्मि

(क) योग दर्शन एक महत्वपूर्ण तथा साधकों के लिए उपयोगी दर्शन है। इसका परिचय  भोजवृति और व्यासभाष्य में मिलता है। स्वामी आमानन्द के ‘पातंजलि योग प्रदीप एवं श्री हरिदास गोयन्दका जी का पातंजलि योग दर्शन ’ महत्वपूर्ण ग्रंथ हैं। इनके अतिरिक्त अनेक पुस्तकें योग शास्त्र पर हैं। प्रत्येक योग प्रेमी को योग सीखने, करने के पूर्व कुछ महत्वपूर्ण शब्दों उनके निहितार्थ को समझना अतीव आवश्यक है। इसके कारण एक तो योग क्या है उसकी सम्पूर्णता, विस्तार और गहराई समझ में आती है, दूसरा हमारी दृष्टि की व्यापकता बढ़ती है और धीरे-धीरे मन की जगती उत्सुकता शून्य हो जाती है। अत: यहाँ क्रमश: योग के लक्षण, स्वरूप और उसकी प्राप्ति, वृत्तियों के भेद, योग के भेद आदि की शब्दावली का उल्लेख किया जा रहा है।

श्वेताश्वतरोपानिषद कहता है- ‘‘यदाऽऽत्मतत्वेन तु ब्रह्मतत्वं दोपोपमेनेह युक्त: प्रपष्यते।

अजं धु्रवं सर्वतत्वैविशुद्वं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाषै:।।

जब योगी यहाँ दीपक के सदृश्य (प्रकाशमय) आत्मतत्व के द्वारा ब्रह््म तत्व को भली भांति  प्रत्यक्ष देख लेता है, उस समय वह उस अजन्मा, निश्चल, समस्त तत्वों से विशुद्व परमदेव  मरमात्मा को जानकर सब बन्धनों से सदा के लिये छूट जाता है। योगशास्त्र से वर्णित साधनों का प्राय: उपनिषद, गीता, भागवत आदि सभी धर्मग्रंथ समर्थन करते हैं। योगशास्त्र में प्रवृत्ति के चौबीस भेद एवं आत्मा और ईश्वर-इस प्रकार कुल छब्बीस तत्व माने गये हैं। उसमें प्रकृति तो जड़ और परिणामशील है तथा मुक्त पुरुष और ईश्वर- ये दोनों नित्य, चेतन, स्वंप्रकाश, असंग, देशकालातीत तथा निर्विकार एवं अपरिणामी है। प्रकृति में बँधा पुरुष अल्पज्ञ, सुख-दु:खों का भोक्ता, अच्छी -बुरी योनियों में जन्म लेने वाला और देश कालातीत होते हुए भी एक देशी-सा माना गया है।

ईश्वर कैसे मिलेगा- ‘‘नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुनाश्रुतेन’’ (मुण्डको.)

अथ योगानुशासनम् -परम्परागत योगविषयक शास्त्र की चर्चा करते हैं।

योगश्चित्तिवृत्तिनिरोध:- चित्त की वृत्तियों का निरोध योग है। अर्थात चित्त की वृत्तियों का सर्वथा रुक जाना योग है। यह स्थिति कब आती है ? ‘‘तदा द्रष्टु:स्वरूपेऽवस्थानम।’’ जब चित्त की वृत्तियों का पूर्ण निरोध हो जाता है, उस समय द्रष्टा (आत्मा) अपने स्वरूप में स्थिति हो जाती है; अर्थात केवल्य अवस्था को प्राप्त हो जाता है। यदि चित्त वृत्तियों का अंश मात्र भी निरोध शेष रह जाता है तब तक द्रष्टा अपने चित्त की वृत्ति के अनुरूप अपना स्वरूप समझता रहता है, उसे अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान नही होता है। फिर प्रश्न उठता है, यह होता कैसे है? ये वृत्तियाँ कितने प्रकार की होती हैं। चित्त की वृत्तियाँ क्या हैं, आदि-आदि अनेक प्रश्न उठना जिज्ञासु के लिये स्वाभाविक है।

चित्त वृत्तियाँ-

वैसे तो चित्त वृत्तियाँ असंख्य हैं किन्तु मोटे तोर पर उन्हें पाँच प्रकार से बाँटा जा सकता है। 

चित्त वृत्तियाँ पाँच हैं- 

‘‘प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतय:’’ (1) प्रमाण (2) विपर्यय (3) विकल्प, (4)निद्रा- स्वप्न (5) स्मृति। यह सभी वृत्तियाँ दो प्रकार की होती हैं- ‘‘वृत्तय:पंचतय: क्लिष्टाक्लिष्टा ’’। क्लिष्ट अर्थात अविद्या आदि क्लेषों को पुष्ट करने वाली और योगसाधना में विघ्नरूप होती हैं। अक्लिष्ट-क्लेशों को क्षय करने वाली और योगसाधन में सहायक होती हैं। 

प्रमाण के तीन प्रकार हैं- (1) प्रत्यक्ष प्रमाण वृत्तियाँ-मन और इद्रियों के जानने में आने वाले जितने भी प्रदार्थ हैं, जो वैराग्य के विरोधी भावों को बढ़ानेवाले हैं। उनसे होने वाला प्रमाण वृति क्लिष्ट है। (2) अनुमान प्रमाण- किसी प्रत्यक्ष दर्शन के सहारे युक्तियों द्वारा जो अप्रत्यक्ष पदार्थ के स्वरूप का ज्ञान होता है, वह अनुमान से होने वाली प्रमाण वृत्ति है। (3) आगम प्रमाण- वेद, शास्त्र और आप्त पुरुषों के वचन को आगम कहते है। 

विपर्यय-‘विपर्ययोंमिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम’।। 

जो उस वस्तु के स्वरूप में प्रतिष्ठित नही है, उसे उसमें मानना ऐसा मिथ्याज्ञान विपर्यय है। अर्थात विपरीत ज्ञान विपर्यय है। विपर्यय और अविद्या में कभी-कभी एकता मालुम होती है किन्तु ऐसा नही है। विर्पयय वृत्ति का नाश तो प्रमाणवृत्ति से हो जाता है किन्तु अविद्या चित्तवृत्ति नही मानी जाती। अविद्या तो केवल्य अवस्था तक निरनतर विद्यमान रहती है। अत: यही मानना ठीक है कि चित्त का धर्मरूप विपर्यय अन्य पदार्थ है तथा पुरुष और प्रकृति के संयोग की कारण रूपा अविद्या उससे सर्वथा भिन्न है। अविद्या का नाश असम्प्रज्ञात योग से होता है (जब विवके ज्ञान उदित होता है तो योगी ऋतम्भरा हो जाता है, उक्त प्रकार से उस योगी के अविद्या के पाँचों क्ेलश (अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश) तथा शुक्ल, कृष्ण और मिश्रित तीनों प्रकार के कर्म संस्कार समूल नष्ट हो जाते हैं। ‘तत:क्लेषकर्मनिवृति’। अत: यह मानना उचित है कि चित्त का धर्मरूप विपर्यय वृत्ति अन्य प्रदार्थ है तथा पुरुष और प्रकृति के संयोग की कारणरूपा अविद्या उससे सर्वथा भिन्न है। (3) विकल्प- ‘शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्प’। अर्थात जैसे कोई मनुष्य भगवान के  रूप का ध्यान करता है पर जिस रूप का ध्यान करता है उसे न तो उसने देखा है, न वेद-शास्त्र सम्मत है, और न ही वह भगवान का वास्तविक स्वरुप है केवल कल्पना मात्र है विकल्प है। किन्तु भगवान के ध्यान, चिन्तन में सहायक होने से अक्लिष्ट है।

(4) निद्रा- ‘अभावप्रत्ययालम्बना वृत्तिर्निद्रा’- ज्ञान के अभाव का ज्ञान जिस चित्तवृति के आश्रित रहता है, वह निद्रावृत्ति है।’’ निद्रा भी चित्त की वृत्तिविशेष है। कई दर्शनकार निद्रा को वृत्ति नही मानते, इसे सुषुप्ति अन्तर्गत मानते हैं। गीता में आया है- 

युक्ताहार विहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु। 

युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दु:खहा।।


(5) स्मृति- अनुभूतिविषयासम्प्रमोष: स्मृति:- उपर्युक्त प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, और निद्रा या स्वप्न इन चार प्रकार की वृत्तियों द्वारा अनुभव में आये हुए विषयों से  जो संस्कार चित्त में पड़े हैं, उनका पुन: किसी निमित्त को पाकर स्फुरित  हो जाना ही स्मृति है। इन पाँचों प्रकार की वृत्तियों के क्लिष्टाक्लिष्ट दो-दो भेद हैं । 

चितवृत्तियों का निरोध- 

अब इन चित्तवृत्तियों का निरोध कैसे करें ? योगी कहता है ‘अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोध:’। गीता कहती है- ‘अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृहयते’ (6.35)। चित्तवृत्तियों के निरोध के दो प्रकार हैं-अभ्यास और वैराग्य। 

सामान्यत: चित्तवृत्तियों का प्रवाह परम्परागत संस्कारों के बल से सांसारिक भोगों की ओर बहता चलता है, उस प्रवाह को रोकने का उपाय ‘वैराग्य’ तथा उसे ‘कल्याण’ मार्ग में ले जाने का उपाय ‘अभ्यास’ है। 

अभ्यास क्या है-

‘तत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यास’ अर्थात जो स्वभाव से चंचल है ऐेसे मन को किसी एक ध्येय में स्थिर करने के लिये बारम्बार चेष्टा करते रहने का नाम अभ्यास है। गीता कहती है- ‘स निश्चयेन  योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा’। योग का अभ्यास बिना उकताये बिना समय सीमा के निश्चित किये निष्ठापूर्वक करते रहना है।  

12-वैराग्य क्या है-

‘दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम’। यहाँ दो शब्द हैं, दृष्टा और अनुश्रविक । अन्त:करण और इन्द्रियों के द्वारा प्रत्यक्ष अनुभव में आनेवाले इस लोक के समस्त भोगों का समाहार यहाँ दृष्ट शब्द में आया है। जो प्रत्यक्ष उपलब्ध नही है जिनकी बड़ाई वेद, शास्त्र उपनिषद और भोगों का अनुभव करने वाले पुरुषों से सुनी गयी है, ऐसे भोग्य विषयों का समाहार आनुश्रविक है। अत: यहाँ कहा जा सकता है कि देखे सुने हुए विषयों में सर्वथा तृष्णारहित चित की जो वशीकार नामक अवस्था है, वह वैराग्य (तत्परमं पुरुषख्यातेर्गुणवैतृष्ण्यम) है। दृष्टा- शुद्ध निर्विकार, कूटस्थ एवं असंग है। केवल चेतनामात्र ही जिसका स्वरूप है तो भी बुद्धि के सम्बध से बुद्धि तत्व के अनुरूप देखने वाला होने से दृष्टा कहलाता है। बुद्धिवृत्ति में रहकर जब तक आत्मतत्व दृष्ट बना रहता है तभी तक वह दृष्टा है-सज्ञा है। दृष्य से सम्बन्ध होते ही वह चेतन मात्र, सर्वथा शुद्व और निर्विकार हो जाता है।

चित्त के वशीकार संज्ञा- अन्त:करण और इन्द्रियों के द्वारा प्रत्यक्ष में आने वाले इस लोक के समस्त भोगों का समाहार यहाँ दृष्ट शब्द में किया गया है। कामना रहित चित्त की जो वशीकार नामक अवस्था है, वह अपर वैराग्य है। संज्ञारूप वैराग्य से जब साधक की विषय कामना का आभाव हो जाता है और उसके चित्त का प्रवाह समान भाव से अपने ध्येय के अनुभव में एकाग्र हो जाता है उसके बाद समाधि परिपक्व होने पर प्रकृति और पुरुष विषयक विवेक ज्ञान प्रकट होता है, उसके होने से जब साधक की तीनों गुणोंं (सत, रज, तम) और उनके कार्य में किसी प्रकार की किंचिन्मात्र भी तृष्णा नहीं रहती, जब वह सर्वथा आप्तकाम निष्काम हो जाता है ऐसी सर्वथा रागरहित अवस्था को अपर-वैराग्य कहते हैं । गीता कहती है जब योगी न तो इन्द्रियों के विषयों में और न कर्मों में ही आसक्त होता है तथा सब प्रकार के संकल्पों का भलीभांति त्याग कर देता है तब वह योगारूढ़ कहलाता है।

(यदाहिनेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते, सर्वसंकल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते) 

सम्प्राप्त योग- विचार, विर्तक, आनन्द और अस्मिता इन चारों के सम्बन्ध से युक्त (चित्तवृति समाधान) ‘सम्प्रज्ञात:’, सम्प्रज्ञात योग है। सम्प्रज्ञात योग के ध्येय तीन पदार्थ माने गये हैं, ग्राह्य (इन्द्रियों के स्थूल एवं सूक्ष्म विषय), ग्रहण (इन्द्रियों और अन्त:करण), ग्रहीता (बुद्धि के साथ एकरूप पुरुष)। जब तक शब्द, अर्थ और ज्ञान का विकल्प वर्तमान है तब तक सवितर्क समाधि है जब विकल्प समाप्त हो जाता है तब निर्वितर्क समाधि हैं । इसी को सविचार और निर्विचार कहा जाता है। कभी-कभी निर्वचार समाधि में आनन्द का अनुभव और अहंकार का सम्बन्ध रहता है तब वह आनन्दानुगता समाधि है।

निर्वीज समाधि या कैवल्य अवस्था- प्रकृति के संयोग का आभाव हो जाने पर जब द्रष्टा की अपने स्वरूप में स्थिति हो जाती है, उसे कैवल्य अवस्था कहते हैं।

योगभ्रष्ट साधक- कैवल्य पद की प्राप्ति होने के पहले जिनकी मृत्यु हो गयी, वे योगकुल में जन्म ग्रहण करते है; तब उनको पूर्वजन्म के योगाभ्यास विषयक संस्कारों के प्रभाव से अपने स्वरूप या स्थिति का तत्काल ज्ञान हो जाता है। ऐसे साधक योगभ्रष्ट कहलाते है।

सिद्धि क्या है - किसी भी साधन में प्रवृत्त होने का और अविचल भाव से उसमें लगे रहने का मूल कारण श्रद्धा (भक्तिपूर्वक विश्वास) ही है। ‘‘श्रद्वावीर्यस्मृतिसमाधिप्रज्ञापूर्वक:’। श्रद्वा, वीर्य, स्मृति, समाधि और प्रज्ञापूर्वक, (क्रम) से सिद्धि प्राप्त होती है।’

श्रद्वा एवं वीर्य- इन दोनों का संयोग मिलने पर साधक की स्मरण शक्ति बलवली हो जाती है। उसमें योगसाधन के संस्कारों का ही बारम्बार प्राकट्य होता रहता है। अत: उसका मन विषयों से विरक्त होकर समाहित हो जाता है; इसी को समाधि कहते हैं। इसमें अन्तकरण के स्वच्छ हो जाने पर साधक की बुद्वि ‘ऋतम्भरा’ सत्य को धारण करने वाली हो जाती है।

‘श्रद्वावान लभते ज्ञानं तत्पर: संयतेन्द्रिय:।

ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिभचिरेणधिगच्छति’।। (4/39,गीता)

सिद्धि प्राप्त करने हेतु योगी को अभ्यास और वैराग्य में तीव्रता लानी होती है। अभ्यास और वैराग्य का जो क्रियात्मक बाह्य स्वरूप है वह ‘वेग’ नाम से जाना जाता है। ‘ईश्वर प्राणिधनाद्धा’। ईश्वर प्राणिधान में भी (निर्वीज समाधि की सिद्धिशीघ्र्र प्राप्ति होती है)।  

यहाँ एक प्रश्न आता है, क्या ईश्वर प्रसन्न होता है ? तो फिर वह ब्रह्म कैसे होगा ? 

13-ईश्वर कौन है -

‘क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्ट: पुरुषविशेष ईश्वर:’। क्लेश, कर्म, विपाक और आशय से जो (अपरामृष्ठ) है, असम्बद्व है, वह ईश्वर है। ईश्वर ज्ञान वैर यश, ऐश्वर्य की पराकाष्ठा है। क्या ईश्वर इस कारण से मिलता है ? ‘नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुनाश्रुतेन।’(मुण्ड.) ईश्वर स्वयं अनादि है क्योंकि वह सब के आदि है (योग,10-2-3) वह कालातीत है। उसका वाचक ‘प्रणव’ है। ‘तस्य वाचक: प्रणव:’ (प्रणव ऊँकार है) (प्रश्नोपनिषद में पाँचवे प्रश्नोत्तर में और माण्डूक्योपनिषद में ऊँकार की उपासना का विषय विस्तार से है) ऊँ, परमेश्वर का वेदोक्त नाम है (गीता-17-23, कठो.1/2/15-17) साधक को ईश्वर के नाम का जप और उसके स्वरूप का स्मरण चिन्तन करना चाहिए। महर्षि शाण्डिल्य ने कहा है- ‘‘सा परानुरक्त्रिीश्वरे’’। देवर्षि नारद ने भक्तिसूत्र में कहा है- ‘सात्वस्मिन परमप्रेमरूपा च’। अर्थात उस परमेश्वर में अतिशय प्रेमरूपता ही भक्ति है। यह अमृत स्वरूपा है-‘अमृतस्वरूपा च’। ईश्वर की भक्ति में आयु, रूप आदि का कोई अर्थ नही होता है-

‘‘व्याधस्याचरणं धुवस्य च वयो विद्या गजेन्दस्य का 

 का जातिर्विदुरस्य यादवपतेरुप्रस्य किं पौरषम्।

कुव्जाया: कामनीरूपमधिकं किं तत्सुदाम्नो धनं

भक्त्या तुश्यति केवलं न च गुणैर्भक्ति प्रियो माधव:।।

श्रीमद्भागवत में प्रहलाद ने कहा है-

‘श्रवणं कीर्तनं विष्णों: स्मरणं् पादसेवनम।

अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम’।।(7/5/23)

इस भक्ति, नाम जप से विघ्नों का अभाव (अन्तरायाभाव:) होता है तथा अन्तरात्मा के स्वरूप का ज्ञान (प्रत्यच्केतनाधिगम) होता है। योग साधना में लगे हुए साधक के चित्त में विक्षेप उत्पन्न करने के लिये उसे साधना से विचलित करने के लिये योगमार्ग में नौ प्रकार के बिघ्न आते हैं-(1) व्यधि- शरीर, इन्द्रियों और चित्त में विकार (रोग) पैदा करना या हो जाना, (2) स्त्यान- अकर्मण्यता, साधन में प्रवृति न होना, (3) संशय- फल में सन्देेह, (4) प्रमाद- योग साधना में (बे-परवाह), (5) आलस्य- चित्त और शरीर में भारीपन, (6) अविरति- इन्दियों में आसक्ति एवं वैराग्य का अभाव, (7) अलब्धभूमिकत्व-साधना करने पर भी योगभूमि की अप्राप्ति,   (8 ) भ्रान्तिदर्शन- मिथ्याज्ञान हो जाना, (9)  अनवस्थितत्व- चित की एकाग्रता न होना। इसके साथ ही दूसरे अन्य पाँच विघ्न भी हैं- दु:ख, दौर्मनस्य, अंगमेजयत्व, श्वांस और प्रश्वांस ।

(अ) दु:ख- आध्यात्मिक, आधिभौतिक, आधिदैविक। 

आध्यात्मिक - काम, क्रोधादि के कारण व्याधि अथवा इन्द्रियों के कारण जो शरीर में ताप या पीड़ा होती है उसे आध्यात्मिक दु:ख कहते हैं। 

आधिभैतिक- मनुष्य,पशु, पक्षी, सिंह, व्याघ्र, मच्छर और अन्यान्य जीवों के कारण होने वाली पीड़ा का नाम ‘अधिभौतिक दु:ख’ है। 

आधिदैविक- सर्दी, गर्मी, वर्षा, भूकम्प आदि दैवी घटना से होनेवाली पीड़ा का नाम ‘आधिदैविक’ दु:ख है।

(ब) दौर्मनस्य- इच्छा की पूर्ति न होने के कारण मन में क्षेाभ होता है उसे ‘दौर्मनस्य’ कहते हैं।

(स) अंगमेजयत्व- शरीर के अंगों में कम्प होना ‘अंगमेेेेेेजयत्व’ है।

(द) श्वांस- बिना इच्छा के बाहर की वायु का शरीर के भीतर प्रवेश करना ।

(इ) प्रश्वांस- बिना इच्छा के भीतर की वायु का बाहर निकलना।

इसे दूर करने के लिये ‘एकातव्ताभ्यास’ करना चाहिए। जिससे चित्त शुद्ध होता है। 

(1) एकातव्ताभ्यास- इसके अन्तर्गत सुख, दुख, पुण्य-पाप, जिनके विषय है उन्हें चित्त के राग, द्वेष, घृणा, ईष्या, क्रोध और मलों का नाशकर चित्त को शुद्ध करना चाहिए। यह अभ्यास से होता है।

 (2) प्राणायाम -प्राणवायु को शरीर से बाहर निकालना तथा रोकना। रेचक, पूरक, कुम्भक  का यथा साध्य नियमानुसार अभ्यास करना। इससे साधक को विषयों का अनुभव कराने वाली विषयवती प्रवृति (योग-3-36) जगती है और योगमार्ग में उत्साह बढ़ जाता है। अभ्यास के साधक की स्थिति ‘विशोका’ वा ‘ज्योतिश्मती’ की बन जाती है। जिस व्यक्ति के राग-द्वेष सर्वथा नष्ट हा जाते हैं वह विरक्त होता जाता है। कभी-कभी स्वप्न और निद्रा के ज्ञान भी इसमें सहायक होते है। क्योंकि चित्त से यदि राग-द्वेष हट गया है तो चित्त और इन्दियों में सत्वगुणों की बृद्धि होती है। इसके लिये जिसका जिसमें मन लगे, चित स्थिर हो उसी को ध्यान में लाकर अभ्यास करना चाहिए।

वशीकार- साधक को अभ्यास से प्राप्ति ऐसी स्थिति जिसमें साधक अपने चित्त को सूक्ष्म से सूक्ष्म और बड़े से बड़े पदार्थ पर स्थित कर लेता है। इसे ही सम्प्रज्ञात समाधि कहते हैं।

सम्प्राज्ञात समाधि दो प्रकार की होती है-(1) सवितर्का (2) निविर्तका

(1) सवितर्का- पदार्थ दो प्रकार के होतेे हैं -सूक्ष्म और स्थूल। इनमें से स्थूल को भी लक्ष्य बनाकर साधक उसके स्वरूप को जानने को चित्त में धारणा करता है तो पहले अनुभव में सका नाम, रूप और ज्ञान आता है जो विकल्पों का मिश्रण होता है। इस समाधि को सवितर्क समाधि कहते है। 

निर्वितर्का- स्मृति के भलीभांति लुप्त हो जाने पर रूप, नाम, ज्ञान शून्य हो जाता है केवल ध्येय मात्र के स्वरूप को प्रत्यक्ष करने की चित्त की स्थिति निर्वितर्का समाधि है। इसमें शब्द और प्रतीत का कोई विकल्प नहीं रहता। अत: इसे ‘निर्विकल्प’ समाधि भी कहते हैं।

इसी प्रकार सूक्ष्म ध्येय पदार्थों से सम्बन्ध रखने वाली समाधि के भी दो भेद हैं-

(1) सविचार समाधि- नाम, रूप, ज्ञान के विकल्पों से मिला हुआ जो अनुभव होता है, वह स्थिति सविचार समाधि है।

(2) निर्विचार समाधि- जब चित्त के जिन स्वरूप का भी विस्मरण हो जाय तथा मात्र ध्येय का अनुभव हो निर्विकार समाधि कहलाती है।

सूक्ष्म ध्येय पदार्थ क्या हैं- पृथ्वी का सूक्ष्म विषय गंध तन्मात्रा, जल का रस तन्मात्रा, तेज का रूप, वायु का स्पर्ष, आकाश का शब्द। इनके सूक्ष्म विषय और मन सहित इन्द्रियों का सूक्ष्म विषय अहंकार, अहंकार का महतत्व, और महतत्व का सूक्ष्म विषय कारण प्रकृति है। 

‘‘ता एव सबीज: समाधि:’’। निर्वितर्क और निर्विचार समाधियाँ निर्विकल्प होने पर भी निर्बीज नही है। ये सब सबीज समाधि है। अत: कैवल्य अवस्था नही है। निर्विचार समाधि में ऋतम्भरा की स्थिति हो जाती है।

श्रुतिबुद्धि- वेद-शास्त्रों में किसी वस्तु का स्वरूप का वर्णन सुनने से जो तद्विषयक निश्चित होता है उसे श्रुतिबुद्धि कहते है।

अनुभव बुद्वि- जो अनुमान / प्रभाव से जिस स्वरूप का अनुभव होता है।

ऋतम्भरा- श्रुति और अनुभव दोनों के शून्य होने पर बुद्वि ऋतम्भरा होती है।

कर्माषय- मनुष्य जिस किसी वस्तु को अनुभव करता है, जो भी क्रिया करता है उन सब के संस्कार अन्त:करण में संग्रह होते हैं, ये ही मनुष्य को संस्कार चक्र में भटकाते हैं, इसके नाश से ही मनुष्य मुक्ति लाभ कर सकता है। ऋतम्भरा बुद्वि के प्रकट होने पर साधक को प्रकृति के यथार्थ रूप का भान हो जाता है तब उसे वैराग्य होता है।

‘‘तस्यापि निरोधे सर्वनिरोधान्निर्बीज: समाधि:।’’

कैवल्य अवस्था- जब ऋतम्भरा (सत्य) के प्रज्ञाजनित संस्कार से अभाव होता है तथा समस्त आसक्ति समाप्त हो जाती है, तब संस्कार के बीज का आभाव हो जाता है। इस अवस्था को कैवल्य-अवस्था कहते हैं। जब तक दर्शन (ज्ञान) शक्ति से मनुष्य इस प्रकृति के नाना रूपों को देखता रहता है, तब तक तो भोगों को भोगता रहता है। जब इनके दर्शन से विरक्त होकर अपने स्वरूप को झाँकता है तब स्वरूप दर्शन हो जाता है (योग 3.35) फिर संयोग  की  आवश्यकता न रहने से उसका अभाव हो जाता है। यही पुरुष की कैवल्य अवस्था है। (3.34)

विवेक ज्ञान- प्रकृति तथा उसके कार्य- बुद्धि, अहंकार, इन्द्रियाँ और शरीर इन सब के यथार्थ स्वरूप् का ज्ञान हो जाने से तथा आत्मा इनसे सर्वथा भिन्न ओर असंग है, आत्मा का इनके साथ कोई सम्बध नहीं है, इस प्रकार पुरुष के स्वरूप का अलग-अलग यथार्थ ज्ञान होता है, इसी का नाम विवेकज्ञान है। (योग 3.34) उस समय चित्त विवेकज्ञान में निमग्न और केवल्य के अभिमुख रहता है। यह ज्ञान जब समाधि की निर्मज्जता-स्वच्छता  होने पर पूर्ण और निश्चल हो जाता है, तब वह अविप्लव  विवेक ज्ञान कहलाता है। यही मुक्ति का उपाय है। उसके बाद चित्त अपने आश्रय रूप महत्व आदि के सहित अपने कारण में विलीन हो जाता है तथा प्रकृति का जो स्वाभाविक परिणाम क्रम है, वह उसके लिये बंद हो जाता है। (योग3.34) 

प्रज्ञा क्या है- जब निर्मल और अचल विवेक ख्याति के द्वारा  योगी के  चित्त का आवरण और मल सर्वथा नष्ट हो जाता है (योग 4.31) तब सात प्रकार की उत्कर्ष अवस्था वाली प्रज्ञा (बुद्धि) उत्पन्न होती है। पहली चार प्रकार की कार्य विमुक्ति प्रज्ञा और अन्त की तीन चित्त मुक्त् िकी द्योतक है, अत: चित्तविमुक्ति प्रज्ञा है। 

कार्यविमुक्तिप्रज्ञा यानी कर्तव्यशून्य अवस्था के चार भेद इस प्रकार हैं- (1) ज्ञेयशून्य अवस्था -जो कुछ जानना था जान लिया अर्थात जितना गुणमय दृश्य है वह सब  अनित्य और परिणामी है यह पूर्णतया जान लिया। (2) हेयशून्य अवस्था -जिसका अभाव करना था कर दिया। अब कुछ भी अभाव करने योग्य शेष नही है। (3) प्राप्य प्राप्त  अवस्था- जो कुछ प्राप्त करना था, प्राप्त कर लिया। अब कुछ भी शेष नही। (4) चिकीर्षाशून्य अवस्था- जो कुछ करना था, कर लिया  अब कुछ करना शेष नही। 

चित्तविमुक्तिप्रज्ञा के तीन भेद हैं- (1)चित की कृतार्थता- चित ने अपना अधिकार भाग  और अपवर्ग देना पूरा कर दिया, अब उसका कोई प्रयोजन शेष नहीं रह। (2) गुणलीनता-चित्त अपने कारणरूप गुणों में  लीन हो रहा है क्योंकि अब उसका कोई कार्य शेष नहीं रहा। (3) आत्मस्थिति- पुरुष सर्वथा गुणों से  अतीत होकर अपने स्वरूप में अचल भाव से स्थित हो गया। 

उक्त सात प्रकार की प्रान्तभूमिप्रज्ञा को अनुभव करनवाला योगी कुशल (जीवनमुक्त)कहलाता है अैर चित्त जब अपने कारण में लीन हो जाता है तब भी कुशल (विदेह मुक्त) कहलाता है।

निर्बीज समाधि प्राप्ति करने के उपाय-

क्रियायोग- ‘‘तप:स्वाध्यायेश्वर प्रणिधानानि क्रियायोग:। तप, स्वाध्याय एवं ईश्वर शरणागति ये तीनों क्रियायोग हैं। ये तीनों ही आदि योग के नियम के अन्र्तगत आते हैं। 

(1) तप- वर्ण, आश्रम, परिस्थिति और योग्यता के अनुसार स्वधर्म का पालन करना और उसके करने में शारीरिक, मानसिक कष्ट सहने की समाथ्र्य ‘तप’ है।

(2) स्वाध्याय- अध्ययन (वेद, शास्त्र, महापुरूषों के जीवन चरित्र) तथा ऊँकार आदि किसी नाम का जप ‘स्वाध्याय’ है।

(3) ईश्वर प्रणिधान- ईश्वर के नाम, गुण, लीला, ध्यान, प्रभाव में अपने को पूर्णत: समर्पित कर देना ईश्वर प्रणिधान है। तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान के माध्यम से अर्थात नियमों के पालन अथवा क्रियायोग से हम अपने क्लेशों को नष्ट करते हैं या क्लेशों से मुक्त होते हैं। 

क्लेश क्या है- ‘अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेषा: क्लेषा:’’। अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश ये पाँच क्लेश कहलाते हैं। 

अविद्या जिनका कारण हैं- ‘‘अविद्या क्षेत्रमुत्तरेशां प्रसुप्ततनुविच्छिन्नोद्वाराणाम’।

(1) प्रसुप्त- चित्त में विद्यमान रहते हुए जो क्लेश अपना कार्य नहीं करता, वह प्रसुप्त है, ऐसा कहा जाता है। प्रलय काल और सुषुप्ति अवस्था में चारों क्लेश प्रसुप्त अवस्था में रहते है। 

(2) तनु- क्लेशों में जो कार्य करने की शक्ति है जब उसका योग के साधनों से ह्रास कर दिया जाता है तब वे शक्तिहीन होकर ‘तनु’ अवस्था में रहते हैं।

(3) विच्छिन- जब कोई क्लेश उदार होता है उस समय दूसरा क्लेश दब जाता है, उसे ‘विच्छिन्न’ कहते हैं।

(4) उदार- जिस समय जो क्लेश अपना कार्य कर रहा हो उस समय उसे उदार कहते हैं।

अविद्या क्या है- ‘‘अनित्याशुचिदु:खानात्मसु नित्यशुचि सुखात्मख्यातिरविद्या’। अनित्य, अपवित्र, दु:ख और अनात्मा में नित्य, पवित्र, सुख और आत्मा का आत्मभाव की अनुभूति ‘अविद्या’ है।

अस्मिता क्या है- ‘‘दृगदर्शन शक्त्योरेकात्मतेवास्मिता’’। अविद्या के नाश होने से ‘अस्मिता’ का नाश होता  है। दृकशक्ति अर्थात दृष्टा ‘पुरुष’ और दर्शन शक्ति अर्थात बुद्धि दोनों की एकता का प्रतीत होना अस्मिता है, जबकि यह सम्भव नही। पुरुष चेतन है, बुद्धि जड़ है अत: दोनों की एकता भ्रम है, अविद्या है। इसे अविद्या का नाश कर ‘कैवल्य’ की  स्थिति’ प्राप्त की जा सकती है।

राग क्या है- ‘सुखानुशयी राग:’। सुख की प्रतीत के पीछे रहने वाला क्लेष ‘राग’ है।

द्वेष क्या है- ‘दु:खानुशयी द्वेष’। दु:ख की प्रतीत के पीछे रहने वाला क्लेश ‘द्वेष’ है।

अभिनिवेश क्या है- जो मूढ़ एवं विद्वान दोनों में समान भाव से रहता है ‘अभिनिवेश’ कहलाता है। जैसे -मृत्युभय। 

 उक्त क्लेशों को क्रियायोग के (तप:, स्वाध्याय, शरणागति) के अलावा ध्यान योग से भी दूर किया जाता है। क्लेश की दो वृतियाँ होती हैं- स्थूल और सूक्ष्म। क्रिया योग द्वारा स्थूल वृत्तियों को समाप्त किया जाता है। ध्यान योग द्वारा इन्ही शेष स्थूल वृत्तियों का सूक्ष्म बनाया जाता है। तब निर्बीज समाधि की प्राप्ति होती है। चूकि कर्मों की जड़ पाँच क्लेशों (अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, अभिनिवेश) में है, अत: इनके संचित रहने पर ( कर्माशय में ) बार-बार जन्म होता है। अविद्या आदि के नष्ट होने पर कर्माशय का भी नाश हो जाता है। कर्माशय के संस्कारों को दृश्य और अदृश्य (वर्तमान और भावी) दोनों रूपों में भोगा जाता है। किन्तु इसे अर्थात क्लेशों की स्थूल वृत्तियों को ‘ध्यानहेयास्तदृवत्तय:’ द्वारा सूक्ष्म बना  दिया जाता है।

दु:ख के रूप- परिणाम दु:ख, ताप दु:ख, संस्कार दु:ख, गुणवृत्ति विरोध सब में विद्यमान रहते हैं।

14- दर्शन के चार प्रतिपाद्य विषय हैं- (1) हेय- दु:ख का वास्तविक  स्वरूप क्या है, जो हेय अर्थात त्याज्य है। (2) हेय हेतु- दु:ख कहाँ से उत्पन्न होता है, इसका वास्तविक कारण क्या है, जो हेय अर्थात त्याज्य दु:ख का वास्तविक हेतु है। (3) हान- दु:ख का नितान्त अभाव क्या है, अर्थात ‘हान’ किस अवस्था का नाम है। हानम, हान पुनर्जन्मादि भावी दुखों का अत्यन्त अभाव। (4) हानोपाय- हानोपाय अर्थात नितान्त दु:खनिवृताक साधन क्या है।

कर्म क्या है- कर्म चार प्रकार के माने जाते हैं- पापकर्म, पुण्यकर्म, पाप-पुण्यकर्म युक्त कर्म, पाप-पुण्य रहित कर्म।  (योग,4-7)

विपाक क्या है- कर्म के फल का नाम विपाक कहलाता है। (योग, 2-13)

आशय क्या है- कर्म संस्कार के समुदाय का नाम ‘आशय’ है। 

मुक्त जीव और ईश्वर में अन्तर क्या है- मुक्त जीव का कर्म से पीछे सम्बध था, भले ही वह वर्तमान में कर्मशून्य हो गया हो किन्तु ईश्वर का कभी कर्म से सम्बन्ध नही रहता है। इसीलिए मुक्त जीव ‘पुरुष विशेष’ कहलाता है।

सातिशय- जिससे बढक़र कोई दूसरी वस्तु हो, वह सातिशय है।

निरतिशय- जिससे बढक़र कोई न हो, वह निरतिशय है।

ब्रह्मा क्या गुरु है - सर्ग के आदि में उत्पन्न होने के कारण सब का गुरु ब्रह्म को माना गया है। किन्तु वह काल से अवच्छेद है। (योग, 8-17)

सात्विक गुणों के भेद- ये चार हैं- विशेष, अविशेष, लिंगमात्र और अलिंग। 

(1) विशेष- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश (पँाच स्थूल, पँाच ज्ञानेन्द्रिय, पँाच कर्मेन्द्रिय और मन ये सोलह विशेष) । 

(2) अविशेष- शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध ये पाँच तन्मात्राएं हैं। इन्हें सूक्ष्म महाभूत भी कहते हैं। अहंकार (जो मन और इन्द्रियों का कारण है) जो इन्द्रिय गोचर नही अविशेष है।

(3) लिंगमात्र- उपर्युक्त बाइस तत्वों के कारणभूत जो महतत्व है, उसका नाम बुद्धि है। उसका नाम लिंगमात्र है। (कठ.1.3.10, गीता 13.5)

(4) अलिंग- मूल प्रकृति के तीनों गुणों (सत, रज, तम) की साम्यावस्था तथा महतत्व जिसका  पहला परिणाम (कार्य) है, उपनिषद, गीता जिसे अलिंग कहते हैं। (कठ.1.3.11, गीता 13.5)

 उपर्युक्त चारों सात्वादि गुण हैं। साम्यावस्था को प्राप्त गुणों के स्वरूप की अभिव्यक्ति नहीं होती इसलिए इस प्रकृति को चिन्ह रहित (अव्यक्त) कहते हैं।

15-जीवनमुक्त योगी के लक्षण- विदेहमुक्त / कर्तव्यशून्य अवस्था के चार भेद इस प्रकार हैं-(ज्ञेयशून्य अवस्था) (हेयशून्य अवस्था) (प्राप्य प्राप्त अवस्था) (चिकीर्षाशून्य अवस्था)

चित्तमुक्त विमुक्त प्रज्ञा के तीन भेद हैं- (1) चित्त की कृतार्थता (2) गुणलीनता (3) आत्मस्थिति

संयोग- स्वशक्ति (प्रकृति) और स्वामिशक्ति (पुरुष) इन दोनों के स्वरूप के प्राप्ति का जो कारण है, वह संयोग है।

16-(ग) अष्टांग योग

‘यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टवगांनि।।’

इनमें पाँच वहिरंग हैं जो इस प्रकार हैं-

(1)  यम ‘अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमा:’

(क) अहिंसा - मन, वाणी और शरीर से किसी प्राणी को कभी किसी प्रकार किचिंत मात्र भी दु:ख न देना ‘अहिंसा’ है, परदोषदर्शन का सर्वथा त्याग भी इसी के अन्तर्गत है। अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्याग:। जब योगी का अहिंसा भाव पूर्णतया दृढ़ स्थिर हो जाता है तब  उसके निकटवर्ती हिंसक जीव भी वैरभाव से रहित हो जाते हैं। इतिहास  ग्रन्थों में जहाँ मुनियों के आश्रमों की शोभा का वर्णन आता है, वहाँ वन जीवों में स्वाभाविक वैर का आभाव दिखलाया गया है। यह उन ऋषियों के अहिंसा भाव की प्रतिष्ठा का द्योतक है। (यहाँ कथा देनी है)

(ख) सत्य- सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम’। जो योगी सत्य का पालन करने में पूर्णतया परिकक्व हो जाता है, उसमें किसी प्रकार की कमी नहीं रहती, उस समय वह स्वं कर्तव्य पालन रूप क्रियाओं के फल का आश्रय बन जाता है। जो कर्म किसी ने नहीं किया है, उसका भी फल उसे प्रदान कर देने की शक्ति उस  यागी में आ जाती है, अर्थात जिसको जो वरदान, शाप या आशीर्वाद देता है, वह सत्य हो जाता है। इन्द्रिय और मन से प्रत्यक्ष देखकर, सुनकर या अनुमान करके जैसा अनुभव किया हो, ठीक वैसा ही भाव प्रकट करने के लिये प्रिय और हितकर तथा दूसरे को उद्वेग उत्पन्न करने वाले जो वचन बोले जाते हैं उनका नाम सत्य है । इसी प्रकार कपट और छल रहित व्यवहार का नाम सत्य व्यवहार समझना चाहिये। एक कथा-  

