Thursday, 14 November 2019

बालक गाँधी की आत्मकथा के मायने



बालक गाँधी की आत्मकथा के मायने

प्रो. उमेश कुमार सिंह

को न्वस्मिन सांप्रतं लोके गुणवान् कश्च वीर्यवान्।
धर्मज्ञश्च      कृतज्ञश्च  सत्यवाक्यों  दृढव्रत:।।
चारित्रेण     को  युक्त:  सर्वभूतेषु  को हित:।
विद्धान  क:  क:  समर्थश्च  कश्चेक प्रियदर्शन:।।
आत्मवान् को जितक्रोधो द्युतिमान्  कोऽनसूयक:।
कस्य   बिभ्यति   देवाश्च   जातरोषस्य  संयुगे।।

यह प्रसंग यहाँ देने का कारण पहले स्पष्ट हो जाये तो अच्छा रहेगा। वास्तव में महापुरुष हर युग में धरती के हर कोने में पैदा होते रहे हैं, हो रहे हैं। लेकिन इनकी प्रासंगिकता काल के आधार पर बनती और स्थगित होती रही है। भारत भूमि भी महान विभूतियों की उर्वराभूति है। वीरप्रसूता ही नहीं तो देवप्रसूता भी है। मानव से महामानव की यात्रा यही पूर्ण होती है। इसलिए जब हम किसी भी व्यक्ति विशेष के बारे में चर्चा करते हैं तो या तो उसके गुणों की ऐसी चर्चा करते हैं कि वह सीधा हमारी पहुँच के बाहर हो जाता है या इतना सरल कर देते हैं कि उसका और हमारा अहंकार कुछ इस तरह टकराता है कि हम उसे जीवन भर अपने ही मापदण्डों में तौलते रह जाते हैं। गाँधी पर यह आलेख बालक गाँधी की आत्मकथा है।
 वाल्मीकि नारद से पूछते समय बड़ी बात कहते हैं, ‘को न्वस्मिन सांप्रतं लोके। वर्तमान युग में वह कौन है जिसमें यह सोलह गुण हों ?भूत और भविष्य की बात नहीं कह रहे हैं?
गांधी जी के बारे में विचार करते समय (यह ध्यान रखते हुए कि गांघी और राम की यहाँ तुलना नहीं की जा रही है) भी कुछ समय तक सांप्रतं लोकेकी बात कही जा सकती है, वह भी उनके जन्म शताब्दी समारोह के अवसर पर। इसलिए आइये अब गांधी की तलाशें वे हमारे सांप्रतं लोकेमें कहाँ बैठते हैं।
गांधी की मानसिक विकास यात्रा उनके पूर्वजों से होते हुए माता-पिता के माध्यम से उनके जीवन में आती है और सामाजिक अनुभव से पूर्ण होती है। गांधी जी के  ही शब्दों में, ‘ओता गांधी के एक के बाद दूसरा यों दो विवाह हुए थे। पहले विवाह से उनके चार लडक़े थे और दूसरे से दो। अपने बचपन को याद करता हूँ, तो मुझे खयाल नहीं आता कि ये भाई सौतेले थे। इनमें पाँचवें करमचन्द अथवा कबा गांधी और आखिरी तुलसीदास गांधी थे।जाहिर है तुलसीदास का नाम कहीं न कहीं उस परिवार में श्रद्धास्थान पर था। इससे गांधी के अन्दर के राम को समझा जा सकता है।
अपने परिवार का परिचय देते हुए गांधी जी लिखते हैं, ‘कबा गांधी के भी एक के बाद एक यों चार विवाह हुए थे। पहले दो से दो कन्यायें थीं, अन्तिम पत्नी पुलतीवाई से एक कन्या और तीन पुत्र थे। उनमें अंतिम मैं हूँ।गांधी जी चार विवाह का कारण स्पष्ट नहीं करते कि ये विवाह तीन माताओं की उपस्थिति में हुए थे या मृत्यु पश्चात। अथवा पुत्र मोह इसमें हेतु था। खैर। पिता जी के स्वभाव को बताते हुए गांधी जी संकेत अवश्य देते हैं पर वह संकेत ही है।
करमचन्द जी के स्वभाव को समझने से गांधी के स्वभाव को समझा जा सकता है, ‘पिता कुटुम्ब -प्रेमी, सत्य-प्रिय, शूर, उदार, किन्तु क्रोधी थे।.. थोड़ा विषयासक्त भी रहे होंगे। उनका आखिरी व्याह चालीसवें साल के बाद हुआ था। हमारे परिवार और बाहर भी उनके विषय में यह धारणा थी कि वे रिश्वतखोरी से दूर भागते हैं और इसलिए शुद्ध न्याय करते हैं। (ध्यान रहे गांधी यहाँ शुद्ध न्याय की प्राथमिक शर्त की ओर भी ध्यान दिला रहे हैं) राज्य के प्रति वे बहुत वफादार थे।
गांधी जी का यह स्पष्टीकरण भी प्रेरणा देता है, ‘पिताजी ने धन बटोरने का (शब्द पर ध्यान दें बटोरनेका) लोभ कभी नहीं किया। इस कारण हम भाइयों के लिए वे बहुत थोड़ी सम्पत्ति छोड़ गये थे।यहाँ गांधी पारिवारिक हालात तो स्पष्ट कर ही रहे हैं, धन की दृष्टि के प्रति उनका अपना नजरिया भी पिता जी की तरह ही था, भी स्पष्ट कर रहे हैं। पिता जी की धन के प्रति लोभ न होने को वे गर्व से वर्णन करते हैं, न कि हीनताबोध से।
पिता जी का परिचय देते हुए गांधी जीवन की बड़ी बारीक बात का उल्लेख करते हैं, ‘पिता जी की शिक्षा केवल अनुभव की थी।.. इतिहास -भूगोल का ज्ञान तो बिकुल ही न था। फिर भी उनका व्यावहारिक ज्ञान इतने ऊँचे दर्जे का था कि बारीक से बारीक सवालों को सुलझाने में अथवा हजार आदमियों से काम लेने में भी उन्हें कोई कठिनाई नहीं होती थी।
