Thursday, 14 November 2019

19 के बाद घटते राज्य

19 के बाद घटते राज्य

2019 के लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा का लोकसभा में बहुमत और उसके सहयोगी दलों की उपस्थिति निश्चित रूप से भाजपा के उत्कर्ष और उसके जनता में बढ़ती पैठ का संकेत समझना अनुचित  नहीं।

धारा 370 की धमक और श्री राम मंदिर के उसके संकल्प की उच्चतम न्यायालय द्वारा पुष्टि , उसके प्रति जनता का आत्मविश्वास बढ़ाया है। घुसपैठिए और तीन तलाक ने देश में "समान नागरिक संहिता" की नई सोच के लिए जमीन तैयार की।

 सामान्य रूप से विचार करने वाले मतदाता और उसके सहयोगियों के लिए यह उत्साह का विषय हो सकता है।

 विरोधी विचारधारा इधर  मानने के लिए मजबूर हो रही है कि भाजपा अपने घोषणा पत्र पर जगजाहिर अमल कर रही है।

 यह उनके लिए उस बिंदु पर घबराहट पैदा करती है जहां दुनिया भर के समीक्षक यह सिद्ध करने पर तुले हैं कि सरकार और उसकी विचारधारा भारत को तथाकथित धर्मनिरपेक्ष से धर्म सापेक्ष अर्थात हिंदू राष्ट्र बनाने में सफल हो रही है।

वास्तविकता इतना ही समझना चाहिए कि भारत इंडिया से भारत की ओर बढ़ा है।

किंतु 2019 लोकसभा चुनाव के बाद संपन्न हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा निरंतर सरकारों से च्युत होती आ रही है। चाहे वाह मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान हो या महाराष्ट्र और हरियाणा।

हरियाणा कब तक स्थिर रहेगी ? हरियाणा में सरकार बनाना बाहरी मजबूरी है। तो  महाराष्ट्र का टूटना आंतरिक मजबूरी है।

 मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में से मध्य प्रदेश एक ऐसा  राज्य है जहां पर अभी तक भाजपा  स्वप्न  पर सत्ता की खुमारी में है कि हो सकता है बिल्ली के भाग से छींका टूट जाए।

 परंतु वह अब दूर की कौड़ी नजर आ रही है। उल्टा यह हो रहा है कि उसे अपना घर संभालने में मशक्कत करनी पड़ रही है।

यह कहा जाता है कि मध्यप्रदेश , राजस्थान और छत्तीसगढ़ में  सत्तारूढ़ कांग्रेस को जनता सत्ता में नहीं लाना चाहती थी। जनता उसके पुराने अनुभवों से  सामान्य बुद्धि और परिपक्व प्रजातांत्रिक भावना को प्रदर्शित कर रही थी। किंतु यह भी सत्यम है कि  वह केंद्र के समान प्रदेशों में विपक्ष हीना सत्ता नहीं देखना चाहती थी।

यह अलग बात है कि  आत्ममुग्धता में तीनों प्रदेश भा जा पा के हाथ से चले गये। अब मध्य प्रदेश में एक डायलॉग  " हम जोड़-तोड़ कर सरकार नहीं गिरायेंगे", सुनकर जानता पूछती है "सरकार अपने कर्मों से कब गिरेगी?" यह कहना क्यों बंद कर दिया !!

 वस्तुतः सत्तारूढ़ प्रदेशों की भाजपा नहीं समझ पाई की 1952 के पहले आम चुनाव में कांग्रेस को जिस तरह से बहुमत मिला था वह  1962 तक आते-आते 10 वर्षों में और  चीन के एक आक्रमण के कारण 1967 में कांग्रेस अनेक राज्यों में बहुत से  कम सीटें जीत सकी थी ।

और 72 से 76 के बीच देश में जो कुछ भी हुआ उसी का परिणाम है आज भाजपा गठबंधन एक अंग से प्रारंभ होकर गठबंधन के प्रमुख आधार के रूप में खड़ी है।

जिन लोगों ने  संविधान संशोधन कर  धर्मनिरपेक्ष शब्द डाला वे भी दीनदयालजी के राष्ट्रवाद से दूर नहीं रह सके।

डॉ राम मनोहर लोहिया के शब्दों   " राजनीति अल्पकालीन धर्म और धर्म दीर्घकालीन राजनीति। ”, को उनके ही अनुयायियों ने भुला दिया।

 सनातन भारत का बीज 'एकात्म मानव दर्शन'  पंडित दीनदयाल जी उपाध्याय के माध्यम से राष्ट्रवाद और एकात्म मानववाद को और फलने-फूलने का अवसर प्राप्त हुआ।

विपक्षी दलों ने भी बंगाल से लेकर  केरल तक विभिन्न प्रकार के गठबंधनों का प्रयोग करते हुए सरकार चलाईं किंतु केंद्र से लेकर प्रदेशों में भ्रष्टाचार, जातिवाद, भाई-  भतीजावाद का जो बट वृक्ष खड़ा हुआ और राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत को विखंडित करने, उसको कमजोर करने, उसके मूल चिति को मारने के जो उपक्रम बाहर -भीतर से चले उसने विपक्ष को भ्रमित किया।

भाजपा का केंद्र का शासन जहां इन परिस्थितियों से लड़ कर आज भारत को एक शक्तिशाली प्रभुता संपन्न राष्ट्र के रूप में परिचय प्रदान किया है वह भी हमारे सामने है।