‘‘एक दिन जब श्री रामकृष्ण कलकत्ता में थे, नरेन्द्रनाथ दक्षिणेश्वर आये । कमरे में किसी को न पाकर उनके मन में श्री रामकृष्ण के कांचन त्याग की परीक्षा लेने की इच्छा हुई । इसलिए उन्होंने श्री रामकृष्ण के बिस्तर के नीचे एक रुपया छिपा दिया और पंचवटी में ध्यान करने चले गये। कुछ समय बाद श्री रामकृष्ण लौटे। ज्यों ही उन्होंने बिस्तर का स्पर्श किया, वे पीड़ा से कराहकर पीछे हट गये। जब वे चकित होकर चारों ओर देख रहे थे, तभी नरेन्द्रनाथ भीतर आये और चुपचाप उन्हें देखते रहे। एक सेवक ने बिस्तर को उलट-पलट कर देखा और रुपया खोज निकाला। श्री रामकृष्ण और उनके सेवक दोनों ही आश्चर्य चकित थे। श्री रामकृष्ण कमरे के बाहर चले गये। बाद में जब श्रीरामकृष्ण को पता चला कि नरेन्द्रनाथ ने उनकी परीक्षा ली थी, तब वे बड़े प्रसन्न हुए।’’

वस्तुत: यह इसी सत्य का परिणाम है कि यही श्रीरामकृष्ण विवेकानन्द को कहते हैं कि हाँ हमने ईश्वर को वैसे ही देखा है जैसे तुमको देख रहा हूँ।

(ग) अस्तेय- ‘अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम’’। जब साधक में चोरी का अभाव पूर्णतया प्रतिष्ठित हो जाता है, तब पृथ्वी में जहाँ कहीं भी गुप्त स्थान में पड़े हुए समस्त रत्न उसके सामने प्रकट हो जाते है।  अर्थात उसकी जानकारी में आ जाते हैं। दूसरे के स्वत्व का अपहरण करना, छल से या अन्य किसी उपाय से अन्याय पूर्वक अपना बना लेना ‘स्तेय’ चोरी है, इसमें सरकार की टैक्स की चोरी घूसखोरी भी सम्मिलित है। इन सब प्रकार की चोरियों का अभाव ‘अस्तेय’ है।

(घ) ब्रह््मचर्य- ‘ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां वीर्यालाभ:’। जब साधक में ब्रह््मचर्य की पूर्णतया दृढ़ स्थिति  हो जाती है तब उसके मन, बुद्धि, इन्द्रिय और शरीर में अपूर्व शक्ति का प्रादुर्भाव हो जाता है। साधारण मनुष्य उनकी बराबरी नही कर पाते। मन, वाणी और शरीर से होनवाले सब प्रकार के मैथुनों की सब अवस्थाओं में सदा त्याग करके सब प्रकार से वीर्य की रक्षा करना ‘ब्रह्मचर्य’ हैं ।     ‘‘कर्मणा मनसा वाचा सर्वावस्थासु सर्वदा।

सर्वत्र मैथुनत्यागी ब्रह्मचर्य प्रचक्षते’’।। (गरुण.पूर्व.आचार 238.6) 

अत: साधक को चाहिये कि न तो कामदीपन करनेवाले पदार्थों का सेवन करे, न ऐसे दृष्यों को ही मन में लावे तथा स्त्रियों का और स्त्री साहित्य को पढ़े और न ही ऐसे पुरुषों का संग करे जो स्त्री पर आसक्त हों।

(ड) अपरिग्रह- अपरिग्रहस्थैर्ये जन्मकथन्तासंबोध:। जब योगी में अपरिग्रह का भाव पूर्णतया स्थिर हो जाता है, तब उसे अपना पूर्व और वर्तमान जन्म की सब बातें मालूम हो जाती हैं । यह ज्ञान भी संसार में वैराग्य उत्पन्न करनेवाला और जन्म-मरण से छुटकारा पाने के लिए योगसाधना में प्रवृत करने वाला है। अपने स्वार्थ के लिये ममता पूर्वक धन, सम्पति और भोग-सामग्री का संचय करना ‘परिग्रह’ है, इसके अभाव का नाम अपरिग्रह है।

(2) नियम- ‘‘शौचसंतोषतप:स्वाध्यायेश्वरप्राणिधानानि नियमा:’’।

(क) शौच- जल, मृतिकादि के द्वारा शरीर, वस्त्र और मकान आदि के मल को दूर करना बाहर  की शुुद्वि है, इसके सिवा अपने वर्णाश्रम और योग्यता के अनुसार न्यायपूर्वक धन को और शरीर निर्वाह के लिये आवश्यक अन्न आदि पवित्र वस्तुओं को प्राप्त करके उनके द्वारा शास्त्रानुकूल शुद्ध भोजनादि करना तथा सबके साथ यथा योग्य पवित्र बर्ताव करना यह भी  बाहरी शुद्धि के ही अन्तर्गत है। जप, तप और शुद्ध विचारों के द्वारा एवं मैत्री आदि की भावना से अन्त:करण के राग-द्वेषादि मलों का नाश करना भीतर की पवित्रता है।

(ख) संतोष- कर्तव्य कर्म का पालन करते हुए उसका जो कुछ परिणाम हो तथा प्रारब्ध के अनुसार अपने-आप जो कुछ भी प्राप्त हो एवं जिस अवस्था और परिस्थिति में रहने का संयोग प्राप्त हो जाय, उसी में संतुष्ट रहना और किसी प्रकार की भी कामना या तृष्णा न करना संतोष है।

(ग) तप- वर्ण, आश्रम, परिस्थिति और योग्यता के अनुसार स्वधर्म का पालन करना और उसके करने में शारीरिक, मानसिक कष्ट सहने की समाथ्र्य ‘तप’ है।

(घ) स्वाध्याय- (अध्ययन (वेद, शास्त्र, महापुरूषों के जीवन चरित्र) तथा ऊँकार आदि किसी नाम का जप ‘स्वाध्याय’ है।

(ड) ईश्वर प्राणिधान- - ईश्वर के नाम, गुण, लीला, ध्यान, प्रभाव में अपने को पूर्णत: समर्पित कर देना ईश्वर प्राणिधान है। तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्राणिधान के माध्यम से अर्थात नियमों के पालन अथवा क्रियायोग से हम अपने क्लेशों को नष्ट करते हैं या क्लेशों से मुक्त होते हैं। 

(3) आसन-

(4) प्राणायाम-

(5) प्रत्याहार-

  ‘नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुनाश्रुतेन।’ (मुण्ड.)

सच्चा धर्म वह ध्यान है, जो ईश्वर सान्निध्य कराता है। धर्म व्यक्ति से लेकर समष्टि तक का एक अविभाज्य अंग है। हिन्दू धर्म अपनी उदारता, सहिष्णुता एवं परम्परा के कारण ईसाई और इस्लाम धर्म को आलिंगन करता है। प्रत्येक धर्म का अपना एक दर्शन होता है उसका आधार दार्शनिक पृष्ठभूमि होती है। कभी कभी कालान्तर में उसके आसपास अंधविश्वास, जड़ मान्यताएं और कर्मकाण्ड जुड़ जाते हैं और धर्म का आकर्षण यही जड़ मान्यताएं हो जाती हैं। वेद कहता है- ‘ हम उस परम ब्रह्म को जानें, हम उस ईश्वर का ध्यान करें, हमारी प्राण शक्ति हमें उसकी ओर प्रयोजित करे।’ यही मृत्यु विजय का मंत्र है। 

पश्चिम में सुकरात सबसे पुराना मनोवैज्ञानिक था। जबकि पश्चिम मनोविज्ञान को बीसवीं शदी का विज्ञान कहता है। अंग्रेजी शब्द साइकालोजी ग्रीक भाषा के ‘सुखे’ शब्द से बना है। जिसका अर्थ है ‘आत्मा’। सुकरात को आत्मा की अमरता मानने के कारण विषपान करना पड़ा। आध्यात्मिक विश्लेषण का समालोचन पक्ष भारतीय दर्शन को छ: आधारभूत सिद्धान्तों में प्रतिपादित करता है। भारत का दर्शन व्यावहारिक क्रिया की आधार भूमि है, इसका कार्यक्षेत्र भौतिक धरातल से लेकर उच्च आध्यात्मिक लोक तक फैलता है, जिसके एक अंग को योग कहते हैं। भारत में योग के प्रयोग -हठ (शारीरिक क्रिया), मंत्र (स्वर से सम्बन्ध), लय (मानसिक), राज (मन के परे आध्यात्म की भूमि पर), कर्म (आध्यात्मिकता की प्रारम्भ तैयारी), ध्यान (ध्यान की क्रिया का अवलंबन) और भक्ति (ईश्वर के प्रति प्रेम भाव ) आदि  मनोवैज्ञानिक हैं । 

पश्चिम ने पहले आत्मा खोया फिर मन पश्चात चेतना अब उसके पास एक मात्र एक विशिष्ट प्रकार का व्यवहार बचा है। 

भारतीय दर्शन में परम ब्रह्म अक्षर है - अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभवोऽध्यात्ममुच्यते। भूतभावोद्भवकरो विसर्ग: कर्मसंज्ञित:। (8,3) 

गीता के इस श्लोक के अनुसार गीता दर्शन में ईश्वर के चार भाव हैं- 

1- परमभाव अक्षर, जो ब्रह््म है, 

2- आध्यात्म भाव, जो आत्मा है, 

3- भूतभाव, जो रचनात्मिका कारण है, 

4- विसर्गभाव, जो सृष्टिरूप कार्य है। 

गहरे ध्यान में भावावस्था में व्यक्ति अपने आसपास से कट जाता हैं, जबकि वह कार्य कर रहा होता है तो उसे आसपास का बोध रहता  है।

कठोपनिषद के अनुसार - आत्मा रथी, शरीर रथ, बुद्धि सारथी, मन लगाम, इद्रियाँ घोड़े और पदार्थ मार्ग है। इस प्रकार जीवात्मा द्रष्टा या भोक्ता है। गीता कहती है- 

सहस्त्रयुगपर्यन्तमहृर्यद ब्रह्मणो बिन्दु:। 

रात्रिं युगसहस्त्रन्तां तेऽहोरात्रविदो जना:।

अव्यक्ताद्व्यक्तय: सर्वा प्रभवन्त्यहरागमे।

रान्न्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्त संज्ञके।।

भूतग्राम: स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते।

रान्न्यागमेऽवश: पार्थ  प्रभवन्त्यहरागमे।।

परस्तस्मातु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातन:। 

य: स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति।।

अव्यक्तोऽक्षर  इत्युक्तस्तमाहु: परमां गतिम।

यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्वाम परमं मम।।

(अर्थात)

जो सृष्टा के दिन और रात को समझते हैं, वे बताते हैं कि उनका दिन एक हजार चक्रों का है (चार लाख बत्तीस हजार वर्ष)। जिसका विशेेष परिचय इस प्रकार है-

- इसको संकल्पपाठ के रूप में भी हमारे सामने रखा गया है-

ऊँॅ विष्णुर्विष्णुविष्णु:। ऊँ नम: परमात्मने श्री पुराणपुरुषोत्तमस्य श्रीविष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्याद्य  श्रीब्रह््मणों द्वितीय पराद्र्धे श्री श्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरेऽष्टाविंशतितमें कलियुगे प्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे आर्यावर्ते आर्यावर्तान्तर्गत  ब्रह्मावर्तैकदेशे बौद्धावतारे अमुकनाम संवत्सरे  अमुकायने (उत्तरायणे/दक्षिणायने) महामांगल्यप्रदे मासानां मासोत्तमें  अमुक मासे अमुकपक्षे (शुक्लपक्षे/कृष्णपक्षे) अमुक तिथौ अमुक वासरान्वितायां अमुक नक्षत्रै अमुक राषिस्थिते सूर्ये  अमुकराषिस्थिते चन्द्रे अमुकराषिस्थिते  भौमें अमुकराषिस्थिते बुधे अमुकराषिस्थिते गुरौ अमुकराषिस्थिते शुक्रे अमुकराषिस्थिते शनौ सत्सु शुुभे योगे शुभकरणे एवं गुणविशेष विशिष्टायां शुुभ पुण्यतिथौ सकलशास्त्रश्रुतिस्मृतपुराणोक्त फलप्राप्तिकाम: अमुेकोऽहं ममात्मन: सपुत्रस्त्रीबान्धवस्य श्रीनवदुर्गानुग्रहतो ग्रहकृतिराजकृतसर्वाविधपीड़ानिवृतिपूर्वकं नैरुज्यदीर्घायु: पुष्टिधनधान्यसृद्व्यर्थं सर्वापन्निवृति सर्वाभीष्टफलावाप्ति धर्मार्थकाममोक्षचतुर्विधपुरुषार्थ द्वारा अमुक (राष्ट्र) देवताप्रीत्यर्थं पूजनपूर्वकं संकल्पं (अमुक कर्मं) करिष्ये।

यह संसार हमारा देश हमारी पृथ्वी और हमारी सत्ता बार-बार स्वत: बिलीन होती है। इस अव्यक्त (ब्रह्मी सत्ता) से परे एक अन्य अव्यक्त ब्रह्म है जो शाश्वत है। जो सभी सत्ताओं के विनाश के समय भी रहती है। उसे ही ज्ञान का परम धाम कहते है। वैदिक साहित्य में सत और असत शब्द क्रमश: आध्यात्म और भूतभाव के लिए प्रयुक्त हुए हैं। परम इन दोनों से परे हैं । सत अस्तित्व का धनात्मक पक्ष है और असत ऋणात्मक। जान वुडरक इन दोनों सत्ताओं को स्थिर एवं गतिशील वास्तविकताएं (सत) कहा है। 

परमसत्ता की अवधारणा वेद के साथ चलती हैं। नारदीय सूक्त में अध्याय दस में श्लोक आता है -

नासदासीन्नोसदासीतदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत।

किमावरीव: कुह कस्य शर्मन्नम्भ: किमासीद  गहनं गभीरम।।

तब न वहाँ न असत था और न ही वहाँ सत् था। 

न ही तब रजस था और न उसके परे स्वर्ग था।

क्या आवरण था? -अन्धकार ? किसकी सत्ता थी? -अम्भस् ? 

तब क्या था ? शान्त, गहन, गम्भरीर परम सत्ता!

भूत तथा वर्तमान के महान दार्शनिकों ने अनेक सिद्धांत और दार्शनिक विचारधाराएं दी किन्तु इसका उत्तर किसी के पास नही है। ऋगवेद के नारदीय सूक्त के श्लोक 6, 7 में मनुष्य के इसी पराभव की बात कही गई है। यथा-

को, अद्वा वेद क इह प्रवोचत् कुत आजाता कुत इयं विसृष्टि:।

अर्वाग् देवा अस्य विसर्जनेनाथ को वेद यत आवभूव।। (1,128,6)

इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न।

यो अस्याध्यक्ष: परमे व्योमन्त्सो अंग वेद  यदि वा न वेद।। 

‘कौन जानता है, कौन कह सकता है कि कहाँ से आया?  यह कैसे बना? यह सृष्टि कैसे निर्मित हुई ? इसका कोई आधार है या नहीं ? दूर स्वर्ग में जो इसका नियन्ता है- वही इसको जानता है, अथवा नहीं जानता हो !

मनोविज्ञान की देखने की सामान्यत: दो दृष्टि है- एक मनुष्य को अपनी दृष्टि से देखना।

 2- मनुष्य को उसकी श्रेष्ठतम विकास की सम्भावनाओं के आधार पर देखना।

मुण्डकोपनिषद में कहा है- ‘नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुनाश्रुतेन’ अर्थात आत्मज्ञान केवल तीव्र इच्छा शक्ति से ही प्राप्त किया जा सकता है। इसकी प्राप्ति विश्व चेतना से जुड़े ‘गुरु’ (गुरु: ब्रह्मा गुरु: विष्णु ....) जो गोविन्द है, गोविन्द समान है, गोविन्द से मान्य है (गुरु गोविन्द दोनों खड़े काके लागूं पाय, बलिहारी गुरु आपनों गोविन्द दियो बताय)की कृपा से ही प्राप्त किया जा सकता है। यथा-

‘मंत्र मूलं गुरुर्वाक्यं, पूजा मूलं गुरु:पदम्। ध्यान मूलं गुरु:मूर्ति, मोक्ष मूलं गुरु: कृपा।।’

सामान्यत: मनुष्य की सभी क्रियाएं, शब्द, भावनाएं, वृत्तियाँ व विचार, बाहरी प्रभावों से संचालित  होते हैं। उसमें स्मृतियों व पूर्वानुमानों का ऐसा भण्डार है जिसमें गतिशीलता की शक्ति विद्यमान रहती है। भारतीय दृष्टि यह मानती है कि मनुष्य जो भी करता है, सोचता है वह केवल होता है। अंग्रेजी में मानवीय क्रियाओं को व्यक्त करने वाले निर्वैयक्तिक क्रियारूप न होने से वहाँ की अवधारणानुसार मनुष्य सोचता है, पढ़ता है, क्रिया करता है। किन्तु उनकी इस अधूरे दृष्टिवोध से प्रकृति की क्रिया वाधित नही होती। भारतीय दृष्टि कहती है मनुष्य अपने में न सोचता है, न करता है बल्कि पराभौतिक नियमों से संचालित होता है। 

वस्तुत: ईश्वर व्रह््माण्डीय रचनाश्क्ति का मूल उद्गम है। वह जड़ और चेतन प्रदार्थों का मूल कारण है। वही प्राण है, विज्ञान के शब्द में भौतिक अणु-परमाणु है। आत्मा अंहकार और चेतना के साथ रहती है। अस्तित्व के विभिन्न धरातलों को तीन भागों में बाँटा जा सकता है- 1- शुद्ध सार्वभौम चेतना (जीवनमुक्त महापुरुष व देवता)। 

2- एकता व अनेकता की मिश्रित चेतना (योगी व साधक)।

3- अनेकता  से युक्त  अशुद्ध चेतना (वैयक्तिक अंहकार में जीनेवाले)। 

चेतना के दो रूप सामने आते हैं- वस्तु चेतना, आत्म चेतना। वस्तु चेतना बदलती रहती है किन्तु आत्म चेतना स्थिर रहती है। साधारणतया चेतना बुद्वि है किन्तु चेतना मनुष्य की मानसिक क्रिया से भिन्न होती है। चेतना की चार अवस्थाएं हैं- जाग्रत, सुषुप्ति, स्वप्न तथा समाधि।  सत चेतना हेतु पातंजलि योग दर्शन में कहा है- 

‘‘सत्वपुरुषान्यताख्यातिमात्रस्य सर्वभावाधिष्ठातृत्वं सर्वज्ञातृत्वं च’’ (3-49)

कठोपनिषद में कहा है- ‘उतिष्ठत जाग्रत प्राप्यवरान्निवोधत’। क्षुरस्य धारा निशिता  दुरत्या। दुर्गं पंथस्यकवयो वदन्ति।

आत्मज्ञान के लिये भक्तिमार्ग सम्भवत: सरल एवं निश्चित साधन है- तुलसी ने कहा -‘ऐसो को उदार जगमाही, बिनु सेवा जो द्रवे दीन पर, राम सरिस कोउ नाहीं।’ गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं- ‘सर्वधर्म परितज्यान मामेकम शरणं ब्रज’। अहं त्वाम सर्वपापेभ्यो मा शुच:। मैत्रेयोपनिषद में कहा गया है कि साधक छ: माह में आत्मसाक्षातकार कर सकता है। 

अंग्रेजी कवि शैली लिखता है- ‘मनुष्य के पथहीन अन्त:लोक में/ एक सुन्दर दिव्याकार सिंहासन पर/ पहुचते हैं जो साहसिक विचार/ इसके निकट/ पूजते हैं/ रोमांचयुक्त चरण वंदन करते/ धारते हैं/ इसका जाज्वल्यमान प्रकाश / उनके स्वप्न लोक में घुसकर/ आवेशित करता है उनको चिनगारी जैसा।’ 

सृष्टि की मूल ऊर्जा प्राण शक्ति है । भौतिक एवं मानसिक स्तर पर इसी प्राण का स्पन्दन होता है। सृष्टि रचना के बाद जो शक्ति बचती है उसे शेष (शेष नाग) कहते हैं। यह अवशिष्ट शक्ति सम्पूर्ण संसार को सम्बल देती है तथा जड़ एवं चेतन जीवधारियों का  आधार है। 

दूसरे अर्थ में यह उपनिषदों की भाषा में ‘ऊँ पूर्णमद:, पूर्णमिदं पूर्णात पूर्णंउच्चतै / पूर्णस्य पूर्णमादाय, पूर्णमेवाविशिश्यै:’ है। मण्डूक्योपनिषद में ओंकार की तीन मात्रा अ उ म के द्वारा स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर के अभिमानी विश्व, तैजस और प्राज्ञ का वर्णन करते हुए उनका समष्टि-अभिमानी वैश्वानर, हिरण्यगर्भ एवं ईश्वर के साथ अभेद किया गया है। इनकी अभिव्यक्ति की अवस्थाएं क्रमश: जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति हैं तथा इनके भोग स्थूल, सूक्ष्म और आनन्द हैं। जाग्रत अवस्था में जीव दक्षिण नेत्र में रहता है, स्वप्नावस्था में कण्ठ में और सुषुप्त के समय हृदय में रहता हैं इसी का नाम प्रपंच है।

ऐतरेयोपनिषद में कहा है- ‘स येतमेव सीमानं विदार्यैतया द्वारा प्रापद्यत। सैषा विदृतिर्नाम द्वास्तदेतन्नान्दम।।

इसके अनुसार गर्भस्थ रूप में जीवात्मा सातवें महीने कपाल के बीच तालु से प्रवेश करती है, पहले यह कोमल होता है बाद में कठोर हो जाता है। पश्चात नाडिय़ों के माध्यम से सम्पूर्ण शरीर में फैलता है। शरीर संरचना के बाद प्राण शक्ति मूलाधार चक्र में कुण्डलनीवत सर्प की भांति पड़ी रहती हैं इसे सुषुम्ना नाड़ी के द्वारा मेरुदण्ड के माध्यम से ऊपर लाया जाता है। इसका उध्र्ववेग समाधि में ले जाता है। यद्यति इसमें इन्द्रियों का क्षरण नही होता है इसीलिये समाधि से हम बाहर आते हैं। सहस्त्रधार में समाधि की स्थिति बनती है ।

साधना काल में कुण्डलनी की दो स्थितियाँ अर्थात क्रियाएं बनती हैं। जब कुण्डलिनी उध्र्वगामी होती है तब उसे जाग्रत कहते है। अन्यथा की स्थिति में वह शांत पड़ी रहती है । आत्मसाक्षात्कार साधक की गहन चेष्टा और अनवरत साधना से होता है। इसमें गुरु का भी योगदान होता है। दीक्षा देने के चार प्रकार होते हैं- हस्तदीक्षा, स्पर्शदीक्षा, चक्षुदीक्षा, संकल्प दीक्षा। इनके द्वारा शक्तिपात किया जाता है। जो हमारे षटचक्रों (स्वयंभूलिंग, कंद, कुंडलिनी) मूलाधार (योनिस्थान), स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत , विशुद्ध, आज्ञा (विन्दु, अर्धेन्दु, निरोधिका, नाद, महानाद, शक्ति, स्थापिका, समना, गुह्यचक्र),(सहस्त्रधार) को क्रियाशील करता है और सुषुम्ना के माध्यम से सहस्त्रधार में अमृतवर्षा (आनन्द की प्राप्ति, दिव्य दर्शन, आत्मसाक्षात्कार ) होती है।

डॉ. बुडरक कहते हैं- ज्ञान की संवाहिका सुषुम्ना को जीवित या मृत शरीर में आपरेशन करके भी नही पाया जा सकता है। यह क्रिया वेतार के तार की भांति एक चक्र से दूसरे चक्र में स्वत: स्थापित होती और आगे बढ़ती रहती है। 

सुबालोपनिषद में कहा गया है- ‘स्थानानि, स्थानिभ्यों यच्छति नाड़ी तेषां निबन्धनम’’ ।

साधक आत्मसाक्षात्कार के बाद भी अपनी सामान्य क्रियाएं यथावत करता है। किन्तु आत्मज्ञान की प्राप्ति के बाद एक आत्मोपलब्ध व्यक्ति अन्य लोगों से किस प्रकार भिन्न हो जाता है। कहते हैं जिस प्रकार एक मृगमरीचिका का सम्पूर्ण जल रेगिस्तान की एक बालू को भी नही भिगा सकता उसी प्रकार आत्मज्ञानी को संसार की कोई भी गति प्रभावित नही करती। वह काल परिस्थित और स्थान की सीमा में नही बँधता है। उसे यह बोध हो जाता है कि- ‘मैं यह शरीर नही, बल्कि यह शरीर मेरा है’ गीता में कहा गया है- ‘देहोस्मिनाहं मम् देह इति स्मर’। भगवान कृष्ण कहते हैं- ‘‘कायेन मनसा बुद्धया केवलैरिन्द्रियैरति। योगिन: कर्म कुर्वन्ति संगंत्यक्त्वात्मशुुद्वये। अर्थात आत्मज्ञानी कभी अपने कर्मों का निर्वाह कम नही करता। वह अनाशक्त भाव से कर्म करता रहता है। यहाँ आत्मज्ञानी ज्ञाता और ज्ञेय दोनों की स्थिति में होता है। यह अहमं ब्रह्मास्मि की स्थिति है। रमण महर्षि से डॉ. राजेन्द्र प्रसाद जी पूछते हैं स्वतंत्रता आन्दोलन के बारे में आप कुछ कहेगें ? रमण कहते है- ‘समस्त सभाओं के सम्बोधन, सारे भौतिक प्रयास व सम्पूर्ण संघर्ष महात्मा के एक मौन के सामने फीके है’’ । डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने पूछा गांधी जी के लिए आपका कोई संन्देश । रमण कहते है- ‘‘ जब एक हृदय दूसरे हृदय से बात कर रहा है तब क्या कोई संदेश होगा ? यह कुण्डलनी जागरण या आत्मसाक्षात्कार की फलश्रुति है।

खुद की पहचान पर जोर दें- महात्मा बुद्ध का जीवन साधना और उत्कर्ष की लबी कहानी है। उन्होंने कहा था कि विपत्ति में कभी धैर्य नहीं खोना चाहिए और आवेगों पर काबूे पाने का अभ्यास करना चाहिए। उनके मत में परिस्थितियाँ निरंतर बदलती रहती हैं। कुछ समय बाद विपरीत स्थितियाँ भी अनुकूल और सुखद बन जाती है। उनके मत के अनुसार हर  परिस्थिति में सम्यक ज्ञान, सम्यक दृष्टि  और सम्यक भाव  से विचार करना चाहिए। उन्होंने अतिवाद का विरोध कर ‘मध्यम मार्ग’  पर जोर दिया।  बुद्ध की इस व्यावहारिक नीति के कारण ही बौद्ध धर्म  अनके देशों  में स्थान प्राप्त  कर सका। अक्सर हम  जरा सी  कठिनाई में धैर्य खो देते हैं। बुद्ध ने कहा-ऐसी परिस्थिति में अपने मनोवेगों पर काबू रखना जरूरी है। ऐसी घटना उनके जीवन में भी घटी थी। वे अपने शिष्य आनन्द के साथ वन भ्रमण पर थे। उन्हें प्यास लगी। पास ही एक नहर थी। बुद्ध  ने आनन्द से पानी लाने को कहा। आनन्द पानी लेने गया, लेकिन खाली हाथ लौट कर बोला, ‘भंते, नहर का पानी बहुत गंदा है। किसी दूसरी जगह से पानी ले आऊँ।’ बुद्ध ने कहा, ‘नहीं आनंद, थोड़ी देर ठहरकर उसी नहर से पानी ले आओं।’ आनंद वहाँ दोबारा पहुँचा और देखा कि नहर का पानी निर्मल हो चुका था। आनंद जल लेकर लौट आया। बुद्ध ने मुस्कराते हुए कहा, ‘मनोवेगों पर नियंत्रण से ही सच्चा सुख प्राप्त होता है। वैसे ही जैसे प्रतीक्षा करने पर तुम्हें उसी स्थान से साफ पानी प्राप्त हो गया। उन्होंने कहा, सबसे पहले व्यक्ति अपने आप को पहचाने। उनका मत था, बुराई से घृणा करो, बुरे आदमी से नहीं।’  एक बार किसी गाँव में बहती नदी के किनारे बुद्ध बैठे थे। किनारे पर पत्थरों की भरमार थी। बुद्ध ने विचार किया कि यह छोटी सी नदी अपनी तरलता के कारण कितनों की प्यास  बुझाती है, लेकिन भारी-भरकम  पत्थर एक ही स्थान पर पड़े रहते हैं। और दूसरों के  जीवन में बाधक बनते हैं।  इस घटना की सीख यह है कि दूसरो के रास्ते में रोड़े अटकाने वाले खुद कभी  आगे नहीं बढ़ पाते। परन्तु जो दूसरों को सदभाव और स्नेह देता है, वह स्वयं भी आगे बढ़ जाता है। बुद्ध ऐसे ही विचारों में मग्र थे कि गाँव के कुछ लोग एक स्त्री को गाली देते, उस पर पत्थर फेकते आ रहे थे। वे सभी बुद्ध के पास आये। बुद्ध ने पूछा, ‘इसे क्यों मार रहे हो। ’ लोगों ने कहा, ‘यह गाँव में व्यभाचार फैलाती है।’ बुद्ध ने कहा, कोई बात नही। आप लोग इसके साथ जो भी व्यवहार करना चाहते हो करो। परन्तु मेरी एक शर्त है कि इसके ऊपर वही पत्थर मारे जिसने मनसा, वाचा, कर्मणा कभी पाप नहीं किया हो। सभी कुछ देर शिर नीचे किए मौन खड़े रहे। और फिर मन में पश्चाताप लिए वापस चले  गये।

पाश्चात्य विद्वान और उपनिषद

‘‘ चक्षु सम्पन्न व्यक्ति देखेंगे कि भारत का ब्रह्मज्ञान समस्त  पृथ्वी का धर्म बनने लगा है।  प्रात:कालीन सूर्य की अरुण किरणों से  पूर्वदिशा आलोकित होने लगी है, परन्तु जब वह सूर्य  मध्याह्न गगन में प्रकाशित  होगा, उस सय उसकी दीप्ति से समग्र भूमण्डल  दीप्तिमय हो उठेगा।’’ - रवीन्द्र नाथ टैगोर 

मुगलसम्राट शाहजहाँ का जेष्ठ पुत्र दारा शिकोह औरंगजेब के समान कट्टर नहीं था। उसने हिन्दू और मुसलमानों के बीच समन्वय के लिए विशेष प्रयत्न किये। उसने ‘मज़मा उल-बहरीन’ नाम की एक पुस्तक भी छपवाई। 1640 ई. में जब कश्मीर की यात्रा के दौरान उसे उपनिषदों के बारे में ज्ञात हुआ तो उसने काशी के कुछ विद्वानों को बुलाकर    उपनिषदों का फारसी में अनुवाद कराया।  1657 ई. में यह अनुवाद पूरा हुआ। किन्तु दुर्भाग्य से 1659 ई. में दाराशिकोह औरंगजेब के हाथो मारा गया। अकबर के राजत्व काल (1556-1585 ई.) में भी कुछ उपनिषदों का अनुवाद हुआ था।  सन् 1775 ई.के पहले तक किसी भी पाश्चात्य विद्वान की दृष्टि उपनिषदों पर नहीं पड़ी थी। अयोध्या के नवाब सुराजुद्दौला की राजसभा के फारसी रेजिडेंट श्री एम. गेंटिल (द्व.त्रद्गठ्ठह्लद्बद्यद्य)ने सन् 1775 ई. प्रसिद्ध यात्री और जिन्दावस्ता के प्रसिद्ध आविष्कारक एंक्वेटिल डुपेर्रन (्रठ्ठह्नह्वह्लद्बद्य ष्ठह्वश्चद्गह्म्ह्म्शठ्ठ) को  दाराशिकोह के द्वारा सम्पादित उक्त फारसी अनुवाद की एक पाण्डुलिपि भेजी। एंक्वेटिल डुपेर्रन ने कहीं से एक दुसरी पाण्डुलिपि प्राप्त की और दोनों को मिलाकर फ्रेंच तथा लैटिन भाषा में उस फारसी  अनुवाद का पुन: अनुवाद किया। लैटिन अनुवाद सन् 1801-2 में ‘ओपनखत’ (शह्वश्चठ्ठद्गद्मद्धड्डह्ल) नाम से प्रकाशित हुआ। फ्रेंच अनुवाद नहीं छपा। बाद में प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक शेपेनहावर (्रह्वह्म्ह्लद्धद्गह्म् स्ष्द्धशश्चद्गठ्ठद्धड्डह्वद्गह्म् - सन् 1788 - 1860) ने गम्भीर अध्ययन पश्चात लिखा- ‘मैं समझता हूँ कि उपनिषद् के द्वारा वैदिक साहित्य के  साथ परिचय लाभ होना वर्तमान शताब्दी (सन् 1818) का सबसे अधिक परम लाभ है जो इसके पहले किन्हीं भी शताब्दियों को नहीं मिला। चौदहवीं शताब्दी के ग्रीक साहित्य के अभ्युदय में ग्रीक-साहित्य के पुनरभ्युदय से यूरोपीय साहित्य की जो उन्नति हुई थी, संस्कृत- साहित्य का प्रभाव  उसकी अपेक्षा कम फल उत्पन्न करने वाला नहीं होगा।’ वे उपनिषदों  के बारे में आगे लिखते हैं- 

१. स्नशह्म्द्व द्ग1द्गह्म्4 ह्यद्गठ्ठह्लद्गठ्ठष्द्ग स्रद्गद्गश्च, शह्म्द्बद्दद्बठ्ठड्डद्य ड्डठ्ठस्र ह्यह्वड्ढद्यद्बद्वद्ग ह्लद्धशह्वद्दद्धह्लह्य ड्डह्म्द्बह्यद्ग, ड्डठ्ठस्र ह्लद्धद्ग 2द्धशद्यद्ग द्बह्य श्चद्गह्म्1ड्डस्रद्गस्र ड्ढ4 ड्ड द्धद्बद्दद्ध ड्डठ्ठस्र द्धशद्य4 ड्डठ्ठस्र द्गड्डह्म्ठ्ठद्गह्यह्ल ह्यश्चद्बह्म्द्बह्ल. ज्ढ्ढठ्ठ ह्लद्धद्ग 2द्धशद्यद्ग 2शह्म्द्यस्र ह्लद्धद्गह्म्द्ग द्बह्य ठ्ठश ह्यह्लह्वस्र4, द्ग3ष्द्गश्चह्ल ह्लद्धड्डह्ल  शद्घ ह्लद्धद्ग शह्म्द्बद्दद्बठ्ठड्डद्यह्य, ह्यश ड्ढद्गठ्ठद्गद्घद्बष्द्बड्डद्य ड्डठ्ठस्र ह्यश द्गद्यद्ग1ड्डह्लद्बठ्ठद्द ड्डह्य  ह्लद्धड्डह्ल शद्घ ह्लद्धद्ग ह्रह्वश्चठ्ठद्मद्धड्डह्ल. ढ्ढह्ल द्धड्डह्य ड्ढद्गद्गठ्ठ ह्लद्धद्ग ह्यशद्यड्डष्द्ग शद्घ द्व4 द्यद्बद्घद्ग, द्बह्ल 2द्बद्यद्य ड्ढद्ग ह्लद्धद्ग ह्यशद्यड्डष्द्ग शद्घ द्व4 स्रद्गड्डह्लद्ध. ्रह्वह्म्ह्लद्धद्गह्म् ह्यष्द्धशश्चद्गठ्ठद्धड्डह्वद्गह्म्


आर्थर शेपेनहावर उपनिषद के आधार पर लिखते हैं कि जिस देश में उपनिषदों के  सत्य समूह का प्रचार था, उस देश में ईसाई-धर्म का प्रचार व्यर्थ है -‘ ढ्ढठ्ठ ढ्ढठ्ठस्रद्बड्ड शह्वह्म् ह्म्द्गद्यद्बद्दद्बशठ्ठ 2द्बद्यद्य ठ्ठश2 ड्डठ्ठस्र ठ्ठद्ग1द्गह्म् शद्घ ह्यह्लह्म्द्बद्मद्ग ह्म्शशह्ल. ञ्जद्धद्ग श्चह्म्द्बद्वद्बह्लद्ब1द्ग 2द्बह्यस्रशद्व शद्घ ह्लद्धद्ग द्धह्वद्वड्डठ्ठ ह्म्ड्डष्द्ग 2द्बद्यद्य ठ्ठद्ग1द्गह्म्  ड्ढद्ग श्चह्वह्यद्धद्गस्र ड्डह्यद्बस्रद्ग ड्ढ4 ह्लद्धद्ग द्ग1द्गठ्ठह्लह्य शद्घ त्रड्डद्यद्बद्यद्गद्ग. ह्रठ्ठ ह्लद्धद्ग ष्शठ्ठह्लह्म्ड्डह्म्4, ढ्ढठ्ठस्रद्बड्डठ्ठ 2द्बह्यस्रशद्व 2द्बद्यद्य द्घद्यश2 ड्ढड्डष्द्म ह्वश्चशठ्ठ श्वह्वह्म्शश्चद्ग. ्रठ्ठस्र श्चह्म्शस्रह्वष्द्ग ड्ड ह्लद्धशह्म्शह्वद्दद्ध ष्द्धड्डठ्ठद्दद्ग द्बठ्ठ शह्वह्म् द्मठ्ठश2द्बठ्ठद्द ड्डठ्ठस्र ह्लद्धद्बठ्ठद्मद्बठ्ठद्द.- ्रह्वह्म्ह्लद्धद्गह्म् स्ष्द्धशश्चद्गठ्ठद्धड्डह्वद्गह्म्

 उनकी यह भाविष्यवाणी सिद्ध हुई और स्वामी विवेकानन्द की शिष्या ‘सारा बुल’ ने अपने एक पत्र में लिखा कि ‘जर्मन  का दार्शनिक सम्प्रदाय , इग्लैण्ड के प्राच्य पण्डित और हमारे  अपने देश के एरसन आदि साक्षी दे रहे हैं कि पाश्चात्य विचार आजकल सचमुच ही वेदान्त के  द्वारा अनुप्राणित हैं।’ (ञ्जद्धद्ग त्रद्गह्म्द्वड्डठ्ठ ह्यष्द्धशशद्य, ह्लद्धद्ग द्गठ्ठद्दद्यद्बह्यद्ध ह्रह्म्द्बद्गठ्ठह्लड्डद्यद्बह्यह्लह्य ड्डठ्ठस्र शह्वह्म् श2ठ्ठ श्वद्वद्गह्म्ह्यशठ्ठ ञ्जद्गह्यह्लद्बद्घ4 ह्लद्धद्ग द्घड्डष्ह्ल ह्लद्धड्डह्ल द्बह्ल द्बह्य द्यद्बह्लह्म्ड्डद्यद्य4 ह्लह्म्ह्वद्ग ह्लद्धड्डह्ल ङ्कद्गस्रड्डठ्ठह्लद्बष् ह्लद्धशह्वद्दद्धह्लह्य श्चद्गह्म्1ड्डस्रद्ग ह्लद्धद्ग ङ्खद्गह्यह्लद्गह्म्ठ्ठ ह्लद्धशह्वद्दद्धह्ल शद्घ ह्लशस्रड्ड4. – स्ड्डह्म्ड्ड क्चह्वद्यद्य स्रद्गह्यद्बश्चद्यद्ग शद्घ ह्य2ड्डद्वद्ब 1द्ब1द्गद्मड्डठ्ठड्डठ्ठस्र)

सन् 1844  में  बर्लिन में श्रीशेलिंग (ह्यष्द्धद्गद्यद्यद्बठ्ठद्द) महोदय की उपनिषद सम्बन्धी व्याखान को सुनकर  प्रसिद्ध पण्डित श्री मैक्स मूलर का ध्यान सबसे पहले संस्कृत की ओर आकृष्ट हुआ। 

शोपेनहार ने ‘उन्नीसवीं शताब्दी’ के प्रथम भाग में लिखा है, -  च्द्बह्ल द्बह्य स्रद्गह्यह्लद्बठ्ठद्गस्र ह्यशशठ्ठद्गह्म् शह्म् द्यड्डह्लद्गह्म् ह्लश ड्ढद्गष्शद्वद्ग ह्लद्धद्ग द्घड्डद्बह्लद्ध शद्घ ह्लद्धद्ग श्चद्गशश्चद्यद्ग.ज्- ्रह्वह्म्ह्लद्धद्गह्म् स्ष्द्धशश्चद्गठ्ठद्धड्डह्वद्गह्म्

च्च् श्चद्गह्म्ह्यशठ्ठड्डद्यद्य4 ढ्ढ ह्म्द्दड्डह्म्स्र ह्लद्धद्ग श्चड्डठ्ठद्बह्यड्डस्रह्य ड्डह्य ह्लद्धद्ग द्धद्बद्दद्धद्गह्यह्ल श्चह्म्शस्रह्वष्ह्ल शद्घ ह्लद्धद्ग द्धह्वद्वड्डठ्ठ द्वद्बठ्ठस्र, ह्लद्धद्ग ष्ह्म्4ह्यह्लड्डद्यद्यद्ब5द्गस्र 2द्बह्यस्रशद्व शद्घ स्रद्ब1द्बठ्ठद्गद्य4 द्बद्यद्यह्वद्वद्बठ्ठद्गस्र द्वद्गठ्ठ.ज्ज्- ष्ठह्म्. ्रठ्ठठ्ठद्बद्ग क्चद्गह्यड्डठ्ठह्ल.