गांधी जी आगे जो लिखते हैं वह उनके हिन्दुत्व की दृष्टि के विकास का मार्ग निर्धारित करती है, ‘धार्मिक शिक्षा नहीं के बराबर थी, पर मन्दिरों में जाने से और कथा बगैरा सुनने से जो धर्मज्ञान असंख्य हिन्दुओं को सहज भाव से मिलता रहता है, वह उनमें था। आखारि के साल में एक विद्वान ब्राह्मण की सलाह से, जो परिवार के मित्र थे, उन्होंने गीता पाठ शुरू किया था और रोज पूजा  के समय वे थोड़े-बहुत श्लोक ऊँचे स्वर से पाठ किया करते थे।
अब जरा गांधी के ऊपर माता जी का प्रभाव उन्हीं के शब्दों में समझने का प्रयत्न करें, ‘मेरे मन पर यह छाप रही है कि माता साध्वी स्त्री थीं। वे बहुत श्रद्धालु थीं। बिना पूजा-पाठ के कभी भोजन न करतीं। हमेशा हवेली (वैष्णव मंदिर) जातीं। जबसे मैंने होश सम्भाला तबसे मुझे याद नहीं पड़ता कि उन्होंने कभी चातुर्मास का व्रत तोड़ा हो। वे कठिन-से कठिन व्रत शुरू करती और उन्हें निविध्र पूरा करती।..मुझे याद है चन्द्रायन के व्रत में वे बीमार पड़ी पर व्रत नहीं तोड़ा।..मुझे ऐसे दिन याद हैं कि जब हम सूरज को देखते और कहते, ‘माँ-माँ, सूरज दिखाऔर माँ उतावली होकर आतीं इतने में सूरज छिप जाता और माँ यह कहती हुई लौट जाती कि कोई बात नहीं, आज भाग्य में भोजन नहीं है, और अपने काम में डूब जाती।’’ पाठकगण गांधी के सत्याग्रह व्रती होने का कारण समझ सकते हैं।
एक घटना बार-बार बताई जाती है जिसको गांधी के शब्दों में समझना आवश्यक है। वे लिखते हैं, ‘शिक्षक ने अपने बूट की नोक मारकर मुझे सावधान किया। लेकिन मैं क्यों सावधान होने लगा?..मैंने यह माना था कि शिक्षक तो यह देख रहे हैं कि हम एक-दूसरे की पट्टी में देखकर चोरी न करें.. ..सब लडक़ों को पाँचों शब्द सही निकले और अकेला मैं बेबकूफ ठहरा.. ..शिक्षक ने मेरी बेवकूफी बाद में समझायी।गांधी जी यह लिखते हुए अपनी ईमानदारी की बात शायद अपने संस्कारों को स्पष्ट करने के लिए बताते हैं किन्तु कहीं न कहीं यह चिन्ता भी है कि कहीं इस घटना का गुरुओं के प्रति बिपरीत प्रभाव न पड़े। इसलिए आगे लिखते हुए इतने पर भी शिक्षक के प्रति मेरा विनय कभी कम नहीं हुआ।
किन्तु मैं यहाँ गांधी के जीवन की उन दो घटनाओं को ज्यादा महत्त्व देता हूँ जो उनके अन्दर एक ईमानदार बालक का निर्माण करती हैं। पहली घटना श्रवण-पितृभक्ति नाटक’, दूसरा-हरिश्चन्द्र आख्यान। गांधी जी को संगीत का बचपन से शौक था। वे लिखते हैं, ‘किन्तु पिता जी की खरीदी हुई एक पुस्तक पर मेरी दृष्टि पड़ी। नाम था श्रवण-पितृभक्ति नाटक।.. मैं उसे बड़े चाव के साथ पढ़ गया।दूसरा उन्हीें दिनों शीशे में चित्र दिखानेवाले भी घर-घर आते थे। उनके पास मैंने श्रवण कुमार का वह दृष्य भी देखा, जिसमें वह अपने माता-पिता को काँवर में बैठाकर यात्रा पर ले जाता है। दोनों चीजों का मुझ पर गहरा प्रभाव पड़ा। श्रवण की मृत्यु पर उसके माता-पिता का विलाप मुझे आज भी याद है। उस ललित छन्द को मैंने बाजे पर बजाना सीख लिया था। मुझे बाजा सीखने का शौक था और पिता जी ने एक बाजा दिला भी दिया था।
गांधी की आजीवन सेवावृत्ति और पितृभक्ति का कारण श्रवण कुमार पर आधारित वह ललित छन्द रचना है, जिसे वे जीवन भर नहीं भूले। यहाँ एक बात और स्मरण रखना होगा कि संगीत और साहित्य कैसे बाल मन को संस्कारों से पुष्ट करते हैं। किन्तु दुर्भाग्य यह है कि आज की अंग्रेजी शिक्षा ने मातृभाषा से बचपन को जिस तरह से काटा है उसके कारण न केवल बालमन विदू्रपता की ओर बढ़ रहा है, बल्कि अपने परम्परागत संस्कारों से भी निरन्तर दूर होता जा रहा है। क्या गांधी का स्मरण हमें अपनी परम्परा का स्मरण भी करा सकेगा ?
इसकी पुष्टि के लिए इस बात को और स्मरण रखना होगा जिसे वे लिखते हैं, ‘इन्हीें दिनों कोई नाटक-कंपनी आयी थी और उसका नाटक देखने की इजाजत मुझे मिली थी। हरिश्चन्द्र आख्यान।वे लिखते हैं नाटक का प्रभाव इतना था कि वे बार-बार देखना चाहते थे किन्तु वह सम्भव नहीं था। वे कहते हैं, ‘मुझे हरिश्चन्द्र के सपने आते। हरिश्चन्द्र की तरह सब सत्यवादी क्यों नहीं बनते?’ हरिश्चन्द्र की विपत्तियों के समय सत्य को न छोडऩा गांधी जी के जीवन का वह मोड़ था जिसे वे आजीवन पालन करते हैं। यहाँ दो बातें ध्यान रखनी होगी। गांधी की उम्र उस समय सात वर्ष की थी। और हम जानते हैं कि मनुष्य के जीवन निर्माण का वह श्रेष्ठतम कालखण्ड होता है।