केंद्र में भाजपा ने जिस तरह से जनता को भरोसा देने में सफलता प्राप्त की है और गांधी की शताब्दी में गांधी की सनातन दृष्टि,  आध्यात्मिक राष्ट्र की दृष्टि को पोषित और पल्लवित किया है और उसने अपनी सफलता की कहानी लिखी है, वहीं विपक्ष केन्द्रीय राजनीति में बिखरा हुआ है ।

किंतु यह स्पष्ट है कि केवल केंद्र के कामों के भरोसे प्रदेशों में भाजपा अपने को टिकाए नहीं रह सकती। घोषणाओं के  जिस  लालीपाप का भाजपा ढोल बजाकर प्रदेशों में सत्ता प्राप्त की थी विचार करना होगा क्या वही ढोल लगातार प्रदेशों में उसके असफलताओं  की पोल नहीं खोल रहे हैं?

दैनिक वेतनभोगी, शिक्षामित्रों, संविदा कर्मियों की जो रोप २००३ के पहले रोपी गई थी वह २००३ से २०१९ तक  लहलहाती ही रही। आज भी दो पीढ़ी   बेरोजगारी से फड़फड़ा रही है।

आरक्षण का बढ़ता दायरा, मेधा की उपेक्षा, महाविद्यालयों के प्राध्यापक भर्ती में अखिल भारतीय आरक्षण, विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्ति में प्रदेश की मेधा की उपेक्षा, जाति-प्रदेश की बरीयता ने चाटुकारों की फौज खड़ी कर दी। समर्पण की हेतुकी मेधा ने विवेक का घात ही नहीं किया, गिरगिटी सभ्यता की ऐसी आकाशीय गंगा बहाई कि उसे रोकने में शिव की जटा भी विवश दिखाई पड़ रही है।

हो सकता है आप हमारी बातों से सहमत ना भी हों किंतु भाजपा के लिए महाराष्ट्र चुनाव के बाद निरीक्षण की घड़ी अवश्य आ रही है कि जहां केंद्र में भाजपा सफलता दर सफलताएं प्राप्त कर रही है , वहीं पर प्रदेशों में असफलताएं ही उसके खाते में क्यों  आ रही है।

यह प्रदेश नेतृत्व में अनुभवी नेताओं की कमी या सत्ता काल में अन्य दलों के  घुसपैठियों की चमक ने उसके अंदर के आत्मविश्वास को हिलाया है।

10 और 15 वर्षों की सत्ता में नीचे का कार्यकर्ता जिस तरह उपेक्षित हुआ है और वर्षों -वर्षों तक कुछ सत्ता केन्द्रित समूहों ने अपनी मूर्खताओं पर बिना प्रायश्चित किए तपस्वी कार्यकर्ताओं के तप और शौर्य को कलंकित किया क्या यह उसी का परिणाम तो नहीं।

लिबास बदलकर तंत्र मजबूत करने वालों कि अब भी पहचान होनी आवश्यक है। और उससे भी अधिक आवश्यक है छत्रपों के समूहों की पहचान ।

पिछले 10 15 वर्षों में सत्तारूढ़ राज्यों में जहां भी परिवार की छाया प्रभावी हुई है और चाटुकार मित्र -मंडली बढ़ी है वहां- वहां सत्ता को जनता ने भू - लुंठित किया है।

कांग्रेस ने तीन राज्यों में कुछ भी नया न कर सत्ता  में आई और आगे भी भा जा पा का रथ रोक रही है तो उसका कारण ,भाजपा की उन घोषणाओं को ज़्यो  की त्यों थोड़ा बढ़ाकर घोषणा-पत्र में डालना है। यह बात अलग है कि एक साल के अन्दर ही उसके फालोवर्स बिचलित हो रहे हैं।

जहां तक बात महाराष्ट्र की है बहुत स्पष्ट दिखाई दे रहा है कि शिवसेना ने अपने पैर पर कुल्हाड़ी तो मारी ही है , भाजपा को खरा संदेश दिया है कि "अब भाजपा को अपने पैरों पर ,अपने कार्यकर्ताओं के बल पर ही राज्यों में चुनाव में जाना है "।

 हो सकता है समझौते में शिव-सैनिक ताज धारण कर लें परन्तु उसे रामधारी सिंह दिनकर की पंक्ति स्मरण रहे -
"जब नाश मनुज पर छाता है ,
 पहले विवेक मर जाता है ।"

यह ठीक है कि भाजपा की सरकार नहीं बनी लेकिन उसका कारण बराबर सीटों का बंटवारा ही रहा है। यदि भाजपा अकेले चुनाव लड़ती तो निश्चित रूप से उसकी सरकार बनती है।

सचेत रहना होगा कि सरकार एक बार जाने के बाद फिर दोबारा मुश्किल से आती है।

केंद्र के प्रतिनिधि और पार्टी के वरिष्ठ कार्यकर्ता जब महती भूमिका में आते हैं तो उन्हें अपने प्रांत और परिवार का मोह छोड़ कर भाई महावीर बन अपनी सिद्धांतता रखनी पड़ेगी।

दूसरा निर्णय का केन्द्र एक हो और निर्णय जल्दी हों। जब परिवार के मुखिया के साथ सभी सह कुटुम्ब प्रवोधन और निर्णय देना प्रारंभ करेंगे तो "बहुता जोगी मंदिर नाशा।" ही होता है।

संघ शरणम् गच्छामि।
धर्मं शरणम् गच्छामि।
बुद्धं शरणम् गच्छामि।।

No comments:

Post a Comment