(एक साल पुरानी टिप्पणी थोड़ा सुधार के बाद)
कुल के कलंक पर टिप्पणी करने से पहले विचार करना होगा कि ऐसा करने पर हम कितने महापुरुषों को नायकत्व से बाहर कर देंगे। किसी के पूर्वजों से चूक हुई तो किसी की संतानों से।
राजनीति को ठीक से समझें तो ध्यान में आयेगा कि राजनीति बहती धारा है। वह किसी नाले-नदी के समान बहती हुई जब राष्ट्र नीति से मिलने जाती है तब उसकी सार्थकता सिद्ध होती है।
राजनीति का यदि राष्ट्र के प्रति समर्पण नहीं होता तो अस्तित्व को खोना उसकी नियति है, कभी इस घाट पर कभी उस पाट पर।
राजनीति में जनता की सेवा घाट और सीढ़ियों की सफाई है। जहां प्रच्छालन कर राष्ट्र मंदिर के कपाट खुलते हैं।
नारायणत्व की प्राप्ति के लिए मंदिर की सीढ़ियों पर बैठे दरिद्र का पादप्रच्छालन करना होता है। तभी दरिद्र नारायण बनता और बनाता है।
वह मंदिर कोई पत्थर का नहीं होता और न ही दरिद्र की कोई पाषाण मूर्ति होती।
कुल का कलंक न तो धुलता है न मिटता है ,वह केवल बहता हुआ समुद्र में अपना अस्तित्व मिटा देता है। समुद्र में मिलने का अवसर सुरसरि रूपी राष्ट्रनीति देती है।
राष्ट्रनीति में विधायक तत्व काम करते हैं , राजनीति में नियामक तत्व।
भारत में राजनीति किसी भी जाति की ,कुल की ,दल की सफलता पर आंकी जाती हैं।
किंतु राष्ट्रनीति में परम्परा , जीवनमूल्य, दर्शन, संस्कृति और सबसे अधिक धर्म और अध्यात्म प्रभावी होते हैं।
राजनीति भूगोलबद्ध है। राष्ट्रनीति परम चेतना का बोध है।
११ मार्च, 2020 कुछ बातेंं संसद और संसद के बाहर साफ कर रही थीं। जब सिंथिया जी सत्ता दल में प्रवेश कर रहे थे तो लोग कह रहे थे,दल बदल रहे हैं। विचारधारा बदल रहे हैं। मेरा मानना है वे राजनीति में थे,अब उनके अन्दर की राष्ट्रनीति जागृत हुई है।
दूसरा गृहमंत्री जी उत्तर दे रहे थे, दिल्ली दंगे में भारतीय मरे हैं। मंदिर जले हैं , मस्जिद भी।
ध्यान रहे केवल एक को याद करके अतिवादी पैदा होंगे। राजनीति में नाले मिलेंगे। भारतीय कहने से बहुत सारे राष्ट्र सुत पैदा होंगे और राष्ट्रनीति स्पष्ट होगी। कंकर घिसकर शंकर बनेंगे।
ध्यान रहे काल करवट नहीं बदलता वह मनुष्य ही नहीं जीवमात्र को अपने आपको बदलने का अवसर प्रदान करता है।
भारतीयता का प्रकाश पुंज ही विश्व को आलोकित करेगा। भारत का भा अर्थात् उसका सारथी ही वर्तमान के रथ को हांकने में सक्षम है।
वेदव्यास धृतराष्ट्र को चक्षु प्रदान करने तत्पर है। वह संतति की आसन्न मृत्यु को स्वयं की आंखों से देखना चाहता है या संजय के। पश्चाताप उसकी नियति है।
यदि कोई युयुत्सु नारायणत्व का साक्षात्कार कर काल के प्रवाह में अमिट हस्ताक्षर करना चाहता है तो उसका स्वागत होना चाहिए।
कुल की खोज गया जी के पंडो पर छोड़ देनी चाहिए।
No comments:
Post a Comment