गांधी लिखते हैं, ‘हरिश्चन्द्र के दु:ख देखकर, उनका स्मरण करके मैं खूब रोया हूँ। .. ..मेरे विचार से हरिश्चन्द्र और श्रवण आज भी जीवित है। मैं मानता हूँ कि आज भी उन नाटकों को पढूँ, वे मेरी आँखों से आँसू बह निकलेंगे।गांधी की इस प्रवल इच्छा को हम आज १५० वें वर्ष पर कितना सम्मान दे रहे हैं, आत्मावलोकन करने का विषय है। भला हो राजनीति का जिसने गांधी को आज जिन्दा रखा है अन्यथा श्रवण कुमार और राजा हरिश्चन्द्र तो हमारे शिक्षा व्यवस्था से ईद के चाँदहो गये हैं जो कभी कभार मुहावरों की तरह उल्लेख किये जाते हैं। गांघी के इस संदेश को हर माता-पिता को समझना होगा। देश की राजनीति भी यदि कोई अवसर देती है तो उसका लाभ सजग समाज को अवश्य उठाना चाहिए। वह गाँधी के बहाने ही क्यों न हो!
गांधी जी के पश्चाताप को समझें। मैं चाहता हूँ मुझे यह प्रकरण न लिखना पड़ता। लेकिन इस कथा में मुझको ऐसे कितने ही कड़वे घूँट पीने पड़ेंगे।ध्यान देने वाली बात है कि गांधी लिखना चाहते हैं आत्मकथा (सत्य के प्रयोग) फिर भी कड़वा घँूट कह रहे हैं। हैं न हैरानी की बात! जी हाँ। आज देश-विदेश में असंख्य आत्मकथाएँ आ चुकी हैं किन्तु गांधी की आत्मकथा विरली ही है, इसीलिए क्योंकि इसमें लेखक को कड़वे घूँट पीना पड़ रहा है। लोग अपनी आत्मकथा में यशगाथा लिखते हैं या परिस्थितियों का रोना-धोना या अनेक अंतरंग प्रेमप्रशंग जो उनकी प्रगतिशीलता की निशानी होती है।
गांधी जी क्या कहते हैं, ‘यह कहते हुए मेरा मन अकुलाता है कि तेरह साल की उमर में मेरा विवाह हुआ था। आज मेरी आँखों के सामने बारह-तेरह साल का बालक मौजूद है।.. मेरी एक एक करके तीन बार सगाई हुई। .. इसमें हमारे कल्याण की बात नहीं थी। हमारी इच्छा की तो थी ही नहीं। बात सिर्फ बड़ों की सुविधा और खर्च की थी।’ (विचार करें यदि गांधी जिन्दा होते और आज के बालविवाह और विवाह प्रसंगों को देखते, जो धरती से लेकर आसमान तक में हो रहे हैं, उस पर माता-पिता की आडम्बरपूर्ण विलासिता के प्रदर्शन को देखते तो आगे की आत्मकथा में क्या लिखते, हम और आप अंदाज लगा सकते हैं। मेरा मत है इस दो पाये को वे मनुष्य तो नहीं केवल धनपशु ही कहते यदि उनको मैथिलीशरण जी पशु कहने की अनुमति दे देते तो!) खैर।
       जरा समझें, गांधी जी यहाँ केवल यह कह कर बच सकते थे कि मैं क्या करता यह तो उस समय की परम्परा थी। बड़ों का निर्णय था। किन्तु वे यहीं संतुष्ट नहीं हैं। यहाँ गांधी का मन अकुला रहा है। दूसरा बड़ा वाक्य है, ‘मेरे सामने आज तेरह साल का बालक मौजूद है। यह सत्य का सामाजिक साक्षात्कार है। गांधी का मन अकुला रहा है किन्तु क्या हमारे समाज का मन भी अकुला रहा है, यह बड़ा प्रश्र है ? यह ध्यान रखना होगा गांधी किसी सामान्य परिवार के बालक नहीं थे। उन्हीं के शब्दों में, ‘पोरबन्दर से पिता जी राजस्थानिक कोर्ट के सदस्य बनकर राजकोट गये।..बीकानेर के दीवान थे।सम्भवत: गांधी की पीड़ा पाठक को आज सवा सौ साल पीछे ले जाकर यह बोध कराना चाहती है कि हमारा समाज अभी भी किस तरह रूढिय़ों में जकड़ा है। इसकी पुष्टि समझें, ‘बाल-विवाह की चर्चा करते हुए पिता जी के कार्य की जो टीका मैंने आज की है, वह मेरे मन ने उस समय थोड़े ही की थी? तब तो सब कुछ योग्य और मन पसन्द ही लगा था।
गांधी की बाल विवाह की पीड़ा आज के समाज की पीड़ा तो थी ही उसके बाद जो लिखते हैं वह आज के भारतीय सम्प्रभु-पुरुष-समाज (राजनेता,नौकरशाह,टेक्रोक्रेट,व्यवसायी,उद्योगपति,) की चेतना को झकझोरने वाला है। मैंने पढ़ा था कि एक पत्नी-व्रत पालना पति का धर्म है। बात हृदय में रम गयी। सत्य का शौक तो था ही, इसलिए पत्नी को धोखा तो दे ही नहीं सकता था। इसी से यह भी समझ में आया कि दूसरी स्त्री से सम्बन्ध नहीं रहना चाहिये।
आज जब मीटू और हनीट्रेप हो रहे हैं उस समय गांधी कितने प्रासंगिक है, समझ में आता है कि जो जीवनी आज १५० वर्ष के बहाने स्कूल-कालेज में पढ़ाई जा रही है, अगर वह ७० साल से पढ़ाई जाती तो परिणाम कुछ और ही होता।
