बालक गाँधी की आत्मकथा के मायने
प्रो. उमेश कुमार सिंह
को न्वस्मिन
सांप्रतं लोके गुणवान् कश्च वीर्यवान्।
धर्मज्ञश्च कृतज्ञश्च
सत्यवाक्यों दृढव्रत:।।
चारित्रेण च
को युक्त: सर्वभूतेषु
को हित:।
विद्धान क:
क: समर्थश्च कश्चेक प्रियदर्शन:।।
आत्मवान् को
जितक्रोधो द्युतिमान् कोऽनसूयक:।
कस्य बिभ्यति
देवाश्च जातरोषस्य संयुगे।।
यह प्रसंग यहाँ देने का कारण पहले स्पष्ट हो जाये तो अच्छा रहेगा। वास्तव में
महापुरुष हर युग में धरती के हर कोने में पैदा होते रहे हैं, हो रहे हैं। लेकिन इनकी प्रासंगिकता काल के
आधार पर बनती और स्थगित होती रही है। भारत भूमि भी महान विभूतियों की उर्वराभूति
है। वीरप्रसूता ही नहीं तो देवप्रसूता भी है। मानव से महामानव की यात्रा यही पूर्ण
होती है। इसलिए जब हम किसी भी व्यक्ति विशेष के बारे में चर्चा करते हैं तो या तो
उसके गुणों की ऐसी चर्चा करते हैं कि वह सीधा हमारी पहुँच के बाहर हो जाता है या
इतना सरल कर देते हैं कि उसका और हमारा अहंकार कुछ इस तरह टकराता है कि हम उसे
जीवन भर अपने ही मापदण्डों में तौलते रह जाते हैं। गाँधी पर यह आलेख बालक गाँधी की
आत्मकथा है।
वाल्मीकि नारद से पूछते समय बड़ी बात
कहते हैं, ‘को न्वस्मिन सांप्रतं
लोके’। वर्तमान युग में वह कौन
है जिसमें यह सोलह गुण हों ?भूत और भविष्य की
बात नहीं कह रहे हैं?
गांधी जी के बारे में विचार करते समय (यह ध्यान रखते हुए कि गांघी और राम की
यहाँ तुलना नहीं की जा रही है) भी कुछ समय तक ‘सांप्रतं लोके’ की बात कही जा सकती है, वह भी उनके जन्म
शताब्दी समारोह के अवसर पर। इसलिए आइये अब गांधी की तलाशें वे हमारे ‘सांप्रतं लोके’ में कहाँ बैठते हैं।
गांधी की मानसिक विकास यात्रा उनके पूर्वजों से होते हुए माता-पिता के माध्यम
से उनके जीवन में आती है और सामाजिक अनुभव से पूर्ण होती है। गांधी जी के ही शब्दों में, ‘ओता गांधी के एक के बाद दूसरा यों दो विवाह हुए थे। पहले
विवाह से उनके चार लडक़े थे और दूसरे से दो। अपने बचपन को याद करता हूँ, तो मुझे खयाल नहीं आता कि ये भाई सौतेले थे।
इनमें पाँचवें करमचन्द अथवा कबा गांधी और आखिरी तुलसीदास गांधी थे।’ जाहिर है तुलसीदास का नाम कहीं न कहीं उस परिवार
में श्रद्धास्थान पर था। इससे गांधी के अन्दर के राम को समझा जा सकता है।
अपने परिवार का परिचय देते हुए गांधी जी लिखते हैं, ‘कबा गांधी के भी एक के बाद एक यों चार विवाह हुए थे। पहले
दो से दो कन्यायें थीं, अन्तिम पत्नी
पुलतीवाई से एक कन्या और तीन पुत्र थे। उनमें अंतिम मैं हूँ।’ गांधी जी चार विवाह का कारण स्पष्ट नहीं करते
कि ये विवाह तीन माताओं की उपस्थिति में हुए थे या मृत्यु पश्चात। अथवा पुत्र मोह
इसमें हेतु था। खैर। पिता जी के स्वभाव को बताते हुए गांधी जी संकेत अवश्य देते
हैं पर वह संकेत ही है।
