Sunday, 3 May 2020

ओ मेरे चित्रकार


ओ मेरे चित्रकार

ॐकार 
क्या मैं तुम्हारा दुर्लभ अमोघ अगम्य
बुद्धि-तीक्ष्णता, निर्मलता, विपुलता से भरा
मौन पा सकता हूं ?
 
ठहरो !
मैं जानता हूं तुम्हारे परा-तूलिका का कोई रंग नहीं,
वैसे ही जैसे पंक-कीच, फिसलन, दुर्गन्ध, काई-सेवर से दूर पम्पासर का श्यामाभ जल,
जिसे होना चाहिए था पंकलित उल्लसित अंतःउत्तेजित कामेक्षा-शोकदंशित विवशता से भरा, 
अशोक-तरु का चटक कुसुम्भी प्रगाढ़ दांपत्य प्रेम,

किन्तु तुम चाहते हो जहां जब जैसा वही रंग दिखता है
जानना चाहता हूं यह रंग मेरी आंखों का श्याम-श्वेत-रतनार है 
या तुम्हारे ‘अ’-कार चरणयुगुल का पवित्र पीत अनुराग लालिमा-मिश्रण   ।

मेरे दृश्यभू
क्या तुम्हारी प्रज्ञाचक्षु उस असीम आकाश को भेद कर
देख रहीं हैं हिमालयी अकामना तरल वारि को ,   
जहां उड़ नहीं सकते हमारे ईर्ष्या वैभव अय्याशी के विमान
वहां से केवल और केवल उड़ कर वापस आ सकता है
‘प्रणव’ का पञ्च-प्राण-पखेरू, मेरा घुमंतू परिंदा
जो उद्यत है मुक्ति मोक्ष कैवल्य-हुतासन ले ‘इदं इन्द्राय इदं न मम’ हेतु,
दिख रहे हैं उसे तुम्हारे ‘उ-कार’ के उपकार उदर विशाल देश के आकाश और प्रकाश  मिश्रण। 

हे ब्रह्मविदु
संभवतः पंचभूती अपवित्र हाथों की मलिन छाया ने  
तुम्हारे ‘अवानस्पतिक’ को स्पर्श कर दिया होगा, या
दूसरे की रक्त कोशिकाओं को रोक लिया होगा अपने ही क्षेत्र में
जिसने बाधित किया होगा महामौनी सिद्ध मतंग आश्रम को
संवेदना और सहृदयता की सबरी में न आई होगी मिठास
अत: सावधान हूँ झंझावात में गंतव्य-यात्रा अधूरी न रह जाए
'
ये पुरुषे वेदि ब्रह्म। ते वेदि ब्रह्मस्वरूप'
जीवन, प्रकाश-अस्मिता के चरम स्रोत का कर सके संधान
इसलिये चाहता हूं प्रवेेश उसमें जो है 'म’-कार महामंडल मिश्रण ।

प्रो. उमेश कुमार सिंह
03/05/2020


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