शोपेनहार लिखता है- ‘‘सम्पूर्ण विश्व में उपनिषदों के समान जीवन को उँचा उठानेवाला कोई दूसरा अध्ययन का विषय नहीं है। उससे मेरे जीवन को शान्ति मिली है, उन्हीं से  मुझे मृत्यु में भी शान्ति मिलेगी।’’ (ढ्ढठ्ठ ह्लद्धद्ग 2द्धशद्यद्ग 2शह्म्द्यस्र ह्लद्धद्गह्म्द्ग द्बह्य ठ्ठश ह्यह्लह्वस्र4, द्ग3ष्द्गश्चह्ल ह्लद्धड्डह्ल  शद्घ ह्लद्धद्ग शह्म्द्बद्दद्बठ्ठड्डद्यह्य, ह्यश ड्ढद्गठ्ठद्गद्घद्बष्द्बड्डद्य ड्डठ्ठस्र ह्यश द्गद्यद्ग1ड्डह्लद्बठ्ठद्द ड्डह्य  ह्लद्धड्डह्ल शद्घ ह्लद्धद्ग ह्रह्वश्चठ्ठद्मद्धड्डह्ल. ढ्ढह्ल द्धड्डह्य ड्ढद्गद्गठ्ठ ह्लद्धद्ग ह्यशद्यड्डष्द्ग शद्घ द्व4 द्यद्बद्घद्ग, द्बह्ल 2द्बद्यद्य ड्ढद्ग ह्लद्धद्ग ह्यशद्यड्डष्द्ग शद्घ द्व4 स्रद्गड्डह्लद्ध. ्रह्वह्म्ह्लद्धद्गह्म् स्ष्द्धशश्चद्गठ्ठद्धड्डह्वद्गह्म्)

शोपेनहार कहता है- ‘ये सिद्धान्त  ऐसे हैं जो एक प्रकार से अपौरषेय ही हैं। ये जिनके मस्तिष्क की उपज हैं, उन्हें निरे मनुष्य कहना कठिन है।’   (  ्रद्यद्वशह्यह्ल ह्यह्वश्चद्गह्म्द्धह्वद्वड्डठ्ठ ष्शठ्ठष्द्गश्चह्लद्बशठ्ठह्य 2द्धशह्यद्ग शह्म्द्बद्दद्बठ्ठड्डह्लशह्म्ह्य ष्ड्डठ्ठ द्धड्डह्म्स्रद्य4 ड्ढद्ग  ह्यड्डद्बस्र ह्लश ड्ढद्ग द्वद्गह्म्द्ग द्वद्गठ्ठ.- ्रह्वह्म्ह्लद्धद्गह्म् स्ष्द्धशश्चद्गठ्ठद्धड्डह्वद्गह्म्)

शोपेनहार के इन्हीं शब्दों के समर्थन में प्रसिद्ध पश्चिमी विद्धान मैक्स मूलर लिखता है-‘शोपेनहार के इन शब्दों के लिये यदि किसी समर्थन की आवश्यकता हो तो अपने जीवन भर के अध्ययन के आधार पर मैं उनका प्रसन्नतापूर्वक समर्थन करूँगा’ ( ढ्ढद्घ ह्लद्धद्गह्यद्ग 2शह्म्स्रह्य शद्घ स्ष्द्धशश्चद्गठ्ठद्धड्डह्वद्गह्म् ह्म्द्गह्नह्वद्बह्म्द्गस्र ड्डठ्ठ4 ष्शठ्ठद्घद्बह्म्द्वड्डह्लद्बशठ्ठ ढ्ढ 2शह्वद्यस्र 2द्बद्यद्यद्बठ्ठद्दद्य4 द्दद्ब1द्ग द्बह्ल ड्डह्य ड्ड ह्म्द्गह्यह्वद्यह्ल शद्घ द्व4  द्यद्बद्घ-द्यशठ्ठद्द ह्यह्लह्वस्र4. रूड्ड3 द्वशद्यड्डह्म् )

  जर्मनी के प्रसिद्ध विद्वान पाल डायसन ने उपनिषदों को मूल संस्कृत में अध्ययन कर अपनी टीप देते हुए अपनी पुस्तक (श्चद्धद्बद्यशह्यशश्चद्ध4 शद्घ ह्लद्धद्ग श्चड्डठ्ठद्बह्यड्डस्रह्य) में लिखा-‘उपनिषद के भीतर , जो दार्शनिक कल्पना है, वह भारत मेें तो अद्वितीय है ही, सम्भवत: सम्पूर्ण विश्व में अतुलनीय है।’ च्च् श्चद्धद्बद्यशह्यशश्चद्धद्बष्ड्डद्य ष्शठ्ठष्द्गश्चह्लद्बशठ्ठह्य ह्वठ्ठद्गह्नह्वड्डद्यद्यद्गस्र द्बठ्ठ ढ्ढठ्ठस्रद्बड्ड, शह्म् श्चद्गह्म्श्चड्डश्चह्य ड्डठ्ठ42द्धद्गह्म्द्ग द्गद्यह्यद्ग द्बठ्ठ ह्लद्धद्ग 2शह्म्ह्लद्यस्र.- श्चड्डह्वद्य ष्ठद्गह्वह्यह्यद्गठ्ठज्ज्

च्च् श्वह्लद्गह्म्ठ्ठड्डद्य श्चद्धद्बद्यशह्यशश्चद्धद्बष्ड्डद्य ह्लह्म्ह्वह्लद्ध द्धड्डह्य ह्यद्गद्यस्रशद्व द्घशह्वठ्ठस्र द्वशह्म्द्ग स्रद्गष्द्बह्यद्ब1द्ग  ड्डठ्ठस्र ह्यह्लह्म्द्बद्मद्बठ्ठद्द द्ग3श्चह्म्द्गह्यह्यद्बशठ्ठ ह्लद्धड्डठ्ठ द्बठ्ठ ह्लद्धद्ग स्रशष्ह्लह्म्द्बठ्ठद्ग शद्घ ह्लद्धद्ग द्गद्वड्डठ्ठष्द्बश्चड्डह्लद्बठ्ठद्द द्मठ्ठश2द्यद्गस्रद्दद्ग शद्घ ह्लद्धद्ग ्रह्लद्वड्ड. श्चड्डह्वद्य ष्ठद्गह्वह्यह्यद्गठ्ठज्ज्

मैक्डानल कहता है,‘मानवीय चिन्तना के इतिहास में पहले पहल वृहदारण्यक उपनिषद में ही ब्रह्म अथवा पूर्ण तत्व को करके उसकी यर्थाथ व्यंजना हुई है।’

च्च् क्चह्म्ड्डद्धद्वड्डठ्ठ शह्म् ्रड्ढद्यह्यशद्यह्वह्ल द्बह्य द्दह्म्ड्डह्यश्चस्र ड्डठ्ठस्र स्रद्गद्घद्बठ्ठद्बह्लद्गद्य4 द्ग3श्चह्म्द्गह्यह्यद्गस्र द्घशह्म् ह्लद्धद्ग द्घद्बह्म्ह्यह्ल ह्लद्बद्वद्ग द्बठ्ठ ह्लद्धद्ग द्धद्बह्यह्लशह्म्4 शद्घ द्धह्वद्वड्डठ्ठ ह्लद्धशह्वद्दद्धह्ल द्बठ्ठ ह्लद्धद्ग क्चह्म्द्धड्डस्रह्यह्म्ड्डठ्ठ4ह्वड्डद्मस्र श्चड्डठ्ठद्बह्यड्डस्र.  रूड्डष्स्रशठ्ठद्गद्यद्यज्ज्

फ्रांसीसी विद्वान दार्शनिक विक्टर कजिन्स् लिखते हैं,-‘जब हम पूर्व की और उनमें भी शिरोमणिस्वरूपा भारतीय साहित्यिक एवं दार्शनिक महान् कृतियों का अवलोकन करते हैं, तब  हमें  ऐसे अनेक गम्भीर सत्यों का पता चलता है, जिनकी उन निष्कर्षों से तुलना करने पर जहाँ पहुँचकर यूरोपीय प्रतिभा कभी-कभी  रुक गयी है, हमें पूर्व के तत्वज्ञान के आगे घुटना टेक देना चाहिए।’ च्च् 2द्धद्गठ्ठ 2द्ग ह्म्द्गड्डस्र ह्लद्धद्ग श्चशह्लद्बष्ड्डद्य ड्डठ्ठस्र श्चद्धद्बद्यशह्यशश्चद्धद्बष्ड्डद्य द्वशठ्ठह्वद्वद्गठ्ठह्लह्य शद्घ ह्लद्ध श्वड्डह्यह्ल, ड्डड्ढश1द्ग ड्डद्यद्य ह्लद्धशह्यद्ग शद्घ ढ्ढठ्ठस्रद्बड्ड, 2द्ग स्रद्बह्यष्श1द्गह्म् ह्लद्धद्गह्म्द्ग द्वड्डठ्ठ4 ह्लह्म्ह्वह्लद्धह्य ह्यश श्चह्म्शद्घशह्वठ्ठस्र ड्डठ्ठस्र 2द्धद्बष्द्ध द्वड्डद्मद्ग ह्यह्वष्द्ध ड्ड ष्शठ्ठह्लह्म्ड्डह्यह्ल 2द्बह्लद्ध ह्लद्धद्ग ह्म्द्गह्यह्वद्यह्लह्य ड्डह्ल 2द्धद्बष्द्ध ह्लद्धद्ग श्वह्वह्म्शश्चद्गड्डठ्ठ द्दद्गठ्ठद्बह्वह्य द्धड्डह्य ह्यशद्वद्गह्लद्बद्वद्गह्य ह्यह्लशश्चश्चद्गस्र ह्लद्धड्डह्ल 2द्ग ड्डह्म्द्ग ष्शठ्ठह्यह्लह्म्ड्डद्बठ्ठद्गस्र ह्लश ड्ढद्गठ्ठस्र ह्लद्धद्ग द्मठ्ठद्गद्ग ड्ढद्गद्घशह्म्द्ग ह्लद्धद्ग श्चद्धद्बद्यशह्यशश्चद्ध4 शद्घ श्वड्डह्यह्ल.ज्ज्

जर्मनी के एक दूसरे प्रसिद्ध दार्शनिक फ्रेडरिक श्लेगेल लिखते हैं- ‘ पूर्वीय आदर्शवाद के प्रचुर प्रकाशपुंज की तुलना में  यूरोपवासियों का उच्चतम तत्वज्ञान ऐसा ही लगता है, जैसे मध्याह्न सूर्य के व्योमव्यापी प्रताप की पूर्ण प्रखरता में टिमटिमाती और अनलशिखा की कोई आदि किरण, जिसकी अस्थि और निस्तेज ज्योति ऐसी हो रही हो मानो अब बुझी कि  तब।’  च्च् श्व1द्गठ्ठ ह्लद्धद्ग द्यशद्घह्लद्बद्गह्यह्ल श्चद्धद्बद्यशह्यशश्चद्ध4 शद्घ ह्लद्धद्ग श्वह्वह्म्शश्चद्गड्डठ्ठह्य ड्डश्चश्चद्गड्डह्म्ह्य द्बठ्ठ ष्शद्वश्चड्डह्म्द्बह्यशठ्ठ 2द्बह्लद्ध ह्लद्धद्ग ड्डड्ढह्वठ्ठस्रड्डठ्ठह्ल द्यद्बद्दद्धह्ल शद्घ शह्म्द्बद्गठ्ठह्लड्डद्य द्बस्रद्गड्डद्यद्बह्यद्व द्यद्बद्मद्ग ड्ड द्घद्गद्गड्ढद्यद्ग श्चह्म्शद्वद्गह्लद्धद्गड्डठ्ठ ह्यश्चड्डह्म्द्म द्बठ्ठ ह्लद्धद्ग  द्घह्वद्यद्य द्घद्यशशस्र शद्घ ह्लद्धद्ग द्धद्गड्ड1द्गठ्ठद्य4 द्दद्यशह्म्4 शद्घ ह्लद्धद्ग ठ्ठशशठ्ठस्रड्ड4 ह्यह्वठ्ठ द्घड्डद्यह्लद्गह्म्द्बठ्ठद्द ड्डठ्ठस्र द्घद्गद्गड्ढद्यद्ग ड्डठ्ठ4 द्ग1द्गह्म् ह्म्द्गड्डस्र4 ह्लश ड्ढद्ग द्ग3ह्लद्बठ्ठद्दह्वद्बह्यद्धद्गस्र. - फ्रेडरिक श्लेगेल ज्ज्


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मानस पूजा हो या मंदिर की पूजा अथवा जप सभी का प्रकटीकरण पूजा स्थल के बाहर व्यवहारिक जीवन में होना चाहिए। -लेखक

तथाकथित स्वर्ग में तुम्हारे पूर्वज अर्थात परमात्मा जितना पूर्ण है उतना ही पूर्ण तुम भी है। अन्तर केवल अनुभूति का है । - लेखक

मनुष्य जीवन की चरितार्थता उसके कर्म पर आधृत होती है। जहाँ तुलसी का बिरबा अपने सम्पूर्ण वायु मण्डल को प्रदूषण मुक्त करता है वहीं बरगद का पेड़ अपनी छाया में किसी भी वनस्पति को पनपने नहीं देता।ज्-लेखक

कहाँ तो वटवृक्ष प्रचीनता की धरोहर माना जाता है किन्तु उसकी छत्र-छाया में जीवन के आकाँक्षी पादपों को काल का ग्रास ही बनना पड़ता है। -लेखक

मनुष्य को महानता की ओर बढऩा चाहिए। पुष्प अपने पराग भँवरों को सन्ध्या के आगमन तक सम्पूर्णता के साथ पान करने देता है। हमें भी अपने जीवन को उसके संध्याकाल तक परोपकार में लगाए रख्नना चाहिए।- लेखक


मनुष्य को अपने अन्दर सुरभि के लिए उस कमल  की भाँति अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियों को मन में, मन को अहंकार में, अहंकार को चेतना के सम्पुट में वैसे ही बन्द कर लेना चाहिये जैसे कमल सन्ध्या होते ही अपने सम्पुट बन्द कर प्रभात होने तक अपनी ऊर्जा के संचय के लिए निशा के आगोश में बन्द कर देता है।- लेखक

अनुक्रमणिका

१.  भारतीय वांग्मय  में आध्यात्मिकता और जीवन दर्शन

२.  वेद, उपनिषद, दर्शन तथा प्रस्थान त्रयी का सार

३.  ब्रह्म के स्वरूप का बोध

४.  ब्रह्म के स्वरूप का बोध  या साक्षात्कार का मार्ग

५.  साधाना के चरण कुण्डलनी जागरण

६.  साक्षात्कार की विभिन्न अनुभूतियाँ

७.  आनन्दावस्था

भारतीय वांग्मय में आध्यात्मिकता और जीवन दृष्टि की तलाश प्रचीनकाल से चली आ रही है। इसे इस प्रकार भी कह सकते हैं कि जीवन की दृष्टि स्थापना के साथ भारतीय वांग्मय भी स्थापित होता गया। भारतीय वांग्मय इतिहास की धरोहर हैं और वर्तमान का जीवन दृश्य जो प्राचीन बिम्ब के साथ हमारे सामने खड़ा होता है। भारतीय वांग्मय की एक विशेषता यह भी है कि वह इतिहास शब्द को सार्थक करता चलता है। इतिहास दो शब्दों च्इतिज् और च्हासज् से बना है। च्इतिज् का अर्थ होता है च्गतिज् और च्हासज् का अर्थ होता है च्उल्लासज्। अर्थात जो बांग्मय लोकजीवन में च्गति और उल्लासज् दोनों प्रदान करता है वही कालजयी हो जाता है। हमारे वेद, उपनिषद कालजयी हैं। पुराण अपनी प्राचीनता को लिए जब नवीनता के  साथ जुडक़र जीवन में च्गति और उल्लासज् भरते हैं तभी उनकी सार्थकता बढ़ती है। भारतीय वांग्मय को देखने समझने की इसी इतिहास दृष्टि ने उसे नित्य-नूतन और चिरपुरातन बना के रखा है। आज बांग्मय-दर्शन  धीरे-धीरे भारत की इसी प्राचीन दृष्टि की ओर बढ़ रहा है।

भारतीय परंपरा में वांग्मय को समझने का प्रयत्न च्अहमज् और च्इदमज् के रूप में  होता है । संस्कृत के ये दोनों शब्द व्यष्टि और समष्टि के सूचक हैं। इनके अन्दर मित्र-शत्रु, सद-असद के समन्वय का प्रयत्न होता है। यह एकता की दृष्टि व्यक्ति से समष्टि तक की है। यह ऋगवेद का च्संगच्छध्वं संवदध्वमज् रूप में विश्व को देखने का महामंत्र है। यही मंत्र हमारे च्स्वज् का  आधार है। हम समान रूप से तन-मन की भूख मिटाने को प्रयत्नशील रहते हैं। यह च्स्वज् हमारे आचार विचार, भाषा-भूषा, के माध्यम से परिवार,समाज से होता हुआ राष्ट्र तक पहुँचता है। मनुष्य अनजाने ही निष्ठाओं का पुंज है। इनको हम राष्ट्र-निष्ठा, मनुष्य-निष्ठा, श्रम-निष्ठा, समय-निष्ठा तथा सत्य-निष्ठा के रूप में जानते हैं।

च्राष्टज् का शाब्दिक अर्थ है रातियों का संगम-स्थल और राति शब्द च्देनज् का पर्यायवाची है।  भूमि और जन की संयुक्त इकाई राष्ट्र है क्योंकि यह जन अपनी भूमि के लिए अपनी च्रातिज् देन राष्ट्रभूमि के चरणों में समर्पित करता है। जो च्रातिज् से इस राष्ट्र को वंचित करता है वही राष्ट्रद्रोही है। 

च्समयज् के तीन अर्थ हैं। सेकेण्ड, मिनट,घण्टा आदि कालावधियों के अनन्त प्रवाह के रूप में जो च्समयज् व्यक्ति को जीवन काल के रूप में मिला है उसके प्रत्येक क्षण का सदुपयोग करना तथा निश्चित कार्य करने की आदत एक समय-निष्ठा है। समय का दूसरा अर्थ है च्करारज् शर्त या वचनदान। इसके अनुसार हमने जो च्करारज् किया है उसकी पवित्रता की रक्षा करते हुए उसको पूर्णता से निभाने के लिए तत्पर रहना ही दूसरी समय-निष्ठा है। समय का तीसरा अर्थ है-परम्परा, जैसा कि च्कवि-समयज् की उक्ति में प्रकट होता है। इस अर्थ में समय निष्ठा को परम्परा में अन्ध-विश्वास का पर्यायवाची मानना भूल होगी। अन्धविश्वास, सत्य-निष्ठा के विरुद्ध है जिसका उल्लेख स्थायी सत्य एवं तात्कालिक सत्य के रूप में किया जा चुका है। परम्परावाचक समय निष्ठा रखने का अभिप्राय यह है कि हम उसकी पवित्रता  में विश्वास रखें और उसको छोडऩे के लिए तभी तैयार हों जब वह सत्य-निष्ठा अथवा अन्य निष्ठाओं की विरोधी सिद्ध हो जाय। इस पंच निष्ठा में सत्य का अनुसंधान, शिवं का अनुकरण तथा सुन्दरं का दर्शन का प्रयास समाविष्ट है। 

वेद

वेदों में गो सेवा का एक अपना परिवेश है। प्राचीन काल में जो सिक्के चलाए गये उन पर गाय का चित्र बना मिलता है और जिन्हें पुरातत्ववेत्ताओं ने च्आहत मुद्राओंज् (पंच काक्र्ड क्वाइंस) की श्रेणी में रखा है। ऋगवेद में जब इंद्र (प्रतिमा) को कुछ गायों से खरीदने की बात कही गई तो संभवत:  इन्हीं गो-चिति सिक्कों से अभिप्राय था।  वैदिक परम्परा की आख्यायिका में जहाँ सहस्त्रों या लाखों गायें को दान में देने का प्रसंग आता है, वहाँ भी इनको च्गोज् नामक मुद्राओं के अर्थ में ग्रहण करना अधिक संगत लगता है।

  गुजरात और राजस्थान के गुर्जर-समाज को गोनिष्ठ भावभूमि प्रदान करने वाली गोजाति उसके लिए एक पशुजाति मात्र नहीं थी। वैदिक साहित्य में ही वशा, विराज् आदि नाम से गो एक अद्भुत शक्ति है, जो नाना प्रकार की सृष्टि का कारण तथा शस्य, दुग्ध, तेजस्स आदि विभिन्न वस्तुओं का दोहन करने वाली है। ज्योति, गति और ज्ञान की प्रतीक गो वेद में एक रहस्यमयी शक्ति है, जिसके गुहा में छिपे हुए च्नामज् की अज्ञेयता का उल्लेख बार-बार होता है। इस गो का एक नाम  च्गोपाज् है द्योतमानामनीषा शक्ति का। एक शक्तिमान है जिसको यह पराशक्ति नाना रूपों, में प्रकट करती है।

संस्कृत च्गोज् शब्द च्गायज् और च्गोपुत्रज् (वृषभ) दोनों के लिए प्रयुक्त हो सकने के कारण, पुराणों ने गाय को धरती माता का प्रतीक बनाया और गोपुत्र को शक्तिमान् शिव का वाहन। इस प्रकार च्माता भूमि: पुत्रोऽहं पृथिव्या:ज् का षोष  करता हुआ इस राष्ट्र का पृथ्विी-पुत्र भी शक्तिमान शिव की वाहक शक्ति है। धरती माता के रूप में गो शक्ति धन-धान्य प्रदात्री अन्नपूर्णा है और पापियों एवं राक्षसों से आक्रान्त अपने पुत्रों के दु:ख-दर्द को विष्णु भगवान से निवेदन करने के लिए भी जाती है। परंतु पृथिवी-पुत्र के रूप में वह अगतिमय शक्तिमान् को गति प्रदान करने वाला गो-पुत्र नन्दी है, जो अन्याय एवं अत्याचार के विरुद्ध युद्ध का दृश्य भी उपस्थित करा सकता है और समृद्धि एवं योगक्षेम के लिए कल्याणी शान्ति-व्यवस्था का वातावरण भी। इसी नान्दी को शक्ति के रूप में ही तो वसिष्ठ की च्नन्दिनीज् की उस परिकल्पना को जन्म मिला, जिसमें असंख्य सैन्य सहित विश्वामित्र का आतिथ्य करने की भी क्षमता थी और उसको पराजित करने वाले भयंकर युद्ध रचवाने की भी। 

च्एकलिंगज् वह निष्ठा है जो धरती माता और नान्दी-वाहन का आराध्य है। यह शक्तिमान  की कल्पना है। यह राजपुत्रा आदिति की वैदिक शक्ति के साथ ही शक्तिमान की कल्पना की गई। उपनषिदों ने उसके अद्वैत रूप को च्राजाज् की संज्ञा दी और उसे साम्राज्य, स्वराज तथा विराज् नामक विविध रूपों में व्यक्त होता देखा। इसको माण्डूक्य उपनिषद् ने तुरीय, सुषिप्ति, स्वप्र एवं जाग्रत अवस्थाओं का ओंकार बताया तथा श्री सूक्त ने इसी बात को च्ओंकार चतुर्भुजज् कहकर दुहराया। कहने की आवश्यकता नहीं कि यही चतुर्भज ओंकार विष्णु भगवान की चतुर्भजी विग्रह का अधार बना। जिसने मध्ययुगीन भगवान राम और कृष्ण की भक्ति-धाराओं से समाज को सराबोर कर दिया। 

इसके पूर्व भी शैव संप्रदायों की दृष्टि से इसी शक्तिमान के अद्वैत रूप को एकलिंग कहा गया, तो शक्ति के अग्रितत्व की दृष्टि से इसकी संज्ञा महाकाल तथा भैरवनाथ हुई, साम-तत्व के संदर्भ में उसे सोमनाथ नाम ग्रहण किया तो सूर्य-तत्व की दृष्टि से उसे सूर्यनारायण अथवा ब्रह््मा कह कर धर्मचक्र  को संबद्ध कर दिया गया। 

अपने अद्वैत रूप में वह रिनंकार, निरंजन, निर्गुण, अलख, अक्षर आदि  कहलाकर निर्गुण-भक्ति के केन्द्र बिन्दु बना और अन्य रूपों में उसने राम, कृष्ण, शिव, भैरव आदि के अनेक मंदिरों एवं स्थानों में भक्ति की धारा प्रवाहित की। 

  इसी प्रकार दीपावली और दशहरा में जिस देवी की शक्ति तत्व की पूजा  होती है चाहे वह शक्ति पीठों में हो या मंदिरों में अथवा घरों में वह ऋगवेद की च्राजपुत्रा अदितिज् से माना जा सकता है जो राजपूती शौर्य का प्रतीक भी है। च्राजपूत्राज् देवी एक ऐसे वैदिक सम्प्रदाय का आधार है जो राजपूत के रूप में हमारे सामने आया। च्राजपूत्राज् शक्ति के तीन तत्व हैं जिहें वेद में अग्रि, सोम और इन्द्र तथा आग में अग्रि, चन्द्र तथा सूर्य नाम भी दिया गया है। ये तीनों तत्व ज्योतिर्मय हैं, परंतु इनकी अपनी-अपनी विशेषता है। अग्रि का काम है जलाना, चन्द्र का शीतल प्रकाश देना तथा सूर्य को इन दोनों का कार्य करना पड़ता है- चलाना और जिलाना भी, क्योंकि सूर्य न केवल अनेक यक्षमिद कीटाणुओं का विनाशक है अपितु जीवनदायिनी ऊष्मा एवं जलवृष्टि के लिए भी उत्तरदायी है। इन्हीें तीनों शक्ति तत्वों की पृथक-पृथक विशेषता को अपनाकर उक्त क्षत्रिय जातियाँ भी अपने को अग्रिवंशी, चन्द्रवंशी अथवा सूर्यवंशी कहने लगी।  

सीमान्त-रक्षक  क्षत्रिय  आक्रमक शत्रु  के अभिमुख जाने के लिए सर्वदा प्रस्तुत के होने से ऋगवेद  की भाषा में च्अभ्यावर्तीज् (चायमान) भी कहा। 

अग्निवंशी- चारों सीमान्तों का प्रहरी होने से इसी को यज्ञाग्रि से आविर्भूत चतुर्भुज चाहमान या चौहान कहकर एक रूपक खड़ा किया गया, क्योंकि उसका कार्य अग्रि के समान ही जलाना मात्र था। 

  चन्द्रवंशी - जो क्षत्रिय राहत-कार्य, सेवा-कार्य या उत्पाद कार्य में लगा हुआ है वह केवल शीतल ज्योति का स्रोत का स्रोत होने के कारण चन्द्रवंशी कहलाया।

सूर्यवंशी- शान्ति-व्यवस्था में लगा क्षत्रिय, समाज-विरोधी तत्वों का विनाश एवं जीवन-तन्तुओं का विकास करने से जिलाने तथा जिलानेवाला सूर्य-वंशी हुआ। 

विष्णु - जिष्णु अर्थात  एक रूपांतर जिष्णु अथवा वीर  की उस पूजा में देखा जा सकता है।च्वीरज्- जिसने गुजरात और राजस्थान के जन-मानस को युगों तक प्रभावित किया है। बाहरी और भीतरी शत्रुओं पर विजय के लिए प्रयत्नशील मानव च्वीरज् कहलाता है।  वह अनेक मोर्चे पर काम, क्रोध, अभाव, आपूर्ति, द्वेष मत्सर आदि से एक साथ जूझने के कारण च्बहुवीरज् है। परंतु जब वह विजयी हो ता है तो ऋगवेद की भाषा में ऐसे च्एकवीरज् अथवा च्जिष्णुज् प्राकृत में च्जिनज् होकर जैन धर्म का आधारभूत अरिहन्त या तीर्थकर का नाम हो गया और फिर पूर्व से पश्चिम की ओर यात्रा करता हुआ, तथापकर्ष को ग्रहण करे ईरानी परंपरा के च्जिन्नज् तथा योरोप के च्जिनिआईज् नामक दिव्य-शक्ति-संपन्न प्रेत शक्तियों का नामकरण करने मे ससमर्थ हुआ। इस अभिव्यक्ति की एक धारा काम, क्रोधादि कषायों पर विजय प्राप्त करने वाले जिनेश्वर च्वीरज् की है तो दूसरी धर्मयुद्ध को स्वग्रखर समझने वाले जुझारू च्वीरज् की। प्रथम धारा ने जहाँ श्वेतांबर एवं दिगम्बर संप्रदायों को जन्म दिया, वहीं दूसरी धारा ने लड़ाकू राजपूत,भीज लाट आदि शक्ति-पूजा के साज खड़ा  किए। दोनों ही धारएं जन-मानस में अभय का संचार करके मानव को च्वीरपुत्रज् अथवा च्वीरज् बनने के लिए प्रोत्साहित करती हैं। यह च्जिनज् आध्यात्मिक और भौतिक दोनों क्षेत्रों में अद्भूत समन्वय के साथ प्राप्त होता है। 

स्वामी विवेकानन्द का भाषण सार- वेदान्त से-

१. जब मनुष्य भूत और भविष्य की चिन्ता का-उसका क्या होगा, इस चिन्ता का-त्याग कर देता है, जब वह देह को सीमाबद्ध और इसलिए उत्पत्ति विनाशशील जानकर देहाभिमान का त्याग कर देता है, तब वह एक उच्चतर आदर्श में पहुँच जाता है, देह भी आत्मा नहीं, मन भी आत्मा नहीं। 

२. शरीर और मन सतत परिवर्तनशील हैं। मानों एक नदी के समान हैं, जिसका प्रत्येक जल-परमाणु सतत चलायमान है, फिर भी वह नदी सदा एक अपच्छिन्न प्रवाह-सी दिखती है। इस देह का प्रत्येक परमाणु सतत परिणामशील है। यह मन का एक संस्कार है कि हम इसे एक ही शरीर समझते हैं, मन के सम्बन्ध में भी यही बात है। 

३. मृत्यु भय कब जीता जा सकता है? जब व्यक्ति यह समझ ले कि जब तक जगत् में एक भी जीवन शेष है, तब तक वह भी जीवित है। तभी वह कह सकता है कि च्मैं सब वस्तुओं में, सब देहों में, सब प्राणियों में वर्तमान हूँ, मैं ही सब जगत् में हँू, सम्पूर्ण जगत् ही मेरा शरीर है। जब तक एक भी परमाणु शेष है, तब तक मेरी मृत्यु कहाँ ?

४. धर्म, ईश्वर परलोक सम्बन्धी ये सब धारणाएं कहाँ से आयी ? मनुष्य, ईश्वर-ईश्वर, करता क्यों घूमता फिरता है? सभी देशों में, सभी समाजों में मनुष्य क्यों पूर्ण आदर्श का अन्वेषण करता फिरता है ? इसलिए कि वह भाव तुम्हारे भीतर ही वर्तमान है। वह थी तुम्हारे हृदय की धडक़न और तुम उसे नहीं जानते थे, तुम सोचते थे कि बाहर इसकी कोई वस्तु यह ध्वनि कर रही है। तुम्हारी आत्मा में विराजमान ईश्वर ही तुम्हें अपना अनुशंधान करने को-अपनी उपलिब्ध करने को प्रेरित कर रहा है। यहाँ, वहाँ, मन्दिर में, गिरजाघर में, स्वर्ग में, मत्र्य में, विभिन्न स्थानों में, अनेक उपायों से अन्वेषण करने के बाद अन्त में हमने जहाँ से आरम्भ किया था, वहीं अर्थात अपनी आत्मा में ही हम एक चक्कर पूरा करके वापस आ जाते हैं और देखते हैं कि जिसकी हम समस्त जगत में खोज करते फिर रहे थे, जिसके लिए हमने मन्दिरों और गिरजों में जा-जा कातर होकर प्रार्थनाएं कीं, आँसू बहाये, जिसको हम सुदूर आकाश में मेघ राशि के पीछे छिपा हुआ अव्यक्त और रहस्यमय समझते रहे, वह हमारे निकट से भी निकट है, प्राणों का प्राण है, हमारा शरीर है, हमारी आत्मा है- तुम्हीं च्मैंज् हो, मैं ही च्तुमज् हो। यही तुम्हारा स्वरूप है- इसी को अभिव्यक्त करो।ज् मनुष्य का सारा इतिहास यही है।

५. अब एक प्रश्न? इसका उपयोग क्या है? इसका फल क्या है और इसका लाभ क्या है? सभी लोग सुख की खोज में हैं। हम सुख को नश्वर और मिथ्या वस्तुओं में खोजते हैं। अतएव आत्मा में इस सुख की प्राप्ति ही मनुष्य का सबसे बड़ा  प्रयोजन है। और एक बात यह है कि अज्ञान ही सब दु:खों की महान जननी है और मूलभूत अज्ञान तो यही है कि जो अनन्तस्वरूप है, वह अपने को शान्त मानकर रोता है, चिल्लाता है, समस्त अज्ञान का आधार यही है कि हम अविनाशी, नित्य शुद्ध पूर्ण आत्मा होते हुए भी सोचते हैं कि छोटे-छोटे मन हैं, हम छोटी-छोटी देह मात्र हैं, यही समस्त स्वार्थ परता की जननी है। ज्यों ही मैं अपने को एक क्षुद्र देह समझ बैठ जाते हैं, यहीं मैं संसार के अन्यान्य शरीरों के सु:ख-दु:ख की कोई परवाह न करते हुए अपने शरीर की रक्षा में, उसे सुन्दर बनाने के प्रयत्न में लग जाता हूँ। उस समय मैं तुमसे पृथक हो जाता हूँ। आत्मा के अतिरिक्त जो कुछ भी ज्ञान अर्जित किया जाता है, वह सब आग में घी डालने के समान है उससे दूसरों के लिए प्राण उत्सर्ग कर देेनें की बात तो दूर रही, स्वार्थ पर लोगों को दूसरों की चीजों को हर लेने के लिए, दूसरों के रक्त पर फलने-फूलने के लिए एक और यंत्र-एक और सुविधा मिल जाती है। 

६. एक प्रश्र और- क्या यह व्यावहारिक है? वर्तमान समाज में क्या इसे कार्य रूप में परिणत किया जा सकता है? इसका उत्तर यह है कि च्सत्य, प्राचीन अथवा आधुनिक किसी समाज का सम्मान नहीं करता। समाज को ही सत्य का सम्मान करना पड़ेगा, अन्यथा समाज नष्ट हो जायगा।ज् समाज को सत्य के अनुरूप ढाला जाना चाहिए, सत्य को समाज के अनुसार अपने को ढालना नहीं पड़ता। सम्राट और साधु की कथा, सिपाही और विद्रोही मुस्लिम सैनिकों की कथा। अपने च्स्वज् की पहचान। शेर और भेडिय़े की कथा। आत्मा की पहचान है।

७. च्मंैज् क्या है? क्या यह शरीर है? यदि ऐसा होता तो बालक के मूछ आने पर उसका च्अहंज् नष्ट हो जाता। इसी तरह स्मरण से भी व्यक्तित्व का सम्बन्ध नहीं है। बचपन के पहले दो तीन वर्षों का हमें स्मरण नहीं है और यदि स्मृति और अस्तित्व एक है, तो फिर कहना पड़ेगा कि इन दो-तीन वर्षों में मेरा अस्तित्व नहीं था।


भारत के प्रमुख दर्शन

१. न्याय दर्शन - ऋषि गौतम। चार प्रमाण हैं- प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान एवं शब्द। च्न्याय सूत्रज्। न्याय दर्शन में शरीर, इन्दियाँ, चित्त, प्रवृत्ति, बुद्धि, दोष, दु:ख, फल आदि शामिल हैं। कणाद ऋषि द्वारा प्रवर्तित वैशेषिक दर्शन और गौतम मुनि प्रवर्तित न्याय दर्शन के सिद्धान्त एक जैसे हैं। न्याय दर्शन एक प्रकार से वैशेषिक सिद्धान्त की ही विस्तृत व्याख्या है या माना जाना चाहिए कि इन दोनों दर्शनों में एक ही फिलासफी है जिसका पूर्वांग वैशेषिक है और उत्तरांग न्याय। इन दोनों दर्शनकारों का ठीक-ठीक समय निश्चय करना अति कठिन है; किन्तु इतना तय है कि ये दोनों कपिल और पतञ्जलि के पीछे हुए हैं; तथा व्यास और जैमिनी  से पूर्व हुए हैं।

२. सांख्य दर्शन- कपिल मुनि। प्रकृति और पुरुष दो तत्व की मान्यता। पुरुष चेतन है, वह शरीर, मन व इन्द्रिय से भिन्न है। पुरुष प्रकृति के परिणामों का उपभोग करता है। पुरुष और प्रकृति के संयोग से सृष्टि निर्माण होती है।

३. योग दर्शन - महर्षि पतंजलि। ध्यान और समाधि मुक्ति के साधन। अष्टांग-योग:-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि। आत्मा शरीर, मन, बुद्धि आदि से ऊपर है जिसके कारण वह पाप पुण्य, सु:ख, दु:ख आदि से भी ऊपर है।


४. वैशेषिक दर्शन- वैशेषिक दर्शन के प्रर्वतक कणाद ऋषि हैं। गांधार देश में सुप्रसिद्ध तक्षशिला के पास एक यक्षशिला नामक नगरी थी। वह क्रमू नदी के किनारे बसी थी। यक्षशिला में कश्यप नाम का एक ब्राह्मण रहता था। पत्नी का नाम सुलक्षणा था। वह औषधि की जानकार थी। उनके चार पुत्र थे। क्रांतिभान सबसे छोटा था। एक बार यक्षशिला में काफी बाढ़ आई और विनाश लीला के कोपभाजन बने कश्यप अपनी पत्नी सुलक्षणा और बेटों को लेकर सरस्वती नदी के किनारे-किनारे प्रभास पट्टण पहुँच गए। वहीं सोमव्रत शर्मा के गुरुकुल में बालक काश्यप की शिक्षा-दीक्षा हुई।  कुछ दिनों के बाद लगभग आठ-नौ वर्ष की उम्र में उसके माता का निधन हो गया। वह अपनी माँ से बहुत प्यार करता था। वह आश्रम छोडक़र घर आता है किन्तु कुछ दिन बाद सोमव्रत उसे पुन: आश्रम ले जाते हैं। पिता विवाह करना चाहते हैं किन्तु वह मना कर देता है। पिता की मृत्यु के बाद वह जंगल की राह पकड़ता है। उसकी खाने-पीने के स्वाद में कोई रुचि नहीं रही। भाभी के नमक विहीन भोजन देने पर भी वह स्वाद से खाता था। भाभी के पूछने पर की आज तो भोजन हमने जानबूझकर अस्वाद बनाया था, वह कोई उत्तर नहीं देता।  विश्व का कणात्मक स्वरूप विशद करने के कारण उनका नाम कणाद पड़ा। कणाद का पहला नाम क्रांतिभान था जो बाद में काश्यप तथा कणाद के नाम से प्रसिद्ध हुआ। परमाणुवाद इनकी सबसे बड़ी देन। इनका मत है कि धर्म के दो प्रकार हैं- सामान्य धर्म और विशेष धर्म। सामान्य धर्म में- श्राद्ध, अहिंसा, सत्यवचन, ब्रह्मचर्य, पवित्र दव्य सेवन, भाव शुद्धि, प्राणहित साधन, विशेष देवता की सिद्धि आदि आते हैं। विशेष धर्म में - चार वर्ण और चार आश्रमों का पालन।

