(दो)
दैत्यराज बलि के
पुत्र वाणासुर और उनकी कन्या ऊषा
द्वारिकाधीश श्री कृष्ण के पोते अनिरुद्ध महाराज
वाण की कन्या राजकुमारी ऊषा दोनों आपस में प्रेम करने लगे थे। यह बात जब महाराज
वाण को पता चली तो वे बिना माता-पिता की आज्ञा के प्रेम को स्वीकार नहीं कर सके और
उन्होंने दोनों को चेताया। किन्तु अनिरुद्ध ऊषा का अपहरण कर ले जाना चाहते थे। इस
पर युद्ध हुआ और राजा वाण ने अनिरुद्ध को पकड़ कर कारागार में डाल दिया। अपने
प्रिय पोते को छुड़ाने कृष्ण ने वाण को संदेश भेजा किन्तु उससे अनुकूल उत्तर न
प्राप्त होने पर कृष्ण ने वाण से युद्ध किया और वाणासुर को पराजित कर ऊषा और
अनिरुद्ध को लेकर द्वारिका आ गये।
किन्तु यहाँ एक विशेष घटना यह घटी कि सम्भवत:
कृष्ण अपनी आयु मर्यादा के कारण भविष्य में अब किसी भी प्रकार का युद्ध नहीं करना
चाहते थे। अत: युद्ध पश्चात कृष्ण नर्मदा तट पर स्थित वाणासुर के क्षेत्र से वापस
जाते समय पर्वत शिखर पर अपने युद्ध-वेश का सदा के लिए त्याग कर, युद्धनीति से मुक्त हो माँ नर्मदा की आराधना की
और यहीं से उनका नाम ‘रणछोड़ जी’
पड़ा। इसी स्मृति में कालान्तर में यहाँ
श्रीकृष्ण का मंदिर और मूर्ति भी स्थापित की गई।
वाणासुर पराजित हुआ किन्तु वह न केवल पराक्रमी
योद्धा था बल्कि परम शिवभक्त भी था। उसने भी इस घटना के बाद संसार से मोह भंग कर
शिव की उत्कट आराधना की और शिव ने प्रसन्न होकर अपने नाम में एक पर्याय वाण भी बना
लिया। इस तरह अपने भक्त की आराधना से प्रसन्न शिव ने वाणासुर को यह वरदान भी दिया
कि तुम अनन्त काल तक इस नर्मदा में रह कर वाणलिंग का स्वरूप धारण कर धावणी कुंड से
वाणलिंग के रूप में प्रकट होते रहोगे। इसी धावड़ी कुंड पर वाण राजा का यज्ञकुंड और
तपस्या स्थल है। इस बारे में स्वयं महादेव का कहना है-
स्वयं संस्त्रवते
लिंगं गिरितो नर्मदाजले।
पुरा वाणासुरेणाहं प्रार्थितो नर्मदातटे।
अविवसं गिरौ तत्र लिंगरूपी महेश्वर।
वाणलिंगमपि
ख्यातमतोऽर्थाज्जगतीतले।
अभी महेश्वर जाना
हुआ तो पता चला कि कोई बड़ा बाँध बना है जिसके सीमा में वह धावड़ी कुंड आ गया है
और माँ नर्मदा की धाराएँ वहाँ नहीं पहुँच पाने से कुंड से वाणलिंग नहीं निकलते। यह
जान प्राकृतिक घटनाओं से खिलवाड़ करते स्वार्थी योजनाओं के कर्ताधर्ता और
अस्थाविहीन विज्ञान वेत्ताओं के प्रति मन क्षुभित हो गया।
नर्मदे हर।
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