(एक)
आज अपने एक मित्र की पोस्ट पर मैंने अपनी टीप दी थी ,जो इस प्रकार थी-
हमारे मित्र ने फेसबुक पर एक प्रश्न रखा है -
वामपंथी लेखन मंडली द्वारा सनातन संस्कृति के उज्ज्वल पक्ष पर कितना लेखन हुआ है, क्या आप बता सकते हैं?
जी हां। पहले तो यह मानना होगा कि भारत में कोई वाम-दक्षिण (साहित्य) में नहीं हैं।
यदि हों भी तो वाम हो या दक्षिण दोनों जयंत हैं।
इसलिए सनातन पर न समग्रता में वाम लिख सकता न दक्षिण। दूसरा सनातन संस्कृति में उज्ज्वल पक्ष ही होता है। इसीलिए वह नित्य नूतन चिर पुरातन होती है।
सनातन पर या तो सूरदास लिख सकता है या त्रिनेत्रधारी।
मानवता की मांग है कि वाम और दक्षिण मिलकर तीसरे नेत्र राष्ट्रपंथी को प्राप्त करें। बिना तीसरे नेत्र के सनातन पर कौन लिख सकता है?
पर त्रिनेत्रधारी की शर्त हलाहल पान है।
..................
(दो)
जिस पर दो टिप्पणियों पर हमने पुनः स्पष्टता के लिए विचार रखा जो इस प्रकार है-
दो बातें ध्यान में रखना चाहिए।एक १९२५ से १९८० के दसक का वामपंथ , कम्युनिस्ट, नक्सलवाद। दूसरा उसके बाद का।
जब मैं वामपंथ कहता हूं तो उसमें (भविष्य का राष्ट्र पंथी) देखता हूं।
उनमें भी तीन प्रकार के हैं-
एक दक्षिण पंथ विरोधी।
दूसरे- जिज्ञासु वामपंथी।
तीसरे- कट्टर ,लगभग नक्सली मानसिकता के (लेखक)।
इनकी उदात्तता जैसे-जैसे बढ़ती है, वे श्रेणियां बदलती जाती हैं।
जो दक्षिण पंथ से मतभेद रखता है ,वह बहुत जल्दी तटस्थ और आगे राष्ट्र पंथी बनता जाता है।
शेष संघर्ष के दौर से नर्मदा के पत्थर की तरह घिसते रहते हैं।
केरल, पश्चिम बंगाल में होती हत्याएं इनके उदाहरण हैं। वहां पूर्व वामपंथियो की हत्याएं ज्यादा होती हैं।
यह प्रक्रिया धीमी अवश्य दिखती है किंतु भविष्य के बीस-पच्चीस सालों में काफी परिवर्तित दिखेगी।
सनातन संस्कृति को अंग्रेजी की शब्दावली ने किनारे करने की स्थिति पैदा की है।
दोष दक्षिण पंथियों का भी है उन्होंने अपने-अपने कारणों से एक लक्ष्मण रेखा खींच दी।
मैं व्यक्तिगत रूप से अनेक लोगों को जानता हूं जो या तो तटस्थ हैं या प्रो सनातनी किन्तु उन पर वामपंथ का लेवल इसलिए भी लगा दिया की उसकी प्रतिभा हमें पीछे न ढकेल दे।
त्रिनेत्र का लेखन दो अर्थों में बहुत महत्त्वपूर्ण है,जो सम्भव भी है।
* एक-व्यक्ति से मतभेद हो, मनभेद नहीं।
* दूसरा-दूसरे को दोष देना बंद हो और मैं ही राष्ट्र,सनातन संस्कृति का ठेकेदार हूं, व्यवहार में प्रकट न हो।
मनुष्य तीन तल्लों में जीने वाला ईश्वर का वरदान है-
* एक-चेतन अवस्था।
* दूसरा-अर्धचेतन ।
* तीसरा-अचेतन।
मित्र साहित्यकार किस तल्लेपर निवास करता है, यह उसके ऊपर है।
तीसरा तल्ला ही सनातन संस्कृति का बोध करता है। पहले में संघर्ष, दूसरे में तटस्थ और तीसरे में स्वस्थ की अवस्था प्राप्त होती हैं।
यहीं से अजातशत्रु रचनाकार की कालजयी यात्रा प्रारंभ होती है।
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