उनका प्रमुश दर्शन ग्रंथ वैशेषिक है। उसमें दस अध्याय तथा तीन सौ सत्तर सूत्र हैं। एक-एक सूत्र में महान अर्थ भरा है। प्रथम अध्याय का पहला सूत्र- च्अथतो धर्म व्याख्यास्याम:ज् अर्थात अब हम धर्म का विवेचन विश£ेषण करेंगे। इस अध्याय में ग्रंथ के हेतु को  बताया गया है। 

इसका दूसरा सूत्र च्यतोऽभ्युदय नि:श्रेयससिद्धि सधर्म:।ज् जो ऐहिक और पारलौकिक प्रगति कराता है, उसे धर्म कहते हैं। दूसरे अध्याय में- दूसरे अध्ययाय में विश्व के मूलभत पदार्थों का विवरण है। प्रत्येक पदार्थ अनेक पदार्थों के संयोग से बनता है। एक रूप में अनेक रूप होते हैं और अनेक रूप पुन: एक रूप हो जाते हैं। च्कारणाभावात् कार्याभाव:।ज् अर्थात हर कारण के पीछे कोई न कोई कारण अवश्य रहता है। इसके साथ ही इस अध्याय में पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश के गुणों का वर्णन है। तीसरे अध्याय में- आत्मा और मन पर विचार किया गया है। इन्द्रियों द्वारा मिलने वाले सुख दु:ख का वर्णन है। इसी में वेद के अर्थ को भी समझाया गया है तथा यह भी स्पष्ट किया गया है कि आत्मा एक है। चौथे अध्याय में- नित्य अनित्य की चर्चा करते हुए बताया गया है कि नित्य पदार्थ के कारण नहीं रहते किन्तु अनित्य पदार्थ के पीछे कारण रहते हैं। हर इन्द्रिय का अपना कार्य है। विश्व में असंख्य परमाणु तैरते रहते हैं और उनके संयोग से विभिन्न पदार्थ बनते बिगड़ते रहते हैं। ईश्वर एक है। पाँचवे अध्याय में- कर्म पर चर्चा है। आत्मा को हर कर्म का प्रेरणा स्थान माना गया है। छठे अध्याय में- ज्ञान, त्याग, अहिंसा आदि सद्गुणों की चर्चा है। इसके एक सूत्र में कहा गया है  च्नित्यं परिण्डलम्।ज् अर्थात परमाणु नित्य है। सातवें अध्याय में- कार्यगुण और कारण गुणों की चर्चा है। महत् परिमाण दृष्टिगोचर हैं किन्तु अणुपरिमाण अगोचर हैं। यहाँ हर वस्तु एक दूसरे बड़ी भी है और छोटी भी। जैसे खस के दाने से राई का दाना।  आठवे अध्याय में- यह बताने का प्रयत्न है कि विशेषणों के द्वारा ही हमें किसी वस्तु के गुणों का पता चलता है। कर्म और गुण असंख्यात हैं। विशेष ज्ञान से विशिष्ट बुद्धि उत्पन्न होती है। भाषा और जिह्वा, तेज और आँखें, वायु और त्वचा इनके सम्बन्धों को समानाधिकार कहते हैं। नवम् अध्याय में- इसमें कार्य निर्मित को पूर्व अभाव का प्राग्भाव कहा गया है। आत्मा और मन इन दोनों के संयोग को आत्मसाक्षात्कार कहा गया है। अनुमान को एक ज्ञानसाधन बताया गया है। प्रत्यक्ष और अनुमान से ही संस्कार बनते हैं और संस्कारों से ही स्मृति बनती है। इन्द्रिय दोष तथा संस्कार दोषों से अविद्या बनती है। इस प्रकार इस अध्याय में आत्मा कार्य, कारण योग, विरोध समवाय, मन, संस्कार, स्वप्र, धर्म आदि विषयों को सम्बन्ध में बताया गया है। दशम अध्याय में- इष्ट, अनिष्ट, कारण भेद, सुख, दु:ख इत्यादि विषयों का विवेचन है। वेदों की मान्यता बताई गयी है। जहाँ अन्य दर्शनों में मूल तत्वों की संख्या चौबीस मानते हैं वहीं कणाद इन्हें पच्चीस मानते हैं।

५. मीमांसा दर्शन- जैमिनी ऋषि। कर्म की प्रधानता। वेदों के प्रति अटूट श्रद्धा। संसार में जितने जीव उतनी आत्माएँ हैं। आत्मा अविनाशी है। सृष्टि अनादि और अनंत है।

६. वेदांत दर्शन- वादरायण व्यास। आत्मा परमात्मा का अंश है। सब कुछ ब्रह्म ही ब्रह्म है। गौड़पाद ने अद्वैत वेदांत की प्रतिष्ठा की। शंकराचार्य ने वेदान्त का विशद विवेचन किया


प्रस्थान त्रयी

१. प्रस्थान त्रयी- उपनिषद, गीता तथा ब्रह्म-सूत्र को मिलाकर प्रस्थान त्रयी कहा जाता है। 

उपनिषद सार -सनातन वैदिक धर्म के ज्ञानकाण्ड को उपनिषद् कहते हैं। सहस्त्रों वर्ष पूर्व भारतवर्ष में जीव-जगत तथा तत्सम्बन्धी अन्य विषयों पर गम्भीर चिन्तन के माध्यम से उनकी जो मीमांसा की गयी थी, उपनिषदों में उन्हीं का संकलन है।

१-श्रीमद्भगवतगीता - रुशह्म्स्र ्यह्म्द्बह्यद्धठ्ठड्ड ह्यश्चशद्मद्ग ह्लद्धद्ग क्चद्धड्डद्दड्ड1ड्डस्र-त्रद्बह्लड्ड शठ्ठ ह्लद्धद्ग ड्ढड्डह्लह्लद्यद्गद्घद्बद्गद्यस्र शद्घ ्यह्वह्म्ह्वद्मह्यद्गह्लह्म्ड्ड द्बठ्ठ ३१०२ क्च.ष्ट.; द्भह्वह्यह्ल श्चह्म्द्बशह्म् ह्लश ह्लद्धद्ग ष्शद्वद्वद्गठ्ठष्द्गद्वद्गठ्ठह्ल शद्घ ह्लद्धद्ग रूड्डद्धड्डड्ढद्धड्डह्म्ड्डह्लड्ड 2ड्डह्म्. ञ्जद्धद्बह्य स्रड्डह्लद्ग ष्शह्म्ह्म्द्गह्यश्चशठ्ठस्रह्य ह्लश १७०० 4द्गड्डह्म्ह्य ड्ढद्गद्घशह्म्द्ग रूशह्यद्गह्य, २५०० 4द्गड्डह्म्ह्य ड्ढद्गद्घशह्म्द्ग क्चह्वस्रस्रद्धड्ड, ३००० 4द्गड्डह्म्ह्य ड्ढद्गद्घशह्म्द्ग छ्वद्गह्यह्वह्य ड्डठ्ठस्र ३८०० 4द्गड्डह्म्ह्य ड्ढद्गद्घशह्म्द्ग रूशद्धड्डद्वद्वद्गस्र. स्श द्घद्बह्म्ह्यह्ल ड्डठ्ठस्र द्घशह्म्द्गद्वशह्यह्ल द्बह्ल ह्यद्धशह्वद्यस्र ड्ढद्ग ष्द्यद्गड्डह्म्द्य4 ह्वठ्ठस्रद्गह्म्ह्यह्लशशस्र ह्लद्धड्डह्ल ह्लद्धद्ग द्गह्लद्गह्म्ठ्ठड्डद्य द्मठ्ठश2द्यद्गस्रद्दद्ग शद्घ ह्लद्धद्ग क्चद्धड्डद्दड्ड1ड्डस्र-त्रद्बह्लड्ड द्धड्डह्य ठ्ठशह्ल ड्ढद्गद्गठ्ठ द्बठ्ठद्घद्यह्वद्गठ्ठष्द्गस्र ड्ढ4 क्चह्वस्रस्रद्धद्बह्यद्व, ष्टद्धह्म्द्बह्यह्लद्बड्डठ्ठद्बह्ल4, ॥द्गड्ढह्म्द्ग2द्बह्यद्व शह्म् ढ्ढह्यद्यड्डद्व; द्घशह्म् ह्लद्धद्गह्यद्ग ह्म्द्गद्यद्बद्दद्बशठ्ठह्य स्रद्बस्र ठ्ठशह्ल द्ग3द्बह्यह्ल ड्डह्ल ह्लद्धड्डह्ल ह्लद्बद्वद्ग ड्डठ्ठस्र 2द्गह्म्द्ग द्गह्यह्लड्डड्ढद्यद्बह्यद्धद्गस्र द्वद्बद्यद्यद्गठ्ठद्बह्वद्वह्य द्यड्डह्लद्गह्म्. 


  भारतीय आध्यात्मिक वांग्ड्मय का सर्वोपरि सर्वमान्य ग्रंथ है। इसे ब्रह््मविद्या उपनिषद कहा जाता है। यह योगशास्त्र तथा नीतिशास्त्र भी है। श्रीकृष्ण ने गीता में बड़े ही युक्तिपूर्वक आध्यात्मिक जीवन की कला का प्रतिपादन किया। एक ओर उन्होंने अर्जुन को उपदेश दिया- च्सर्वधर्मान परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रजज् और दूसरी ओर पूरी स्वाधीनता देते हुए कहते हैं च्विमृष्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरुज्। इस प्रकार गीता आध्यात्मिक सिद्धांतों का प्रतिपादन करते हुए आध्यात्मिक और भौतिक दोनों प्रकार के समन्वित जीवन जीने का उपदेश देती है। हाँ यहाँ एक बात अवश्य स्पष्ट कर लेना चाहिए कि गीता को भगवान ने गाया है किन्तु उसे छंदबद्ध महामुनि व्यास जी ने ही किया। अर्जुन और कृष्ण के संवाद को जब हम यह कहते हैं कि कृष्ण ने गीता गायी तो उसका अर्थ केवल इतना ही है कि वह एक भावपूर्ण अवस्था में किया गया अत्यन्त निर्मल और सुमधुर प्रवोधन था। जिस पर व्यास जी ने अपनी लेखनी चलाई। तभी तो कहा जाता है-

नमोऽस्तु ते व्यास विशालबुद्धे

        फुल्लारविन्दायतपत्रनेत्र।

येन त्वया भारत तैलपूर्ण:

        प्रज्वालितो ज्ञानमय: प्रदीप:।। 

च्-हे खिले हुए कमलदल के समान नेत्र वाले, विशाल-बुद्धि व्यास जी। आपको नमस्कार, जो आपने महाभारत रूपी तैल लेकर ज्ञानमय प्रदीप प्रज्वलित कर दिया।ज्

गीता पर आचार्य शंकर से लेकर रामानुज, मधुसूदन सरस्वती आदि प्राचीन आचार्यों ने भाष्य-टीकाएं आदि लिखी हैं। आधुनिक काल में भी श्री तिलक, श्री अरविंद, महात्मागांधी, डॉ. राधाकृष्णन आदि मनीषियों ने भी अपने विचार लिपिबद्ध किये है। स्वामी विवेकानंद ने गीता पर व्याख्यान दिये है। इस प्रकार हम देखते हैं कि गीता एक ऐसा उपनिषद है जिस पर सभी मनीषियों ने चिंतन किया तथा उसे समाजोपयोगी बनाने के लिए सरल से सरल टीकाएं लिखी। स्वामी अडग़ड़ानंद ने भी गीता पर अपने सरल सुबोध विचार रखे। गीता केवल आध्यात्मिक व्याख्या के रूप में हमारे सामने नहीं आयी बल्कि उसकी वैज्ञानिक व्याख्या भी की गई है। जिसमें विज्ञान, नैतिकता, तथा आध्यात्म का सुंदर समन्वय है।

गीता के बारे में कहा गया -

         पार्थाय प्रतिबोधितां भगवता नारायणेन स्वयं।

       व्यासेन ग्रथितां पुराणमुनिना मध्ये महाभारतम।।

       अद्वैतामृतवर्षिणीं भगवतीम् अष्टादशाध्यायिनीम।

       अम्ब त्वामनुसन्दधामि भगवद्गीते भवद्वेषिणीम।।

          सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनन्दन:।

        पार्थो वत्स: सुधीर्भोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत।।

अर्थात पार्थ अर्जुन को प्रतिबोधित करने के लिए साक्षात् स्वयं भगवान् ने जिसको प्रकट किया, जिसे पुराणमुनि व्यास ने श्लोकबद्ध कर महाभारत के बीच ग्रंथित किया, जो अठारह अध्यायों वाली और अद्वैतामृत की वर्षा करती है, जो भवरोग को दूर करनेवाली भगवती है, ऐसी हे भगवद्गीते, मैं तुझ पर ध्यान करता हूूँ। समस्त उपनिषद् गाय हैं, उनके दुहने वाले गोपाल नंदन हैं, पार्थ अर्जुन बछड़ा है और गीता अमृतरूप इस दूध का पान करने वाले सुधीजन हैं।ज् इस तरह गीता का विषय ब्रह्मजीव का अद्वैत या एकत्व ही है। उपनिषद शब्द संस्कृत में स्त्रीलिंग में चलता है, इसीलिए उसके विशेषण में च्भगवद्गीतज् न कह च्भगवद्गीताज् कहा है। अर्थात गीत का मतलब जो गाई गयी हो। 

इसलिए यहाँ गीता की चर्चा के साथ अन्य उपनिषदों को भी उद्धृत करते चलेगें। गीता पर सुंदर रूपक और उपमा का उपयोग किया गया हैं-


   भीष्मद्रोणतटा जयद्रथजला

             गंाधारनीलोत्पला।

     शल्यग्राह्वती कृपेण वहनी।

              कर्णेन वेलाकुला।

    अश्वत्थामाविकर्णघोरमकरा

                दुर्योधनावर्तिनी।

     सोतीर्णा खलु पाण्डवै: रणनदी

            कैवतर्क: केशव:।१

                         पाराशर्यवच: सरोजममलं 

                            गीतार्थगन्धोत्कटम

           नानाख्यानककेसरं 

हरिकथासम्बोधनाबोधितम।

लोके सज्जनषट्पदैरहरह: पेपीयमानं   मुदा।

भूयद्भारतपंकजं कलिमलप्रध्वंसिन: श्रेयसे।। २


गीता स्वतंत्र भारत में न्यायपालिका में हिन्दुओं के सपथ का मान्य ग्रंथ है। यद्यपि यह कोई बहुत उचित मूल्यांकन नहीं है कि एक ओर गीता तो दूसरी ओर बाइबल या कुरान से कसम खाई जाय। किन्तु एक बात इससे मान्य होती है कि गीता को धर्म का ग्रंथ संवैधानिक रूप से माना जाता है। वस्तुत: गीता इससे बहुत ऊपर है किन्तु यही गीता की विशेषता भी है कि इतना महान ब्रह््मज्ञान प्राप्त कराने बाला ग्रंथ जो साक्षात नारायण के मुख से निकला हो वह भौतिक और पराभौतिक दोनों का संरक्षण करता है। अभी हाल ही में (वर्ष २०१३) में रूस में गीता को आतंकवाद का प्रेरक होने का कारण बताकर न्यायलाय से उस पर प्रतिबंध लगाने की बात कही गई किन्तु न्यायालय ने इसे अमान्य करते हुए गीता को प्रतिबंधित करने से मना कर दिया। इसी तरह मध्यप्रदेश हाईकोर्ट में ईसाई मिशनरियों द्वारा एक दायर याचिका में मा. न्यायमूर्ति ने यह कह कर गीता को स्कूलों में पढ़ाने से रोकने पर मना कर दिया कि गीता कोई धर्म ग्रंथ नहीं जीवन दर्शन है। इधर भारतीय जनता पार्टी की नेता सुषुमा स्वराज ने गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित करने की माँग कर दी। परन्तु गीता को राष्ट्रीय गं्रथ की सीमा में बाँधना क्या उचित है? भूमि का सीमाबद्ध होना अलग बात है किन्तु विचार या दर्शन का सर्वव्यापी होना दूसरी बात है। तत्व देश-काल की सीमा में नहीं बँधता। गीता जगत के कल्याण का सूूत्र छिपाए है। जो गीता च्मेरे-तेरेज् के धागे को तोडऩे की बात करती है उसे राष्ट्र के सीमारूपी धागे में बाँधना अज्ञानता या गीता को राजनीतिक नजरों से देखने का परिणाम है। गीता का नाम महाभारत या भारत नहीं है। वह कृष्ण गीता भी नहीं है। हिन्दू गीता भी नहीं है। सनातन गीता भी नहीं है। उसे श्रीमद्भगतगीता कहा। भगवान किसी देश काल में नहीं बँधा होता। उसका उपासक देशकाल की सीमा में होता है। प्रात:-सांध्य की देश-काल की सीमा नहीं होती। गीता भगवान कृष्ण की तरह सामान्य गोप बालाओं से लेकर दैत्य और नरकासुर तथा कंस तक होता हुआ महाभारत तक पहुँचता है। जहाँ-जहाँ कृष्ण का रूप दिखाई देता है वहाँ ब्रह्म स्वयं उपस्थित है। अर्थात वहाँ उपनिषद रूप में गीता उपस्थित है।

गीता महाभारत के समान अठारह अध्याय में विभाजित गं्रथ है। महाभारत ग्रंथ तथा महाभारत युद्ध दोनों में अठारह सर्ग तथा अठारह औक्षहिणी सेना थी। ग्यारह कौरवों की और सात पाण्डवों की ओर। गीता में कृष्ण का सारा उपदेश है। 

       च्च्गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यै: शास्त्रविस्तरै:।

         या स्वयं पद्यनाभस्य मुखपद्याद्विनि:सृता।।ज्ज्


जैसा ऊपर बताया गया है कि गीता का नाम कृष्ण गीता नहीं है। श्रीमद्भगवत गीता है। क्योंकि इसमें भगवान की चर्चा है। गीता में दूसरे अध्याय से श्रीकृष्ण बोलना प्रारम्भ करते है। किन्तु कहीं भी श्रीकृष्ण उवाच नहीं होता। उसमें हर जगह श्री भगवानुवाच ही आता है। हमें आज के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के निर्माता डॉ. हेडगेवार जी याद आते हैं। उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की किन्तु उसका नाम न तो डॉ. हेडगेवार संघ रखा और न ही हिन्दू स्वयंसेवक संघ। कारण उनका भी आराघ्य राष्ट्र है जिसे देवता माना है। स्पष्ट है डॉ. साहब के जीवन में गीता कितना प्रभाव रखती है।

गीता में कृष्ण और अर्जुन सखा भाव में आते हैं किन्तु गुरु-शिष्य भाव में परिणत हो जाते हैं। लाखों-करोड़ों जीवों में से प्रत्येक जीव का भगवान के साथ नित्य विशिष्ट सम्बन्ध है यह स्वरूप कहलाता है। भक्तियोग की प्रक्रिया द्वारा यह स्वरूप जागृत किया जा सकता है। तब यह अवस्था स्वरूप-सिद्धि कहलाती है-यह स्वरूप की अर्थात स्वभाविक या मूलभूत स्थिति की पूर्णता कहलाती है। अतएव अर्जुन भक्त था और मैत्री में वह भगवान के सम्पर्क में था। अर्जुन भगवद्गीता में कहते हैं-

                      परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान।

                    पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम।।

                   आहुस्त्वामृषय: सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा।

                   असितोदेवलोव्यास: स्वयं चैव ब्रवीशि मे।।

                    सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव।

                    न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवा:।।

च्च्अर्जुन कहते हैं: आप भगवान, परम-धाम, पवित्रतम परमसत्य हैं। आप शाश्वत, दिव्य आदि पुरुष, अजन्मा तथा महानतम हैं। नारद, असित, देवल तथा व्यास जैसे समस्त महामुनि आपके विषय में इस सत्य की पुष्टि करते हैं और अब आप स्वयं मुझसे इसी की घोषणा कर रहे हैं। हे कृष्ण! आपने जो कुछ कहा है उसे पूर्णरूप से मैं सत्य मानता हँू। हे प्रभु! न तो देवता और न असुर ही आपके व्यक्तित्व को समझ सकते हैं।ज्ज् च्सर्वमेतदृतं मन्ये- च्च्आप जो कुछ कहते हैं, उसे मैं सत्य मानता हूँ।ज्ज्

जब तक अर्जुन श्रीकृष्ण को गुरु नहीं मान लेता तब तक उसका मोह नष्ट नहीं होता। इसका प्रत्यक्ष है कि अर्जुन ग्यारहवें अध्याय में कहता है-

च्मदनुग्रहाय परमं गुहमध्यात्मसंज्ञितम्।

यत्वोक्तं वचस्तेन ममोहोऽयं बिगतो ममज् (गीता-११/१)

मोह तो नष्ट हुआ किन्तु विराट रूप देखने की इच्छा जागृत हो गई। क्यों हुआ ऐसा तो अर्जुन स्वयं कहता है- 

च्भाप्ययौ  हि भूतानां श्रुतौ विस्तरशो मया।

               त्वत्त: कमलपत्राक्ष माहात्यमपि चाव्ययम्।। (गीता-११/२)

क्योंकि अर्जुन भगवान की वाणी से भूतों की उत्पत्ति और प्रलय तथा विस्तार की कथा और अविनाशी प्रभाव सुन चुका है। और अर्जुन कहता है मेरा मोह चला गया। विचार करें क्या अर्जुन का मोह चला गया। मोह के साधन  श्रवण्ेान्द्रियों का मोह तो चला गया किन्तु आँखों से देखने की इच्छा नहीं गई। तभी तो वह भगवान का विश्वरूप देखना चाहता है। यहाँ गुण और रूप का द्वैत स्पष्ट है। भगवान अर्जुन को द्वैत से हटाना चाहते हैं। दूसरी बात कृष्ण के साथ रहते-रहते अर्जुन को भ्रम हो जाता है कि वह परमपिता परमात्मा के स्वरूप को इन्हीं चक्षुओं से देश सकता है। तब उसके भ्रम का निवारण करते हुए भगवान श्री योगेश्वर कहते हैं। तू इन आँखों से हमारे दिव्य स्वरूप को नहीं देख सकता इसलिए तुझे मैं दिव्य दृष्टि दे रहा हँू। -

न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा।

दिव्यं ददामि ते चक्षु:पश्य में योगमैश्वरम्। (गीता-११/८)

यह भगवान की भक्त के प्रति कृपालता है। यही दृष्टि योग मार्ग है। आगे जब अर्जुन भगवान् के विश्वरूप को देखकर भयभीत हो गये, तब भगवान् ने कहा कि यह तेरा मूढ़भाव (मोह) है; अत: तेरे को मोहित नहीं होना चाहिये-

च्मा ते व्यथा मा च विमूढ़भावो दृष्टा रूपंज् (गीता-११/४९)

भगवान के इस वचन से यही सिद्ध होता है कि अर्जुन का मोह सर्वथा नहीं गया था। परन्तु आगे जब अर्जुन ने सर्वगुह्यात्मवाली बातों को सुनकर कहा कि आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया और मुझे स्मृति प्राप्त हो गयी-

च्नष्टो मोह: स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत.

स्थितोऽस्मि गतसन्देह: करिष्ये वचनं तव।।ज् (गीता-१८/७३)

अर्जुन के मुख से अन्त में निकली इस बात को सुन भगवान कुछ नहीं बोलते, मौन रहे और उन्होंने आगे उपदेश देना समाप्त कर दिया। 

गीता का प्रवचन यहाँ समाप्त हो गया और महाभारत का परिणाम भी संजय धृतराष्ट को सुना देता है- 

व्यासप्रसादाच्छ्रुतवानेतद्गुहयहं पर्।

योगं योगेश्वरात्कृष्णात्ससाक्षात्कथयत: स्वयंम्।।  (गीता-१८/७४)

यहाँ भगवत् स्वरूप को संजय देख पाता है, और कहता है मैैं उस दृश्य को देख कर बार-बार आश्चर्य चकित हो रहा हँू।

विस्मयो संस्मृत्य संस्मृत्य  रूपमत्यभदुतं हरे:।

विस्मयो में महान्रान्हृष्यामि च पुन: पुन:।। (गीता-१८/७७)

यह बात धृतराष्ट्र को सुनाता है और होने वाले महाभारत का परिणाम भी घोषित करता हुआ कहता है-

 यत्र योगेश्वर: कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धर:।

तत्र श्रीर्विजया भूतिध्र्रुवा नीतिर्मतिर्मम।। (गीता-१८/७८)

गीता में अर्जुन ही मोहग्रस्त नही है। वहाँ धृतराष्ट्र भी मोहग्रस्त है। कौरवों पाण्डवों की खड़ी सेना में संजय से धृतराष्ट्र पहले अपने पुत्रों के बारे में पूछते हैं पश्चात पाण्डु पुत्रों का समाचार पूछते हैं।

      धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सव:।

मामा: पाण्डाश्चै किमकुर्वत संजय।। (गीता-१/१)

गीता बड़ा मनोवैज्ञानिक ग्रंथ है। दुर्योधन जब अपनी सेना का निरीक्षण करते हुए भीष्म के पास जाता है तब संशय को उद्घाटित करता हुआ यह बताने का प्रयत्न करता है कि सिंहासन से बँधे भीष्म चाहे दुर्योधन के सेना नायक हो किन्तु उनका मोह पाण्डवों से ही है। इस बात को बिना याद दिलाए वह नहीं रहता। इसी प्रकार जब द्रोणाचार्य के पास जाता है तो वह यह बताना नहीं भूलता कि द्रोणाचार्य के (शिष्य) दुश्मन दु्रपद का पुत्र ही पाण्डवों की सेना का नायक है। 

पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महती चमूम।

           व्यूढां दु्रपदपुत्रेण तब शिष्येण धीमता।। (गीता-१/२)

इधर उत्तेजना और उधर मोह में फसे अर्जुन को उपदेश देते कृष्ण यह बताने का प्रयत्न करते हैं कि तुम मात्र निमित हो, यह सब तो पहले से ही मरे हुए हैं। तुम अपना क्षत्रिय धर्म निभाओ। 

एक बात स्पष्ट है कि अपने नेतृत्व पर जहाँ दुर्योधन को विश्वास नहीं है, वहीं अर्जुन को अपने सखा पर पूरा भरोसा है। बिना नेतृत्व के विश्वास के हम अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकते।

सामान्यत: सभी उपनिषदों का उद्देश्य ब्रह््मज्ञान कराना है। गीता में भी कर्म, भक्ति और ज्ञान की बात कही जाती है। गीता में तीन लोगों को ज्ञानदृष्टि प्राप्त है। भगवान श्रीकृष्ण, कृष्ण द्वैयपायन व्यास तथा विदुर को। व्यास नेे अपने शिष्य संजय को यह ज्ञान दृष्टि दी। कारण वह अंधे धृतराष्ट को यथातथ्य वर्णन कर सके। दोनों ओर के सारथियों को ज्ञानदृष्टि प्राप्त है। अन्तर इतना है कि एक स्वयं भगवान है जो सभी कुछ आगे पीछे का जानते हैं दूसरा साधारण मनुष्य है जो सामने की सभी बातों को देखता है। वह उसमें किन्तु परन्तु कर घोषणा नहीं कर सकता। सुझाव नहीं दे सकता। दिशा नहीं बता सकता किन्तु दूसरा भगवान के मुह से सब कुछ कहा जाता है। संजय के अन्दर दिव्य दृष्टि होते हुए भी वह अपनी तरफ  से कभी न तो अहंकार में पड़ता और न ही अतिरिक्त व्याख्या करने या धृतराष्ट को कुछ अधिक जानकारी देता। हम आज थोड़ा सामथ्र्य या अधिकार प्राप्त होते ही सब कुछ करने को उताबले हो उठते हैं।

गीता सर्वसाधारण के लिए लिखी गई गयी है, जबकि अन्य उपनिषद सामान्यत: सन्यासी के लिए हैं ऐसा माना जाता है तथा उपनिषद ब्रह्म की ही बात सदा-सर्वदा करते हंै। गीता में अर्जुन जीव का प्रतिनिधित्व करता है। यहाँ एक और प्रश्न उठता है कि इतने उपनिषद थे फिर गीता की आवश्यकता क्यों ? मनुष्य शारीरिक भोजन के साथ मानसिक भोजन भी चाहता है। मानसिक भोजन की पूर्ति समय-समय पर सम्प्रदायों से की जाती है। सम्प्रदायों के उद्भव का कारण भी यही है। एक बार एक संत नदी के किनारे छोटी सी कुटिया में रहते थे। उनकी धुइनी लगी रहती थी और वे सदा चिलम पीते रहते थे। साथ ही वेदांत दर्शन का अध्ययन करते रहते थे। किसी ने उनसे पूछा, महाराज आप एक ओर चिलम पीते हैं, दूसरी ओर वेदांत दर्शन पढ़ते हैं। दोनों कार्य एक साथ देखकर कुछ अटपटा सा लगता है। उन्होंने कहा, देखो भाई शरीर की भूख इस गाँजे से मिटती है और आत्मा की भूख इन ग्रंथों के अध्ययन, मनन से मिटती है। जब तक शरीर है वह अपना धर्म पालन करेगा और आत्मा अपना धर्म पालन करेगी। गाँजा पीने का अर्थ केवल यहाँ शरीर रक्षण और सांसारिक कर्तव्य पालन तक ही मानना चाहिए।

शिष्य ने कहा महाराज आत्मा का तो कोई धर्म ही नहीं होता। वह न तो चलती है, न जल सकती इत्यादि। गीता में कहा:

च्या एनं वेति हन्तारं यश्चैन मन्यते हतम्।

   उभौ तौ न  विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते।।

न जायते म्रियते वा कदाचि न्नायं भूत्वा भविता वा न भूय:।

               अजो नित्य: शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय

नवानि गृह्याति नरोऽपराणि

तथा शरीराणि विहाय जीर्णा

न्यन्यानि संयाति नवानि देही।।

नैनं छिन्दति शस्त्राणि नैनं दहति पावक:।

                  न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत:।। (गीता-२/१९-२२)

संत ने कहा हमारी नजरों में आत्मा नहीं चलती, यह सत्य है। फिर आप कोई मरता है तो उसकी आत्मा की शांति के लिए ईश्वर से प्रार्थना क्यों करते हो। एक कथा आती है- एक तपस्वी शिष्य जिसके नाम के कारण उसके गुरु का बड़ा सम्मान था वह गुरु एक दिन मर गया। शिष्य दहाड़ मार कर रो रहा था। उसके गुरु भाई, शिष्य सभी उसको आश्चर्य से देेख रहे थे। बाद में एक शिष्य ने पूँछा महात्मन आप त्याग और वैराग्य के लिए जाने जाते हैं फिर मरे हुए व्यक्ति के लिए क्यों रो रहे थे। सन्यासी ने  कहा, हम आत्मा के लिए नहीं शरीर के लिए रो रहे थे। जिस शरीर ने आत्मा को अपने अन्दर धारण कर रखा था वह आज नष्ट हो गया। अब वह कभी नहीं मिलेगा। तत्पर्य यह कि च्शरीर माध्यक खलु धर्म साधनम्ज्। यह जो प्रश्न तुम्हारे अन्दर आया यही ब्रह्म की जिज्ञासा की ओर ले जाता है। गीता में अर्जुन भी साधारण आदमी की तरह प्रश्न खड़ा करता है। अर्जुन महाबली है। अवतारी है। महान व्यक्ति है। पाण्डवों में सबसे ज्ञानी और चतुर तथा वीर भी है। तभी तो युधिष्ठिर के रहते भगवान ने अर्जुन को ही गीता का उपदेश दिया। फिर भी अर्जुन के मन में संशय उत्पन्न होता है। एक छोटा सा प्रश्न हमारे मन में जगा की हम कौन हैं, तो समझों प्रभु की हम पर कृपा वर्षा प्रारंभ हो गई। नोबल पुरस्कार विजेता एलेक्सिस करेल ने एक पुस्तक लिखी है। उसका नाम है च्च्मैन दि अननोनज्ज्। उसमें वे मानव जीवन के उठने वाले प्रश्नों का उल्लेख करते हैं। वस्तुत: जानने की प्रक्रिया ही जीवन की प्रक्रिया है। आप कह सकते हैं कि हम अपने को जानते हैं। 

भगवान श्रीकृष्ण गीता में पहले उवाच में जो कहते हैं उसका समाधान अर्जुन से अन्तिम श्लोक में पूछते हैं-

कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमें समुपस्थितम्।

अनार्यजुष्टमस्वग्र्यकीर्तिकरमर्जुन।

क्लैव्यं मा स्म गम: पार्थ नैतत्त्वपपद्यते।

क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंतप।। (गीता-२/२)

इस प्रकार हे, अर्जुन तू नपुंसकता को छोड़ और युद्ध कर। किन्तु गीता के अन्तिम अध्याय के अन्तिम वचन के रूप में भगवान युद्ध के लिए नहीं कहते है, बल्कि कुछ इस प्रकार पूछते हैं-

कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा।

कच्चिदाज्ञानसंमोह: प्रनष्टस्ते धनंजय।। (गीता-१८/७२)

हे, पार्थ क्या यह मेरा वचन तूने एकाग्रचित्त से श्रवण किया? और धनन्जय तेरा अज्ञान से उत्पन्न मोह नष्ट हुआ।

तब अर्जुन जो उत्तर देता है वह भी सुनें-

नष्टो मोह: स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।

स्थितोऽस्मि गतसन्देह: करिष्ये वचनं तव।। (गीता-१८/७३)

आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया है और मुझे स्मृति प्राप्त हुई है, इसलिये मैं संशय रहित हुआ स्थित हूँ और आपकी आज्ञा पालन करूँगा। यहाँ दो बाते हैं एक तो शिष्य को ज्ञान देने के बाद कृष्ण पूर्णरूपेण विश्वस्त है कि अब अर्जुन को मेरे पूर्व में कहे वाक्य याद होंगे, इसीलिये यह नहीं कहते कि युद्ध कर। बल्कि यह पूछते हैं कि क्या तुमने मेरी सारी बाते ध्यान से सुनी और तेरा अज्ञान से उत्पन्न मोह नष्ट हो गया। दूसरी बात यह कि मोह जो अर्जुन को हुआ है वह अज्ञान के कारण। अन्यथा अर्जुन विवेकवान है।



केनोपनिषद

साधारण व्यवहार में भी देखने को मिलता है कि हम अपने को बाह्य रूप से दो प्रकार से जानते हैं। एक वह जो हमें दूसरा बतलाता है अर्थात हमारे गुण और दुर्गुण तथा हमारा बाह्य रूप अंग प्रत्यंग। दूसरा वह रूप जो केवल हमारा मन जानता है। बुद्धि विचार करती है अथवा चित में जो कुछ भी चलता है। किन्तु इसके अतिरिक्त जो एक बड़ा प्रश्न केनोपनिषद खड़ा करता है। 

ऊँ केनेषितं पतति प्रेषितं मन: केन प्राण: प्रथम: पै्रति युक्त:।

केनेषितां वाचमिमां वदन्ति चक्षु: श्रोत्रं क उ देवो युनक्ति। (केन./१/१)

हम बोलते क्यों है, हमें सुनाई क्यों देता है आदि-आदि। यह ऐसे प्रश्न हैं जो ब्रह्म ज्ञान की ओर ले जाते हैं। यह आधिदैविक ज्ञान हैं। इसके जानने का साधन क्या हैं यही बात हमारे उपनिषदों का मूल विषय है। तुलसीदास ने साधारण भाषा में कहा -च्जो जानई जेंहि देउ जनाई। जानत तुम्हई तुम्हई होइ जाई।ज् यह तुम्हई होई जाई की बात ही महाभारत में गीतोपदेश में आती है। किन्तु जानने के लिए गहरे पानी में उतरना पड़ता है। कबीर कहते हैं-

जिन खोजा तिन पाइयो, गहरे पानी पैठ।

मैं  बौरी खोजन गई, रही  किनारे पैठ।।

किसी ने कबीर से पूँछा जब आप जानते है कि गहरे पानी पैठने से ही राम मिलेंगे तो आप किनारे क्यों बैठे रहे गये? कबीर कहते हैं-

जिन खोजा तिन पाइयो, गहरे पानी पैठ।

हौ बौरा डूबन डरा, रहा किनारे बैठ।।

कभी कभी लगता है कि हमारी इन्द्रियाँ ही हमारे जानने के साधन हैं। किन्तु क्या हम इन इन्द्रियों के द्वारा अपने को जान सकते हैं। इद्रियाँ तो मन के प्रति उत्तरदायी होती हैं। अत: उनकी सीमा मन से आगे की नहीं है। फिर उनके माध्यम से हम अज्ञात वस्तु को कैसे जान सकते हैं। दूसरा विकल्प आता है मन। मन बड़ा वेगवान है। वह एक क्षण में ही संकल्प विकल्प से तमाम लोकों की यात्रा कर आता है। किन्तु अति वेगवान होते हुए भी जब वह कहीं जाता है और वहाँ आत्म तत्व का चिंतन करता है तो देखता है कि यह न चलने वाला आत्मतत्व यहाँ पहले से विराजमान है। अत: अपने से वेगवान, सामथ्र्यवान को मन कैसे पकड़ सकता है। तब मन की गति भी यहाँ रुक जाती है। और तब यहाँ कर्म, भक्ति और ज्ञान को आधार बना उपनिषदों में आत्मतत्व या आत्मा और परमात्मा का जानने का प्रयत्न प्रारंभ होता है। उपनिषद जिसे कहता है - च्अथतो ब्रह्म जिज्ञासाज्। ब्रह्म को समझने के लिए योग का मार्ग अपनाया गया। भारत में ऋषियों ने मन को टटोला। मन सामान्यत: चार अवस्थाओं में रहता है- जागृत, स्वप्न, सुषुप्त और समाधि या तुरीय अवस्था।

जिस प्रकार स्वप्र की अवस्था में स्वप्र के शरीर का अनुभव होता है, परन्तु यह स्वप्र है- मिथ्या ठहरता है, उसी तरह यद्यपि इस स्थूल शरीर का पहले अनुभव होता है, तथापि इसे स्वप्रवत मान लेने पर वासनाओं का क्षय होने से यह भी च्असतज् ही हो जाता है। जैसे स्वप्न के ज्ञान से स्वप्रावस्था का शरीर शान्त हो जाता है, उसी प्रकार जाग्रत-अवस्था के ज्ञान से शरीर को भी स्वप्नवत् समझ लेने पर वासनाओं के क्षीण होने से यह शरीर शान्त हो जात है। जैसे स्वप्र-शरीर का  और मनोरथ कल्पित कल्पनामय शरीर का अन्त होने पर इस जाग्रत्-शरीर का भान होता है, उसी प्रकार जगद्-भवना (स्थूल शरीर में अहं-भावना)-का अन्त होने पर अतिवाहिक (सूक्ष्म) शरीर का उदय (अनुभव ) होता ही है। जैसे  स्वप्रावस्था के वासना बीज से रहित होने पर सुषुप्ति- अवस्था उदित (प्राप्त) होती है, उसी तरह जाग्रत्-अवस्था भी जब वासनाबीज से रहित हो जाती है, तब  जीवनन्मुक्ति की प्रान्ति होती है। जिसमें वासनाएँ सुप्त अवस्था में विलीन हो जाती हैं, उस प्रगाढ् निद्रा का नाम सुषुप्ति है। जिस अवस्था में वासनाओं का सर्वथा क्षय हो जाता है, उसे च्तुरीयज् कहते हैं। जाग्रत-अवस्था में भी परम पद का अनुभव होने पर (वासनाओं का मूल नाश हो जाने के कारण) तुर्यावस्था होती है। जीवित पुरुषों के जीवन की वह अवस्था, जिसमें वासनाओं का सर्वथा लय हो जाता है,जीवन्मुक्ति कहलाती है। अज्ञानी बद्ध जीव इसका अनुभव नहीं कर पाते।

मन सुषुप्त अवस्था में ही कुछ क्षण को शांत रहता है किन्तु उस समय मन के स्वभाव को आखिर जाने कैसे। क्योंकि वह ही तो जानने का साधन है। योग मन के प्रवाह को रोकता है। मन को बड़ी सावधानी से रोकना पड़ता है अन्यथा वह विद्रोह कर देता है और उसे दबाने का फल क्रिया की प्रतिक्रिया के रूप में हमारे सामने आती है। हमारे ऋषियों ने इस गुत्थी को सुलझाया। च्च्संसार में रहने पर मन सदैव चंचल बना रहता है। तब उसने सोचा क्यों न एकांत में जाकर जंगली फल फूलों का सेवन करते हुए मन को साधा जाय।ज्ज् और यह उस समय संभव भी था। क्या आज संभव है ? भले ही हिमालय में कुछ लोगों को यह संभव हो पर सर्वसुलभ नहीं है। कबीर यहाँ बड़ी व्यवहारिक बात कहते हैं। परमात्मा को ढूढऩे के लिए कहीं जाना नहीं है। अपने गहरे में गोता लगाना है। उस समय दो प्रकार की घटनाएँ घटेंगी। 

हेरत हेरत हे सखी, रह्या कबीर हेराय।

बँूद समानी समुद्र में, सो कत हेरी जाय।।

परन्तु कबीर को सन्तुष्टि नहीं हुई और उन्होंने कहा बूँद को समुद्र में क्यों समाना चाहिए? क्या समुद्र बूँद में नहीं समा सकता? तब कहते हैं- 

हेरत हेरत हे सखी, रह्या कबीर हेराय।

समुद्र समाना बँूद में, सो कत हेरी जाय।।

समुद्र बूँद में समाने को व्याकुल है किन्तु बँूद को अपनी विशालता प्रकट करनी होती है। समुद्र को समाने के लिए भूमि तैयार करनी होती है।  और इसे ही उपनिषदों ने कहा है - 

                         ऊँ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते।

             पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावषिष्यते।।

                                              ऊँ शांति शांति शंति:

दूसरा एक और प्रश्न खड़ा होता है। देवताओं की कल्पना हमने कैसे की। ध्यान में आता है कि मनुष्य ही नहीं सभी प्राणियों का स्वभाव है कि अपने से बड़े को पहले वह अपने बस में करना चाहता है किन्तु जब नहीं हो पाता तो स्वयं ही उसके आधीन हो जाता है। बन प्रांतर में रहने वाले मनुष्य ने देखा कोई बड़ी आँधी आती है और बबंडर के साथ हमारे झोपड़े उड़ा ले जाती है। हम विवश से देखते रहते हैं। कोई अग्नि का रूप आता है और पूरा कबीला ही जला डालता है। कोई बादल आता है और गाँव का गाँव बहा देता है। मनुष्य इनसे अपनी नजदीकी बढ़ाता है। अग्नि का धुंध आकाश की ओर जाता है उसे लगता है अग्नि देवता का निवास कहीं आकाश में ही है। और वह आहुतियाँ देना प्रारंभ कर वन्दना करता है। और यहीं से हमारी वैदिक ऋचाएँ प्रारंभ होती है। इसी प्रकार वह जल के लिए वरुण तथा वायु के लिये मातरिश्वा या पवन देवता का मानवीकरण करता है। वह जैसा है वैसे ही अपने देवता को गढ़ता है और इन सब का कोई निवास आकाश में है अत: वहीं से स्वर्ग की कल्पना करता है। और हमारे वैदिक कर्मकाण्ड का यही आधार है। किन्तु क्या ये सब वास्तव में देवता हैं?

