(तीन)
विशाल नगरी
महिष्मती
रणछोड़ मंदिर से बाहर आने पर कुछ दूर पर दिखाई
देते हैं विशाल नगरी के अवशेष। दूर दूर तक फैले खण्डहर को घेरे एक ठोस चहारदीवारी
दिखाई देती है। इसको जोडऩे वाली बारह-चौदह फिट चौड़ी सडक़ बताती है कि यहाँ अतीत
में किसी महापराक्रमी महाराजा का प्रासाद रहा होगा। निश्चित ही यहाँ इसकी विशाल
सीढिय़ाँ इसमें से गुजरने वालों की वैभव गाथा छिपाये हुए है। आश्चर्य यह होता है कि
माँ नर्मदा के इस द्वीप पर कब किसने इतना विशाल राजमहल बनाया होगा। किसी तत्वदर्शी
पुरुष के संस्मरण से ज्ञात हुआ कि यह नगरी कभी राजा मुचकुंद की थी। और कभी यह
प्रासाद सदा वेदमंत्रों की ध्वनि और अश्वमेघ यज्ञ के उत्सवों की ध्वनि से मुखरित
रहा होगा। कालांतर में मान्धाता-वंशजों की शूर-वीरता का स्वर्णयुग समाप्त हो
गया।
इसके बाद हैहय
वंशीय राजा माहिष्मत ने युद्ध द्वारा इस नगरी पर अधिकार कर लिया। उनके नाम पर यह
माहिष्मती कहलाया। आज उसी महल को चारों ओर से बबूल और जंगली कटीले पौधे तथा नीम ने
कब्जा कर रखा है। कभी यह नगरी दुर्गम और अजेय हुआ करती थी। महाराज मुचकुंद इस नगरी
के आदि प्रतिष्ठाता भले ही रहे हों, मगर इस नगरी की गौरवगाथा को, तमाम हिन्दुस्तान
में हैहय-राज, महापराक्रमी,
शूरवीर दिग्विजयी सम्राट कार्तवीर्यार्जुन के
शासनकाल ने गगनचुम्बी ऊँचाईयों तक पहुँचा दिया गया था। माहिष्माती की शोभा की कथा
घर-घर में फै ल गई थी। सम्राट कार्तवीर्यार्जुन की शूरता का वर्णन जितना भी किया
जाए, कम है। वह देव-तुल्यों के
विजेता दैत्यराज रावण को परास्त कर ही नहीं शांत हुए और दक्षिण में भारत सागर तक
के विस्तीर्ण इलाके पर अपनी विजय-पताका फहरायी थी।
महाभारत में
वेदव्यास उनके बारे में कहते हैं- ‘अनूपपतिर्वीर:
कार्तवीर्य: (वनपर्व/९७/१९)’ महाभारत के
सुप्रसिद्ध टीकाकार श्री नीलकंठ ने इस ‘अनूपपति’ शब्द की व्याख्या
कुछ इस प्रकार की है ‘समुद्रप्रायदेशस्य
राजा’ अर्थात् जो समुद्र तट तक
फैले समस्त देशों के राजा हैं। महाक्षत्रप रुद्रदमन की जूनागढ़ प्रशस्ति
(शिलालिपि) में कार्तवीर्यार्जुन को ‘अनूपनिवृत्’ की उपाधि से
विभूषि किया गया है। पाश्चातय विद्वान पर्जिटर ने अपने ग्रंथ में तथा कनिंघम ने नर्मदा-मध्य
इस पहाड़ी द्वीप के इस नगर को माहिष्मती कहा है। वे और ज्यादा यह भी कहते हैं कि
मध्यप्रदेश के निमाड़ जिले के खांडव (सम्भवत: वर्तमान खण्डवा) नामक तहसील के बीच
नर्मदा द्वीप के एक गाँव का नाम है, माहिष्मती।
1165 की बात है
महाराज भरत सिंह ने युद्ध में विजय प्राप्त करके मान्धाता ओंकारेश्वर पर कब्जा कर
लिया था। महाकवि कालदास रचित ‘रघुवंश’ को पढऩे से भी पता चलता है कि नर्मदा अथवा रेवा
नदी के किनारे अनगिनत, प्रासादों से
सुसज्जित एक अत्यंत समृद्धशाली नगरी हुआ करती थी, जिसे माहिष्मती कहते थे। महाकवि कालिदास ने अपनी अनुपम रचना
में राजकुमारी इन्दुमती के स्वयंवर सभा का एक अलौकिक वर्णन किया है । ‘इस स्वयंवर सभा