करमचन्द जी के स्वभाव को समझने से गांधी के स्वभाव को समझा जा सकता है,
‘पिता कुटुम्ब -प्रेमी, सत्य-प्रिय, शूर, उदार, किन्तु क्रोधी थे।.. थोड़ा विषयासक्त भी रहे होंगे। उनका आखिरी व्याह चालीसवें
साल के बाद हुआ था। हमारे परिवार और बाहर भी उनके विषय में यह धारणा थी कि वे रिश्वतखोरी
से दूर भागते हैं और इसलिए शुद्ध न्याय करते हैं। (ध्यान रहे गांधी यहाँ शुद्ध
न्याय की प्राथमिक शर्त की ओर भी ध्यान दिला रहे हैं) राज्य के प्रति वे बहुत
वफादार थे।’
गांधी जी का यह स्पष्टीकरण भी प्रेरणा देता है, ‘पिताजी ने धन बटोरने का (शब्द पर ध्यान दें ‘बटोरने’ का) लोभ कभी नहीं किया। इस कारण हम भाइयों के लिए वे बहुत
थोड़ी सम्पत्ति छोड़ गये थे।’ यहाँ गांधी
पारिवारिक हालात तो स्पष्ट कर ही रहे हैं, धन की दृष्टि के प्रति उनका अपना नजरिया भी पिता जी की तरह ही था, भी स्पष्ट कर रहे हैं। पिता जी की धन के प्रति
लोभ न होने को वे गर्व से वर्णन करते हैं, न कि हीनताबोध से।
पिता जी का परिचय देते हुए गांधी जीवन की बड़ी बारीक बात का उल्लेख करते हैं,
‘पिता जी की शिक्षा केवल अनुभव की थी।.. इतिहास
-भूगोल का ज्ञान तो बिकुल ही न था। फिर भी उनका व्यावहारिक ज्ञान इतने ऊँचे दर्जे
का था कि बारीक से बारीक सवालों को सुलझाने में अथवा हजार आदमियों से काम लेने में
भी उन्हें कोई कठिनाई नहीं होती थी।’
गांधी जी आगे जो लिखते हैं वह उनके हिन्दुत्व की दृष्टि के विकास का मार्ग
निर्धारित करती है, ‘धार्मिक शिक्षा
नहीं के बराबर थी, पर मन्दिरों में
जाने से और कथा बगैरा सुनने से जो धर्मज्ञान असंख्य हिन्दुओं को सहज भाव से मिलता
रहता है, वह उनमें था। आखारि के
साल में एक विद्वान ब्राह्मण की सलाह से, जो परिवार के मित्र थे, उन्होंने गीता
पाठ शुरू किया था और रोज पूजा के समय वे
थोड़े-बहुत श्लोक ऊँचे स्वर से पाठ किया करते थे।’
अब जरा गांधी के ऊपर माता जी का प्रभाव उन्हीं के शब्दों में समझने का प्रयत्न
करें, ‘मेरे मन पर यह छाप रही है
कि माता साध्वी स्त्री थीं। वे बहुत श्रद्धालु थीं। बिना पूजा-पाठ के कभी भोजन न
करतीं। हमेशा हवेली (वैष्णव मंदिर) जातीं। जबसे मैंने होश सम्भाला तबसे मुझे याद
नहीं पड़ता कि उन्होंने कभी चातुर्मास का व्रत तोड़ा हो। वे कठिन-से कठिन व्रत
शुरू करती और उन्हें निविध्र पूरा करती।..मुझे याद है चन्द्रायन के व्रत में वे
बीमार पड़ी पर व्रत नहीं तोड़ा।..मुझे ऐसे दिन याद हैं कि जब हम सूरज को देखते और
कहते, ‘माँ-माँ, सूरज दिखा’ और माँ उतावली होकर आतीं इतने में सूरज छिप जाता और माँ यह
कहती हुई लौट जाती कि ‘कोई बात नहीं,
आज भाग्य में भोजन नहीं है, और अपने काम में डूब जाती।’’ पाठकगण गांधी के सत्याग्रह व्रती होने का कारण
समझ सकते हैं।
एक घटना बार-बार बताई जाती है जिसको गांधी के शब्दों में समझना आवश्यक है। वे