       गांधी हठी (सत्याग्रही भी) कब और कैसे बने । समझना होगा गांधी देवता नहीं थे। गांधी हमारे ही तरह के एक मनुष्य थे। इच्छा-आकांक्षाएँ, राग-द्वेष सब कुछ उनके अन्दर था। यहाँ जब वे एक पत्नी-व्रत का पालन की बात का हठ कहें या दृढ़ निश्चय कहें, करते हैं तो उनके अन्दर दूसरी मानवीय कमजोरी तत्काल उत्पन्न होती है। वह थी कस्तूरवा जी को भी निगरानी में रखना प्रारंभ किया और ईष्यालु बन गये। उन्हीें के शब्दों में, ‘पर इन सद्विचारों का एक बुरा परिणाम निकला। अगर मुझे एक पत्नीव्रत पालना है, तो पत्नी को एकपति-व्रत पालना चाहिए। इसी विचार के कारण मैं ईष्र्यालु बन गया।
मैं गांधी की दो बातों को यहाँ रख कर फिर आगे बढऩा चाहूँगा। एक, ‘लेकिन पाठक यह न माने कि हमारे इस गृह जीवन में कहीं भी मिठास नहीं थी। मेरी वक्रता की जड़ प्रेम में थी। मैं अपनी पत्नी को आदर्श बनाना चाहता था। मेरी यह भावना थी कि वह स्वच्छ बने, स्वच्छ रहे, जो मैं सीखूँ सो सीखे, मैं पढूँ सो पढ़े (मैं लिख चुका हूँ कि कस्तुरवा निरक्षर थी), और हम दोनों एक दूसरे में ओत-प्रोत रहें।
यह भारतीय आदर्श जीवन की एक बालक की कल्पना थी, जिद थी, हठ था। हाँ एक बात वे अवश्य कहते हैं कि यों अपनी पत्नी के प्रति विषयासक्त होते हुए भी मैं किसी कदर कैसे बच सका, इसका एक कारण .. जिसकी निष्ठा सच्ची है, उसकी रक्षा स्वयं भगवान ही कर लेते हैं।ध्यान रखना होगा गांधी बाल-विवाह की वकालत नहीं कर रहे। अपने जीवन के अनुभव को साझा कर संदेश दे रहे हैं।
यह वह समय था जब स्कूल में पढऩे वाले छात्र का आचरण प्रमाण पत्र माता-पिता को भेजा जाता था। गांधी कहते हैं, ‘हाईस्कूल में मेरी गिनती मन्दबुद्धि विद्यार्थियों में नहीं थी। (ध्यान रखना कभी-कभी हमें सुनाई देता है, हम तो सदा गांधी डिवीजन पाते रहे, यह धारणा गलत है।) पढ़ाई का अर्थ डिग्री तो था किन्तु गांधी की नजरों में पढ़ाई का अर्थ आचरण की सुचिता थी। जो शिक्षा आचरण की सुचिता नहीं पैदा करती, वह चरित्र निर्माण नहीं कर सकती।
विद्याभ्यास में व्यायाम पर उन्हीं के शब्दों में, ‘बाद में मैं समझा कि विद्याभ्यास में व्यायाम का, अर्थात् शारीरिक शिक्षा का मानसिक शिक्षा के समान ही स्थान होना चाहिए।.. फिर भी मुझे नुकासन नहीं हुआ। .. मैंने पुस्तकों में खुली हवा में घूमने जाने की सलाह पढ़ी थी.. ..टहलना भी व्यायाम तो है ही, इससे मेरा शरीर अपेक्षकृत सुगठित बना।गांधी जी पढ़ाई में सुन्दर लेखन के प्रति भाव व्यक्त करते हैं, ‘इसलिए शरीर व्यायाम न देने की गलती के लिए तो शायद मुझे सजा नहीं भोगनी पड़ी.. ..पर दक्षिण अफ्रीका में, जब मैंने वकीलों कि तथा दक्षिण अफ्रीका में जन्में  और पढ़े-लिखे  नवयुवकों के मोती के दानों जैसे अक्षर देखे, तो मैं शरमाया और पछताया।
संस्कृत भाषा पर अपना संस्मरण लिखते हैं, ‘उन्होंने मुझे बुलाया और कहा: ‘‘यह तो समझ कि तू किनका लडक़ा है। क्या तू अपने धर्म की भाषा न हीं सीखेगा? तुझे जो कठिनाई हो, उसे मुझे बता। मैं तो सब विद्यार्थियों को बढिय़ा संस्कृत सिखाना चाहता हूँ। आगे चलकर उसमें रस के घँूट पीने को मिलेंगे। तुझे यों हारना नहीं चाहिये। तू फिर से मेरे वर्ग में बैठ।’’ मैं शरमाया। शिक्षक के प्रेम की अवमानना न कर सका। आज मेरी आत्मा कृष्णशंकर मास्टर का उपकार मानती है। क्योंकि जितनी संस्कृत मैं उस समय सीखा उतनी भी न सीखा होता, तो आज संस्कृत शास्त्रों में मैं जितना रस ले सकता हूँ उतना न ले पाता। मुझे तो पश्चाताप होता कि मैं संस्कृत न सीख सका। क्योंकि बाद में मैं समझा कि किसी भी हिन्दू बालक को संस्कृत का अच्छा अभ्यास किये बिना रहना ही न चाहिये।’ (पाठकों को स्मरण होगा कि कृष्ण मास्टर बहुत कठोर दण्ड देनेवाले शिक्षक थे, अत: गांधी जी ने नरम स्वभाव के फारसी शिक्षक की कक्षा चुन ली थी।)
लगभग ११-१२ वर्षीय बालक मोहनदास के सुधार आन्दोलन को गांधी दु:खद प्रसंग मानते हैं। ऐसी दो घटनाएँ हैं जो उन्हें आत्मकथा लिखते समय व्यथित करती हैं। यह स्मरण कराते हुए वे लिखते हैं,‘लेकिन मुझे तो सुधार करना था। मांसाहार का शौक नहीं था। यह सोचकर कि उसमें स्वाद है, मैं मांसाहार शुरु नहीं कर रहा था। मुझे तो बलवान और साहसी बनना था, दूसरों को वैसा बनाने के लिए न्योतना था और फिर अंग्रेजों को हराकर हिन्दुस्तान को स्वतंत्र करना था। स्वराज्यशब्द उस समय तक मैंने सुना नहीं था। सुधार के उस जोश में मैं होश भूल गया था।