की प्रधान द्वारपालिका राजकुमारी इन्दुमती के संग-संग चल कर सभा में आमंत्रित
विवाहेच्छुक विभिन्न राजा-महाराजाओं का परिचय उसे देती हुई आगे चलती है, और जब वह इस प्रकार महाराज कार्तवीर्यार्जुन के वंशज महाराज प्रतीप
के निकट पहुँचती है, तब वह उनका परिचय
इन्दुमती से इस प्रकार कराती है,
‘‘अस्यांकलक्ष्मीर्भव दीर्घबाहोर्माहिष्मतीवप्रनितम्बकांचीम्।
प्रासादजालैर्जलवेणिरम्याम्,
रेवां यदि प्रेक्षितुमस्ति काम:’’।। (रघुवंश,६ / ४३)
अर्थात् महाराज प्रतीप की राजधानी माहिष्मती
नगरी का प्राचीर (चाहारदीवारी) मानो सुन्दरी के नितंम्ब में मेखला के समान सुशोभित
हैं। यदि आपकी इच्छा कभी हुई कि आप उनके प्रासाद के झरोखों से रेवा नदी की मनमोहक
जलधारा का दर्शन करें तो फिर आप इन दीर्घबाहु नृपति को अपना बर चुनें।
कार्तिक महीनें
में मान्धाता में यहाँ सालाना मेला लगा करता था। उन दिनों लगभग पच्चीस तीस हजार
यात्री यहाँ आया करते थे। हर साल उसी अवसर पर इस नरबलि का प्रंबन्ध रहता था। सन् 1824 में मांधाता अंग्रेजों के अधीन आ गया। तब से
अंग्रेजों ने सदियों से चली आ रही पहाड़ की चोटी पर भैरव के सामने कूदकर मरने की
इस नरबलि प्रथा को समाप्त किया। मान्धाता के राजा लोग ‘भीलाला’ जाति से थे।
दरअसल ये लोग राजपूतों के चौहान वंश के राजा भरत सिंह के वंशज थे। 1165 में इन्होंने मान्धाता को भीलों के कब्जे से
छीन लिया। कहा जाता है कि वहाँ के पुजारी
दरिद्रनाथ गोसाई के बुलावे पर एक दिन राजा भरत सिंह चौहान आये और भीलों के सरदार
माथू भील की हत्या कर उसकी कन्या से शादी कर ली तब से इन्ही के वंशज ‘भीलाला’ कहलाए।
सांची में पाए गए अनुशासन लिपि में भी
माहिष्मती का वर्णन मिलता है। माहिष्मती से साँची का स्तूप देखने सैकड़ों लोग आया
करत थे। अनुशासन लिपि के प्रणेता परमार राजा देवपाल के बारे में अनुशासन लिपि कहती
है कि जब तेरहवीं शताब्दी में राजा देवपाल माहिष्मती में निवास कर रहे थे, तब उन्होंने ओंकार पहाड़ की चोटियों पर अनेक नए
शिवमंदिरों का निर्माण करवाया और अनेक पुराने मंदिरों का पुनर्निमाण भी। इसके बाद
नर्मदा में स्नान करने के बाद इन मंदिरों का दान करवाया दिया।
तात्पर्य यह कि मान्धाता, मुचकुंद, कार्तवीर्यार्जुन, प्रतीप आदि से लेकर तेरहवीं शती के परमार राज देवपाल तक के इतने प्रबल पराक्रमी
सम्राटों की राजधानी होने के नाते माहिष्मती का राजमहल और उसका दुर्ग किस मात्रा
में चौंकानेवाले बेशुमार धन-दौलत और ऐश्वर्य का अधिकारी रहा होगा, आज के इस खंडहर को देख कर इसका सही अंदाजा
लगाना कभी मुमकिन नहीं है। हलांकि आज के माहिष्मती के निवासियों की संख्या एक हजार
से ज्यादा नहीं होगी मगर एक जमाने में जिन पराक्रमी वीरों के अधीन आसमुद्रहिमाचल
का यह सारा इलाका रहा करता था, उनकी राजधानी और
राजमहल किस शानों-शौकत और तगड़ी सुरक्षा के दौर से गुजर रहे थे क्या इसका अंदाजा
लगाना बहुत मुश्किल है?