मन का आवागवन असीमित होते हुए भी संकल्प विकल्प पर निर्भर करता है। संकल्प विकल्प हमारी कल्पना के आघार पर हो सकते हैं और वे सीमित होते हैं। अत: सीमित मन की कल्पना से असीमित को कैसे जाना जा सकता है। फिर स्वर्ग का सुख कर्मफल पर आधारित है अत: सीमित कर्मफल के आधार पर असीमित सुख कैसे मिल सकता है। फिर सुख और दुख तो एक सिक्के के पहलू हैं और दोनों बंधनकारक है। हमें तो आनंद चाहिए। जो सुख दुख दोनों से परे है।

यहीं से कुछ बुद्धिमान चिंतकों ने, ऋषियों ने उस स्थायी परम् आनंद की खोज प्रारंभ की और कालान्तर में बलि और जीवबलि को तिरस्कृति कर आत्मतत्व की खोज प्रारंभ की। तब एक दिन मुण्डकोपनिषद का ऋषि फटकारता हुआ कहता है-

                               परीक्ष्य लोकान् कर्मचितान् ब्राह्मणो

                        निर्वेदमायात् नास्ति अकृत: कृतेन।

                        तद्धिज्ञानार्थंं स गुरुमेवाभिगच्छेत

                        समित्पाणि: श्रोतियं  ब्रह्मनिष्ठम।।

-कर्म से प्राप्त लोको की परीक्षा करके ब्राह्मण को कर्मों से वीतराग हो जाना चाहिए, क्योंकि कृत (सीमित और अनित्य) से अकृत (असीम और नित्य) नहीं मिल सकता। यदि उसे असीम और नित्य को जानने की चाह है, तो वह समित्पाणि होकर श्रोतिय, ब्रह्मनिष्ठ गुरु के पास विधिपूर्वक जाए। (मुण्डकोपनिषद १/२/१२)

इस तरह से जीवन के सत्य को जानने की इच्छा ने शाश्वत, अविनाशी, असीम की खोज प्रारंभ की और एक दिन उन्होंने सत्य को जाना-

ते ध्यानयोगानुगता अपश्यन

देवात्मशक्तिं स्वगुणैनिगूढ़ाम।। (श्वे.१/१३)

-ध्यानयोग को विषय बनाकर मन की खोज प्रारंभ की। अपने गुणों में निहित ब्रह्म को देखा। और गदगद कंठ से पुकार उठे-

 श्रृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्रा

        आ ये धामानि दिव्यानि तस्यु:।

वेदाहमेतं पुरुषं महान्तम

       आदित्यवर्णं तमस: परस्तात।

तमेव विदित्वा अतिमृत्युमेति

      नान्य: पन्था विद्यतेऽयनाय।। (श्वेता.२/५,३/८)

-अहो विश्व के निवासियो! अमृत पुत्रो! सुनो। दिव्य लोकों में रहने वाले देवताओं, तुम लोग भी सुनो। मैंने सूर्य के समान चमकीले उस महान् पुरुष को जान लिया है, जो समस्त अज्ञान-अन्धकार से परे है। केवल उसी को जानकर मृत्यु की विभीषिका को पार किया जा सकता है। इससे भिन्न दूसरा रास्ता नहीं है।

यहाँ श्वेताश्वर उपनिषद का ऋषि कहता है -ध्यानयोग से वह ईश्वर का साक्षात्कार करता है- यहाँ दो शब्द आये हैं, ध्यान और योग। यह जानना आवश्यक है कि योग का जन्म ध्यान से आया। जितने भी योग हैं सब ध्यान की स्थिति से उत्पन्न हुए। ध्यान की स्थिति में शरीर विशेष-विशेष प्रकार की स्थितियों में जाता है, वहीं से मुद्राओं की स्थिति प्राप्त होती है। ध्यान की स्थिति में अनेक मुद्राएँ बनती है और इन्हीं के विस्तार से मुद्रओं का शास्त्र बन गया। तात्पर्य यह कि कोई चीज बाहर से नहीं अन्दर से आती है और उसे ध्यान के मार्ग से ही साक्षात्कार किया जा सकता है।

यहाँ एक बात स्पष्ट है कि कर्म करना, यज्ञ करना आवश्यक है किन्तु इससे हम मृत्यु की खाई नहीं काट सकते। केवल सत्य का चिन्तन ही इसका एक मार्ग है। स्वर्ग प्राप्त की कामना से यज्ञ करना उचित नही-

      प्लवा हि एते अदृढा यज्ञरूपा

          अष्टादशेक्त्म् अवरं येशु कर्म।

     एतत् श्रेयो येऽभिनन्दन्ति मूढ़

           जरामृत्युं ते पुनरेवाति यन्ति।।   (मुण्ड.१/२/५)

ऋषि कहता है, च्अरे मूर्खों ! यदि तुमने यज्ञ को भव सागर पार करने की नौका माना है तो बड़ी भूल की है। यह यज्ञ रूपी नौका तुम्हारी जीर्ण शीर्ण है। इसमें सोलह ऋत्विज और यजमान एवं एजमान की पत्नी ऐेसे अठारह लोग बैठे हैं, वे सब नीच कर्म करने वाले हैं और सबके सब मँझधार में डूबेगें। जो मूढ़ इस यज्ञ को कल्याणकर मानते हैं, वे बुढ़ापा और मृत्यु के फन्दे में बारम्बार फँसते हैं।ज्ज्

यह बड़ा महत्वपूर्ण श्लोक है। यह कई संदेश अपने साथ लाता है। एक ओर यह निर्माण की बात करता है, अपने को ज्ञान मार्ग की ओर ले जाता है। सत्य का दर्शन बिना कर्मकाण्ड के कराता है। जो सांसारिक सुख नहीं जीवन का सत्य जानना चाहते हैं, उन्हें राह दिखाता है। यही वेदांत है। क्योंकि यही से उपनिषद आते हैं। इसे ही वेद का ज्ञानकाण्ड कहा जाता है।

कालातर में वेदों के इन दो भागों में- कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड में बड़ा कौन होता है। कर्म और ज्ञान के समन्वय का काम पहलीवार ईशोपनिषद करता है। इसमें ज्ञान और कर्म के समन्वय के जो बीज दिखाई देते हैं वहीं अंकुरित और पल्लवित होकर भगवद्गीता में विशाल वटवृक्ष की तरह दिखाई देते हैं। गीता का मानना है कि बिना दुराग्रह छोड़े जंगल में भी जाकर हम ईश्वर साक्षात्कार नहीं कर सकते। कर्म और ज्ञान का एक अंतर और हमारे सामने आता है। कर्म में भय है, आसक्ति है, वहीं ज्ञान में निर्भयता और अनासक्ति है। कर्म और ज्ञान वेद के पूर्वमीमांसा और उत्तर मीमांसा कहलाते हैं। कर्मकाण्ड च्पूर्वमीमांसाज् जहाँ कर्मकाण्ड को यज्ञों के द्वारा देवताओं को प्रसन्न कर स्वर्ग-प्राप्ति को ही जीवन का लक्ष्य मानता था वहीं ज्ञानकाण्ड स्वर्ग को भी मत्र्यलोक की ही एक आवृत्ति समझकर, चिन्तन और मनन के द्वारा जीवन के आधार भूत सत्यों को पकडऩे के लिए आकुल था। इसकी घोषणा है कि अज्ञान ही समस्त दुखों का कारण है। गीता भाष्य नहीं गायन है यह कृष्ण की अनुभूति की उच्छ्वास है। कहते हैं जब महाभारत का युद्ध समाप्त हो गया तो एक दिन कृष्ण और अर्जुन दोनों एकांत में साथ बैठे थे तब अर्जुन ने कहा भगवन महाभारत के समय आपने जो गीता हमें सुनाई थी उसे फिर से एक बार सुनाइये। भगवान ने कहा नहीं अर्जुन अब मैं वह गीता तुम्हें नहीं सुना सकता। उस समय मैं जिस योग अवस्था में था, वह अब संभव नही। इससे स्पष्ट है गीता लिखी नहीं भगवान द्वारा गाई गयी और यह एक विशिष्ट अवस्था में जिसे जीवन की उच्च अवस्था कहते हैं, का परिणाम है।

कृष्ण ने च्यज्ञज् शब्द का प्रयोग किया किन्तु उसका अर्थ उसी तरह बदल दिया जिस तरह बादशाही सिक्के को आगे के राज चलाने वालों ने बदल दिया। सोना या धातु वही किन्तु उसमें आकृति बादशाह की जगह विक्टोरिया की अथवा किसी और की भी आती है या आ सकती है। तात्पर्य यह कि जो शाश्वत तत्व होते हैं, उनका बाह्य रूप भी काल के साथ प्रवाह में खोटा हो जाता है तब ईश्वर अवतार ले उसके रूप में परिवर्तन करते हैं। यही ईश्वर के अवतार का हेतु भी होता है।

यज्ञ का अर्थ पूर्व में बलि से लगाया जाता था। कृष्ण ने इस परम्परा का विरोध किया और अपने ही कुल में गोर्वधन पूजा को खत्म करवाया। ईशावास्य उपनिषद् में इस प्रकार के संकेत मात्र दिखाई देता है, जहाँ गुरु शिष्य से सिद्धांत प्रतिपादित करते हुए कहता है- 

च्च्ईषावास्यम् इदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत्। 

तेन त्येक्तेन भुञ्जिथा मा गृध: कस्य स्विद् धनम।ज्ज् 

कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतँ समा:।

एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे।। (ईशो-१/१-२)

यह सारा संसार भगवान् का बैठक खाना है; यही भाव त्याग का मूल है; इस ज्ञान की जीवन में धारणा कर सभी कर्तव्य-कर्म करते चले जाओं और किसी के धन का लालच मत करो।ज् निष्काम कर्म, वासनाओं की तृप्ति के लिए नहीं। गीता इसी का विस्तार है। गीता में भगवान अर्जुन से सभी कार्य को यज्ञ बना लेने को कहते हैं-

       यज्ञार्थात् कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबंधन।

       तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंग: समाचर।।  (गीता-३/९)

अर्थात सारा कर्म भगवत्समर्पित बुद्धि से कर्म करना। एक प्रश्न का और समाधान भगवान करते हैं, कहते हैं इस बहाने दुष्कर्म को भी भगवान को अर्पित कर किया जा सकता है क्या ? भगवान कहते हैं-

 किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिता:।

        तŸो कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽषुभात।। (गीता- ४/१६)

हे पार्थ! कर्म क्या है, अकर्म क्या है इस सम्बन्ध में मनीषी जन भी भ्रमित हैं। अत: मैं कर्म का मर्म तुझे समझाता हँू, जिसे जानकर तू अशुभ से मुक्त हो जा।

 कर्मणो ह्यति बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मण:।

          अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणों गति:।।  (गीता-४/१७)

अर्थात कर्म के तीन रूप हैं- कर्म, अकर्म और विकर्म। विकर्म शस्त्रनिन्दित अैर विपरीत या अशुभ कर्म को कहते हैं। जिस कार्य को समाज ठीक नहीं समझता या जिसे हम नैतिक दृष्टि से ठीक नहीं समझते, उसे विकर्म कहते हैं। अकर्म उसे कहते हैं, जिसमें जड़ता, आलस्य और तमोगुण की प्रधानता हो, जहाँ शुभ कर्म का नितांत अभाव हो और व्यक्ति प्रमादी और निठल्ला हो। यहाँ विकर्म और अकर्म से बचने को कहा जा रहा है। कारण यह कि जो कार्य समाज  विरोधी है, वह आत्मविरोधी भी हैं। इसीलिए भगवान ने कहा-

                                              उद्धरेदात्मनात्मनं नात्मनामवसादयेत।

                                    आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन:।।  (गीता-६/५)

मनुष्य को चाहिए कि वह अपना स्वयं का उत्थान करे और अपने को गिरने न दे; क्योंकि वह स्वयं अपना मित्र और शत्रु भी है। इस प्रकार कर्म संस्कार उसको लिप्त न कर सकें। मनुष्य यह कर्म करता हुआ सौ वर्ष तक जिये-

च्पश्येम शरद: शतं जीवेम शरद: शतमं श्रृणुयाम शरद: शतं प्रब्रवाम शरद: शतमदीना: शरद: शतम्।ज् 

                                                                                                   (शुक्ल यजु. ३६/२४)

हम सौ वर्ष तक जीते रहें, हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ सौ वर्ष तक काम करती रहें। (वैदिक वांड्मय में चक्षु को सब ज्ञानेन्द्रियों का और वाणी को सब कर्मेन्द्रियों का उपलक्षण मानते हैं।) सौ वर्ष तक ज्ञान का संचय करते रहें (वेदों को श्रुति कहा इसीलिये च्हम सुनते रहेंज् का अर्थ है, हमकों ज्ञान की प्राप्ति होती रहे।) ईशोपनिषद का पहला मंत्र बतलाता है कि किस प्रकार का आचरण करने से मनुष्य कर्म-फल से अलिप्त रह सकता है। समस्त जगत् को ईश्वर से आच्छादित करना चाहिये। ऐसा मानना चाहिये कि समस्त जगत् में ईश्वर भीतर और बाहर व्याप्त है। समस्त जगत्  उसकी अभिव्यक्ति है। ऐसी अवस्था में एक वस्तु को पसंद करने और दूसरी को ना पसंद करने का प्रश्र ही नहीं उठ सकता। इसलिये जो कुछ यदृच्छया प्राप्त हो जाय, उसका त्याग के द्वारा असंगभाव से उपभोग करना चाहिये। त्याग सक्रिय भाव है। अन्त में मंत्र यह कहता है कि किसी के अर्थात दूसरों के धन की लालच मत करो। यह सुनने में  बड़ी स्थूल-सी बात प्रतीत होती है, परंतु इसका वास्तविक आशय यह है कि मनुष्य को चाहिये कि विषयों की, जो दूसरों अर्थात्  इन्द्रियों के धन हैं, कामना न करे। यदि ध्यान से देखा जाय तो सारी भगवद्गीता ने दोनों मन्त्रों की व्याख्या है।

हमारी प्रत्येक क्रिया यज्ञमय कैसे बनती है? जब हम अपने कार्य को ईश्वर समर्पित बुद्धि से करते हैं। भगवान कहते हैं इसका प्रभाव यह होता है कि -

 पश्यन् श्रृण्वन् स्पृर्शन् जिघ्रन अश्नन् गच्छन् स्वपन् श्वसन।

 प्रलपन् विसृजन् गृहणन उन्मिषन् निमिषन् अपि।

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्। (गीता-५/८-९)

अर्थात ऐसी समत्व एवं समर्पित बुद्धि से किया गया कार्य जब हम करते हैं तो हमारे यह सारे कार्य -देखना, सुनना, स्पर्र्श करना, गंध लेना, खाना, चलना, सोना आदि सभी यज्ञमय हो जाते हैं। आगे कहते हैं -

ब्रह्मण्याधाय कर्माणि संगत्यक्त्वा करोति य:।

 लिप्यते न स पापेन पद्यपत्रमिवाम्भसा।। (५/१०)

जो ब्रह्म का आश्रय और आधार मानकर, आसक्ति का त्याग करते हुए, कर्तव्य कर्म करता है, वह जल में कमलपत्रवत् पाप से अलिप्त रहता है। यही गीता की चरमावस्था है, यही ब्रह्मनिष्ठा और स्थितप्रज्ञता है।

जब हम च्ड्यूटी फार ड्यूटी सेकज् अर्थात कर्म के लिये कर्म के भाव से काम करते हैं तो उसे गीता उचित नहीं मानती। कर्तव्य का निर्वहन इस भाव से किया गया तो इसमें एक खीझ रहती है। एक पिता अपने काम से घर वापस आ रहा है उसे रास्ते में बाजार मिला। उसे अपने बालक की याद आयी और उसने उसके लिए कुछ कपड़े खरीदे। अगर यही कपड़े वह बालक के कहने पर खरीदता तो वह कर्तव्य निर्वहन होता किन्तु यह कपड़ा खरीदना बच्चे से निर्हेतुक लगाव का कारण था। ईश्वर समर्पित कार्य भी कुछ ऐसा ही होता है। हम नित्य प्रति शाखा जाते हैं क्यों? क्या उसमें अपना स्वार्थ है? नहीं, तो वह यज्ञ कर्म है। अपने को स्मरण कर परमात्मा के कार्य योग्य बनाने का सतत प्रयत्न है। वहाँ सुख नहीं आनंद मिलता है, जिसे बाँटा तो जा सकता है किन्तु किसी से खरीदा नही जा सकता। बिक्रय भी नहीं किया जा सकता। इसीलिए वहाँ से आकर समाज के लिए समर्पित हो दिन भर अपनी दिनचर्या में इस कामना के साथ लगना कि च्हे प्रभुज् ! मैं तेरी ही प्रसन्नता के लिए यह कर्म कर रहा हूँ। जो कर्म तूने मेरे लिए निर्धारित किया है, उसे मैं अपनी सारी कुशलता और शक्ति के साथ करूँगा, और उसका फलाफल तुम्हारे चारणों में समर्पित है। अथवा फलाफल तुम जानों। क्योंकि समर्पित करने का अधिकार भी नहीं है, कारण उसे तो अभी हमने प्राप्त ही नहीं किया। किन्तु जो भी परिणाम होगा वह मंजूर है। साथ ही कर्म का अटल सिद्धांत है कि जो कर्म तुम करोगे उसका फल अवश्य मिलेगा। अच्छा मिले तो हमारा अन्यथा दैव का। ऐसी नहीं तो प्रयत्न यह रहे कि फल की इच्छा ही नहीं सो किसी भी प्रकार का फल आया तो मन प्रसन्न रहेगा। दूसरी अर्थ यह भी की जब हम बुरा काम करेंगे ही नहीं तो बुरा फल आने वाला ही नहीं। कोई छात्र वर्षभर निष्ठा से पढ़ाई कि तो परिणाम तो अच्छा आने ही बाला है। किन्तु किसी कारण परीक्षा के समय बीमार पड़ गया या अन्य कारण से कार्य का सम्पादन ठीक ढंग से नही हो पाया तो पछतावा नही क्योंकि उसमें हमारी कोई भी सांसरिक सामथ्र्य नहीं चली तो यह प्रभु की इच्छा। यह समर्पण परिणाम आने के बाद करना ही है तो अच्छा यह कि जो वर्तमान में है उसे ही परमात्मा को समर्पित कर कार्य करते रहना। इससे दो लाभ होते हैं, एक तो हम सदा वर्तमान में रह कर्म में निरत रहते हैं, दूसरा न तो भविष्य में भटकते और न ही भूत में। इन दोनों से बचना ही योग है। दूसरे एक और पक्ष को विचार करें कि जहाँ स्वयं के अहंकार से प्रेरित व्यक्ति कार्य के अनुरूप फल न प्राप्त करने पर निराशा, कुंठा आदि से ग्रसित होता है, वहीं प्रभु को समर्पित व्यक्ति को यदि परिणाम विपरीत आता है तो वह ईश्वर से यही तो कहता है कि च्प्रभु असफलता का दु:ख तो अवश्य पर पर इसके पीछे भी कोई आपकी मंगल कामना छिपी होगी ।ज् और वह फिर से कार्य में लग जाता है। इसका सबसे अच्छा उदाहरण देश में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ है। आजादी के काल से लेकर महात्मा गांधी और आपातकाल की स्थिति तक की कठिन परिस्थिति में निरंतर ईश्वर पर इस विश्वास के साथ कि यह कार्य परमात्मा का कार्य है आज नहीं तो कल शुभ कार्य का शुभ फल अवश्य दिखाई देगा कार्य में अहर्निश कटिबद्ध है। और अयोध्या के भूमि विवाद के मामले में आज लखनऊ बेंच के निर्णय ने यह बात साबित भी कर दिया। राज सत्ता को लोक आस्था के सामने झुकना पड़ रहा है। यह दैवी कार्य मानकर करने का परिणाम ही हैं कि लाखों कार्यकर्ता निरंतर उत्साह से कार्य कर रहे हैं।

गीता में योग को दो प्रकार से परिभाषित किया गया है-च्योगा: कर्मसु कौशलम्ज् और च्समत्वं योग उच्यतेज्। वस्तुत: जब इन दोनों को एक साथ जोड़ा जाय तो उसे योग कहते हैं और इसका परिणाम तब सामने आता है। जब हम -च्ब्रह्मणि आधाय कर्माणि संगं त्यक्त्वा करोति य:ज्। ब्रह्म का आश्रय और आधार मानकर अपने कार्यों को संपन्न करने से बुद्धि संतुलित बनी रहती है। यहाँ आस्था का ही आधार होता है। आज कई लोग प्रश्न खड़ा करते हैं। ईश्वर है कहाँ ? और ऐसे लोग अपने को विज्ञानवादी कहते हैं। सारी चीजे विज्ञान के माप पर होनी चाहिए। जरा विचार करे विज्ञान का आधार क्या है। अनुमान ही न ! शून्य क्या है? अक्षाँस और देशांन्तर रेखाएं कोई खींच कर बता सकता है। बिन्दु और सरल रेखा का आधार क्या है। बिन्दु वह है जिसमें न लम्बाई है न चौड़ाई है फिर कोई वैज्ञानिक इस बिन्दु को खीच सकता है। यहीं बिन्दु वह ईश्वरीय सत्ता का आस्था बिन्दु है। जिसे खीचा नहीं, माना और अनुभूत किया जा सकता है। फिर भी भगवान की सत्ता को कैसे समझे यहाँ थोड़ा विचार करना आवश्यक है। ईश्वर को क्यों माने ? ईश्वर है, इसलिए माने। संसार में जो भी वस्तु दीखती है, उसका कोई-न-कोई निर्माणकर्ता होता है; क्योंकि निर्माणकर्ता के बिना कोई भी वस्तु निर्मित नहीं होती। प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइन्स्टीन कहता है- च्विज्ञान की अपनी अपनी अन्तिम खोज करते समय हमे ईश्वर का अस्तित्व समझ में आया।ज् 

ऐसे ही समुद्र, पृ

अत: कर्म को कुशलता से और समत्व भाव से जब हम करते हैं तो योग होता है। फिर एक बात और है जितने समय में किए गये कार्य के फल का चिंतन करेंगे उतने में ही हम और आगे का कार्य कर लेंगे तो हमारे खाते में किए गये कार्य की बृद्धि ही होगी और अटल सत्य के आधार पर उसका परिणाम अर्थात फल भी आवेगा। फिर फल की चिन्ता में हम बुरे फल को भी सोचते हैं, फिर उसका कारण किसी न किसी को ठहराते हैं और निरर्थक उसके लिए मन में कटुता उत्पन्न होती है। यदि ऐसा नहीं किया और फल की इच्छा भी नहीं की और यह मानकर कि सभी हमारे ही आत्मा के अंश है अत: इसका परिणाम सभी को प्रभावित करेगा और कोई इसके दुखद पक्ष का परिणामी नहीं होगा तो हमें सहज आनन्द की अनुभूति होगी। दैनिक जीवन में यदि कोई हमारी प्रशंसा करता है तो हम प्रसन्न होते हैं, निन्दा करता है तो दुखी। दोनों हमारे मन कि स्थितियाँ है। हम कभी-कभी ऐसे व्यक्ति के कारण दुखी हो जाते है जो हमारे समाने कभी नहीं रहता, मात्र हमारी कल्पना का हिस्सा होता है। अत: हमें ऐसी हिस्सेदारी क्यों करनाी। हम अपना सदा प्रयत्न उस परमात्मा के स्मरण में क्यों नहीं लगाते और उसी को स्मरण करते करते अपना यज्ञ कर्म करते रहते है।

इसीलिए भगवान कहते हैं-

                            कर्मणिएव अधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।

                            मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि।।  (गीता-२/४७)

दो आदमी हैं, दोनों कटहल काट रहे हैं। कटहल काटने के बाद देखा तो एक के हाथ में दूध ही दूध चिपका है तो दूसरे के हाथ में एक भी बूँद दूध नही लग पाया। इसमें कर्म की कुशलता किसमें है तो स्पष्ट है जिसके हाथ में एक भी बँूद दूध नहीं लगा। इसे ही च्पद्यपत्रमिवाम्भसाज् कहा।

कार्य की कुशलता और कार्य से उत्पन्न दोष दोनों का विचार करे। कार्य की कुशलता तो हमने कटहल के काटने से देखी। अब आग जलती है तो धुआ निकलता है ऐसा सभी मानते है। अत: कर्म करेंगे तो उसका फल तो मिलेगा ही किन्तु आसक्ति नहीं रही तो जैसे आग का काम जलना है, धुआँ निकलता है कि नहीं यह आग नहीं देखती। उसमें कौन सा पदार्थ जल रहा है, धुआँ उस परिणाम में और प्रकार में निकलेगा। घी का दीपक जलाओगे तो धुआँ दिखेगा नहीं। तेल का दीपक जलाओंगे तो धुआँ स्वभावजन्य दोष होने से निकलेगा। यदि उसके ऊपर कोई सामग्री ढक दी तो उसका धुआँ वहीं सीमित हो जावेगा और नहीं तो वह वातावरण को खराब करेगा। अत: परमात्मा को फल समर्पण वही ढंक्कन है जो हमें धुएं से बचाता है।

गीता ने कहा-

                           सहजं कर्म कौन्तेय सदोशम् अपि न त्यजेत।

                          सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृता:।। (१८/४८)

हे कौन्तेय! जो स्वभाव-प्राप्त कर्म हैं, उनमें दोष दीखने पर भी उनका त्याग नहीं करना चाहिए। उनमें दोष दीखने पर भी उनका त्याग नहीं करना चाहिए। जैसे आग के साथ धुआँ रहता है उसी तरह प्रत्येक कर्म के साथ कोई न कोई दोष अवश्य जुड़ा रहता है।

हे कौन्तेय! जो स्वभाव-प्राप्त कर्म हैं, उनमें दोष दीखने पर भी उनका त्याग नहीं करना चाहिए, जैसे आग के साथ धुआ रहता है उसी तरह प्रत्येक कर्म के साथ कोई न कोई दोष अवश्य जुड़ा रहता है।


                ऊँ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते।

     पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावषिष्यते।।

             ऊँ शांति शांति शंति: ।।

(अर्थ:- वह, निरुपाधिक, परोक्ष, कारण ब्रह्म), इदम्- यह (सोपाधिक, कार्य ब्रह्म), पूर्णम-पूर्ण है, पूर्णात-उस पूर्ण से, पूर्णम-यह पूर्ण, उद्दच्यते-उद्भूत होता है। प्रलय या ज्ञानकाल में पूर्णस्य कार्य ब्रह्म, पूर्णम् पूर्णत्व को आदाय-ग्रहण करके, पूर्णम्-निरूपाधिक ब्रह्म एवं ही अविशिष्यते-शेष बचा रहता है।

ऊँ वह कारणात्मक निर्गुण-निराकार  ब्रह्म पूर्ण है, यह कार्यात्मक सोपाधिक (जगत) ब्रह्म भी पूर्ण है। उस पूर्ण से यह पूर्ण प्रकट होता है। (ज्ञान या प्रलय के समय) कार्यात्मक ब्रह्म को स्वयं में लीनकर परब्रह्म ही रह जाता है।  ऊँ शांति शांति शंति: ।।

        ऊँ ईषा वास्यमिदँ् सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत्।

        तेन त्येक्तेन भुंजीथा मा गृध: कस्यस्विद्धनम।। 

(जगत्याम-इस विश्व-ब्रह्मांण्ड में, यत् किंच-जो कुछ भी, जगत-परिवर्तनशील है, इदम-इन, सर्वम-सबको, ईषा-परमात्मा के द्वारा, वास्यम-आच्छादित कर देना चाहिए, तेन-इस, त्यक्तेन-त्याग के द्वारा, भुंजीथा:-पालन-पोषण करना चाहिए, कस्य स्वित् -किसी के भी, धनम-धन का , मा गृध:-लोभ मत करो।)

इस संसार में चर-अचर जो कुछ भी परिवर्तनशील है, सबको ईश्वर से आच्छादित कर लेना चाहिए। इस त्याग के द्वारा अपना पालन करो। किसी के भी धन का लोभ मत करो।

        कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतँ् समा:।

        एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे।।-२

  (इह-यहाँ, इस लोक में, शरीर में, कर्माणि-कर्मों को, कुर्वन-करते हुए एवं -ही, शतम-सौ, समा:- वर्षों तक, जिजीविशेेत-जीवित रहने की इच्छा करनी चाहिए, एवं-ऐसे, त्वयि-तुम, नर-मनुष्य के लिए, इत: -इसे छोडक़र, अन्यथा -दूसरा मार्ग, विकल्प, न-नहीं,अस्ति-है, येन-जिससे, कर्म-कर्म के दोष, न लिप्यते-लिप्त न हों।) 

जगत में शास्त्र विहित कर्म करते हुए ही सौ वर्ष जीवित रहने की इच्छा करनी चाहिए। तुम जैसे मनुष्य के लिए कर्मों में अलिप्त रहने का इसके अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग नहीं।


३- केन-उपनिषद

ऊँ  शांति मंत्र

ऊँ आप्यायनतु ममांगानि वाक् प्राणश्चक्षु:

श्रोत्रमयो बलम् इन्द्रियाणि च सर्वाणि।

सर्वं  ब्रह्मौपनिषदं, माहं ब्रह््म निराकुयां, मा मा ब्रह््म निराकरोद्,

अनिराकरणमस्तु, अनिराकरणं मेंऽस्तु।

तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु धर्मास्तेमयि सन्तु, ते मयि संन्तु।

ऊँ शांति शांति शांति:

अन्वयार्थ- अप्यायन्तु-पुष्ट हों, औपनिषदम्-उपनिषदों का प्रतिपाद्य, निराकुर्याम-परित्याग न करूँ, निराकरोत-परित्याग न करे, अनिराकरणम-परित्याग न हो,

भावार्थ- ऊँ। मेरे सभी अंग-वाणी, नेत्र, प्राण, कान आदि ज्ञानेन्द्रियाँ, बल तथा समस्त कर्मेन्द्रियाँ-पुष्ट हों। जगत में सब कुछ उपनिषदों का प्रतिपाद्य ब्रह्म ही है। ब्रह्म की मैं उपेक्षा न करूँ, ब्रह्म भी मेरी उपेक्षा न करे। ब्रह्म के द्वारा मेरा परित्याग न हो और मैं भी ब्रह्म का परित्याग न करूं। उपनिषदों में कथित सत्य, तप आदि धर्म आत्मोपलब्धि में प्रयासरत मुझ साधक को प्राप्त हों, वे सब मुझे प्राप्त हों। त्रिविध तापों की शांति हो।

 ऊँ केनेषितं पतति प्रेषितं मन:

        केन प्राण: प्रथम: प्रैति युक्त:।

 केनेषितां वाचमिमां वदन्ति

        चक्षु श्रोत्रं क उ देवो युनक्ति।। १

अन्वयार्थ- केन-किसके द्वारा, इषितम-इच्छित होकर, प्रेषितम-भेजा गया।

भावार्थ- किसकी इच्छा से भेजा जाकर मन विषयों की ओर दौड़ता है? किसके द्वारा नियुक्त होकर मुख्य प्राण अपने कार्य में लगता है? किसकी इच्छा से यह वाणी बोलती है और कौन-से देव चक्षु-कर्ण आदि ज्ञानेन्द्रियों को उनके विषय में नियोजित करते हैं ?

(इशितम् अर्थात इच्छा, इशितम् में इष्ट का आगम होने से इच्छा बना तथा प्र उपसर्ग लगने से प्रषितम् बना। प्रषितम अर्थात प्रेषित करने वाला, इसी से के ने षितम -किसकी इच्छा से, कौन भेजा)।

गुरु का उत्तर- 

श्रोत्रस्य श्रोत्रं मनसो मनो यद्

   वचो ह वाचं स उ प्राणस्य प्राण:।

 चक्षुशष्चक्षु:  अतिमुच्य धीर:

    प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति।।२

भावार्थ- यत-चूँकि स: उ - वह कान का भी कान है, मन का भी मन है, वाणी का भी वाणी है, प्राण का भी प्राण है और नेत्रों का भी नेत्र है। अर्थात इन सब के पीछे एक चैतन्य सत्ता तत्व है, अत: विवेकी लोग (शरीर इन्द्रिय में मंै, मेरा भाव त्यागकर) इस लोक से प्रयाण करने के बाद अमृतत्व की प्राप्ति करते हैं।

समाधान- इसमें कोई दोष नहीं है। अन्य श्रुतियाँ भी कहती हैं- च्आत्मना एवं अयं ज्योतिषा अस्तेज्। (बृ.उ.४/३/६)-

तब वह पुरुष आत्मा की ज्योति से स्थित रहता है।

च्तस्य भाषा सर्वम् इदं विभातिज्। (क.उ.२/२/१५, श्वे.उ.६/१/४, मु.उ.२/२/१०) -उसके प्रकाश से ही यह सब प्रकाशित होता है।

च्येन सूर्य: तपति तेजसा इन्द:ज् (तै.ब्रा.३/१२/९/७)- जिसके तेज से प्रदीप्त होकर सूर्य तपता है।

च्यदि आदित्यगतं तेजो जगद्धासयते अखिलमज् (. गीता १५/१२)- सूर्य का जो प्रकाश सारे जगत को प्रकाशित करता है, उसे तू मेरा ही समझ।

च्क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारतज् (गीता १३/३३)- हे अर्जुन,उसी प्रकार एक ही आत्मचैतन्य संपूर्ण शरीर को प्रकाशित करता है।ज्ज्

च्नित्यो अनित्यानां चेतन: चेतनानाम:ज्। (कठो.उ.३/१२/९/७)-अनित्य वस्तुओं में वह नित्य है, चेतनामय पदार्थों में वह चैतन्य (आत्मा) है।

च्स उ प्राणस्य प्राण:ज् वह प्राणों का भी प्राण है। केन.

तब ऋषि कहता है -

न तत्र चक्षुर्गच्छति न वाग्-गच्छति नो मनो।

न विद्यो न विजानीमो यथैतदनुशिष्यात।। ३

भावार्थ- वहाँ (ब्रह्म में) नेत्र नहीं जाते, वाणी नहीं जाती और मन भी नहीं जाता। हम ब्रह्म का लक्षणों को भी नहीं जानते, अत: मन वाणी के अतीत होने के कारण हमें नहीं मालूम कि उसका वर्णन कैसे करूँ।

अन्यदेव तद्धिदितादधो अविदितादधि

इति शुश्रुम पूर्वेषां यं नस्तद्धयाचचक्षिरे।

भावार्थ- यह ब्रह्म ज्ञात वस्तुओं से भिन्न है और फिर अज्ञात वस्तुओं से भी परे है- ऐसा हमने अपने पूर्वजों से सुना है, जिन्होंने हमारे लिए इसकी व्याख्या की थी।

केनोपनिषद का अर्थ है- केन अर्थात कौन ? क्या जिसका प्रमाण नहीं वह सत्य नहीं है। क्या ब्रह््माण्ड भी अज्ञात होने से असत है। जो विश्व-ब्रह््मांण्ड का नियन्ता है, कठिनाई से जानने योग्य है, जो देवताओं के विजय और असुरों के पराजय का कारण है, ऐसा ब्रह््म भला अस्तित्व हीन हो सकता है ? क्या वह शून्यरूप हो सकता है। अर्थात नही।

अथवा

ब्रह्म ज्ञान के कारण ही अग्नि, इन्द्र आदि देवताओं को श्रेष्ठता प्राप्त हुई ?