गांधी की इस सफाई के बाद जरा परिस्थितियों को समझें, ‘दूसरी सोहबत मेरे जीवन का एक दु:खद प्रकरण है।.. मेरी माता जी, मेरे जेठे भाई और मेरी धर्मपत्नी तीनों को यह सेहबत कड़वी लगती थी। पत्नी की चेतावनी को तो मैं अभिमानी पति क्यों मानने लगा? (अभिमानी पति यहाँ बहुत कुछ कह जाती है।)बड़ेभाई को दिया गया उत्तर भी समझना चाहिए, ‘उसके जो दोष आप बताते हैं, उन्हें मैं जानता हूँ। उसके गुण तो आप जानते ही नहीं। वह गुण मुझे गलत रास्ते नहीं ले जायेगा, क्योंकि उसके साथ मेरा सम्बन्ध उसे सुधारने के लिए ही है। मुझ ेयह विश्वास है कि अगर वह सुधर जाये, तो बहुत अच्छा आदमी निकलेगा। मैं चाहता हूँ कि आप मेरे विषय में निर्भय रहें।’’
उस मित्र द्वारा दिया गया तर्क भी गांधी जी आत्मकथा लिखते समय बताते हैं, ‘‘हम मांसाहार नहीं करते, इसलिए प्रजा के  रूप में हम निर्वीर्य हैं। अंग्रेज हम पर इसीलिए राज्य करते हैं कि वे मांसाहारी हैं। मैं कितना  मजबूत हूँ और कितना दौड़ सकता हूँ, सो तो तुम जानते ही हो। इसका कारण भी मांसाहार ही है। मांसाहारी को फोड़ा नहीं होते, होने पर झट अच्छे हो जाते हैं। हमारे शिक्षक मांस खाते हंै, इतने प्रसिद्ध व्यक्ति खाते हैं, सो क्या बिना समझे खाते हैं? तुम्हें भी खाना चाहिए। खाकर देखो तो मालूम होगा कि तुममें कितनी ताकत आ जाती है।’’ यह दु:खद प्रसंग अपने निहितार्थ के साथ हमारे सामने हैं जिसका परिणाम मांसाहारी बालक मोहनदास को कैसे विदेशों में रहकर भारी दबाव के बाद भी मांसाहार नहीं करने दिया।
       दूसरा प्रसंग मित्रों की योजना से वैश्याओं की वस्ती में भेजना था किन्तु दोनों ही परिस्थिति में वे अपने को बचा लेत हैं। इन सब अनुभवों के बाद दम्पति के बीच जो कुछ मतभेद पैदा हुआ था वह समझ में आते ही खत्म हो गया। उसके बाद मोहनदास की दिशा और विचार को समझने लायक है,‘‘यहीं फूट जाता है।  वहाँ कहाँ जावें ? उच्च माने जानेवाले वर्ण की हिन्दू स्त्री अदालत में जाकर बँधी हुई गाँठ को कटवा भी  नहीं सकती, ऐसा इकतरफा न्याय उसके लिए रखा गया है। इस तरह का न्याय मैंने दिया, इसके दु:ख को मंै कभी नहीं भूल सकता। इस सन्देह की जड़ तो तभी की जब मुझे अहिंसा का सूक्ष्म ज्ञान हुआ, यानी जब मैं ब्रह्मचर्य की महिमा को समझा और यह समझा कि पत्नी पति की दासी नहीं, पर उसकी सहचाारिणी है, सहधर्मिणी है, दोनों एक -दूसरे के सुख-दु:ख के समान समझेदार हैं, और भला-बुरा करने की जितनी स्वतंत्रता पति को है उतन ही पत्नी को है। सन्देह के उस काल को जब मैं याद करता हूँ, तो मुझे अपनी मूख्र्रता और विषयान्ध निर्दयता पर क्रोध आता है और मित्रता विषयक अपनी मूच्र्छा पर दया आती है।’’
उन्होंने चिठ्ठी पढ़ी। आँखों से मोती की बंूदें टपकीं। चि_ी भीग गयी। उन्होंने क्षण भर के लिए आँखें मूँदीं, चि_ी फाड़ डाली और स्वयं पढऩे के लिए उठ बैठे थे, सो वापस लेट गये।.. मैँ भी रोया। पिता जी का दु:ख समझ सका। अगर मैं चित्रकार होता, तो वह चित्र आज सम्पूर्णता से खींच सकता। आज भी वह मेरी आँखों के सामने इतना स्पष्ट है, मोती की बूँदों के उस प्रेम-बाण ने मुझे बेध डाला। मैं शुद्ध बना! इस प्रेम को तो अनुभवी ही जान सकता है। मेरे लिए अहिंसा का पहला पाठ था। .. इस प्रकार की शान्त क्षमा पिता जी के स्वभाव के बिरुद्ध थी।
गांधी जी का बीड़ी पीना, पैसे के लिए सोने का कड़ा बेचना और फिर पछताना तथा अभिव्यक्ति के लिए पिता जी को पत्र का सहारा लेना, पिता जी का प्रेमाश्रु बहना उनके जीवन का परिवर्तन काल था। समझना होगा इस पन्द्रह-सोलह साल की उम्र तक आते-आते मोहनदास के जीवन में सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह और सेवा ने अमूल्य स्थान बना लिया था। शायद यह वह नीव थी जिसके कारण मोहनदास करमचन्द गांधी, महात्मा और बापू बन सके और हम उन्हें, ‘को न्वस्मिन सांप्रतं लोके गुणवान् कश्च वीर्यवान्। धर्मज्ञश्च कृतज्ञश्च सत्यवाक्यों दृढव्रत:।। के रूप में स्मरण कर रहे हैं।
उमेश कुमार सिंह
२१-२२ शुभालय विलास
बरखेडा-पठानी, भोपाल
४६२०२२  

