Friday, 17 January 2020

नर्मदा तीन



(तीन)
विशाल नगरी महिष्मती

               रणछोड़ मंदिर से बाहर आने पर कुछ दूर पर दिखाई देते हैं विशाल नगरी के अवशेष। दूर दूर तक फैले खण्डहर को घेरे एक ठोस चहारदीवारी दिखाई देती है। इसको जोडऩे वाली बारह-चौदह फिट चौड़ी सडक़ बताती है कि यहाँ अतीत में किसी महापराक्रमी महाराजा का प्रासाद रहा होगा। निश्चित ही यहाँ इसकी विशाल सीढिय़ाँ इसमें से गुजरने वालों की वैभव गाथा छिपाये हुए है। आश्चर्य यह होता है कि माँ नर्मदा के इस द्वीप पर कब किसने इतना विशाल राजमहल बनाया होगा। किसी तत्वदर्शी पुरुष के संस्मरण से ज्ञात हुआ कि यह नगरी कभी राजा मुचकुंद की थी। और कभी यह प्रासाद सदा वेदमंत्रों की ध्वनि और अश्वमेघ यज्ञ के उत्सवों की ध्वनि से मुखरित रहा होगा। कालांतर में मान्धाता-वंशजों की शूर-वीरता का स्वर्णयुग समाप्त हो गया। 

इसके बाद हैहय वंशीय राजा माहिष्मत ने युद्ध द्वारा इस नगरी पर अधिकार कर लिया। उनके नाम पर यह माहिष्मती कहलाया। आज उसी महल को चारों ओर से बबूल और जंगली कटीले पौधे तथा नीम ने कब्जा कर रखा है। कभी यह नगरी दुर्गम और अजेय हुआ करती थी। महाराज मुचकुंद इस नगरी के आदि प्रतिष्ठाता भले ही रहे हों, मगर इस नगरी की गौरवगाथा को, तमाम हिन्दुस्तान में हैहय-राज, महापराक्रमी, शूरवीर दिग्विजयी सम्राट कार्तवीर्यार्जुन के शासनकाल ने गगनचुम्बी ऊँचाईयों तक पहुँचा दिया गया था। माहिष्माती की शोभा की कथा घर-घर में फै ल गई थी। सम्राट कार्तवीर्यार्जुन की शूरता का वर्णन जितना भी किया जाए, कम है। वह देव-तुल्यों के विजेता दैत्यराज रावण को परास्त कर ही नहीं शांत हुए और दक्षिण में भारत सागर तक के विस्तीर्ण इलाके पर अपनी विजय-पताका फहरायी थी।

महाभारत में वेदव्यास उनके बारे में कहते हैं- अनूपपतिर्वीर: कार्तवीर्य: (वनपर्व/९७/१९)महाभारत के सुप्रसिद्ध टीकाकार श्री नीलकंठ ने इस अनूपपतिशब्द की व्याख्या कुछ इस प्रकार की है समुद्रप्रायदेशस्य राजाअर्थात् जो समुद्र तट तक फैले समस्त देशों के राजा हैं। महाक्षत्रप रुद्रदमन की जूनागढ़ प्रशस्ति (शिलालिपि) में कार्तवीर्यार्जुन को अनूपनिवृत्की उपाधि से विभूषि किया गया है। पाश्चातय विद्वान पर्जिटर ने अपने ग्रंथ में तथा कनिंघम ने नर्मदा-मध्य इस पहाड़ी द्वीप के इस नगर को माहिष्मती कहा है। वे और ज्यादा यह भी कहते हैं कि मध्यप्रदेश के निमाड़ जिले के खांडव (सम्भवत: वर्तमान खण्डवा) नामक तहसील के बीच नर्मदा द्वीप के एक गाँव का नाम है, माहिष्मती।