अथवा

ब्रह्म को जानना कठिन है। इन्द्र, अग्नि आदि तेजस्वी होकर भी काफी कष्ट उठाकर ब्रह््म को जान सके।

अथवा

ब्रह््म ज्ञान के अतिरिक्त देवताओं के विजय के अभियान के समान जीव को कत्र्तव्य, भोक्तृत्व का अभियान करना व्यर्थ है।

च् ब्रह््म  ह देवेम्यो विजिग्ये। तस्य ह

             ब्राह्मणों विजये देवा अमहीयन्त।। ज् १४. केन

कहते हैं देवासुर संग्राम में ब्रह््म ने देवताओं के लिये विजय प्राप्त की। ब्रह््म की इस विजय में देवतागण स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करने लगे। वे देवता लोग सोचने लगे कि यह विजय हमारी ही है और यह गौरव भी हमारा ही है। ब्रह्म ने उनकी इस बात (मिथ्याभिमान) को जान लिया और उनके सामने प्रकट हुए, किन्तु देवतागण यह नहीं जान सके कि यह पूज्यमूर्ति कौन है।

उन यक्ष को न जाने हुए देवतागण भय के साथ आपस में विर्मर्श कर जातवेद: अग्नि को जो जन्म से ज्ञानी होने से जातवेद कहलाते हैं को कहा कि जाओं और पता करों कि यह पूज्यमूर्ति कौन है।१६

अग्नि जब यक्ष के पास गये तो यक्ष ने पूँछा, तुम कौन हो? अग्नि ने कहा मैं ही प्रसिद्ध अग्नि हँू और मैं ही जन्म से ज्ञानी जात वेद हूूूँ। १७

यक्ष ने कहा तुम जातवेद हो तुम में क्या क्षमता है। उत्तर आया-इस पृथ्वी पर जो कुछ भी है, उस सब को मैं जला सकता हूँ। १८

यक्ष ने उस अग्नि के सामने एक तिनका रखा और कहा इसे जलाकर दिखाओ और यदि नहीं जला सके तो अपने जलाने का अभिमान छोड़ दो। अग्नि पूरा सामथ्र्य लगाकर भी उसे न जला सका और वापस चला गया।१९

तत्पश्चात देवताओं ने वायु को कहा कि तुम पता करो यह पूज्यमूर्ति कौन है? च्किम यतत् यक्षमज् २०

वायु से यक्ष ने पूछा तुम कौन हो ? वायु ने कहा में प्रसिद्ध वायु हूँ, मैं ही पूरे अंतरिक्ष में घूमने बाला मातरिश्वा हूँ। २१

यक्ष ने पूछा तुम जैसे नाम गुण वाले में क्या क्षमता है ? तब वायु ने कहा, इस पृथ्वी में जो कुछ भी है उसे मैं उड़ा सकता हूँ।२२

यक्ष ने वही तिनका वायु को दिया और कहाँ इसे उड़ाओ ? सारे प्रयत्न के बाद वायु भी निराश होकर वापस चला गया। 

तब देवताओं ने इन्द्र को कहा, आप जाकर पता करें कि यह पूज्यमूर्ति कौन है। इन्द्र जैसे ही यक्ष के नजदीक गये यक्ष अंर्तधान हो गये। २४

उसी स्थान पर एक सुन्दर अलंकार से युक्त युवती प्रकट हुई, जिसके पास इन्द्र ने जाकर पूछा उमा (उमा रूपी ब्रह्म विद्या) यह यक्ष कौन है ? २५

उमा ने बताया कि यह यक्ष ही वह ब्रह्म है जिन्होंने तुम देवताओं को असुरों के युद्ध से जिताया है।। २६

यहाँ एक बात और साफ होती है कि यह वही घटना है जब इद्र, अग्नि और वायु ब्रह्म से या तो वार्ता करने का अवसर पाते हैं या उनके दर्शन का इसीलिए ये तीनों देवताओं में पूज्य या श्रेष्ठ माने जाते हैं।

चँूकि इन्द्र, अग्नि और वायु को ईश्वर का सानिध्य तो प्राप्त होता है किंतु वे उन्हें जान न सके और उमा अर्थात उन्हें ब्रह्म विद्या के माध्यम से ही उन्हे ज्ञान प्राप्त हुआ इसलिए भी इन्हें देवताओं में श्रेष्ठ माना गया। २७

इन तीन देवताओं में भी इन्द्र ने ब्रह््म विद्या अर्थात उमा के माध्यम से ब्रह््म को जाना इसीलिए इन्द्र श्रेष्ठ कहलाया। २८

वस्तुत: यह उपमा के द्वारा ब्रह््म का ध्यान विषयक उपदेश है। यह वैसा ही है जैसे विद्युत का चमकना और पलकों का झपकना। यह ब्रह््म का अधिदैविक उपदेश है। २९

इसके बाद ब्रह््म का अध्यात्म-विषयक उपदेश दिया जाता है- मन जो ब्रह््म में जाता हुआ प्रतीत होता है, अर्थात साधक मानो उसे मन के द्वारा अत्यन्त घनिष्ठ रूप से स्मरण करता है और मन के द्वारा जो ब्रह््म विषयक धारणा करता है। यह ब्रह््म का अध्यात्म विषयक उपदेश हुआ। आध्यात्म अर्थात अन्तरात्मा-विषयक उपदेश बताया जाता है। आधिदैविक उपासना। ४०

आध्यात्मिक -निरुपाधिक-मन के द्वारा-मन के पार। जो ब्रह््म सब प्राणियों के जानने योग्य है उसे च्तद्वेनज्; कहते हैं। जो कोई इस ब्रह््म की उपासना करता है, उसकी समस्त प्राणीगण प्रार्थना करते हैं। ३१

तब शिष्य कहता है- हे, भगवन! मुझे च्ब्रह््म विद्या बताइये।; गुरु ने कहा, तुम्हे उपनिषद बताई जा चुकी है। च्मैने तुम्हें ब्रह्म सम्बन्धी रहस्य विद्या ही बताई है।ज्


४-जीवेद वर्षम् शतम्

सौ वर्ष तक कैसे जिए? ईषावास्य उपनिषद कहता है च्कुर्वन्नेवेह कर्माणिज् और आगे कहता है च्नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नर:ज्ज्। दो बातें- मनुष्य के जीने की लालशा स्वाभाविक है। उपनिषद कहता है च्सौ वर्ष जिओंज्। किन्तु अकमण्र्य होकर नहीं तो कर्म करते हुए। यही अन्तिम रास्ता है। अब कर्म कैसा तो अलिप्त होकर। गीता में कहा च्कर्मण्ये फला......ज् दूसरा पहले श्लोक में कहता है च्तेन त्यक्तेन भुंजिथाज्, त्याग के साथ जिओ। यहाँ किस त्याग की बात कहीं जा रही है। -च्एषणाओं का त्याग; कर्म का नहीं, कर्मफल का त्याग। उदाहरण के लिए हमने गृहस्थ धर्म स्वीकारा। पुत्र-पोत्रादि की प्राप्ति की, धन-ऐश्वर्य की भी प्राप्त की। किन्तु हमने उनका भोग करते समय च्तेन त्यक्तेनज् एवं मा गृध:, लोभ न करो एवं च्कस्य स्वित धनमज्; का परहेज नही किया। यहाँ तीन बाते पुत्र-पौत्रदि की प्राप्ति, धन की प्राप्ति, को त्यागपूर्वक भोगना और अन्याय और  अनीत से धनार्जन नही करना। प्रत्येक कर्म को ईश्वर समर्पित होकर करना। यहाँ न तो संचय का भाव है और न आसक्ति का। पर यह कार्य सहज नहीं है। इसलिए ऋषि मार्ग दिखाता है- च्ईषज् (ईष्ट इति ईष्ट तेन ईषा:) परमेश्वर जगत व्यापी है, यह धारणा सुनिश्चित करना। तुलसी ने कहा च्सीय राम मय सब जग जानीज्। उपनिषद कहता है-सचराचर जगत परिवर्तनशील है। इसे ईश्वरत्व से आच्छादित करो। जगत क्या है। हमारी इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य विषय जगत है। मन, चित्त, बुद्वि, अहंकार के अन्दर बसता है, संसार। फिर इनका धीरे-धीरे (एषणाओं का त्याग कर) सभी चीजों को परमात्मा अर्थात अपने अन्दर आत्मा है और वह सर्वव्यापी उस परमात्मा का अंश है, बोध करना और धीरे-धीरे उसके अंदर प्रवेश करना। कबीर कहता है- बूँद समानी समुद्र में से कत हेरी जाय। पर सन्तुष्ट नहीं होता इसलिए कबीर फिर कहते हैं-हेरत हेरत हे सखी मैं भी गई हेराई। समुद्र समानी बूँद में सो कत होरी जाय। , अथवा च्फूटा घट जल जलहि समाना।ज् आदि। यह घट शरीर है, संसार है। जीवेत वर्षम् शतम् का अर्थ केवल इतना ही है कि  हमारे ऋषियों ने इस शरीर की मर्यादा सौ बर्ष मानी। अत: इन सौ वर्षों को किस तरह जिया जाय इसका विचार किया। सभी प्राणियों में च्सर्वभूतहितेरता:; का भाव बोध हो। साक्षात्कार करते करते इस काया को जैसा कहा च्ऊँ पूर्णमद: पूर्णमिदंज् को साकार करें। यही निग्रह है। यही परमात्मा का साक्षात्कार का मार्ग है।

५- कर्मकाण्ड के बाद ही निवृत मार्ग आया।

उपनिषद कहता है- च्असूया नाम ते लोकाज् अंधकार में जीना अर्थात इस शरीर में ही जीना। आत्महत्या क्या है? च्असूया नाम ते लोका, अन्धेन तमसा वृता। प्रश्न है आत्मा अमर है। नैनम् छिंदन्ति ....; फिर च्आत्महंन्ते ते जना:; क्यों कहा? क्या आत्मा कुछ नहीं करती? नहीं भी हाँ भी? देखें- च्अनेजदेकं मनसो जीवयोज्, वह स्थिर है किन्तु मन से भी तेज गति से चलता है। इन्द्रियाँ चूकि मन और आत्मा के बीच में आ नहीं पाती इसलिए वे तो पकड़ ही नहीं पाती। कभी-कभी लगता है कि मन ही सब करता है और हमारा योगी मन को साधता है। मन संकल्प विकल्प से सभी लोको की यात्रा करता है किन्तु वह सभी जगह अपने से पहले इस आत्म तत्व को वहाँ उपस्थित पाता है। प्राण वायु को च्मातरिश्वाज् कहा। क्योंकि वह सर्वत्र विचरण करता है। मन भी उसी प्राणवायु के कारण सर्वत्र विचरण करता है। किन्तु यह च्मातरिश्वाज् आखिर इस शरीर को जब आत्मा छोड़ देती है तब क्यों नहीं घूमता और यह मन की गति भी क्यों रुक जाती है। इसका अर्थ हुआ की कर्मकाण्ड चलता रहता है। इनका माध्यम बनती हैं हमारी इन्द्रियाँ और मन। किन्तु कर्मकाण्ड करते हुए भी यदि  अलिप्त रह कर उस आत्मा में प्रवेश करना है उससे पहचान करनी है। तो कर्मकाण्ड के फल का त्याग करना पड़ेगा। यहाँ दो बाते आती हैं-एक कर्मकाण्ड पूर्वजन्म के संस्कारों के आधार पर आता है और निवृति मार्ग की प्राप्ति इन फलों को त्याग करने पर मिलती है। पहले प्राप्ति है फिर निवृति है। पहले सिद्धि है फिर प्रसिद्ध है। पंच तत्वों का पंचतत्वों में विलय केवल रूप परिवर्तन होता है जिसे देह धारण करना कहते हैं। 

आगे उपनिषद कहता है- च्तास्ते प्रेत्याभिगच्दन्तिज्, अज्ञान से आच्छादित होकर पशु और वनस्पतियोंं के रूप हमें प्राप्त होते हैं। च्असुरो का लोकाज् अर्थात च्तमसावृता:ज् को असुर लोक कहा। च्आत्महनो जनाज् आत्मा को माने वाले अर्थात च्तमसावृता:ज् को असुर लोक कहा। यही आत्म हत्या है। तभी हमारा ऋषि कहता है  च्तमसो मां ज्योर्तिगमयज्। हम अमर हैं, यह बोध प्राप्त न होना ही आत्मघाती स्थिति है। ३

क्या आत्मा हिलती है ? चल फिर सकती है? उत्तर हाँ में आता है। यद्यपि आत्मा को अनेजदेकं अर्थात न हिलता हुआ कहा। किन्तु साथ कहा मनसो जीवयो मन से भी अधिक वेग वाला। इसीलिये जब हम कहते है कि आत्मा चलती है तो उत्तर आता है, हाँ किन्तु जब हम इसे इन्द्रियों और मन की गति से पकडऩा चाहते हैं या देखना चाहते हैं तो उत्तर आता है, न। यहाँ एक बात स्पष्ट है कि जब वह शरीर में च्तिष्ठश्रस्मिन्नयोज् अर्थात स्थिति रहती है तभी यह प्राण तत्व अर्थात च्मातरिश्वाज् विचरण कर सकता है। इसीलिये हम कहते हैं कि बिना साक्षात्कार के नहीं समझ सकते कि वह चलती है। आत्मा को जब हम मन, बुद्धि, चित्त और अंहकार के वशीभूत हो कर देखते है, या समझने का प्रयत्न करते हैं तो वह हमें शोकाकुल और प्रसन्न दिखती है। क्योंकि मन की गति उतनी ही है जितना वह संकल्प और विकल्प कर सकता है। संकल्प विकल्प की क्षमता उतनी ही है जितनी हम देख या बुद्धि से कल्पना कर सकते हंै। अर्थात जो कल्पनातीत है। इन्द्रियों से परे है उसे हम इन्द्रिय जनित सुख-दुख में कैसे बाँध सकते हैं। इसीलिए तुलसी दास ने कहा च्जानति तुम्हहि तुम्हहि होई जाईज् फिर जानने के लिए कुछ बचता ही नहीं। जब तक हम च्तमसावृत्ताज् है तब तक उसे जान नहीं सकते और जब तमस से बाहर आते हैं तो उसी के प्रकाश में समाहित हो जाते हैं तब जानने और जनाने बाले का अस्तित्व ही नहीं रहता।

आत्मा अपने शुद्ध चैतन्यरूप में स्थिर है। मन संकल्प विकल्प के सहारे गतिमान है। अपने वेग के कारण पार्थिव देह में स्थित मन ब्रह््मलोक आदि तक जाता है। किन्तु आत्म चेतन्य का प्रतिबिम्ब वहाँ पहले से उपस्थित होता है, अत: इसे मन से भी ज्यादा वेगवान कहा। इसी नित्य, चैतन्य-स्वरूप आत्मतत्व के होनेे पर ही मातरिश्वा अंतरिक्ष में चलने के कारण समस्त जीवों में प्राण का पोशण करने वाला, गतिशील स्वभाव (इन्द्रिय = बाह्य करण, मन बुद्धि =अन्त: करण) इसी मातरिश्वाज् के कारण जगत को धारण करते हैं। अथवा उस आत्मतत्व के भय से ही वायु बहता है। (भीशास्मात् वात: पवते-२/८/१ तैत.) च्तदेजति तन्नेजति.....ज्ज् क्या परमात्मा चलता है ? तुलसी दास ने कहा - च्च्बिन पग चले सुनै बिन काना, बिन कर करे करम बिधि नाना।ज्ज् तो क्या यह असत्य है ? नहीं। उपनिषद कहता है। वह चलता है। तदेजति। वह नहीं भी चलता है, तन्नेजति। (तत् ऐजति= वह चलता है), (तत न ऐजति = वह नहीं चलता है), (तत् दूरे = वह दूर है), (तत् अन्तिके = वह पास है), ( सर्वस्य अंतर:, अस्य सर्वस्य बाह्यत:),(ईषा.), (बृहदो-३/४/१ कहता है- च्या आत्मासर्वान्तर:ज्ज् अर्थात जो आत्मा सब के भीतर है तथा प्रज्ञानघन एव ज्ज् अर्थात जो चेतन्य का घनीभूत रूप है) अर्थात यह निरन्तर तथा शून्य रहित है।

६-मनुष्य घृणा से कैसे मुक्त हो

जो ज्ञानी व्यक्ति सभी जीवों को अपनी आत्मा में देखता है और अपनी आत्मा को सभी जीवों में देखता है वह इस अनुभूति के कारण किसी से घृणा नहीं करता है। अर्थात च्मैं इस कार्यरूप (मन, इन्द्रिय, बुद्धि आदि) करण के संघात रूप शरीर की आत्मा हूँ- च्सर्ववृतिज्ञान का साक्षीभूत हूँ, (मन, इन्द्रिय, बुद्धि आदि) का प्रकाशक, एकाकी गुणातीत हूँ; वैसे ही इस साक्षी रूप से अव्यक्त (प्रकृति) से तृण पर्यन्त सबकी आत्मा में हूँ।ज्ज् अब विचारणीय प्रश्न यह है कि मनुष्य किसी से घृणा क्यों करता है। क्यों कि वह मानता है कि यह वस्तु उससे अलग है। 

७- एकात्मभाव ही मोह और शोक को भगाता है- च्च्एस्मिन्सर्वाणि...एकत्वमनुपश्यतज्ज्। अर्थात अविद्या के फलस्वरूप मोह और शोक होता है। बुद्ध की कथा आती है। श्रावस्ती में एक महिला रहती थी। वह बुद्ध के पास गई । बुद्ध ने कहा तुम इस तरह भीगी और दुखी क्यों हो। महिला ने कहा, मेरा बेटा मर गया है और मैं उसके शोक में हूूूँ। मैं उसके लिये रोज स्नान करती हूँ। बुद्ध ने कहा, यह श्रावस्ती तुम्हारी है? तुम यहाँ के लोगों को अपना बेटा मानती हो। उसने कहा हाँ। तो यहाँ कितने लोग रोज मरते है। उसने कहा बीस पच्चीस तक और कभी-कभी दो, एक भी। क्या तुम उन सब के लिए शोक करती हो ? नहीं ? क्यों ? क्योंकि उन्हें मैंने अपना नहीं माना। अभी तो कह रही थी कि सभी अपने हैं। फिर ऐसा क्यों। महिला को बात ध्यान में आ गई। और उसने कहा प्रभु, मैं अब शोक रहित हूँ। अपने को कुछ से जोड़ लेना और कुछ से पृथक मानना यही शोक और घृणा का कारण है। किन्तु यह इतना सरल नहीं है। इसके लिए सतत अभ्यास और चिंतन की आवश्यकता है। आत्मा और परमात्मा को समझने की आवश्यकता है।

८- आत्मा को कैसे समझे ? इसका लक्षण क्या है? 

च्च्स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरं शुद्धम पापविद्धम।

कविर्मनीषी परिभू: स्वयम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान व्यदधाच्छाश्वतीभ्य: समाभ्य:।ज्ज्

पर्यगात अर्थात सब ओर गया हुआ। अपापविद्धम = पापरहित, शुक्रम=शुद्ध, तेजामय, अव्रणम=क्षतरहित, कवि=सर्वद्रष्टा, परिभू= सबसे ऊपर रहने वाला। उसी आत्मा ने नित्य संवत्सर (वर्ष) नामक प्रजापतियों के लिए यथायोग्य कर्तव्यों का विधान किया है। कवि का अर्थ है अतीतदर्शी। (न अन्यो अतो अस्ति द्रष्टा। बृउ ३/८/११ अर्थात इस आत्मा के अतिरिक्त कोई द्रष्ट्रा नहीं है।) परिभू: का दूसरा अर्थ बिना माता पिता के जन्म लेने वाला।

यहाँ दो बाते आयी है, च्ईषा वास्यं इदं सर्वं...ज्ज्, कुर्वन्नेवेह  कर्माणिज्ज्, अर्थात सब को ईश्वर से आच्छादित कर लेना चाहिए। किसी के भी धन का लोभ मत करो।ज्ज् यह प्रथम वेदार्थ है। जीने की इच्छा रखने वाले को ज्ञान निष्ठा नहीं कर्म निष्ठा आवश्यक है। 

९. कर्म का विधान किसे ?

अज्ञानी तथा सकाम व्यक्ति के लिये कर्म आवश्यक है।  च्च्सो अकामयत जाया में स्यातज्ज् (वृ.उ.१/४/१७) उसने कामना की मुझे पत्नी होज्ज् तथा च्च्मन एव अस्य आत्मा वाग्जायाज्ज्  च्मन ही उसकी आत्मा है और वाणी उसकी पत्नी।ज् आगे फिर वही उपनिषद कहता है- च् किं प्रजया करिश्यमों मे षां नो अयमात्मा अयं लोक:ज् अर्थात च्हमारी आत्मा ही हमारा लोक है अत: हम संतान लेकर हम क्या करेगे? (बृ.उ. ४/४/२२)। यह विषय सामान्य जन को समझ में नहीं आता। अत: श्वेतोपनिषद का ऋषि कहता है- च्च् अत्याश्रमिम्य: परमं पवित्रं प्रोवच सम्यक् ऋषि संगजुष्टमज्ज् । १/६/२१. ऋषि संघों द्वारा सेवित उस परम पवित्र तत्व को अंत्याश्रमियों (संन्यासियों)के लिए भलीभांति कहा गया है।ज्ज्

अन्त में विचार करना पड़ेगा कि कर्मकाण्ड और उपासना का समुच्चय होना चाहिए- च्च्अन्ध तम: प्रविशन्ति येऽपिद्यामुपासते। विद्यायाम = देवतोपासना और अविद्यायाम= कर्मकाण्ड।

विद्या- च्सा विद्या या विमुक्तयेज्।

च्च्विद्या चाविद्यां च यस्तद्वेदोभय सह।

अविद्यया मृत्युं तीत्र्वा विद्ययामृतमश्नुतूज् -ईष-११

जो व्यक्ति उपासना (देवता-ज्ञान) तथा कर्म-दोनों को साथ साथ जानता है, वह कर्म के द्वारा मृत्यु को पार करके उपासना के द्वारा अमृत (देवत्व) को प्राप्त कर लेता है।

देवताओं की पूजा करके आदमी सिद्धि को प्राप्त करता है- च्ईश्वरीय गुणों को ऐश्वर्य कहते हैं। आठ ऐश्वर्य या सिद्धियाँ इस प्रकार हैं-

च्च्अणिमा महिमा तथा गरिमा लघिमा तथा।

ईषित्वं च वषित्वं च प्राप्ति: प्रकाम्यमेव च।।

अर्थात शूक्ष्म हो जाना, विषाल हो जाना, भारी हो जाना, हल्का हो जाना, शासक बन जाना, वश में कर लेना, इच्छानुसार वस्तु की प्राप्ति और जैसा चाहे  वैसा रूप बना लेना।

च्च्सम्भूतिं च विनाशं च यस्तद्वेभीय सह।

विनाशेन मृत्युं तीत्र्वा सम्भूत्यामृतमश्नुतेज्ज् -

अर्थात जो असंम्भूत अर्थात कारण ब्रह्म तथा विनाश अर्थात कार्य ब्रह्म (हिरण्यगर्भ)-दोनों को साथ साथ उपासना करने योग्य जानता है, वह कार्य-ब्रह्म की उपासना से मृत्यु को पार करके कारण-ब्रह्म की उपसना से अमृत अर्थात् प्रकृतिलय की अवस्था को प्राप्त करता है। ईषा-१४  अर्थात सभी जीव अपनी आत्मा ही हो जाते हैज्ज् (च्आत्मा-एव-अभूद्-विजानत:ज्)

ऋषि कहता है-

च्च्हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम।

 तत्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये।।

अर्थात हे जगत के पोशक! (पूषा) सूर्यदेव स्वर्णिम पात्र (हिरण्यगर्भ) के द्वारा सत्य (कार्यब्रह्म) का जो मुँह ढका हुआ है, मुझ सत्यधर्मा (उपासक) के दर्शन हेतु वह ढक्कन हटा दीजिए। ईषा.१५

च्च्पूषान्नेकर्षे यम सूर्य प्रजापत्य व्यूह रश्मीन्समूह तेजा यत्ते रूपं कल्याणतमं तत्ते पश्यामि योऽसावसौ पुरुष: सोऽहमास्मि।। १६ ईषा

अर्थात जगत का पोशण करने के कारण सूर्य को पूषा कहते है; अत: हे पूषा! (गगन में) एकाकी विचरण करने के कारण वे एकर्षि कहे जाते हैं; (अत:) हे एकर्षि, प्राणों तथा रसों को खीच लेने के कारण वे सूर्य कहलाते हैं; (अत:) हे सूर्य! प्रजापति के पुत्र होने से वे प्राजापत्य हैं: (अत:) हे प्राजापत्य! अपनी रश्मियों को व्यूह अर्थात हटाइये। अपने तेज अर्थात् ताप देनेवाले प्रकाश को एकत्र करके खीच लीजिए।१६, ईषा.

च्च्वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्त शरीरम।

ऊँ क्रतो स्मर कृतँ स्मर क्रतो स्मर कृतँ स्मर।।

अर्थात अब मेरा प्राण सर्वव्यापी वायु में विलीन हो जाय; मेरा शरीर भस्म में परिणत हो जाय। ऊँ, हे मेरे मन! अब तक अपने द्वारा किये हुए कर्म तथा उपासनाओं का स्मरण करो, स्मरण करो।१७ ईषा.

व्याहृतियाँ- भू:, भुव: तथा स्व:- ये तीन व्याहृतियाँ हैं। (तै.उ. १/५/१) । इनमें से च्भू:ज् अर्थात पृथ्वी का सिर है, च्भुव:ज् अर्थात आकाश उसकी दो भुजाएं हैं और च्स्व:ज् अर्थात स्वर्ग उसके दो चरण हैं। (बृ.उ.५/५/३)

च्च्अग्रे नय सुपथा राये अस्मान्विश्वानि देव वयुनानि विद्वान।

युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठंते नम उक्तिं विधेम।।ज्ज् १८

अर्थात हे अग्नि! हे देव! आप हमारे समस्त कर्म फलों के ज्ञाता हैं; हमें अपने कर्मफलों का भोग कराने के लिए अच्छे मार्ग से ले चलिए। कुटिल पापों को हमसे दूर कीजिए। हम आपको बारम्बार नमन करते हैं।

इस तरह से ईषोपनिषद में ऋषि सूर्य और अग्नि देव से प्रार्थना करता है कि उसे अमृत की ओर ले चलो।

इस तरह से ऋषि अविद्या (कर्म) के द्वारा मृत्यु को पार करके विद्या (उपासना) के द्वारा अमृतत्व को प्राप्त कर लेता हैज्ज्  वह विनाश के (कार्यब्रह््म) के द्वारा मृत्यु को पार करके, सम्भूति (कारणब्रह्म) की उपासना से अमृतत्व की प्राप्ति कर लेता है।ज्ज् 

च्च्विद्यया देवलोका: अर्थात विद्या से देवलोक  मिलता है।- बृउ.१.५.१६

च्च्विद्यया तदारोहन्तिज् अर्थात विद्या ऊपर उठाती है। बृउ.१.५.

च्कर्मणा पितृलोकाज् अर्थात कर्म से पितृलोक मिलता है।- ईष.९

स्वामी विवेकानंद जी कहते हैं- च्च्उपनिषद् शक्ति की विशाल खान है। उपनिषदों में ऐसी प्रचुर शक्ति विद्यमान है कि वे समस्त संसार को तेजस्वी बना सकते हैं। उनके द्वारा समस्त संसार पुनरूज्जीवित, सशक्त और वीर्यसम्पन्न हो सकता है। समस्त जातियों को, सकल मतों को, भिन्न-भिन्न सम्प्रदाय के दुर्बल, दु:खी, पददलित लोगों को स्वयं अपने पैरों खड़े होकर मुक्त होने के लिए वे उच्च स्वर में उद्घोष कर रहे हैं। मुक्ति अथवा स्वाधीनता दैहिक स्वाधीनता, मानसिक स्वाधीनता, आघ्यात्मिक स्वाधीनता यही उपनिषदों के मूल मंत्र हैं।ज्ज्

१०-कुण्डलनी जागरण यानी तेजोऽस्मि

(क) योग दर्शन एक महत्वपूर्ण तथा साधकों के लिए उपयोगी दर्शन है। इसका परिचय  भोजवृति और व्यासभाष्य में मिलता है। स्वामी आमानन्द के च्पातंजलि योग प्रदीप एवं श्री हरिदास गोयन्दका जी का पातंजलि योग दर्शन ज् महत्वपूर्ण ग्रंथ हैं। इनके अतिरिक्त अनेक पुस्तकें योग शास्त्र पर हैं। प्रत्येक योग प्रेमी को योग सीखने, करने के पूर्व कुछ महत्वपूर्ण शब्दों उनके निहितार्थ को समझना अतीव आवश्यक है। इसके कारण एक तो योग क्या है उसकी सम्पूर्णता, विस्तार और गहराई समझ में आती है, दूसरा हमारी दृष्टि की व्यापकता बढ़ती है और धीरे-धीरे मन की जगती उत्सुकता शून्य हो जाती है। अत: यहाँ क्रमश: योग के लक्षण, स्वरूप और उसकी प्राप्ति, वृत्तियों के भेद, योग के भेद आदि की शब्दावली का उल्लेख किया जा रहा है।

श्वेताश्वतरोपानिषद कहता है- च्च्यदाऽऽत्मतत्वेन तु ब्रह्मतत्वं दोपोपमेनेह युक्त: प्रपष्यते।

अजं धु्रवं सर्वतत्वैविशुद्वं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाषै:।।

जब योगी यहाँ दीपक के सदृश्य (प्रकाशमय) आत्मतत्व के द्वारा ब्रह््म तत्व को भली भांति  प्रत्यक्ष देख लेता है, उस समय वह उस अजन्मा, निश्चल, समस्त तत्वों से विशुद्व परमदेव  मरमात्मा को जानकर सब बन्धनों से सदा के लिये छूट जाता है। योगशास्त्र से वर्णित साधनों का प्राय: उपनिषद, गीता, भागवत आदि सभी धर्मग्रंथ समर्थन करते हैं। योगशास्त्र में प्रवृत्ति के चौबीस भेद एवं आत्मा और ईश्वर-इस प्रकार कुल छब्बीस तत्व माने गये हैं। उसमें प्रकृति तो जड़ और परिणामशील है तथा मुक्त पुरुष और ईश्वर- ये दोनों नित्य, चेतन, स्वंप्रकाश, असंग, देशकालातीत तथा निर्विकार एवं अपरिणामी है। प्रकृति में बँधा पुरुष अल्पज्ञ, सुख-दु:खों का भोक्ता, अच्छी -बुरी योनियों में जन्म लेने वाला और देश कालातीत होते हुए भी एक देशी-सा माना गया है।

ईश्वर कैसे मिलेगा- च्च्नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुनाश्रुतेनज्ज् (मुण्डको.)

अथ योगानुशासनम् -परम्परागत योगविषयक शास्त्र की चर्चा करते हैं।

योगश्चित्तिवृत्तिनिरोध:- चित्त की वृत्तियों का निरोध योग है। अर्थात चित्त की वृत्तियों का सर्वथा रुक जाना योग है। यह स्थिति कब आती है ? च्च्तदा द्रष्टु:स्वरूपेऽवस्थानम।ज्ज् जब चित्त की वृत्तियों का पूर्ण निरोध हो जाता है, उस समय द्रष्टा (आत्मा) अपने स्वरूप में स्थिति हो जाती है; अर्थात केवल्य अवस्था को प्राप्त हो जाता है। यदि चित्त वृत्तियों का अंश मात्र भी निरोध शेष रह जाता है तब तक द्रष्टा अपने चित्त की वृत्ति के अनुरूप अपना स्वरूप समझता रहता है, उसे अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान नही होता है। फिर प्रश्न उठता है, यह होता कैसे है? ये वृत्तियाँ कितने प्रकार की होती हैं। चित्त की वृत्तियाँ क्या हैं, आदि-आदि अनेक प्रश्न उठना जिज्ञासु के लिये स्वाभाविक है।

चित्त वृत्तियाँ-

वैसे तो चित्त वृत्तियाँ असंख्य हैं किन्तु मोटे तोर पर उन्हें पाँच प्रकार से बाँटा जा सकता है। 

चित्त वृत्तियाँ पाँच हैं- 

च्च्प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतय:ज्ज् (१) प्रमाण (२) विपर्यय (३) विकल्प, (४)निद्रा- स्वप्न (५) स्मृति। यह सभी वृत्तियाँ दो प्रकार की होती हैं- च्च्वृत्तय:पंचतय: क्लिष्टाक्लिष्टा ज्ज्। क्लिष्ट अर्थात अविद्या आदि क्लेषों को पुष्ट करने वाली और योगसाधना में विघ्नरूप होती हैं। अक्लिष्ट-क्लेशों को क्षय करने वाली और योगसाधन में सहायक होती हैं। 

प्रमाण के तीन प्रकार हैं- (१) प्रत्यक्ष प्रमाण वृत्तियाँ-मन और इद्रियों के जानने में आने वाले जितने भी प्रदार्थ हैं, जो वैराग्य के विरोधी भावों को बढ़ानेवाले हैं। उनसे होने वाला प्रमाण वृति क्लिष्ट है। (२) अनुमान प्रमाण- किसी प्रत्यक्ष दर्शन के सहारे युक्तियों द्वारा जो अप्रत्यक्ष पदार्थ के स्वरूप का ज्ञान होता है, वह अनुमान से होने वाली प्रमाण वृत्ति है। (३) आगम प्रमाण- वेद, शास्त्र और आप्त पुरुषों के वचन को आगम कहते है। 

विपर्यय-च्विपर्ययोंमिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठमज्।। 

जो उस वस्तु के स्वरूप में प्रतिष्ठित नही है, उसे उसमें मानना ऐसा मिथ्याज्ञान विपर्यय है। अर्थात विपरीत ज्ञान विपर्यय है। विपर्यय और अविद्या में कभी-कभी एकता मालुम होती है किन्तु ऐसा नही है। विर्पयय वृत्ति का नाश तो प्रमाणवृत्ति से हो जाता है किन्तु अविद्या चित्तवृत्ति नही मानी जाती। अविद्या तो केवल्य अवस्था तक निरनतर विद्यमान रहती है। अत: यही मानना ठीक है कि चित्त का धर्मरूप विपर्यय अन्य पदार्थ है तथा पुरुष और प्रकृति के संयोग की कारण रूपा अविद्या उससे सर्वथा भिन्न है। अविद्या का नाश असम्प्रज्ञात योग से होता है (जब विवके ज्ञान उदित होता है तो योगी ऋतम्भरा हो जाता है, उक्त प्रकार से उस योगी के अविद्या के पाँचों क्ेलश (अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश) तथा शुक्ल, कृष्ण और मिश्रित तीनों प्रकार के कर्म संस्कार समूल नष्ट हो जाते हैं। च्तत:क्लेषकर्मनिवृतिज्। अत: यह मानना उचित है कि चित्त का धर्मरूप विपर्यय वृत्ति अन्य प्रदार्थ है तथा पुरुष और प्रकृति के संयोग की कारणरूपा अविद्या उससे सर्वथा भिन्न है। (३) विकल्प- च्शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पज्। अर्थात जैसे कोई मनुष्य भगवान के  रूप का ध्यान करता है पर जिस रूप का ध्यान करता है उसे न तो उसने देखा है, न वेद-शास्त्र सम्मत है, और न ही वह भगवान का वास्तविक स्वरुप है केवल कल्पना मात्र है विकल्प है। किन्तु भगवान के ध्यान, चिन्तन में सहायक होने से अक्लिष्ट है।

(४) निद्रा- च्अभावप्रत्ययालम्बना वृत्तिर्निद्राज्- ज्ञान के अभाव का ज्ञान जिस चित्तवृति के आश्रित रहता है, वह निद्रावृत्ति है।ज्ज् निद्रा भी चित्त की वृत्तिविशेष है। कई दर्शनकार निद्रा को वृत्ति नही मानते, इसे सुषुप्ति अन्तर्गत मानते हैं। गीता में आया है- 

युक्ताहार विहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु। 

युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दु:खहा।।

(५) स्मृति- अनुभूतिविषयासम्प्रमोष: स्मृति:- उपर्युक्त प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, और निद्रा या स्वप्न इन चार प्रकार की वृत्तियों द्वारा अनुभव में आये हुए विषयों से  जो संस्कार चित्त में पड़े हैं, उनका पुन: किसी निमित्त को पाकर स्फुरित  हो जाना ही स्मृति है। इन पाँचों प्रकार की वृत्तियों के क्लिष्टाक्लिष्ट दो-दो भेद हैं । 

चितवृत्तियों का निरोध- 

अब इन चित्तवृत्तियों का निरोध कैसे करें ? योगी कहता है च्अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोध:ज्। गीता कहती है- च्अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृहयतेज् (६.३५)। चित्तवृत्तियों के निरोध के दो प्रकार हैं-अभ्यास और वैराग्य। 

सामान्यत: चित्तवृत्तियों का प्रवाह परम्परागत संस्कारों के बल से सांसारिक भोगों की ओर बहता चलता है, उस प्रवाह को रोकने का उपाय च्वैराग्यज् तथा उसे च्कल्याणज् मार्ग में ले जाने का उपाय च्अभ्यासज् है। 

अभ्यास क्या है-

च्तत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यासज् अर्थात जो स्वभाव से चंचल है ऐेसे मन को किसी एक ध्येय में स्थिर करने के लिये बारम्बार चेष्टा करते रहने का नाम अभ्यास है। गीता कहती है- च्स निश्चयेन  योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसाज्। योग का अभ्यास बिना उकताये बिना समय सीमा के निश्चित किये निष्ठापूर्वक करते रहना है।  

१२-वैराग्य क्या है-

च्दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यमज्। यहाँ दो शब्द हैं, दृष्टा और अनुश्रविक । अन्त:करण और इन्द्रियों के द्वारा प्रत्यक्ष अनुभव में आनेवाले इस लोक के समस्त भोगों का समाहार यहाँ दृष्ट शब्द में आया है। जो प्रत्यक्ष उपलब्ध नही है जिनकी बड़ाई वेद, शास्त्र उपनिषद और भोगों का अनुभव करने वाले पुरुषों से सुनी गयी है, ऐसे भोग्य विषयों का समाहार आनुश्रविक है। अत: यहाँ कहा जा सकता है कि देखे सुने हुए विषयों में सर्वथा तृष्णारहित चित की जो वशीकार नामक अवस्था है, वह वैराग्य (तत्परमं पुरुषख्यातेर्गुणवैतृष्ण्यम) है। दृष्टा- शुद्ध निर्विकार, कूटस्थ एवं असंग है। केवल चेतनामात्र ही जिसका स्वरूप है तो भी बुद्धि के सम्बध से बुद्धि तत्व के अनुरूप देखने वाला होने से दृष्टा कहलाता है। बुद्धिवृत्ति में रहकर जब तक आत्मतत्व दृष्ट बना रहता है तभी तक वह दृष्टा है-सज्ञा है। दृष्य से सम्बन्ध होते ही वह चेतन मात्र, सर्वथा शुद्व और निर्विकार हो जाता है।

चित्त के वशीकार संज्ञा- अन्त:करण और इन्द्रियों के द्वारा प्रत्यक्ष में आने वाले इस लोक के समस्त भोगों का समाहार यहाँ दृष्ट शब्द में किया गया है। कामना रहित चित्त की जो वशीकार नामक अवस्था है, वह अपर वैराग्य है। संज्ञारूप वैराग्य से जब साधक की विषय कामना का आभाव हो जाता है और उसके चित्त का प्रवाह समान भाव से अपने ध्येय के अनुभव में एकाग्र हो जाता है उसके बाद समाधि परिपक्व होने पर प्रकृति और पुरुष विषयक विवेक ज्ञान प्रकट होता है, उसके होने से जब साधक की तीनों गुणोंं (सत, रज, तम) और उनके कार्य में किसी प्रकार की किंचिन्मात्र भी तृष्णा नहीं रहती, जब वह सर्वथा आप्तकाम निष्काम हो जाता है ऐसी सर्वथा रागरहित अवस्था को अपर-वैराग्य कहते हैं । गीता कहती है जब योगी न तो इन्द्रियों के विषयों में और न कर्मों में ही आसक्त होता है तथा सब प्रकार के संकल्पों का भलीभांति त्याग कर देता है तब वह योगारूढ़ कहलाता है।

(यदाहिनेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते, सर्वसंकल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते) 

सम्प्राप्त योग- विचार, विर्तक, आनन्द और अस्मिता इन चारों के सम्बन्ध से युक्त (चित्तवृति समाधान) च्सम्प्रज्ञात:ज्, सम्प्रज्ञात योग है। सम्प्रज्ञात योग के ध्येय तीन पदार्थ माने गये हैं, ग्राह्य (इन्द्रियों के स्थूल एवं सूक्ष्म विषय), ग्रहण (इन्द्रियों और अन्त:करण), ग्रहीता (बुद्धि के साथ एकरूप पुरुष)। जब तक शब्द, अर्थ और ज्ञान का विकल्प वर्तमान है तब तक सवितर्क समाधि है जब विकल्प समाप्त हो जाता है तब निर्वितर्क समाधि हैं । इसी को सविचार और निर्विचार कहा जाता है। कभी-कभी निर्वचार समाधि में आनन्द का अनुभव और अहंकार का सम्बन्ध रहता है तब वह आनन्दानुगता समाधि है।

निर्वीज समाधि या कैवल्य अवस्था- प्रकृति के संयोग का आभाव हो जाने पर जब द्रष्टा की अपने स्वरूप में स्थिति हो जाती है, उसे कैवल्य अवस्था कहते हैं।

योगभ्रष्ट साधक- कैवल्य पद की प्राप्ति होने के पहले जिनकी मृत्यु हो गयी, वे योगकुल में जन्म ग्रहण करते है; तब उनको पूर्वजन्म के योगाभ्यास विषयक संस्कारों के प्रभाव से अपने स्वरूप या स्थिति का तत्काल ज्ञान हो जाता है। ऐसे साधक योगभ्रष्ट कहलाते है।

सिद्धि क्या है - किसी भी साधन में प्रवृत्त होने का और अविचल भाव से उसमें लगे रहने का मूल कारण श्रद्धा (भक्तिपूर्वक विश्वास) ही है। च्च्श्रद्वावीर्यस्मृतिसमाधिप्रज्ञापूर्वक:ज्। श्रद्वा, वीर्य, स्मृति, समाधि और प्रज्ञापूर्वक, (क्रम) से सिद्धि प्राप्त होती है।ज्

श्रद्वा एवं वीर्य- इन दोनों का संयोग मिलने पर साधक की स्मरण शक्ति बलवली हो जाती है। उसमें योगसाधन के संस्कारों का ही बारम्बार प्राकट्य होता रहता है। अत: उसका मन विषयों से विरक्त होकर समाहित हो जाता है; इसी को समाधि कहते हैं। इसमें अन्तकरण के स्वच्छ हो जाने पर साधक की बुद्वि च्ऋतम्भराज् सत्य को धारण करने वाली हो जाती है।

च्श्रद्वावान लभते ज्ञानं तत्पर: संयतेन्द्रिय:।

ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिभचिरेणधिगच्छतिज्।। (४/३९,गीता)

सिद्धि प्राप्त करने हेतु योगी को अभ्यास और वैराग्य में तीव्रता लानी होती है। अभ्यास और वैराग्य का जो क्रियात्मक बाह्य स्वरूप है वह च्वेगज् नाम से जाना जाता है। च्ईश्वर प्राणिधनाद्धाज्। ईश्वर प्राणिधान में भी (निर्वीज समाधि की सिद्धिशीघ्र्र प्राप्ति होती है)।  

यहाँ एक प्रश्न आता है, क्या ईश्वर प्रसन्न होता है ? तो फिर वह ब्रह्म कैसे होगा ? 