19 के बाद घटते राज्य

19 के बाद घटते राज्य

2019 के लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा का लोकसभा में बहुमत और उसके सहयोगी दलों की उपस्थिति निश्चित रूप से भाजपा के उत्कर्ष और उसके जनता में बढ़ती पैठ का संकेत समझना अनुचित  नहीं।

धारा 370 की धमक और श्री राम मंदिर के उसके संकल्प की उच्चतम न्यायालय द्वारा पुष्टि , उसके प्रति जनता का आत्मविश्वास बढ़ाया है। घुसपैठिए और तीन तलाक ने देश में "समान नागरिक संहिता" की नई सोच के लिए जमीन तैयार की।

 सामान्य रूप से विचार करने वाले मतदाता और उसके सहयोगियों के लिए यह उत्साह का विषय हो सकता है।

 विरोधी विचारधारा इधर  मानने के लिए मजबूर हो रही है कि भाजपा अपने घोषणा पत्र पर जगजाहिर अमल कर रही है।

 यह उनके लिए उस बिंदु पर घबराहट पैदा करती है जहां दुनिया भर के समीक्षक यह सिद्ध करने पर तुले हैं कि सरकार और उसकी विचारधारा भारत को तथाकथित धर्मनिरपेक्ष से धर्म सापेक्ष अर्थात हिंदू राष्ट्र बनाने में सफल हो रही है।

वास्तविकता इतना ही समझना चाहिए कि भारत इंडिया से भारत की ओर बढ़ा है।

किंतु 2019 लोकसभा चुनाव के बाद संपन्न हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा निरंतर सरकारों से च्युत होती आ रही है। चाहे वाह मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान हो या महाराष्ट्र और हरियाणा।

हरियाणा कब तक स्थिर रहेगी ? हरियाणा में सरकार बनाना बाहरी मजबूरी है। तो  महाराष्ट्र का टूटना आंतरिक मजबूरी है।

 मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में से मध्य प्रदेश एक ऐसा  राज्य है जहां पर अभी तक भाजपा  स्वप्न  पर सत्ता की खुमारी में है कि हो सकता है बिल्ली के भाग से छींका टूट जाए।

 परंतु वह अब दूर की कौड़ी नजर आ रही है। उल्टा यह हो रहा है कि उसे अपना घर संभालने में मशक्कत करनी पड़ रही है।

यह कहा जाता है कि मध्यप्रदेश , राजस्थान और छत्तीसगढ़ में  सत्तारूढ़ कांग्रेस को जनता सत्ता में नहीं लाना चाहती थी। जनता उसके पुराने अनुभवों से  सामान्य बुद्धि और परिपक्व प्रजातांत्रिक भावना को प्रदर्शित कर रही थी। किंतु यह भी सत्यम है कि  वह केंद्र के समान प्रदेशों में विपक्ष हीना सत्ता नहीं देखना चाहती थी।

यह अलग बात है कि  आत्ममुग्धता में तीनों प्रदेश भा जा पा के हाथ से चले गये। अब मध्य प्रदेश में एक डायलॉग  " हम जोड़-तोड़ कर सरकार नहीं गिरायेंगे", सुनकर जानता पूछती है "सरकार अपने कर्मों से कब गिरेगी?" यह कहना क्यों बंद कर दिया !!

 वस्तुतः सत्तारूढ़ प्रदेशों की भाजपा नहीं समझ पाई की 1952 के पहले आम चुनाव में कांग्रेस को जिस तरह से बहुमत मिला था वह  1962 तक आते-आते 10 वर्षों में और  चीन के एक आक्रमण के कारण 1967 में कांग्रेस अनेक राज्यों में बहुत से  कम सीटें जीत सकी थी ।

और 72 से 76 के बीच देश में जो कुछ भी हुआ उसी का परिणाम है आज भाजपा गठबंधन एक अंग से प्रारंभ होकर गठबंधन के प्रमुख आधार के रूप में खड़ी है।

जिन लोगों ने  संविधान संशोधन कर  धर्मनिरपेक्ष शब्द डाला वे भी दीनदयालजी के राष्ट्रवाद से दूर नहीं रह सके।

डॉ राम मनोहर लोहिया के शब्दों   " राजनीति अल्पकालीन धर्म और धर्म दीर्घकालीन राजनीति। ”, को उनके ही अनुयायियों ने भुला दिया।

 सनातन भारत का बीज 'एकात्म मानव दर्शन'  पंडित दीनदयाल जी उपाध्याय के माध्यम से राष्ट्रवाद और एकात्म मानववाद को और फलने-फूलने का अवसर प्राप्त हुआ।

विपक्षी दलों ने भी बंगाल से लेकर  केरल तक विभिन्न प्रकार के गठबंधनों का प्रयोग करते हुए सरकार चलाईं किंतु केंद्र से लेकर प्रदेशों में भ्रष्टाचार, जातिवाद, भाई-  भतीजावाद का जो बट वृक्ष खड़ा हुआ और राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत को विखंडित करने, उसको कमजोर करने, उसके मूल चिति को मारने के जो उपक्रम बाहर -भीतर से चले उसने विपक्ष को भ्रमित किया।

भाजपा का केंद्र का शासन जहां इन परिस्थितियों से लड़ कर आज भारत को एक शक्तिशाली प्रभुता संपन्न राष्ट्र के रूप में परिचय प्रदान किया है वह भी हमारे सामने है।

केंद्र में भाजपा ने जिस तरह से जनता को भरोसा देने में सफलता प्राप्त की है और गांधी की शताब्दी में गांधी की सनातन दृष्टि,  आध्यात्मिक राष्ट्र की दृष्टि को पोषित और पल्लवित किया है और उसने अपनी सफलता की कहानी लिखी है, वहीं विपक्ष केन्द्रीय राजनीति में बिखरा हुआ है ।

किंतु यह स्पष्ट है कि केवल केंद्र के कामों के भरोसे प्रदेशों में भाजपा अपने को टिकाए नहीं रह सकती। घोषणाओं के  जिस  लालीपाप का भाजपा ढोल बजाकर प्रदेशों में सत्ता प्राप्त की थी विचार करना होगा क्या वही ढोल लगातार प्रदेशों में उसके असफलताओं  की पोल नहीं खोल रहे हैं?

दैनिक वेतनभोगी, शिक्षामित्रों, संविदा कर्मियों की जो रोप २००३ के पहले रोपी गई थी वह २००३ से २०१९ तक  लहलहाती ही रही। आज भी दो पीढ़ी   बेरोजगारी से फड़फड़ा रही है।

आरक्षण का बढ़ता दायरा, मेधा की उपेक्षा, महाविद्यालयों के प्राध्यापक भर्ती में अखिल भारतीय आरक्षण, विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्ति में प्रदेश की मेधा की उपेक्षा, जाति-प्रदेश की बरीयता ने चाटुकारों की फौज खड़ी कर दी। समर्पण की हेतुकी मेधा ने विवेक का घात ही नहीं किया, गिरगिटी सभ्यता की ऐसी आकाशीय गंगा बहाई कि उसे रोकने में शिव की जटा भी विवश दिखाई पड़ रही है।

हो सकता है आप हमारी बातों से सहमत ना भी हों किंतु भाजपा के लिए महाराष्ट्र चुनाव के बाद निरीक्षण की घड़ी अवश्य आ रही है कि जहां केंद्र में भाजपा सफलता दर सफलताएं प्राप्त कर रही है , वहीं पर प्रदेशों में असफलताएं ही उसके खाते में क्यों  आ रही है।