1165 की बात है महाराज भरत सिंह ने युद्ध में विजय प्राप्त करके मान्धाता ओंकारेश्वर पर कब्जा कर लिया था। महाकवि कालदास रचित रघुवंशको पढऩे से भी पता चलता है कि नर्मदा अथवा रेवा नदी के किनारे अनगिनत, प्रासादों से सुसज्जित एक अत्यंत समृद्धशाली नगरी हुआ करती थी, जिसे माहिष्मती कहते थे। महाकवि कालिदास ने अपनी अनुपम रचना में राजकुमारी इन्दुमती के स्वयंवर सभा का एक अलौकिक वर्णन किया है । ‘इस स्वयंवर सभा की प्रधान द्वारपालिका राजकुमारी इन्दुमती के संग-संग चल कर सभा में आमंत्रित विवाहेच्छुक विभिन्न राजा-महाराजाओं का परिचय उसे देती हुई आगे चलती है, और जब वह इस प्रकार  महाराज कार्तवीर्यार्जुन के वंशज महाराज प्रतीप के निकट पहुँचती है, तब वह उनका परिचय इन्दुमती से इस प्रकार कराती है,
               ‘‘अस्यांकलक्ष्मीर्भव दीर्घबाहोर्माहिष्मतीवप्रनितम्बकांचीम्।
               प्रासादजालैर्जलवेणिरम्याम्, रेवां यदि प्रेक्षितुमस्ति काम:’’।। (रघुवंश,६ / ४३)
 अर्थात् महाराज प्रतीप की राजधानी माहिष्मती नगरी का प्राचीर (चाहारदीवारी) मानो सुन्दरी के नितंम्ब में मेखला के समान सुशोभित हैं। यदि आपकी इच्छा कभी हुई कि आप उनके प्रासाद के झरोखों से रेवा नदी की मनमोहक जलधारा का दर्शन करें तो फिर आप इन दीर्घबाहु नृपति को अपना बर चुनें।

कार्तिक महीनें में मान्धाता में यहाँ सालाना मेला लगा करता था। उन दिनों लगभग पच्चीस तीस हजार यात्री यहाँ आया करते थे। हर साल उसी अवसर पर इस नरबलि का प्रंबन्ध रहता था। सन् 1824 में मांधाता अंग्रेजों के अधीन आ गया। तब से अंग्रेजों ने सदियों से चली आ रही पहाड़ की चोटी पर भैरव के सामने कूदकर मरने की इस नरबलि प्रथा को समाप्त किया। मान्धाता के राजा लोग भीलालाजाति से थे। दरअसल ये लोग राजपूतों के चौहान वंश के राजा भरत सिंह के वंशज थे। 1165 में इन्होंने मान्धाता को भीलों के कब्जे से छीन लिया। कहा जाता है कि  वहाँ के पुजारी दरिद्रनाथ गोसाई के बुलावे पर एक दिन राजा भरत सिंह चौहान आये और भीलों के सरदार माथू भील की हत्या कर उसकी कन्या से शादी कर ली तब से इन्ही के वंशज भीलालाकहलाए।

               सांची में पाए गए अनुशासन लिपि में भी माहिष्मती का वर्णन मिलता है। माहिष्मती से साँची का स्तूप देखने सैकड़ों लोग आया करत थे। अनुशासन लिपि के प्रणेता परमार राजा देवपाल के बारे में अनुशासन लिपि कहती है कि जब तेरहवीं शताब्दी में राजा देवपाल माहिष्मती में निवास कर रहे थे, तब उन्होंने ओंकार पहाड़ की चोटियों पर अनेक नए शिवमंदिरों का निर्माण करवाया और अनेक पुराने मंदिरों का पुनर्निमाण भी। इसके बाद नर्मदा में स्नान करने के बाद इन मंदिरों का दान करवाया दिया।

               तात्पर्य यह कि मान्धाता, मुचकुंद, कार्तवीर्यार्जुन, प्रतीप आदि से लेकर तेरहवीं शती के परमार राज देवपाल तक के इतने प्रबल पराक्रमी सम्राटों की राजधानी होने के नाते माहिष्मती का राजमहल और उसका दुर्ग किस मात्रा में चौंकानेवाले बेशुमार धन-दौलत और ऐश्वर्य का अधिकारी रहा होगा, आज के इस खंडहर को देख कर इसका सही अंदाजा लगाना कभी मुमकिन नहीं है। हलांकि आज के माहिष्मती के निवासियों की संख्या एक हजार से ज्यादा नहीं होगी मगर एक जमाने में जिन पराक्रमी वीरों के अधीन आसमुद्रहिमाचल का यह सारा इलाका रहा करता था, उनकी राजधानी और राजमहल किस शानों-शौकत और तगड़ी सुरक्षा के दौर से गुजर रहे थे क्या इसका अंदाजा लगाना  बहुत मुश्किल है?

narmada 2


(दो)