१३-ईश्वर कौन है -

च्क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्ट: पुरुषविशेष ईश्वर:ज्। क्लेश, कर्म, विपाक और आशय से जो (अपरामृष्ठ) है, असम्बद्व है, वह ईश्वर है। ईश्वर ज्ञान वैर यश, ऐश्वर्य की पराकाष्ठा है। क्या ईश्वर इस कारण से मिलता है ? च्नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुनाश्रुतेन।ज्(मुण्ड.) ईश्वर स्वयं अनादि है क्योंकि वह सब के आदि है (योग,१०-२-३) वह कालातीत है। उसका वाचक च्प्रणवज् है। च्तस्य वाचक: प्रणव:ज् (प्रणव ऊँकार है) (प्रश्नोपनिषद में पाँचवे प्रश्नोत्तर में और माण्डूक्योपनिषद में ऊँकार की उपासना का विषय विस्तार से है) ऊँ, परमेश्वर का वेदोक्त नाम है (गीता-१७-२३, कठो.१/२/१५-१७) साधक को ईश्वर के नाम का जप और उसके स्वरूप का स्मरण चिन्तन करना चाहिए। महर्षि शाण्डिल्य ने कहा है- च्च्सा परानुरक्त्रिीश्वरेज्ज्। देवर्षि नारद ने भक्तिसूत्र में कहा है- च्सात्वस्मिन परमप्रेमरूपा चज्। अर्थात उस परमेश्वर में अतिशय प्रेमरूपता ही भक्ति है। यह अमृत स्वरूपा है-च्अमृतस्वरूपा चज्। ईश्वर की भक्ति में आयु, रूप आदि का कोई अर्थ नही होता है-

च्च्व्याधस्याचरणं धुवस्य च वयो विद्या गजेन्दस्य का 

 का जातिर्विदुरस्य यादवपतेरुप्रस्य किं पौरषम्।

कुव्जाया: कामनीरूपमधिकं किं तत्सुदाम्नो धनं

भक्त्या तुश्यति केवलं न च गुणैर्भक्ति प्रियो माधव:।।

श्रीमद्भागवत में प्रहलाद ने कहा है-

च्श्रवणं कीर्तनं विष्णों: स्मरणं् पादसेवनम।

अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनमज्।।(७/५/२३)

इस भक्ति, नाम जप से विघ्नों का अभाव (अन्तरायाभाव:) होता है तथा अन्तरात्मा के स्वरूप का ज्ञान (प्रत्यच्केतनाधिगम) होता है। योग साधना में लगे हुए साधक के चित्त में विक्षेप उत्पन्न करने के लिये उसे साधना से विचलित करने के लिये योगमार्ग में नौ प्रकार के बिघ्न आते हैं-(१) व्यधि- शरीर, इन्द्रियों और चित्त में विकार (रोग) पैदा करना या हो जाना, (२) स्त्यान- अकर्मण्यता, साधन में प्रवृति न होना, (३) संशय- फल में सन्देेह, (४) प्रमाद- योग साधना में (बे-परवाह), (५) आलस्य- चित्त और शरीर में भारीपन, (६) अविरति- इन्दियों में आसक्ति एवं वैराग्य का अभाव, (७) अलब्धभूमिकत्व-साधना करने पर भी योगभूमि की अप्राप्ति,   (८ ) भ्रान्तिदर्शन- मिथ्याज्ञान हो जाना, (९)  अनवस्थितत्व- चित की एकाग्रता न होना। इसके साथ ही दूसरे अन्य पाँच विघ्न भी हैं- दु:ख, दौर्मनस्य, अंगमेजयत्व, श्वांस और प्रश्वांस ।

(अ) दु:ख- आध्यात्मिक, आधिभौतिक, आधिदैविक। 

आध्यात्मिक - काम, क्रोधादि के कारण व्याधि अथवा इन्द्रियों के कारण जो शरीर में ताप या पीड़ा होती है उसे आध्यात्मिक दु:ख कहते हैं। 

आधिभैतिक- मनुष्य,पशु, पक्षी, सिंह, व्याघ्र, मच्छर और अन्यान्य जीवों के कारण होने वाली पीड़ा का नाम च्अधिभौतिक दु:खज् है। 

आधिदैविक- सर्दी, गर्मी, वर्षा, भूकम्प आदि दैवी घटना से होनेवाली पीड़ा का नाम च्आधिदैविकज् दु:ख है।

(ब) दौर्मनस्य- इच्छा की पूर्ति न होने के कारण मन में क्षेाभ होता है उसे च्दौर्मनस्यज् कहते हैं।

(स) अंगमेजयत्व- शरीर के अंगों में कम्प होना च्अंगमेेेेेेजयत्वज् है।

(द) श्वांस- बिना इच्छा के बाहर की वायु का शरीर के भीतर प्रवेश करना ।

(इ) प्रश्वांस- बिना इच्छा के भीतर की वायु का बाहर निकलना।

इसे दूर करने के लिये च्एकातव्ताभ्यासज् करना चाहिए। जिससे चित्त शुद्ध होता है। 

(१) एकातव्ताभ्यास- इसके अन्तर्गत सुख, दुख, पुण्य-पाप, जिनके विषय है उन्हें चित्त के राग, द्वेष, घृणा, ईष्या, क्रोध और मलों का नाशकर चित्त को शुद्ध करना चाहिए। यह अभ्यास से होता है।

 (२) प्राणायाम -प्राणवायु को शरीर से बाहर निकालना तथा रोकना। रेचक, पूरक, कुम्भक  का यथा साध्य नियमानुसार अभ्यास करना। इससे साधक को विषयों का अनुभव कराने वाली विषयवती प्रवृति (योग-३-३६) जगती है और योगमार्ग में उत्साह बढ़ जाता है। अभ्यास के साधक की स्थिति च्विशोकाज् वा च्ज्योतिश्मतीज् की बन जाती है। जिस व्यक्ति के राग-द्वेष सर्वथा नष्ट हा जाते हैं वह विरक्त होता जाता है। कभी-कभी स्वप्न और निद्रा के ज्ञान भी इसमें सहायक होते है। क्योंकि चित्त से यदि राग-द्वेष हट गया है तो चित्त और इन्दियों में सत्वगुणों की बृद्धि होती है। इसके लिये जिसका जिसमें मन लगे, चित स्थिर हो उसी को ध्यान में लाकर अभ्यास करना चाहिए।

वशीकार- साधक को अभ्यास से प्राप्ति ऐसी स्थिति जिसमें साधक अपने चित्त को सूक्ष्म से सूक्ष्म और बड़े से बड़े पदार्थ पर स्थित कर लेता है। इसे ही सम्प्रज्ञात समाधि कहते हैं।

सम्प्राज्ञात समाधि दो प्रकार की होती है-(१) सवितर्का (२) निविर्तका

(१) सवितर्का- पदार्थ दो प्रकार के होतेे हैं -सूक्ष्म और स्थूल। इनमें से स्थूल को भी लक्ष्य बनाकर साधक उसके स्वरूप को जानने को चित्त में धारणा करता है तो पहले अनुभव में सका नाम, रूप और ज्ञान आता है जो विकल्पों का मिश्रण होता है। इस समाधि को सवितर्क समाधि कहते है। 

निर्वितर्का- स्मृति के भलीभांति लुप्त हो जाने पर रूप, नाम, ज्ञान शून्य हो जाता है केवल ध्येय मात्र के स्वरूप को प्रत्यक्ष करने की चित्त की स्थिति निर्वितर्का समाधि है। इसमें शब्द और प्रतीत का कोई विकल्प नहीं रहता। अत: इसे च्निर्विकल्पज् समाधि भी कहते हैं।

इसी प्रकार सूक्ष्म ध्येय पदार्थों से सम्बन्ध रखने वाली समाधि के भी दो भेद हैं-

(१) सविचार समाधि- नाम, रूप, ज्ञान के विकल्पों से मिला हुआ जो अनुभव होता है, वह स्थिति सविचार समाधि है।

(२) निर्विचार समाधि- जब चित्त के जिन स्वरूप का भी विस्मरण हो जाय तथा मात्र ध्येय का अनुभव हो निर्विकार समाधि कहलाती है।

सूक्ष्म ध्येय पदार्थ क्या हैं- पृथ्वी का सूक्ष्म विषय गंध तन्मात्रा, जल का रस तन्मात्रा, तेज का रूप, वायु का स्पर्ष, आकाश का शब्द। इनके सूक्ष्म विषय और मन सहित इन्द्रियों का सूक्ष्म विषय अहंकार, अहंकार का महतत्व, और महतत्व का सूक्ष्म विषय कारण प्रकृति है। 

च्च्ता एव सबीज: समाधि:ज्ज्। निर्वितर्क और निर्विचार समाधियाँ निर्विकल्प होने पर भी निर्बीज नही है। ये सब सबीज समाधि है। अत: कैवल्य अवस्था नही है। निर्विचार समाधि में ऋतम्भरा की स्थिति हो जाती है।

श्रुतिबुद्धि- वेद-शास्त्रों में किसी वस्तु का स्वरूप का वर्णन सुनने से जो तद्विषयक निश्चित होता है उसे श्रुतिबुद्धि कहते है।

अनुभव बुद्वि- जो अनुमान / प्रभाव से जिस स्वरूप का अनुभव होता है।

ऋतम्भरा- श्रुति और अनुभव दोनों के शून्य होने पर बुद्वि ऋतम्भरा होती है।

कर्माषय- मनुष्य जिस किसी वस्तु को अनुभव करता है, जो भी क्रिया करता है उन सब के संस्कार अन्त:करण में संग्रह होते हैं, ये ही मनुष्य को संस्कार चक्र में भटकाते हैं, इसके नाश से ही मनुष्य मुक्ति लाभ कर सकता है। ऋतम्भरा बुद्वि के प्रकट होने पर साधक को प्रकृति के यथार्थ रूप का भान हो जाता है तब उसे वैराग्य होता है।

च्च्तस्यापि निरोधे सर्वनिरोधान्निर्बीज: समाधि:।ज्ज्

कैवल्य अवस्था- जब ऋतम्भरा (सत्य) के प्रज्ञाजनित संस्कार से अभाव होता है तथा समस्त आसक्ति समाप्त हो जाती है, तब संस्कार के बीज का आभाव हो जाता है। इस अवस्था को कैवल्य-अवस्था कहते हैं। जब तक दर्शन (ज्ञान) शक्ति से मनुष्य इस प्रकृति के नाना रूपों को देखता रहता है, तब तक तो भोगों को भोगता रहता है। जब इनके दर्शन से विरक्त होकर अपने स्वरूप को झाँकता है तब स्वरूप दर्शन हो जाता है (योग ३.३५) फिर संयोग  की  आवश्यकता न रहने से उसका अभाव हो जाता है। यही पुरुष की कैवल्य अवस्था है। (३.३४)

विवेक ज्ञान- प्रकृति तथा उसके कार्य- बुद्धि, अहंकार, इन्द्रियाँ और शरीर इन सब के यथार्थ स्वरूप् का ज्ञान हो जाने से तथा आत्मा इनसे सर्वथा भिन्न ओर असंग है, आत्मा का इनके साथ कोई सम्बध नहीं है, इस प्रकार पुरुष के स्वरूप का अलग-अलग यथार्थ ज्ञान होता है, इसी का नाम विवेकज्ञान है। (योग ३.३४) उस समय चित्त विवेकज्ञान में निमग्न और केवल्य के अभिमुख रहता है। यह ज्ञान जब समाधि की निर्मज्जता-स्वच्छता  होने पर पूर्ण और निश्चल हो जाता है, तब वह अविप्लव  विवेक ज्ञान कहलाता है। यही मुक्ति का उपाय है। उसके बाद चित्त अपने आश्रय रूप महत्व आदि के सहित अपने कारण में विलीन हो जाता है तथा प्रकृति का जो स्वाभाविक परिणाम क्रम है, वह उसके लिये बंद हो जाता है। (योग३.३४) 

प्रज्ञा क्या है- जब निर्मल और अचल विवेक ख्याति के द्वारा  योगी के  चित्त का आवरण और मल सर्वथा नष्ट हो जाता है (योग ४.३१) तब सात प्रकार की उत्कर्ष अवस्था वाली प्रज्ञा (बुद्धि) उत्पन्न होती है। पहली चार प्रकार की कार्य विमुक्ति प्रज्ञा और अन्त की तीन चित्त मुक्त् िकी द्योतक है, अत: चित्तविमुक्ति प्रज्ञा है। 

कार्यविमुक्तिप्रज्ञा यानी कर्तव्यशून्य अवस्था के चार भेद इस प्रकार हैं- (१) ज्ञेयशून्य अवस्था -जो कुछ जानना था जान लिया अर्थात जितना गुणमय दृश्य है वह सब  अनित्य और परिणामी है यह पूर्णतया जान लिया। (२) हेयशून्य अवस्था -जिसका अभाव करना था कर दिया। अब कुछ भी अभाव करने योग्य शेष नही है। (३) प्राप्य प्राप्त  अवस्था- जो कुछ प्राप्त करना था, प्राप्त कर लिया। अब कुछ भी शेष नही। (४) चिकीर्षाशून्य अवस्था- जो कुछ करना था, कर लिया  अब कुछ करना शेष नही। 

चित्तविमुक्तिप्रज्ञा के तीन भेद हैं- (१)चित की कृतार्थता- चित ने अपना अधिकार भाग  और अपवर्ग देना पूरा कर दिया, अब उसका कोई प्रयोजन शेष नहीं रह। (२) गुणलीनता-चित्त अपने कारणरूप गुणों में  लीन हो रहा है क्योंकि अब उसका कोई कार्य शेष नहीं रहा। (३) आत्मस्थिति- पुरुष सर्वथा गुणों से  अतीत होकर अपने स्वरूप में अचल भाव से स्थित हो गया। 

उक्त सात प्रकार की प्रान्तभूमिप्रज्ञा को अनुभव करनवाला योगी कुशल (जीवनमुक्त)कहलाता है अैर चित्त जब अपने कारण में लीन हो जाता है तब भी कुशल (विदेह मुक्त) कहलाता है।

निर्बीज समाधि प्राप्ति करने के उपाय-

क्रियायोग- च्च्तप:स्वाध्यायेश्वर प्रणिधानानि क्रियायोग:। तप, स्वाध्याय एवं ईश्वर शरणागति ये तीनों क्रियायोग हैं। ये तीनों ही आदि योग के नियम के अन्र्तगत आते हैं। 

(१) तप- वर्ण, आश्रम, परिस्थिति और योग्यता के अनुसार स्वधर्म का पालन करना और उसके करने में शारीरिक, मानसिक कष्ट सहने की समाथ्र्य च्तपज् है।

(२) स्वाध्याय- अध्ययन (वेद, शास्त्र, महापुरूषों के जीवन चरित्र) तथा ऊँकार आदि किसी नाम का जप च्स्वाध्यायज् है।

(३) ईश्वर प्रणिधान- ईश्वर के नाम, गुण, लीला, ध्यान, प्रभाव में अपने को पूर्णत: समर्पित कर देना ईश्वर प्रणिधान है। तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान के माध्यम से अर्थात नियमों के पालन अथवा क्रियायोग से हम अपने क्लेशों को नष्ट करते हैं या क्लेशों से मुक्त होते हैं। 

क्लेश क्या है- च्अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेषा: क्लेषा:ज्ज्। अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश ये पाँच क्लेश कहलाते हैं। 

अविद्या जिनका कारण हैं- च्च्अविद्या क्षेत्रमुत्तरेशां प्रसुप्ततनुविच्छिन्नोद्वाराणामज्।

(१) प्रसुप्त- चित्त में विद्यमान रहते हुए जो क्लेश अपना कार्य नहीं करता, वह प्रसुप्त है, ऐसा कहा जाता है। प्रलय काल और सुषुप्ति अवस्था में चारों क्लेश प्रसुप्त अवस्था में रहते है। 

(२) तनु- क्लेशों में जो कार्य करने की शक्ति है जब उसका योग के साधनों से ह्रास कर दिया जाता है तब वे शक्तिहीन होकर च्तनुज् अवस्था में रहते हैं।

(३) विच्छिन- जब कोई क्लेश उदार होता है उस समय दूसरा क्लेश दब जाता है, उसे च्विच्छिन्नज् कहते हैं।

(४) उदार- जिस समय जो क्लेश अपना कार्य कर रहा हो उस समय उसे उदार कहते हैं।

अविद्या क्या है- च्च्अनित्याशुचिदु:खानात्मसु नित्यशुचि सुखात्मख्यातिरविद्याज्। अनित्य, अपवित्र, दु:ख और अनात्मा में नित्य, पवित्र, सुख और आत्मा का आत्मभाव की अनुभूति च्अविद्याज् है।

अस्मिता क्या है- च्च्दृगदर्शन शक्त्योरेकात्मतेवास्मिताज्ज्। अविद्या के नाश होने से च्अस्मिताज् का नाश होता  है। दृकशक्ति अर्थात दृष्टा च्पुरुषज् और दर्शन शक्ति अर्थात बुद्धि दोनों की एकता का प्रतीत होना अस्मिता है, जबकि यह सम्भव नही। पुरुष चेतन है, बुद्धि जड़ है अत: दोनों की एकता भ्रम है, अविद्या है। इसे अविद्या का नाश कर च्कैवल्यज् की  स्थितिज् प्राप्त की जा सकती है।

राग क्या है- च्सुखानुशयी राग:ज्। सुख की प्रतीत के पीछे रहने वाला क्लेष च्रागज् है।

द्वेष क्या है- च्दु:खानुशयी द्वेषज्। दु:ख की प्रतीत के पीछे रहने वाला क्लेश च्द्वेषज् है।

अभिनिवेश क्या है- जो मूढ़ एवं विद्वान दोनों में समान भाव से रहता है च्अभिनिवेशज् कहलाता है। जैसे -मृत्युभय। 

 उक्त क्लेशों को क्रियायोग के (तप:, स्वाध्याय, शरणागति) के अलावा ध्यान योग से भी दूर किया जाता है। क्लेश की दो वृतियाँ होती हैं- स्थूल और सूक्ष्म। क्रिया योग द्वारा स्थूल वृत्तियों को समाप्त किया जाता है। ध्यान योग द्वारा इन्ही शेष स्थूल वृत्तियों का सूक्ष्म बनाया जाता है। तब निर्बीज समाधि की प्राप्ति होती है। चूकि कर्मों की जड़ पाँच क्लेशों (अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, अभिनिवेश) में है, अत: इनके संचित रहने पर ( कर्माशय में ) बार-बार जन्म होता है। अविद्या आदि के नष्ट होने पर कर्माशय का भी नाश हो जाता है। कर्माशय के संस्कारों को दृश्य और अदृश्य (वर्तमान और भावी) दोनों रूपों में भोगा जाता है। किन्तु इसे अर्थात क्लेशों की स्थूल वृत्तियों को च्ध्यानहेयास्तदृवत्तय:ज् द्वारा सूक्ष्म बना  दिया जाता है।

दु:ख के रूप- परिणाम दु:ख, ताप दु:ख, संस्कार दु:ख, गुणवृत्ति विरोध सब में विद्यमान रहते हैं।

१४- दर्शन के चार प्रतिपाद्य विषय हैं- (१) हेय- दु:ख का वास्तविक  स्वरूप क्या है, जो हेय अर्थात त्याज्य है। (२) हेय हेतु- दु:ख कहाँ से उत्पन्न होता है, इसका वास्तविक कारण क्या है, जो हेय अर्थात त्याज्य दु:ख का वास्तविक हेतु है। (३) हान- दु:ख का नितान्त अभाव क्या है, अर्थात च्हानज् किस अवस्था का नाम है। हानम, हान पुनर्जन्मादि भावी दुखों का अत्यन्त अभाव। (४) हानोपाय- हानोपाय अर्थात नितान्त दु:खनिवृताक साधन क्या है।

कर्म क्या है- कर्म चार प्रकार के माने जाते हैं- पापकर्म, पुण्यकर्म, पाप-पुण्यकर्म युक्त कर्म, पाप-पुण्य रहित कर्म।  (योग,४-७)

विपाक क्या है- कर्म के फल का नाम विपाक कहलाता है। (योग, २-१३)

आशय क्या है- कर्म संस्कार के समुदाय का नाम च्आशयज् है। 

मुक्त जीव और ईश्वर में अन्तर क्या है- मुक्त जीव का कर्म से पीछे सम्बध था, भले ही वह वर्तमान में कर्मशून्य हो गया हो किन्तु ईश्वर का कभी कर्म से सम्बन्ध नही रहता है। इसीलिए मुक्त जीव च्पुरुष विशेषज् कहलाता है।

सातिशय- जिससे बढक़र कोई दूसरी वस्तु हो, वह सातिशय है।

निरतिशय- जिससे बढक़र कोई न हो, वह निरतिशय है।

ब्रह्मा क्या गुरु है - सर्ग के आदि में उत्पन्न होने के कारण सब का गुरु ब्रह्म को माना गया है। किन्तु वह काल से अवच्छेद है। (योग, ८-१७)

सात्विक गुणों के भेद- ये चार हैं- विशेष, अविशेष, लिंगमात्र और अलिंग। 

(१) विशेष- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश (पँाच स्थूल, पँाच ज्ञानेन्द्रिय, पँाच कर्मेन्द्रिय और मन ये सोलह विशेष) । 

(२) अविशेष- शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध ये पाँच तन्मात्राएं हैं। इन्हें सूक्ष्म महाभूत भी कहते हैं। अहंकार (जो मन और इन्द्रियों का कारण है) जो इन्द्रिय गोचर नही अविशेष है।

(३) लिंगमात्र- उपर्युक्त बाइस तत्वों के कारणभूत जो महतत्व है, उसका नाम बुद्धि है। उसका नाम लिंगमात्र है। (कठ.१.३.१०, गीता १३.५)

(४) अलिंग- मूल प्रकृति के तीनों गुणों (सत, रज, तम) की साम्यावस्था तथा महतत्व जिसका  पहला परिणाम (कार्य) है, उपनिषद, गीता जिसे अलिंग कहते हैं। (कठ.१.३.११, गीता १३.५)

 उपर्युक्त चारों सात्वादि गुण हैं। साम्यावस्था को प्राप्त गुणों के स्वरूप की अभिव्यक्ति नहीं होती इसलिए इस प्रकृति को चिन्ह रहित (अव्यक्त) कहते हैं।

१५-जीवनमुक्त योगी के लक्षण- विदेहमुक्त / कर्तव्यशून्य अवस्था के चार भेद इस प्रकार हैं-(ज्ञेयशून्य अवस्था) (हेयशून्य अवस्था) (प्राप्य प्राप्त अवस्था) (चिकीर्षाशून्य अवस्था)

चित्तमुक्त विमुक्त प्रज्ञा के तीन भेद हैं- (१) चित्त की कृतार्थता (२) गुणलीनता (३) आत्मस्थिति

संयोग- स्वशक्ति (प्रकृति) और स्वामिशक्ति (पुरुष) इन दोनों के स्वरूप के प्राप्ति का जो कारण है, वह संयोग है।

१६-(ग) अष्टांग योग

च्यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टवगांनि।।ज्

इनमें पाँच वहिरंग हैं जो इस प्रकार हैं-

(१)  यम च्अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमा:ज्

(क) अहिंसा - मन, वाणी और शरीर से किसी प्राणी को कभी किसी प्रकार किचिंत मात्र भी दु:ख न देना च्अहिंसाज् है, परदोषदर्शन का सर्वथा त्याग भी इसी के अन्तर्गत है। अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्याग:। जब योगी का अहिंसा भाव पूर्णतया दृढ़ स्थिर हो जाता है तब  उसके निकटवर्ती हिंसक जीव भी वैरभाव से रहित हो जाते हैं। इतिहास  ग्रन्थों में जहाँ मुनियों के आश्रमों की शोभा का वर्णन आता है, वहाँ वन जीवों में स्वाभाविक वैर का आभाव दिखलाया गया है। यह उन ऋषियों के अहिंसा भाव की प्रतिष्ठा का द्योतक है। (यहाँ कथा देनी है)

(ख) सत्य- सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वमज्। जो योगी सत्य का पालन करने में पूर्णतया परिकक्व हो जाता है, उसमें किसी प्रकार की कमी नहीं रहती, उस समय वह स्वं कर्तव्य पालन रूप क्रियाओं के फल का आश्रय बन जाता है। जो कर्म किसी ने नहीं किया है, उसका भी फल उसे प्रदान कर देने की शक्ति उस  यागी में आ जाती है, अर्थात जिसको जो वरदान, शाप या आशीर्वाद देता है, वह सत्य हो जाता है। इन्द्रिय और मन से प्रत्यक्ष देखकर, सुनकर या अनुमान करके जैसा अनुभव किया हो, ठीक वैसा ही भाव प्रकट करने के लिये प्रिय और हितकर तथा दूसरे को उद्वेग उत्पन्न करने वाले जो वचन बोले जाते हैं उनका नाम सत्य है । इसी प्रकार कपट और छल रहित व्यवहार का नाम सत्य व्यवहार समझना चाहिये। एक कथा-  

च्च्एक दिन जब श्री रामकृष्ण कलकत्ता में थे, नरेन्द्रनाथ दक्षिणेश्वर आये । कमरे में किसी को न पाकर उनके मन में श्री रामकृष्ण के कांचन त्याग की परीक्षा लेने की इच्छा हुई । इसलिए उन्होंने श्री रामकृष्ण के बिस्तर के नीचे एक रुपया छिपा दिया और पंचवटी में ध्यान करने चले गये। कुछ समय बाद श्री रामकृष्ण लौटे। ज्यों ही उन्होंने बिस्तर का स्पर्श किया, वे पीड़ा से कराहकर पीछे हट गये। जब वे चकित होकर चारों ओर देख रहे थे, तभी नरेन्द्रनाथ भीतर आये और चुपचाप उन्हें देखते रहे। एक सेवक ने बिस्तर को उलट-पलट कर देखा और रुपया खोज निकाला। श्री रामकृष्ण और उनके सेवक दोनों ही आश्चर्य चकित थे। श्री रामकृष्ण कमरे के बाहर चले गये। बाद में जब श्रीरामकृष्ण को पता चला कि नरेन्द्रनाथ ने उनकी परीक्षा ली थी, तब वे बड़े प्रसन्न हुए।ज्ज्

वस्तुत: यह इसी सत्य का परिणाम है कि यही श्रीरामकृष्ण विवेकानन्द को कहते हैं कि हाँ हमने ईश्वर को वैसे ही देखा है जैसे तुमको देख रहा हूँ।

(ग) अस्तेय- च्अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानमज्ज्। जब साधक में चोरी का अभाव पूर्णतया प्रतिष्ठित हो जाता है, तब पृथ्वी में जहाँ कहीं भी गुप्त स्थान में पड़े हुए समस्त रत्न उसके सामने प्रकट हो जाते है।  अर्थात उसकी जानकारी में आ जाते हैं। दूसरे के स्वत्व का अपहरण करना, छल से या अन्य किसी उपाय से अन्याय पूर्वक अपना बना लेना च्स्तेयज् चोरी है, इसमें सरकार की टैक्स की चोरी घूसखोरी भी सम्मिलित है। इन सब प्रकार की चोरियों का अभाव च्अस्तेयज् है।

(घ) ब्रह््मचर्य- च्ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां वीर्यालाभ:ज्। जब साधक में ब्रह््मचर्य की पूर्णतया दृढ़ स्थिति  हो जाती है तब उसके मन, बुद्धि, इन्द्रिय और शरीर में अपूर्व शक्ति का प्रादुर्भाव हो जाता है। साधारण मनुष्य उनकी बराबरी नही कर पाते। मन, वाणी और शरीर से होनवाले सब प्रकार के मैथुनों की सब अवस्थाओं में सदा त्याग करके सब प्रकार से वीर्य की रक्षा करना च्ब्रह्मचर्यज् हैं ।     च्च्कर्मणा मनसा वाचा सर्वावस्थासु सर्वदा।

सर्वत्र मैथुनत्यागी ब्रह्मचर्य प्रचक्षतेज्ज्।। (गरुण.पूर्व.आचार २३८.६) 

अत: साधक को चाहिये कि न तो कामदीपन करनेवाले पदार्थों का सेवन करे, न ऐसे दृष्यों को ही मन में लावे तथा स्त्रियों का और स्त्री साहित्य को पढ़े और न ही ऐसे पुरुषों का संग करे जो स्त्री पर आसक्त हों।

(ड) अपरिग्रह- अपरिग्रहस्थैर्ये जन्मकथन्तासंबोध:। जब योगी में अपरिग्रह का भाव पूर्णतया स्थिर हो जाता है, तब उसे अपना पूर्व और वर्तमान जन्म की सब बातें मालूम हो जाती हैं । यह ज्ञान भी संसार में वैराग्य उत्पन्न करनेवाला और जन्म-मरण से छुटकारा पाने के लिए योगसाधना में प्रवृत करने वाला है। अपने स्वार्थ के लिये ममता पूर्वक धन, सम्पति और भोग-सामग्री का संचय करना च्परिग्रहज् है, इसके अभाव का नाम अपरिग्रह है।

(२) नियम- च्च्शौचसंतोषतप:स्वाध्यायेश्वरप्राणिधानानि नियमा:ज्ज्।

(क) शौच- जल, मृतिकादि के द्वारा शरीर, वस्त्र और मकान आदि के मल को दूर करना बाहर  की शुुद्वि है, इसके सिवा अपने वर्णाश्रम और योग्यता के अनुसार न्यायपूर्वक धन को और शरीर निर्वाह के लिये आवश्यक अन्न आदि पवित्र वस्तुओं को प्राप्त करके उनके द्वारा शास्त्रानुकूल शुद्ध भोजनादि करना तथा सबके साथ यथा योग्य पवित्र बर्ताव करना यह भी  बाहरी शुद्धि के ही अन्तर्गत है। जप, तप और शुद्ध विचारों के द्वारा एवं मैत्री आदि की भावना से अन्त:करण के राग-द्वेषादि मलों का नाश करना भीतर की पवित्रता है।

(ख) संतोष- कर्तव्य कर्म का पालन करते हुए उसका जो कुछ परिणाम हो तथा प्रारब्ध के अनुसार अपने-आप जो कुछ भी प्राप्त हो एवं जिस अवस्था और परिस्थिति में रहने का संयोग प्राप्त हो जाय, उसी में संतुष्ट रहना और किसी प्रकार की भी कामना या तृष्णा न करना संतोष है।

(ग) तप- वर्ण, आश्रम, परिस्थिति और योग्यता के अनुसार स्वधर्म का पालन करना और उसके करने में शारीरिक, मानसिक कष्ट सहने की समाथ्र्य च्तपज् है।

(घ) स्वाध्याय- (अध्ययन (वेद, शास्त्र, महापुरूषों के जीवन चरित्र) तथा ऊँकार आदि किसी नाम का जप च्स्वाध्यायज् है।

(ड) ईश्वर प्राणिधान- - ईश्वर के नाम, गुण, लीला, ध्यान, प्रभाव में अपने को पूर्णत: समर्पित कर देना ईश्वर प्राणिधान है। तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्राणिधान के माध्यम से अर्थात नियमों के पालन अथवा क्रियायोग से हम अपने क्लेशों को नष्ट करते हैं या क्लेशों से मुक्त होते हैं। 

(३) आसन-

(४) प्राणायाम-

(५) प्रत्याहार-

  च्नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुनाश्रुतेन।ज् (मुण्ड.)

सच्चा धर्म वह ध्यान है, जो ईश्वर सान्निध्य कराता है। धर्म व्यक्ति से लेकर समष्टि तक का एक अविभाज्य अंग है। हिन्दू धर्म अपनी उदारता, सहिष्णुता एवं परम्परा के कारण ईसाई और इस्लाम धर्म को आलिंगन करता है। प्रत्येक धर्म का अपना एक दर्शन होता है उसका आधार दार्शनिक पृष्ठभूमि होती है। कभी कभी कालान्तर में उसके आसपास अंधविश्वास, जड़ मान्यताएं और कर्मकाण्ड जुड़ जाते हैं और धर्म का आकर्षण यही जड़ मान्यताएं हो जाती हैं। वेद कहता है- च् हम उस परम ब्रह्म को जानें, हम उस ईश्वर का ध्यान करें, हमारी प्राण शक्ति हमें उसकी ओर प्रयोजित करे।ज् यही मृत्यु विजय का मंत्र है। 

पश्चिम में सुकरात सबसे पुराना मनोवैज्ञानिक था। जबकि पश्चिम मनोविज्ञान को बीसवीं शदी का विज्ञान कहता है। अंग्रेजी शब्द साइकालोजी ग्रीक भाषा के च्सुखेज् शब्द से बना है। जिसका अर्थ है च्आत्माज्। सुकरात को आत्मा की अमरता मानने के कारण विषपान करना पड़ा। आध्यात्मिक विश्लेषण का समालोचन पक्ष भारतीय दर्शन को छ: आधारभूत सिद्धान्तों में प्रतिपादित करता है। भारत का दर्शन व्यावहारिक क्रिया की आधार भूमि है, इसका कार्यक्षेत्र भौतिक धरातल से लेकर उच्च आध्यात्मिक लोक तक फैलता है, जिसके एक अंग को योग कहते हैं। भारत में योग के प्रयोग -हठ (शारीरिक क्रिया), मंत्र (स्वर से सम्बन्ध), लय (मानसिक), राज (मन के परे आध्यात्म की भूमि पर), कर्म (आध्यात्मिकता की प्रारम्भ तैयारी), ध्यान (ध्यान की क्रिया का अवलंबन) और भक्ति (ईश्वर के प्रति प्रेम भाव ) आदि  मनोवैज्ञानिक हैं । 

पश्चिम ने पहले आत्मा खोया फिर मन पश्चात चेतना अब उसके पास एक मात्र एक विशिष्ट प्रकार का व्यवहार बचा है। 

भारतीय दर्शन में परम ब्रह्म अक्षर है - अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभवोऽध्यात्ममुच्यते। भूतभावोद्भवकरो विसर्ग: कर्मसंज्ञित:। (८,३) 

गीता के इस श्लोक के अनुसार गीता दर्शन में ईश्वर के चार भाव हैं- 

१- परमभाव अक्षर, जो ब्रह््म है, 

२- आध्यात्म भाव, जो आत्मा है, 

३- भूतभाव, जो रचनात्मिका कारण है, 

४- विसर्गभाव, जो सृष्टिरूप कार्य है। 

गहरे ध्यान में भावावस्था में व्यक्ति अपने आसपास से कट जाता हैं, जबकि वह कार्य कर रहा होता है तो उसे आसपास का बोध रहता  है।

कठोपनिषद के अनुसार - आत्मा रथी, शरीर रथ, बुद्धि सारथी, मन लगाम, इद्रियाँ घोड़े और पदार्थ मार्ग है। इस प्रकार जीवात्मा द्रष्टा या भोक्ता है। गीता कहती है- 

सहस्त्रयुगपर्यन्तमहृर्यद ब्रह्मणो बिन्दु:। 

रात्रिं युगसहस्त्रन्तां तेऽहोरात्रविदो जना:।

अव्यक्ताद्व्यक्तय: सर्वा प्रभवन्त्यहरागमे।

रान्न्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्त संज्ञके।।

भूतग्राम: स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते।

रान्न्यागमेऽवश: पार्थ  प्रभवन्त्यहरागमे।।

परस्तस्मातु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातन:। 

य: स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति।।

अव्यक्तोऽक्षर  इत्युक्तस्तमाहु: परमां गतिम।

यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्वाम परमं मम।।

(अर्थात)

जो सृष्टा के दिन और रात को समझते हैं, वे बताते हैं कि उनका दिन एक हजार चक्रों का है (चार लाख बत्तीस हजार वर्ष)। जिसका विशेेष परिचय इस प्रकार है-

- इसको संकल्पपाठ के रूप में भी हमारे सामने रखा गया है-

ऊँॅ विष्णुर्विष्णुविष्णु:। ऊँ नम: परमात्मने श्री पुराणपुरुषोत्तमस्य श्रीविष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्याद्य  श्रीब्रह््मणों द्वितीय पराद्र्धे श्री श्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरेऽष्टाविंशतितमें कलियुगे प्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे आर्यावर्ते आर्यावर्तान्तर्गत  ब्रह्मावर्तैकदेशे बौद्धावतारे अमुकनाम संवत्सरे  अमुकायने (उत्तरायणे/दक्षिणायने) महामांगल्यप्रदे मासानां मासोत्तमें  अमुक मासे अमुकपक्षे (शुक्लपक्षे/कृष्णपक्षे) अमुक तिथौ अमुक वासरान्वितायां अमुक नक्षत्रै अमुक राषिस्थिते सूर्ये  अमुकराषिस्थिते चन्द्रे अमुकराषिस्थिते  भौमें अमुकराषिस्थिते बुधे अमुकराषिस्थिते गुरौ अमुकराषिस्थिते शुक्रे अमुकराषिस्थिते शनौ सत्सु शुुभे योगे शुभकरणे एवं गुणविशेष विशिष्टायां शुुभ पुण्यतिथौ सकलशास्त्रश्रुतिस्मृतपुराणोक्त फलप्राप्तिकाम: अमुेकोऽहं ममात्मन: सपुत्रस्त्रीबान्धवस्य श्रीनवदुर्गानुग्रहतो ग्रहकृतिराजकृतसर्वाविधपीड़ानिवृतिपूर्वकं नैरुज्यदीर्घायु: पुष्टिधनधान्यसृद्व्यर्थं सर्वापन्निवृति सर्वाभीष्टफलावाप्ति धर्मार्थकाममोक्षचतुर्विधपुरुषार्थ द्वारा अमुक (राष्ट्र) देवताप्रीत्यर्थं पूजनपूर्वकं संकल्पं (अमुक कर्मं) करिष्ये।

यह संसार हमारा देश हमारी पृथ्वी और हमारी सत्ता बार-बार स्वत: बिलीन होती है। इस अव्यक्त (ब्रह्मी सत्ता) से परे एक अन्य अव्यक्त ब्रह्म है जो शाश्वत है। जो सभी सत्ताओं के विनाश के समय भी रहती है। उसे ही ज्ञान का परम धाम कहते है। वैदिक साहित्य में सत और असत शब्द क्रमश: आध्यात्म और भूतभाव के लिए प्रयुक्त हुए हैं। परम इन दोनों से परे हैं । सत अस्तित्व का धनात्मक पक्ष है और असत ऋणात्मक। जान वुडरक इन दोनों सत्ताओं को स्थिर एवं गतिशील वास्तविकताएं (सत) कहा है। 

परमसत्ता की अवधारणा वेद के साथ चलती हैं। नारदीय सूक्त में अध्याय दस में श्लोक आता है -

नासदासीन्नोसदासीतदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत।

किमावरीव: कुह कस्य शर्मन्नम्भ: किमासीद  गहनं गभीरम।।

तब न वहाँ न असत था और न ही वहाँ सत् था। 

न ही तब रजस था और न उसके परे स्वर्ग था।

क्या आवरण था? -अन्धकार ? किसकी सत्ता थी? -अम्भस् ? 