यह प्रदेश नेतृत्व में अनुभवी नेताओं की कमी या सत्ता काल में अन्य दलों के  घुसपैठियों की चमक ने उसके अंदर के आत्मविश्वास को हिलाया है।

10 और 15 वर्षों की सत्ता में नीचे का कार्यकर्ता जिस तरह उपेक्षित हुआ है और वर्षों -वर्षों तक कुछ सत्ता केन्द्रित समूहों ने अपनी मूर्खताओं पर बिना प्रायश्चित किए तपस्वी कार्यकर्ताओं के तप और शौर्य को कलंकित किया क्या यह उसी का परिणाम तो नहीं।

लिबास बदलकर तंत्र मजबूत करने वालों कि अब भी पहचान होनी आवश्यक है। और उससे भी अधिक आवश्यक है छत्रपों के समूहों की पहचान ।

पिछले 10 15 वर्षों में सत्तारूढ़ राज्यों में जहां भी परिवार की छाया प्रभावी हुई है और चाटुकार मित्र -मंडली बढ़ी है वहां- वहां सत्ता को जनता ने भू - लुंठित किया है।

कांग्रेस ने तीन राज्यों में कुछ भी नया न कर सत्ता  में आई और आगे भी भा जा पा का रथ रोक रही है तो उसका कारण ,भाजपा की उन घोषणाओं को ज़्यो  की त्यों थोड़ा बढ़ाकर घोषणा-पत्र में डालना है। यह बात अलग है कि एक साल के अन्दर ही उसके फालोवर्स बिचलित हो रहे हैं।

जहां तक बात महाराष्ट्र की है बहुत स्पष्ट दिखाई दे रहा है कि शिवसेना ने अपने पैर पर कुल्हाड़ी तो मारी ही है , भाजपा को खरा संदेश दिया है कि "अब भाजपा को अपने पैरों पर ,अपने कार्यकर्ताओं के बल पर ही राज्यों में चुनाव में जाना है "।

 हो सकता है समझौते में शिव-सैनिक ताज धारण कर लें परन्तु उसे रामधारी सिंह दिनकर की पंक्ति स्मरण रहे -
"जब नाश मनुज पर छाता है ,
 पहले विवेक मर जाता है ।"

यह ठीक है कि भाजपा की सरकार नहीं बनी लेकिन उसका कारण बराबर सीटों का बंटवारा ही रहा है। यदि भाजपा अकेले चुनाव लड़ती तो निश्चित रूप से उसकी सरकार बनती है।

सचेत रहना होगा कि सरकार एक बार जाने के बाद फिर दोबारा मुश्किल से आती है।

केंद्र के प्रतिनिधि और पार्टी के वरिष्ठ कार्यकर्ता जब महती भूमिका में आते हैं तो उन्हें अपने प्रांत और परिवार का मोह छोड़ कर भाई महावीर बन अपनी सिद्धांतता रखनी पड़ेगी।

दूसरा निर्णय का केन्द्र एक हो और निर्णय जल्दी हों। जब परिवार के मुखिया के साथ सभी सह कुटुम्ब प्रवोधन और निर्णय देना प्रारंभ करेंगे तो "बहुता जोगी मंदिर नाशा।" ही होता है।

संघ शरणम् गच्छामि।
धर्मं शरणम् गच्छामि।
बुद्धं शरणम् गच्छामि।।

Saturday, 2 November 2019

M P Mhotswa,म प्रं स्थापना

स्थापना दिवस को जन्मदिवस की तरह मत मनायें-

 ०१ नवम्बर को  म.प्र., छ.ग अपने स्थापना दिवस मना रहे हैं।

कितना अच्छा होता छ.ग .आज अटल बिहारी वाजपेई जी , रविशंकर शुक्ल जी को भी याद करता।

1 नवंबर 1956, मध्य प्रदेश का स्थापना दिवस। मध्य प्रदेश की स्थापना दिवस पर पूरे प्रदेश में सरकारी आयोजन किए जा रहे हैं। होना भी चाहिए। परंतु एक गहरे सिंहावलोकन के साथ।

 पिछले 63 -64 वर्षों में मध्यप्रदेश में किन क्षेत्रों में उत्कृष्ट स्थान बनाया है।

बरसात के आते ही समाचार पत्रों और मीडिया में न जाने कहां - कहां से , ग्राउंड जीरो से, खोजी पत्रकार गांव और सुदूर वनांचल से ऐसी तस्वीरें खोज कर लाते हैं जिनमें बीमार, बूढ़े, स्कूली बच्चे टायर में या रस्सी के सहारे बढ़ी हुई नदी पारकर काम में, अस्पताल में और पढ़ाई के लिए विद्यालयों में जा रहे होते हैं।

गर्मी के मौसम के साथ ही प्रदेश के जल - संसाधन के स्रोतों में सूखने का क्रम प्रारंभ हो जाता है। तलाव के गहरीकरण, कुआं, हैंड पंप, छोटे डैम बनाने की योजना प्रारंभ होती है।

सर्दी के आते ही हमें अस्पताल परिसर में पेड़ के नीचे ठिठुरते मरीजों के सहयोगी, पुल के नीचे सोते रिक्शा चालक और मजदूर सहज दिखाई पड़ जाएंगे।

सदाबहार जर्जर सड़कें, टपकते विद्यालय भवन, पंचायत भवन, महाविद्यालयों के दो कमरों के उधार किसी स्कूल के भवन, विश्वविद्यालयों के  किराए के भवन कहीं-कहीं तो परिसर में तालाब के दृश्य से भी दिखाई देते हैं।

बरसात में बिजली का मेंटेनेंस के नाम पर 6 - 8 घंटे गायब रहना, किसानों के खेत की सिंचाई के समय बिजली का बिल ना भरने के नाम पर कनेक्शन काट दिया जाना, अस्पतालों में बिजली ना होने के कारण ऑपरेशन  को टाला जाना, विज्ञान के प्रैक्टिकल न कराया जाना ऐसे सामान्य हो गया है जैसे' यह सब तो चलता है।'