दैत्यराज बलि के पुत्र वाणासुर और उनकी कन्या ऊषा

               द्वारिकाधीश श्री कृष्ण के पोते अनिरुद्ध महाराज वाण की कन्या राजकुमारी ऊषा दोनों आपस में प्रेम करने लगे थे। यह बात जब महाराज वाण को पता चली तो वे बिना माता-पिता की आज्ञा के प्रेम को स्वीकार नहीं कर सके और उन्होंने दोनों को चेताया। किन्तु अनिरुद्ध ऊषा का अपहरण कर ले जाना चाहते थे। इस पर युद्ध हुआ और राजा वाण ने अनिरुद्ध को पकड़ कर कारागार में डाल दिया। अपने प्रिय पोते को छुड़ाने कृष्ण ने वाण को संदेश भेजा किन्तु उससे अनुकूल उत्तर न प्राप्त होने पर कृष्ण ने वाण से युद्ध किया और वाणासुर को पराजित कर ऊषा और अनिरुद्ध को लेकर द्वारिका आ गये।

               किन्तु यहाँ एक विशेष घटना यह घटी कि सम्भवत: कृष्ण अपनी आयु मर्यादा के कारण भविष्य में अब किसी भी प्रकार का युद्ध नहीं करना चाहते थे। अत: युद्ध पश्चात कृष्ण नर्मदा तट पर स्थित वाणासुर के क्षेत्र से वापस जाते समय पर्वत शिखर पर अपने युद्ध-वेश का सदा के लिए त्याग कर, युद्धनीति से मुक्त हो माँ नर्मदा की आराधना की और यहीं से उनका नाम रणछोड़ जीपड़ा। इसी स्मृति में कालान्तर में यहाँ श्रीकृष्ण का मंदिर और मूर्ति भी स्थापित की गई।

               वाणासुर पराजित हुआ किन्तु वह न केवल पराक्रमी योद्धा था बल्कि परम शिवभक्त भी था। उसने भी इस घटना के बाद संसार से मोह भंग कर शिव की उत्कट आराधना की और शिव ने प्रसन्न होकर अपने नाम में एक पर्याय वाण भी बना लिया। इस तरह अपने भक्त की आराधना से प्रसन्न शिव ने वाणासुर को यह वरदान भी दिया कि तुम अनन्त काल तक इस नर्मदा में रह कर वाणलिंग का स्वरूप धारण कर धावणी कुंड से वाणलिंग के रूप में प्रकट होते रहोगे। इसी धावड़ी कुंड पर वाण राजा का यज्ञकुंड और तपस्या स्थल है। इस बारे में स्वयं महादेव का कहना है-
स्वयं संस्त्रवते लिंगं गिरितो नर्मदाजले।
पुरा    वाणासुरेणाहं प्रार्थितो नर्मदातटे।
अविवसं   गिरौ तत्र लिंगरूपी महेश्वर।
वाणलिंगमपि ख्यातमतोऽर्थाज्जगतीतले।

अभी महेश्वर जाना हुआ तो पता चला कि कोई बड़ा बाँध बना है जिसके सीमा में वह धावड़ी कुंड आ गया है और माँ नर्मदा की धाराएँ वहाँ नहीं पहुँच पाने से कुंड से वाणलिंग नहीं निकलते। यह जान प्राकृतिक घटनाओं से खिलवाड़ करते स्वार्थी योजनाओं के कर्ताधर्ता और अस्थाविहीन विज्ञान वेत्ताओं के प्रति मन क्षुभित हो गया।
नर्मदे हर।

narmada 1


नमामि देवि नर्मदे
माँ नर्मदा प्रसंग
(एक)
नम: शिवा। शिवाय नम:
वाण लिंगं महाभाग संसारात् त्राहिमां प्रभो। नास्ते चोग्ररूपाय नमस्ते व्यक्तयोनये।।
संसारकारिणे तुभ्यं नमस्ते सूक्ष्मरूप धृक। प्रमत्ताय महेन्द्राय कालरूपाय वै नम:।।
दहनाय नमस्तुभ्यं नमस्ते योगकारिणे। भोगिनां भोगकत्र्रे च मोक्षदात्रे नमो नम:।।
नम: कामांगनाशय नम:  कल्मषहारिणे। नमो विश्वप्रदात्रे च नमो विश्वस्वरूपिणे।।
परमात्मस्वरूपाय लिंगमूलात्काय च । सर्वेश्वराय सर्वाय  शिवाय निर्गुणाय च ।।

हर नर्मदे। नर्मदाय नम:
अध्यात्म की चित्शक्ति जो सर्वात्ममय शैवी छटा। अधिदैवमय कल्पांत में मुनि ने लिखी दैवी घटा।
अधिभूत में अद्भुत यही श्री नर्मदा भू  पर  बहीं ।  है तीर्थजननि ! आज भी त्रैविद्य  दर्शन दे रहीं।।
                             