तब क्या था ? शान्त, गहन, गम्भरीर परम सत्ता!

भूत तथा वर्तमान के महान दार्शनिकों ने अनेक सिद्धांत और दार्शनिक विचारधाराएं दी किन्तु इसका उत्तर किसी के पास नही है। ऋगवेद के नारदीय सूक्त के श्लोक ६, ७ में मनुष्य के इसी पराभव की बात कही गई है। यथा-

को, अद्वा वेद क इह प्रवोचत् कुत आजाता कुत इयं विसृष्टि:।

अर्वाग् देवा अस्य विसर्जनेनाथ को वेद यत आवभूव।। (१,१२८,६)

इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न।

यो अस्याध्यक्ष: परमे व्योमन्त्सो अंग वेद  यदि वा न वेद।। 

च्कौन जानता है, कौन कह सकता है कि कहाँ से आया?  यह कैसे बना? यह सृष्टि कैसे निर्मित हुई ? इसका कोई आधार है या नहीं ? दूर स्वर्ग में जो इसका नियन्ता है- वही इसको जानता है, अथवा नहीं जानता हो !

मनोविज्ञान की देखने की सामान्यत: दो दृष्टि है- एक मनुष्य को अपनी दृष्टि से देखना।

 २- मनुष्य को उसकी श्रेष्ठतम विकास की सम्भावनाओं के आधार पर देखना।

मुण्डकोपनिषद में कहा है- च्नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुनाश्रुतेनज् अर्थात आत्मज्ञान केवल तीव्र इच्छा शक्ति से ही प्राप्त किया जा सकता है। इसकी प्राप्ति विश्व चेतना से जुड़े च्गुरुज् (गुरु: ब्रह्मा गुरु: विष्णु ....) जो गोविन्द है, गोविन्द समान है, गोविन्द से मान्य है (गुरु गोविन्द दोनों खड़े काके लागूं पाय, बलिहारी गुरु आपनों गोविन्द दियो बताय)की कृपा से ही प्राप्त किया जा सकता है। यथा-

च्मंत्र मूलं गुरुर्वाक्यं, पूजा मूलं गुरु:पदम्। ध्यान मूलं गुरु:मूर्ति, मोक्ष मूलं गुरु: कृपा।।ज्

सामान्यत: मनुष्य की सभी क्रियाएं, शब्द, भावनाएं, वृत्तियाँ व विचार, बाहरी प्रभावों से संचालित  होते हैं। उसमें स्मृतियों व पूर्वानुमानों का ऐसा भण्डार है जिसमें गतिशीलता की शक्ति विद्यमान रहती है। भारतीय दृष्टि यह मानती है कि मनुष्य जो भी करता है, सोचता है वह केवल होता है। अंग्रेजी में मानवीय क्रियाओं को व्यक्त करने वाले निर्वैयक्तिक क्रियारूप न होने से वहाँ की अवधारणानुसार मनुष्य सोचता है, पढ़ता है, क्रिया करता है। किन्तु उनकी इस अधूरे दृष्टिवोध से प्रकृति की क्रिया वाधित नही होती। भारतीय दृष्टि कहती है मनुष्य अपने में न सोचता है, न करता है बल्कि पराभौतिक नियमों से संचालित होता है। 

वस्तुत: ईश्वर व्रह््माण्डीय रचनाश्क्ति का मूल उद्गम है। वह जड़ और चेतन प्रदार्थों का मूल कारण है। वही प्राण है, विज्ञान के शब्द में भौतिक अणु-परमाणु है। आत्मा अंहकार और चेतना के साथ रहती है। अस्तित्व के विभिन्न धरातलों को तीन भागों में बाँटा जा सकता है- १- शुद्ध सार्वभौम चेतना (जीवनमुक्त महापुरुष व देवता)। 

२- एकता व अनेकता की मिश्रित चेतना (योगी व साधक)।

३- अनेकता  से युक्त  अशुद्ध चेतना (वैयक्तिक अंहकार में जीनेवाले)। 

चेतना के दो रूप सामने आते हैं- वस्तु चेतना, आत्म चेतना। वस्तु चेतना बदलती रहती है किन्तु आत्म चेतना स्थिर रहती है। साधारणतया चेतना बुद्वि है किन्तु चेतना मनुष्य की मानसिक क्रिया से भिन्न होती है। चेतना की चार अवस्थाएं हैं- जाग्रत, सुषुप्ति, स्वप्न तथा समाधि।  सत चेतना हेतु पातंजलि योग दर्शन में कहा है- 

च्च्सत्वपुरुषान्यताख्यातिमात्रस्य सर्वभावाधिष्ठातृत्वं सर्वज्ञातृत्वं चज्ज् (३-४९)

कठोपनिषद में कहा है- च्उतिष्ठत जाग्रत प्राप्यवरान्निवोधतज्। क्षुरस्य धारा निशिता  दुरत्या। दुर्गं पंथस्यकवयो वदन्ति।

आत्मज्ञान के लिये भक्तिमार्ग सम्भवत: सरल एवं निश्चित साधन है- तुलसी ने कहा -च्ऐसो को उदार जगमाही, बिनु सेवा जो द्रवे दीन पर, राम सरिस कोउ नाहीं।ज् गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं- च्सर्वधर्म परितज्यान मामेकम शरणं ब्रजज्। अहं त्वाम सर्वपापेभ्यो मा शुच:। मैत्रेयोपनिषद में कहा गया है कि साधक छ: माह में आत्मसाक्षातकार कर सकता है। 

अंग्रेजी कवि शैली लिखता है- च्मनुष्य के पथहीन अन्त:लोक में/ एक सुन्दर दिव्याकार सिंहासन पर/ पहुचते हैं जो साहसिक विचार/ इसके निकट/ पूजते हैं/ रोमांचयुक्त चरण वंदन करते/ धारते हैं/ इसका जाज्वल्यमान प्रकाश / उनके स्वप्न लोक में घुसकर/ आवेशित करता है उनको चिनगारी जैसा।ज् 

सृष्टि की मूल ऊर्जा प्राण शक्ति है । भौतिक एवं मानसिक स्तर पर इसी प्राण का स्पन्दन होता है। सृष्टि रचना के बाद जो शक्ति बचती है उसे शेष (शेष नाग) कहते हैं। यह अवशिष्ट शक्ति सम्पूर्ण संसार को सम्बल देती है तथा जड़ एवं चेतन जीवधारियों का  आधार है। 

दूसरे अर्थ में यह उपनिषदों की भाषा में च्ऊँ पूर्णमद:, पूर्णमिदं पूर्णात पूर्णंउच्चतै / पूर्णस्य पूर्णमादाय, पूर्णमेवाविशिश्यै:ज् है। मण्डूक्योपनिषद में ओंकार की तीन मात्रा अ उ म के द्वारा स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर के अभिमानी विश्व, तैजस और प्राज्ञ का वर्णन करते हुए उनका समष्टि-अभिमानी वैश्वानर, हिरण्यगर्भ एवं ईश्वर के साथ अभेद किया गया है। इनकी अभिव्यक्ति की अवस्थाएं क्रमश: जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति हैं तथा इनके भोग स्थूल, सूक्ष्म और आनन्द हैं। जाग्रत अवस्था में जीव दक्षिण नेत्र में रहता है, स्वप्नावस्था में कण्ठ में और सुषुप्त के समय हृदय में रहता हैं इसी का नाम प्रपंच है।

ऐतरेयोपनिषद में कहा है- च्स येतमेव सीमानं विदार्यैतया द्वारा प्रापद्यत। सैषा विदृतिर्नाम द्वास्तदेतन्नान्दम।।

इसके अनुसार गर्भस्थ रूप में जीवात्मा सातवें महीने कपाल के बीच तालु से प्रवेश करती है, पहले यह कोमल होता है बाद में कठोर हो जाता है। पश्चात नाडिय़ों के माध्यम से सम्पूर्ण शरीर में फैलता है। शरीर संरचना के बाद प्राण शक्ति मूलाधार चक्र में कुण्डलनीवत सर्प की भांति पड़ी रहती हैं इसे सुषुम्ना नाड़ी के द्वारा मेरुदण्ड के माध्यम से ऊपर लाया जाता है। इसका उध्र्ववेग समाधि में ले जाता है। यद्यति इसमें इन्द्रियों का क्षरण नही होता है इसीलिये समाधि से हम बाहर आते हैं। सहस्त्रधार में समाधि की स्थिति बनती है ।

साधना काल में कुण्डलनी की दो स्थितियाँ अर्थात क्रियाएं बनती हैं। जब कुण्डलिनी उध्र्वगामी होती है तब उसे जाग्रत कहते है। अन्यथा की स्थिति में वह शांत पड़ी रहती है । आत्मसाक्षात्कार साधक की गहन चेष्टा और अनवरत साधना से होता है। इसमें गुरु का भी योगदान होता है। दीक्षा देने के चार प्रकार होते हैं- हस्तदीक्षा, स्पर्शदीक्षा, चक्षुदीक्षा, संकल्प दीक्षा। इनके द्वारा शक्तिपात किया जाता है। जो हमारे षटचक्रों (स्वयंभूलिंग, कंद, कुंडलिनी) मूलाधार (योनिस्थान), स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत , विशुद्ध, आज्ञा (विन्दु, अर्धेन्दु, निरोधिका, नाद, महानाद, शक्ति, स्थापिका, समना, गुह्यचक्र),(सहस्त्रधार) को क्रियाशील करता है और सुषुम्ना के माध्यम से सहस्त्रधार में अमृतवर्षा (आनन्द की प्राप्ति, दिव्य दर्शन, आत्मसाक्षात्कार ) होती है।

डॉ. बुडरक कहते हैं- ज्ञान की संवाहिका सुषुम्ना को जीवित या मृत शरीर में आपरेशन करके भी नही पाया जा सकता है। यह क्रिया वेतार के तार की भांति एक चक्र से दूसरे चक्र में स्वत: स्थापित होती और आगे बढ़ती रहती है। 

सुबालोपनिषद में कहा गया है- च्स्थानानि, स्थानिभ्यों यच्छति नाड़ी तेषां निबन्धनमज्ज् ।

साधक आत्मसाक्षात्कार के बाद भी अपनी सामान्य क्रियाएं यथावत करता है। किन्तु आत्मज्ञान की प्राप्ति के बाद एक आत्मोपलब्ध व्यक्ति अन्य लोगों से किस प्रकार भिन्न हो जाता है। कहते हैं जिस प्रकार एक मृगमरीचिका का सम्पूर्ण जल रेगिस्तान की एक बालू को भी नही भिगा सकता उसी प्रकार आत्मज्ञानी को संसार की कोई भी गति प्रभावित नही करती। वह काल परिस्थित और स्थान की सीमा में नही बँधता है। उसे यह बोध हो जाता है कि- च्मैं यह शरीर नही, बल्कि यह शरीर मेरा हैज् गीता में कहा गया है- च्देहोस्मिनाहं मम् देह इति स्मरज्। भगवान कृष्ण कहते हैं- च्च्कायेन मनसा बुद्धया केवलैरिन्द्रियैरति। योगिन: कर्म कुर्वन्ति संगंत्यक्त्वात्मशुुद्वये। अर्थात आत्मज्ञानी कभी अपने कर्मों का निर्वाह कम नही करता। वह अनाशक्त भाव से कर्म करता रहता है। यहाँ आत्मज्ञानी ज्ञाता और ज्ञेय दोनों की स्थिति में होता है। यह अहमं ब्रह्मास्मि की स्थिति है। रमण महर्षि से डॉ. राजेन्द्र प्रसाद जी पूछते हैं स्वतंत्रता आन्दोलन के बारे में आप कुछ कहेगें ? रमण कहते है- च्समस्त सभाओं के सम्बोधन, सारे भौतिक प्रयास व सम्पूर्ण संघर्ष महात्मा के एक मौन के सामने फीके हैज्ज् । डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने पूछा गांधी जी के लिए आपका कोई संन्देश । रमण कहते है- च्च् जब एक हृदय दूसरे हृदय से बात कर रहा है तब क्या कोई संदेश होगा ? यह कुण्डलनी जागरण या आत्मसाक्षात्कार की फलश्रुति है।

खुद की पहचान पर जोर दें- महात्मा बुद्ध का जीवन साधना और उत्कर्ष की लबी कहानी है। उन्होंने कहा था कि विपत्ति में कभी धैर्य नहीं खोना चाहिए और आवेगों पर काबूे पाने का अभ्यास करना चाहिए। उनके मत में परिस्थितियाँ निरंतर बदलती रहती हैं। कुछ समय बाद विपरीत स्थितियाँ भी अनुकूल और सुखद बन जाती है। उनके मत के अनुसार हर  परिस्थिति में सम्यक ज्ञान, सम्यक दृष्टि  और सम्यक भाव  से विचार करना चाहिए। उन्होंने अतिवाद का विरोध कर च्मध्यम मार्गज्  पर जोर दिया।  बुद्ध की इस व्यावहारिक नीति के कारण ही बौद्ध धर्म  अनके देशों  में स्थान प्राप्त  कर सका। अक्सर हम  जरा सी  कठिनाई में धैर्य खो देते हैं। बुद्ध ने कहा-ऐसी परिस्थिति में अपने मनोवेगों पर काबू रखना जरूरी है। ऐसी घटना उनके जीवन में भी घटी थी। वे अपने शिष्य आनन्द के साथ वन भ्रमण पर थे। उन्हें प्यास लगी। पास ही एक नहर थी। बुद्ध  ने आनन्द से पानी लाने को कहा। आनन्द पानी लेने गया, लेकिन खाली हाथ लौट कर बोला, च्भंते, नहर का पानी बहुत गंदा है। किसी दूसरी जगह से पानी ले आऊँ।ज् बुद्ध ने कहा, च्नहीं आनंद, थोड़ी देर ठहरकर उसी नहर से पानी ले आओं।ज् आनंद वहाँ दोबारा पहुँचा और देखा कि नहर का पानी निर्मल हो चुका था। आनंद जल लेकर लौट आया। बुद्ध ने मुस्कराते हुए कहा, च्मनोवेगों पर नियंत्रण से ही सच्चा सुख प्राप्त होता है। वैसे ही जैसे प्रतीक्षा करने पर तुम्हें उसी स्थान से साफ पानी प्राप्त हो गया। उन्होंने कहा, सबसे पहले व्यक्ति अपने आप को पहचाने। उनका मत था, बुराई से घृणा करो, बुरे आदमी से नहीं।ज्  एक बार किसी गाँव में बहती नदी के किनारे बुद्ध बैठे थे। किनारे पर पत्थरों की भरमार थी। बुद्ध ने विचार किया कि यह छोटी सी नदी अपनी तरलता के कारण कितनों की प्यास  बुझाती है, लेकिन भारी-भरकम  पत्थर एक ही स्थान पर पड़े रहते हैं। और दूसरों के  जीवन में बाधक बनते हैं।  इस घटना की सीख यह है कि दूसरो के रास्ते में रोड़े अटकाने वाले खुद कभी  आगे नहीं बढ़ पाते। परन्तु जो दूसरों को सदभाव और स्नेह देता है, वह स्वयं भी आगे बढ़ जाता है। बुद्ध ऐसे ही विचारों में मग्र थे कि गाँव के कुछ लोग एक स्त्री को गाली देते, उस पर पत्थर फेकते आ रहे थे। वे सभी बुद्ध के पास आये। बुद्ध ने पूछा, च्इसे क्यों मार रहे हो। ज् लोगों ने कहा, च्यह गाँव में व्यभाचार फैलाती है।ज् बुद्ध ने कहा, कोई बात नही। आप लोग इसके साथ जो भी व्यवहार करना चाहते हो करो। परन्तु मेरी एक शर्त है कि इसके ऊपर वही पत्थर मारे जिसने मनसा, वाचा, कर्मणा कभी पाप नहीं किया हो। सभी कुछ देर शिर नीचे किए मौन खड़े रहे। और फिर मन में पश्चाताप लिए वापस चले  गये।

पाश्चात्य विद्वान और उपनिषद

च्च् चक्षु सम्पन्न व्यक्ति देखेंगे कि भारत का ब्रह्मज्ञान समस्त  पृथ्वी का धर्म बनने लगा है।  प्रात:कालीन सूर्य की अरुण किरणों से  पूर्वदिशा आलोकित होने लगी है, परन्तु जब वह सूर्य  मध्याह्न गगन में प्रकाशित  होगा, उस सय उसकी दीप्ति से समग्र भूमण्डल  दीप्तिमय हो उठेगा।ज्ज् - रवीन्द्र नाथ टैगोर 

मुगलसम्राट शाहजहाँ का जेष्ठ पुत्र दारा शिकोह औरंगजेब के समान कट्टर नहीं था। उसने हिन्दू और मुसलमानों के बीच समन्वय के लिए विशेष प्रयत्न किये। उसने च्मज़मा उल-बहरीनज् नाम की एक पुस्तक भी छपवाई। १६४० ई. में जब कश्मीर की यात्रा के दौरान उसे उपनिषदों के बारे में ज्ञात हुआ तो उसने काशी के कुछ विद्वानों को बुलाकर    उपनिषदों का फारसी में अनुवाद कराया।  १६५७ ई. में यह अनुवाद पूरा हुआ। किन्तु दुर्भाग्य से १६५९ ई. में दाराशिकोह औरंगजेब के हाथो मारा गया। अकबर के राजत्व काल (१५५६-१५८५ ई.) में भी कुछ उपनिषदों का अनुवाद हुआ था।  सन् १७७५ ई.के पहले तक किसी भी पाश्चात्य विद्वान की दृष्टि उपनिषदों पर नहीं पड़ी थी। अयोध्या के नवाब सुराजुद्दौला की राजसभा के फारसी रेजिडेंट श्री एम. गेंटिल (द्व.त्रद्गठ्ठह्लद्बद्यद्य)ने सन् १७७५ ई. प्रसिद्ध यात्री और जिन्दावस्ता के प्रसिद्ध आविष्कारक एंक्वेटिल डुपेर्रन (्रठ्ठह्नह्वह्लद्बद्य ष्ठह्वश्चद्गह्म्ह्म्शठ्ठ) को  दाराशिकोह के द्वारा सम्पादित उक्त फारसी अनुवाद की एक पाण्डुलिपि भेजी। एंक्वेटिल डुपेर्रन ने कहीं से एक दुसरी पाण्डुलिपि प्राप्त की और दोनों को मिलाकर फ्रेंच तथा लैटिन भाषा में उस फारसी  अनुवाद का पुन: अनुवाद किया। लैटिन अनुवाद सन् १८०१-२ में च्ओपनखतज् (शह्वश्चठ्ठद्गद्मद्धड्डह्ल) नाम से प्रकाशित हुआ। फ्रेंच अनुवाद नहीं छपा। बाद में प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक शेपेनहावर (्रह्वह्म्ह्लद्धद्गह्म् स्ष्द्धशश्चद्गठ्ठद्धड्डह्वद्गह्म् - सन् १७८८ - १८६०) ने गम्भीर अध्ययन पश्चात लिखा- च्मैं समझता हूँ कि उपनिषद् के द्वारा वैदिक साहित्य के  साथ परिचय लाभ होना वर्तमान शताब्दी (सन् १८१८) का सबसे अधिक परम लाभ है जो इसके पहले किन्हीं भी शताब्दियों को नहीं मिला। चौदहवीं शताब्दी के ग्रीक साहित्य के अभ्युदय में ग्रीक-साहित्य के पुनरभ्युदय से यूरोपीय साहित्य की जो उन्नति हुई थी, संस्कृत- साहित्य का प्रभाव  उसकी अपेक्षा कम फल उत्पन्न करने वाला नहीं होगा।ज् वे उपनिषदों  के बारे में आगे लिखते हैं- 

  १. स्नशह्म्द्व द्ग1द्गह्म्4 ह्यद्गठ्ठह्लद्गठ्ठष्द्ग स्रद्गद्गश्च, शह्म्द्बद्दद्बठ्ठड्डद्य ड्डठ्ठस्र ह्यह्वड्ढद्यद्बद्वद्ग ह्लद्धशह्वद्दद्धह्लह्य ड्डह्म्द्बह्यद्ग, ड्डठ्ठस्र ह्लद्धद्ग 2द्धशद्यद्ग द्बह्य श्चद्गह्म्1ड्डस्रद्गस्र ड्ढ4 ड्ड द्धद्बद्दद्ध ड्डठ्ठस्र द्धशद्य4 ड्डठ्ठस्र द्गड्डह्म्ठ्ठद्गह्यह्ल ह्यश्चद्बह्म्द्बह्ल. ज्ढ्ढठ्ठ ह्लद्धद्ग 2द्धशद्यद्ग 2शह्म्द्यस्र ह्लद्धद्गह्म्द्ग द्बह्य ठ्ठश ह्यह्लह्वस्र4, द्ग3ष्द्गश्चह्ल ह्लद्धड्डह्ल  शद्घ ह्लद्धद्ग शह्म्द्बद्दद्बठ्ठड्डद्यह्य, ह्यश ड्ढद्गठ्ठद्गद्घद्बष्द्बड्डद्य ड्डठ्ठस्र ह्यश द्गद्यद्ग1ड्डह्लद्बठ्ठद्द ड्डह्य  ह्लद्धड्डह्ल शद्घ ह्लद्धद्ग ह्रह्वश्चठ्ठद्मद्धड्डह्ल. ढ्ढह्ल द्धड्डह्य ड्ढद्गद्गठ्ठ ह्लद्धद्ग ह्यशद्यड्डष्द्ग शद्घ द्व4 द्यद्बद्घद्ग, द्बह्ल 2द्बद्यद्य ड्ढद्ग ह्लद्धद्ग ह्यशद्यड्डष्द्ग शद्घ द्व4 स्रद्गड्डह्लद्ध. ्रह्वह्म्ह्लद्धद्गह्म् ह्यष्द्धशश्चद्गठ्ठद्धड्डह्वद्गह्म्

आर्थर शेपेनहावर उपनिषद के आधार पर लिखते हैं कि जिस देश में उपनिषदों के  सत्य समूह का प्रचार था, उस देश में ईसाई-धर्म का प्रचार व्यर्थ है ‘ ढ्ढठ्ठ ढ्ढठ्ठस्रद्बड्ड शह्वह्म् ह्म्द्गद्यद्बद्दद्बशठ्ठ 2द्बद्यद्य ठ्ठश2 ड्डठ्ठस्र ठ्ठद्ग1द्गह्म् शद्घ ह्यह्लह्म्द्बद्मद्ग ह्म्शशह्ल. ञ्जद्धद्ग श्चह्म्द्बद्वद्बह्लद्ब1द्ग 2द्बह्यस्रशद्व शद्घ ह्लद्धद्ग द्धह्वद्वड्डठ्ठ ह्म्ड्डष्द्ग 2द्बद्यद्य ठ्ठद्ग1द्गह्म्  ड्ढद्ग श्चह्वह्यद्धद्गस्र ड्डह्यद्बस्रद्ग ड्ढ4 ह्लद्धद्ग द्ग1द्गठ्ठह्लह्य शद्घ त्रड्डद्यद्बद्यद्गद्ग. ह्रठ्ठ ह्लद्धद्ग ष्शठ्ठह्लह्म्ड्डह्म्4, ढ्ढठ्ठस्रद्बड्डठ्ठ 2द्बह्यस्रशद्व 2द्बद्यद्य द्घद्यश2 ड्ढड्डष्द्म ह्वश्चशठ्ठ श्वह्वह्म्शश्चद्ग. ्रठ्ठस्र श्चह्म्शस्रह्वष्द्ग ड्ड ह्लद्धशह्म्शह्वद्दद्ध ष्द्धड्डठ्ठद्दद्ग द्बठ्ठ शह्वह्म् द्मठ्ठश2द्बठ्ठद्द ड्डठ्ठस्र ह्लद्धद्बठ्ठद्मद्बठ्ठद्द.- ्रह्वह्म्ह्लद्धद्गह्म् स्ष्द्धशश्चद्गठ्ठद्धड्डह्वद्गह्म्

 उनकी यह भाविष्यवाणी सिद्ध हुई और स्वामी विवेकानन्द की शिष्या च्सारा बुलज् ने अपने एक पत्र में लिखा कि च्जर्मन  का दार्शनिक सम्प्रदाय , इग्लैण्ड के प्राच्य पण्डित और हमारे  अपने देश के एरसन आदि साक्षी दे रहे हैं कि पाश्चात्य विचार आजकल सचमुच ही वेदान्त के  द्वारा अनुप्राणित हैं।(ञ्जद्धद्ग त्रद्गह्म्द्वड्डठ्ठ ह्यष्द्धशशद्य, ह्लद्धद्ग द्गठ्ठद्दद्यद्बह्यद्ध ह्रह्म्द्बद्गठ्ठह्लड्डद्यद्बह्यह्लह्य ड्डठ्ठस्र शह्वह्म् श2ठ्ठ श्वद्वद्गह्म्ह्यशठ्ठ ञ्जद्गह्यह्लद्बद्घ4 ह्लद्धद्ग द्घड्डष्ह्ल ह्लद्धड्डह्ल द्बह्ल द्बह्य द्यद्बह्लह्म्ड्डद्यद्य4 ह्लह्म्ह्वद्ग ह्लद्धड्डह्ल ङ्कद्गस्रड्डठ्ठह्लद्बष् ह्लद्धशह्वद्दद्धह्लह्य श्चद्गह्म्1ड्डस्रद्ग ह्लद्धद्ग ङ्खद्गह्यह्लद्गह्म्ठ्ठ ह्लद्धशह्वद्दद्धह्ल शद्घ ह्लशस्रड्ड4. – स्ड्डह्म्ड्ड क्चह्वद्यद्य स्रद्गह्यद्बश्चद्यद्ग शद्घ ह्य2ड्डद्वद्ब 1द्ब1द्गद्मड्डठ्ठड्डठ्ठस्र)

सन् १८४४ में बर्लिन में श्रीशेलिंग (ह्यष्द्धद्गद्यद्यद्बठ्ठद्द) महोदय की उपनिषद सम्बन्धी व्याखान को सुनकर  प्रसिद्ध पण्डित श्री मैक्स मूलर का ध्यान सबसे पहले संस्कृत की ओर आकृष्ट हुआ। शोपेनहार ने च्उन्नीसवीं शताब्दी के प्रथम भाग में लिखा है,- च्द्बह्ल द्बह्य स्रद्गह्यह्लद्बठ्ठद्गस्र ह्यशशठ्ठद्गह्म् शह्म् द्यड्डह्लद्गह्म् ह्लश ड्ढद्गष्शद्वद्ग ह्लद्धद्ग द्घड्डद्बह्लद्ध शद्घ ह्लद्धद्ग श्चद्गशश्चद्यद्ग.ज्- ्रह्वह्म्ह्लद्धद्गह्म् स्ष्द्धशश्चद्गठ्ठद्धड्डह्वद्गह्म्

च्च् श्चद्गह्म्ह्यशठ्ठड्डद्यद्य4 ढ्ढ ह्म्द्दड्डह्म्स्र ह्लद्धद्ग श्चड्डठ्ठद्बह्यड्डस्रह्य ड्डह्य ह्लद्धद्ग द्धद्बद्दद्धद्गह्यह्ल श्चह्म्शस्रह्वष्ह्ल शद्घ ह्लद्धद्ग द्धह्वद्वड्डठ्ठ द्वद्बठ्ठस्र, ह्लद्धद्ग ष्ह्म्4ह्यह्लड्डद्यद्यद्ब5द्गस्र 2द्बह्यस्रशद्व शद्घ स्रद्ब1द्बठ्ठद्गद्य4 द्बद्यद्यह्वद्वद्बठ्ठद्गस्र द्वद्गठ्ठ.ज्ज्- ष्ठह्म्. ्रठ्ठठ्ठद्बद्ग क्चद्गह्यड्डठ्ठह्ल.

शोपेनहार लिखता है- च्च्सम्पूर्ण विश्व में उपनिषदों के समान जीवन को उँचा उठानेवाला कोई दूसरा अध्ययन का विषय नहीं है। उससे मेरे जीवन को शान्ति मिली है, उन्हीं से  मुझे मृत्यु में भी शान्ति मिलेगी। (ढ्ढठ्ठ ह्लद्धद्ग 2द्धशद्यद्ग 2शह्म्द्यस्र ह्लद्धद्गह्म्द्ग द्बह्य ठ्ठश ह्यह्लह्वस्र4, द्ग3ष्द्गश्चह्ल ह्लद्धड्डह्ल  शद्घ ह्लद्धद्ग शह्म्द्बद्दद्बठ्ठड्डद्यह्य, ह्यश ड्ढद्गठ्ठद्गद्घद्बष्द्बड्डद्य ड्डठ्ठस्र ह्यश द्गद्यद्ग1ड्डह्लद्बठ्ठद्द ड्डह्य  ह्लद्धड्डह्ल शद्घ ह्लद्धद्ग ह्रह्वश्चठ्ठद्मद्धड्डह्ल. ढ्ढह्ल द्धड्डह्य ड्ढद्गद्गठ्ठ ह्लद्धद्ग ह्यशद्यड्डष्द्ग शद्घ द्व4 द्यद्बद्घद्ग, द्बह्ल 2द्बद्यद्य ड्ढद्ग ह्लद्धद्ग ह्यशद्यड्डष्द्ग शद्घ द्व4 स्रद्गड्डह्लद्ध. ्रह्वह्म्ह्लद्धद्गह्म् स्ष्द्धशश्चद्गठ्ठद्धड्डह्वद्गह्म्)

शोपेनहार कहता है- च्ये सिद्धान्त  ऐसे हैं जो एक प्रकार से अपौरषेय ही हैं। ये जिनके मस्तिष्क की उपज हैं, उन्हें निरे मनुष्य कहना कठिन है। ( ्रद्यद्वशह्यह्ल ह्यह्वश्चद्गह्म्द्धह्वद्वड्डठ्ठ ष्शठ्ठष्द्गश्चह्लद्बशठ्ठह्य 2द्धशह्यद्ग शह्म्द्बद्दद्बठ्ठड्डह्लशह्म्ह्य ष्ड्डठ्ठ द्धड्डह्म्स्रद्य4 ड्ढद्ग  ह्यड्डद्बस्र ह्लश ड्ढद्ग द्वद्गह्म्द्ग द्वद्गठ्ठ.- ्रह्वह्म्ह्लद्धद्गह्म् स्ष्द्धशश्चद्गठ्ठद्धड्डह्वद्गह्म्) शोपेनहार के इन्हीं शब्दों के समर्थन में प्रसिद्ध पश्चिमी विद्धान मैक्स मूलर लिखता है-च्शोपेनहार के इन शब्दों के लिये यदि किसी समर्थन की आवश्यकता हो तो अपने जीवन भर के अध्ययन के आधार पर मैं उनका प्रसन्नतापूर्वक समर्थन करूँगाज् ( ढ्ढद्घ ह्लद्धद्गह्यद्ग 2शह्म्स्रह्य शद्घ स्ष्द्धशश्चद्गठ्ठद्धड्डह्वद्गह्म् ह्म्द्गह्नह्वद्बह्म्द्गस्र ड्डठ्ठ4 ष्शठ्ठद्घद्बह्म्द्वड्डह्लद्बशठ्ठ ढ्ढ 2शह्वद्यस्र 2द्बद्यद्यद्बठ्ठद्दद्य4 द्दद्ब1द्ग द्बह्ल ड्डह्य ड्ड ह्म्द्गह्यह्वद्यह्ल शद्घ द्व4  द्यद्बद्घ-द्यशठ्ठद्द ह्यह्लह्वस्र4. रूड्ड3 द्वशद्यड्डह्म् )

  जर्मनी के प्रसिद्ध विद्वान पाल डायसन ने उपनिषदों को मूल संस्कृत में अध्ययन कर अपनी टीप देते हुए अपनी पुस्तक (श्चद्धद्बद्यशह्यशश्चद्ध4 शद्घ ह्लद्धद्ग श्चड्डठ्ठद्बह्यड्डस्रह्य) में लिखा-च्उपनिषद के भीतर , जो दार्शनिक कल्पना है, वह भारत मेें तो अद्वितीय है ही, सम्भवत: सम्पूर्ण विश्व में अतुलनीय हैज् च्च् श्चद्धद्बद्यशह्यशश्चद्धद्बष्ड्डद्य ष्शठ्ठष्द्गश्चह्लद्बशठ्ठह्य ह्वठ्ठद्गह्नह्वड्डद्यद्यद्गस्र द्बठ्ठ ढ्ढठ्ठस्रद्बड्ड, शह्म् श्चद्गह्म्श्चड्डश्चह्य ड्डठ्ठ42द्धद्गह्म्द्ग द्गद्यह्यद्ग द्बठ्ठ ह्लद्धद्ग 2शह्म्ह्लद्यस्र.- श्चड्डह्वद्य ष्ठद्गह्वह्यह्यद्गठ्ठज्ज्

च्च् श्वह्लद्गह्म्ठ्ठड्डद्य श्चद्धद्बद्यशह्यशश्चद्धद्बष्ड्डद्य ह्लह्म्ह्वह्लद्ध द्धड्डह्य ह्यद्गद्यस्रशद्व द्घशह्वठ्ठस्र द्वशह्म्द्ग स्रद्गष्द्बह्यद्ब1द्ग  ड्डठ्ठस्र ह्यह्लह्म्द्बद्मद्बठ्ठद्द द्ग3श्चह्म्द्गह्यह्यद्बशठ्ठ ह्लद्धड्डठ्ठ द्बठ्ठ ह्लद्धद्ग स्रशष्ह्लह्म्द्बठ्ठद्ग शद्घ ह्लद्धद्ग द्गद्वड्डठ्ठष्द्बश्चड्डह्लद्बठ्ठद्द द्मठ्ठश2द्यद्गस्रद्दद्ग शद्घ ह्लद्धद्ग ्रह्लद्वड्ड. श्चड्डह्वद्य ष्ठद्गह्वह्यह्यद्गठ्ठज्ज्

  मैक्डानल कहता है,च्मानवीय चिन्तना के इतिहास में पहले पहल वृहदारण्यक उपनिषद में ही ब्रह्म अथवा पूर्ण तत्व को करके उसकी यर्थाथ व्यंजना हुई है।ज्च्च् क्चह्म्ड्डद्धद्वड्डठ्ठ शह्म् ्रड्ढद्यह्यशद्यह्वह्ल द्बह्य द्दह्म्ड्डह्यश्चस्र ड्डठ्ठस्र स्रद्गद्घद्बठ्ठद्बह्लद्गद्य4 द्ग3श्चह्म्द्गह्यह्यद्गस्र द्घशह्म् ह्लद्धद्ग द्घद्बह्म्ह्यह्ल ह्लद्बद्वद्ग द्बठ्ठ ह्लद्धद्ग द्धद्बह्यह्लशह्म्4 शद्घ द्धह्वद्वड्डठ्ठ ह्लद्धशह्वद्दद्धह्ल द्बठ्ठ ह्लद्धद्ग क्चह्म्द्धड्डस्रह्यह्म्ड्डठ्ठ4ह्वड्डद्मस्र श्चड्डठ्ठद्बह्यड्डस्र.  रूड्डष्स्रशठ्ठद्गद्यद्यज्ज्

फ्रांसीसी विद्वान दार्शनिक विक्टर कजिन्स् लिखते हैं,-च्जब हम पूर्व की और उनमें भी शिरोमणिस्वरूपा भारतीय साहित्यिक एवं दार्शनिक महान् कृतियों का अवलोकन करते हैं, तब  हमें  ऐसे अनेक गम्भीर सत्यों का पता चलता है, जिनकी उन निष्कर्षों से तुलना करने पर जहाँ पहुँचकर यूरोपीय प्रतिभा कभी-कभी  रुक गयी है, हमें पूर्व के तत्वज्ञान के आगे घुटना टेक देना चाहिए। च्च् 2द्धद्गठ्ठ 2द्ग ह्म्द्गड्डस्र ह्लद्धद्ग श्चशह्लद्बष्ड्डद्य ड्डठ्ठस्र श्चद्धद्बद्यशह्यशश्चद्धद्बष्ड्डद्य द्वशठ्ठह्वद्वद्गठ्ठह्लह्य शद्घ ह्लद्ध श्वड्डह्यह्ल, ड्डड्ढश1द्ग ड्डद्यद्य ह्लद्धशह्यद्ग शद्घ ढ्ढठ्ठस्रद्बड्ड, 2द्ग स्रद्बह्यष्श1द्गह्म् ह्लद्धद्गह्म्द्ग द्वड्डठ्ठ4 ह्लह्म्ह्वह्लद्धह्य ह्यश श्चह्म्शद्घशह्वठ्ठस्र ड्डठ्ठस्र 2द्धद्बष्द्ध द्वड्डद्मद्ग ह्यह्वष्द्ध ड्ड ष्शठ्ठह्लह्म्ड्डह्यह्ल 2द्बह्लद्ध ह्लद्धद्ग ह्म्द्गह्यह्वद्यह्लह्य ड्डह्ल 2द्धद्बष्द्ध ह्लद्धद्ग श्वह्वह्म्शश्चद्गड्डठ्ठ द्दद्गठ्ठद्बह्वह्य द्धड्डह्य ह्यशद्वद्गह्लद्बद्वद्गह्य ह्यह्लशश्चश्चद्गस्र ह्लद्धड्डह्ल 2द्ग ड्डह्म्द्ग ष्शठ्ठह्यह्लह्म्ड्डद्बठ्ठद्गस्र ह्लश ड्ढद्गठ्ठस्र ह्लद्धद्ग द्मठ्ठद्गद्ग ड्ढद्गद्घशह्म्द्ग ह्लद्धद्ग श्चद्धद्बद्यशह्यशश्चद्ध4 शद्घ श्वड्डह्यह्ल.ज्ज्

जर्मनी के एक दूसरे प्रसिद्ध दार्शनिक फ्रेडरिक श्लेगेल लिखते हैं- च् पूर्वीय आदर्शवाद के प्रचुर प्रकाशपुंज की तुलना में  यूरोपवासियों का उच्चतम तत्वज्ञान ऐसा ही लगता है, जैसे मध्याह्न सूर्य के व्योमव्यापी प्रताप की पूर्ण प्रखरता में टिमटिमाती और अनलशिखा की कोई आदि किरण, जिसकी अस्थि और निस्तेज ज्योति ऐसी हो रही हो मानो अब बुझी कि  तब।ज् च्च् श्व1द्गठ्ठ ह्लद्धद्ग द्यशद्घह्लद्बद्गह्यह्ल श्चद्धद्बद्यशह्यशश्चद्ध4 शद्घ ह्लद्धद्ग श्वह्वह्म्शश्चद्गड्डठ्ठह्य ड्डश्चश्चद्गड्डह्म्ह्य द्बठ्ठ ष्शद्वश्चड्डह्म्द्बह्यशठ्ठ 2द्बह्लद्ध ह्लद्धद्ग ड्डड्ढह्वठ्ठस्रड्डठ्ठह्ल द्यद्बद्दद्धह्ल शद्घ शह्म्द्बद्गठ्ठह्लड्डद्य द्बस्रद्गड्डद्यद्बह्यद्व द्यद्बद्मद्ग ड्ड द्घद्गद्गड्ढद्यद्ग श्चह्म्शद्वद्गह्लद्धद्गड्डठ्ठ ह्यश्चड्डह्म्द्म द्बठ्ठ ह्लद्धद्ग  द्घह्वद्यद्य द्घद्यशशस्र शद्घ ह्लद्धद्ग द्धद्गड्ड1द्गठ्ठद्य4 द्दद्यशह्म्4 शद्घ ह्लद्धद्ग ठ्ठशशठ्ठस्रड्ड4 ह्यह्वठ्ठ द्घड्डद्यह्लद्गह्म्द्बठ्ठद्द ड्डठ्ठस्र द्घद्गद्गड्ढद्यद्ग ड्डठ्ठ4 द्ग1द्गह्म् ह्म्द्गड्डस्र4 ह्लश ड्ढद्ग द्ग3ह्लद्बठ्ठद्दह्वद्बह्यद्धद्गस्र. -