स्वास्थ्य, शिक्षा, कृषि, उद्योग के नाम पर विश्व बैंक या अन्य स्रोतों से कर्ज लेते हुए लगता है हमारे आदर्श चार्वाक ऋषि है, 'जब तक जियो उधार लेकर घी पियो। मरने के  बाद... .।"  और  (राजसत्ता बदलने के बाद पूर्व सत् ता को जिम्मेदार ठहराना।)

संभवत 56 से लेकर आज तक दल -दल की सरकारों, सरकारी तंत्र में बैठे  भाग्यशाली,  सरकारीजीवी अधिकारियों को इन समस्याओं को देखने का अवसर प्राप्त नहीं हुआ।

 हुआ तो ब्लैकमेलिंग के नाम पर आर टी आई एक्टिविस्ट को या मीडिया को।

 फिर भी ये साधुवाद के पात्र हैं, नहीं तो व्यापम, ई-टेंडरिंग, दवा खरीदी, पेंशन घोटाले, स्कालरशिप राशि घोटाला, कुंभ घोटाला ,सड़क- पुल-बिजली , दूध-दलिया, मिड-डे-मील , सायकल , मोबाईल, लैपटाप , शिक्षक भर्ती  घोटाले कहा से सामने आते?

योजनाएं बनाना , नीचे भेज देना पैसे की ऑडिट रिपोर्ट प्राप्त करना , दिल्ली से पुरस्कार प्राप्त करना, यह हमारे  तंत्र की विशेषता हो गई है।

वनांचल से लेकर गांव और नगर का  किसान, मजदूर गरीबी रेखा में जहां था वहीं पर ही नहीं तो दो पायदान पीछे ही चला गया है।

यह बात अलग है कि कुछ आरक्षित और अनारक्षित (किंतु परिवार, जाति से आरक्षित) नेता, अधिकारी पायदान से नहीं सीधे लिफ्ट से उच्चतम मंजिल तक पहुंच चुके हैं। उन्हें ना तो वनांचलों में रहने वाले अपने ही भाई बंधु स्मरण है और ना ही गांव के किसान , मजदूर और पुल के नीचे सोते श्रमिक या टायर और रस्सी के सहारे नदी पार करते बुजुर्ग, विद्यार्थी और बीमार “।

फिर भी समय की मांग है कि जर्जर सरकारी भवनों को भी आज के दिन 36 घंटे बिजली से ऐसा सजाया जाये  कि देखने वाले की आंखों को चुधिया दिया जाए। हमारा स्टोर कीपर अधिकारी/बाबू भी इसमें पूरे उत्साह से भाग लेता है , आखिर उसकी स्थापना भी तो इसी दिन के लिए है? इसमें न ई-टेंडर करना है न जैम में जाना है। ( हालांकि ई-टेंडर भी जांच  के दायरे में है और जैम में भी सेंध लग चुकी  है।)

इसमें एक लाभ और है सजावट में जिन उपकरणों को लाया जाता है,उसका एक दिन का  किराया सामान के मूल लागत से अधिक होता है। आखिर हमारे छोटे-बड़े कार्यालय कुंभों और बड़े सरकारी आयोजनों  में यही हुनर तो सीख कर सच्चे प्रयोगधर्मी की तरह अनुकरण करते हैं।

 फिर बाबू साहब को यह समझाने में भी सफल रहता है कि साहब "आखिर आडिट दल में सरकारी नौकर ही तो आता है। उसके चड्डी, बनियान और ट्रूथ-ब्रस घर भूल आने की आदत सुधर थोड़े गयी  है?"

हमने अगर किसी चीज को, किसी परंपरा को अनुकरण किया है तो महापुरुषों को अपनी जाति में डालना, अपने दल में डालना और आने वाली पीढ़ी के लिए बटे  हुए महापुरुषों, हुतात्माओं का आदर्श खड़ा करना।

देश की स्वतंत्रता के लिए जिन महापुरुषों ने अपनी तीन- तीन पीढ़ियां, अपने चार-चार बालक का बलिदान किया , भूमि, जन और मकान सबको ना चाहते हुए भी छोड़कर अस्मिता के लिए स्थानांतरण किया वे आज भी उपेक्षित है।

राष्ट्र यदि सनातन ऋषयों की वाणी, देवीय महापुरुषों के पराक्रम और चक्रवर्ती राजाओं के शौर्य से निर्मित होता है तो राज्य और राज तात्कालिक 5-10 पीढ़ियों के बलिदान से।

अच्छा होता प्रदेश की स्थापना को हम वर्ष भर के समाचार पत्रों और मीडिया के उन खबरों को महत्व देकर उनके निदान के लिए कोई लक्ष्य तय कर अगले स्थापना वर्ष तक पूर्ण करने का संकल्प लेते।

भ्रष्टाचार को शिष्टाचार के दायरे से बाहर करने का कुछ उद्योग करते।(निवेश आमंत्रण के नाम पर उद्योगपतियों को ९० साल के लीज पर भूमि  देने की उदारता की बात नहीं करते । उद्योगपति के तीन पीढ़ी के लिए भूमि का आवंटन!!

 आखिर सरकारें पुराने अनुभवों से क्यों नहीं सीखती की हर उद्योमी अपनी पांच साल की मुफ्त बिजली,पानी और लगान की छूट समाप्त होते ही दिवालिया होकर नये नाम से पंजीकृत हो नया उद्योगपति बना फिर मेले में मदारी बन खड़ा हो जाता है,"चल जमूरे नया करतब दिखाते हैं", हमारा अबोध वोटर तालियां पीट -पीट कर (अपना माथा पीट कर),जोश बढ़ता है।)

प्रभात फेरी, दौड़ और श्रद्धांजलियां अवश्य होनी चाहिए किंतु बिजलोत्सव  से परहेज़ के साथ।

आज समय की मांग है कि अपने पराए मुख्यमंत्री , प्रधानमंत्रियों, राजनेताओं, महापुरुषों के प्रति  दलबद्धता, जातिबद्धता से ऊपर उठकर युवा के सामने एक अच्छा आदर्श उनको समान सम्मान देकर रखा जा सकता है। महात्मा गांधी, सावरकर, सरदार पटेल और इंदिरा गांधी आखिर इस देश के लिए ही तो प्राणों को उत्सर्ग किया है।

यही सच्चा महोत्सव और सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
सादर।