इयं   माहेश्वरी  गंगा   महेश्वरतनुद्भवा।  प्रोक्ता  दक्षिण  गंगेति भारतस्य  युधिष्ठिर।।
जाह्नवी वैष्णवी गंगा ब्रह्मी गंगा सरस्वती। इयं माहेश्वरी गंगा रेवा नास्त्यत्र संशय:।। (नर्मदा माँ का स्वरूप: युधिष्ठिर के सम्मुख महामुनि मार्कण्डेय जी)
अर्थात् हे युधिष्ठिर! महेश्वर के दैवी शरीर से उत्पन्न होने के कारण नर्मदा को माहेश्वरी गंगा कहते हैं। आज मध्यप्रदेश के जिस क्षेत्र से नर्मदा प्रवाहित हो रही हैं, वह क्षेत्र इन्द्रप्रस्थ से (आधुनिक दिल्ली) से दक्षिण में अवस्थित है, इस कारण से महामुनि मार्कण्डेय ने नर्मदा को दक्षिण गंगा के नाम से पुकारा है।  गंगा जी भगवान विष्णु  के चरण-कमलों से उत्पन्न हुई हैं इसलिये वह वैष्णवी गंगा कहलाती हैं, ब्रह्मा की पत्नी के नामानुसार सरस्वती ब्रह्मी गंगा कहलाती हैं, वैसे ही महेश्वर के तेजोद्दीप अंग से नर्मदा जी की उत्पत्ति हुई है इसलिये वह नि:संदेह माहेश्वरी गंगा य शंकरी गंगा कहला सकती हैं।

यथा हि पुरुषे देवस्त्रैमूर्तित्वमुपाश्रित:। ब्रह्माविष्णुमहेशख्यं न भेदस्तत्र वै यथा।

अर्थात् जिस प्रकार एक ही परमपुरुष परमेश्वर, तीन देवताओं की मूर्तियों में बँट कर तीन देवता -ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर बन जाते हैं, उसी प्रकार यह बात भी याद रखनी चाहिये कि उन तीनों के स्वभावस्वरूप में उनमें कोई आपसी भेद नहीं होता है। वैसे ही इन तीन देव नदियों में भी भेदभाव नहीं करना चाहिये, क्योंकि नद्यस्त्रिस्त्रस्त्रिदेवता:देव भी तीन हैं और उनके अनुग्रह से उनकी नदियाँ भी तीन हैं, यथा सरस्वती, गंगा और नर्मदा। इनमें नर्मदा माता की महिमा सबसे ज्यादा है-

त्रिभि: सारस्वतं पुण्यं सप्ताहेन तु यामुनम्। सद्य: पुनाति गांगेयं दर्शनादेव नर्मदा।।
अर्थात् सरस्वती नदी के जल में तीन दिन स्नान करने से, यमुना के जल में एक सप्ताह स्नान करने से एवं गंगा जल में तुरंत स्नान करने से, एक आदमी पवित्र हो जाता है, परंतु नर्मदा जल में स्नान करने के पहले, केवल दर्शन हो जाने पर ही मनुष्य फौरन पाप और ताप से मुक्त हो जाता है।

नर्मदा माता की दूसरी विशेषता है कि-
 गंगा कनखले पुण्या कुरुक्षेत्रे सरस्वती। ग्रामे व यदिवारण्ये पुण्या सर्वत्र नर्मदा।।
अर्थात् गंगा की पवित्रता की महिमा हरिद्वार के कंखल में अधिक अनुभूत होती है क्योंकि इस स्थल पर दक्ष प्रजापति ने यज्ञ किया था, सरस्वती नदी के किनारे विभिन्न जगहों पर वेदज्ञ ऋषियों ने यज्ञ किया था, इसके बावजूद भी कुरुक्षेत्र में, चूंकि भगवान श्री कृष्ण ने, अर्जुन को विश्वरूप दर्शन कराया था और वहीं पर एक बार महावीर भीष्म के वाणों की बौछार से पस्त अर्जुन को, भीष्म के द्वारा निक्षिप्त ब्रह्मास्त्र से अर्थात् साक्षात् मृत्यु से बचाने के लिये, श्री कृष्ण को सुदर्शन चक्र धारण करना पड़ा था, जिससे उनकी  भगवद्-सत्ता प्रकट हो गई थी, तो इन्हीं सब कारणों से कुरुक्षेत्र में सरस्वती की महिमा अधिक बढ़ गई थी। परन्तु नर्मदा, चाहे वह जहाँ कहीं से भी क्यों न गुजरे-गाँव हो चाहे जंगल-उनका जल सब जगह समान रूप से महान है-वह हर जगह पर समान रूप से पतितोद्धरिणी हैं।