लिखते हैं, ‘शिक्षक ने अपने
बूट की नोक मारकर मुझे सावधान किया। लेकिन मैं क्यों सावधान होने लगा?..मैंने यह माना था कि शिक्षक तो यह देख रहे हैं
कि हम एक-दूसरे की पट्टी में देखकर चोरी न करें.. ..सब लडक़ों को पाँचों शब्द सही
निकले और अकेला मैं बेबकूफ ठहरा.. ..शिक्षक ने मेरी बेवकूफी बाद में समझायी।’
गांधी जी यह लिखते हुए अपनी ईमानदारी की बात
शायद अपने संस्कारों को स्पष्ट करने के लिए बताते हैं किन्तु कहीं न कहीं यह
चिन्ता भी है कि कहीं इस घटना का गुरुओं के प्रति बिपरीत प्रभाव न पड़े। इसलिए आगे
लिखते हुए ‘इतने पर भी शिक्षक के
प्रति मेरा विनय कभी कम नहीं हुआ।’
किन्तु मैं यहाँ गांधी के जीवन की उन दो घटनाओं को ज्यादा महत्त्व देता हूँ जो
उनके अन्दर एक ईमानदार बालक का निर्माण करती हैं। पहली घटना ‘श्रवण-पितृभक्ति नाटक’, दूसरा-हरिश्चन्द्र आख्यान। गांधी जी को संगीत का बचपन से
शौक था। वे लिखते हैं, ‘किन्तु पिता जी
की खरीदी हुई एक पुस्तक पर मेरी दृष्टि पड़ी। नाम था ‘श्रवण-पितृभक्ति नाटक’।.. मैं उसे बड़े चाव के साथ पढ़ गया।’ दूसरा ‘उन्हीें दिनों शीशे में चित्र दिखानेवाले भी घर-घर आते थे। उनके पास मैंने
श्रवण कुमार का वह दृष्य भी देखा, जिसमें वह अपने
माता-पिता को काँवर में बैठाकर यात्रा पर ले जाता है। दोनों चीजों का मुझ पर गहरा
प्रभाव पड़ा। श्रवण की मृत्यु पर उसके माता-पिता का विलाप मुझे आज भी याद है। उस
ललित छन्द को मैंने बाजे पर बजाना सीख लिया था। मुझे बाजा सीखने का शौक था और पिता
जी ने एक बाजा दिला भी दिया था।’
गांधी की आजीवन सेवावृत्ति और पितृभक्ति का कारण श्रवण कुमार पर आधारित वह
ललित छन्द रचना है, जिसे वे जीवन भर
नहीं भूले। यहाँ एक बात और स्मरण रखना होगा कि संगीत और साहित्य कैसे बाल मन को
संस्कारों से पुष्ट करते हैं। किन्तु दुर्भाग्य यह है कि आज की अंग्रेजी शिक्षा ने
मातृभाषा से बचपन को जिस तरह से काटा है उसके कारण न केवल बालमन विदू्रपता की ओर
बढ़ रहा है, बल्कि अपने
परम्परागत संस्कारों से भी निरन्तर दूर होता जा रहा है। क्या गांधी का स्मरण हमें
अपनी परम्परा का स्मरण भी करा सकेगा ?
इसकी पुष्टि के लिए इस बात को और स्मरण रखना होगा जिसे वे लिखते हैं, ‘इन्हीें दिनों कोई नाटक-कंपनी आयी थी और उसका
नाटक देखने की इजाजत मुझे मिली थी। हरिश्चन्द्र आख्यान।’ वे लिखते हैं नाटक का प्रभाव इतना था कि वे बार-बार देखना
चाहते थे किन्तु वह सम्भव नहीं था। वे कहते हैं, ‘मुझे हरिश्चन्द्र के सपने आते। हरिश्चन्द्र की तरह सब
सत्यवादी क्यों नहीं बनते?’ हरिश्चन्द्र की
विपत्तियों के समय सत्य को न छोडऩा गांधी जी के जीवन का वह मोड़ था जिसे वे आजीवन
पालन करते हैं। यहाँ दो बातें ध्यान रखनी होगी। गांधी की उम्र उस समय सात वर्ष की
थी। और हम जानते हैं कि मनुष्य के जीवन निर्माण का वह श्रेष्ठतम कालखण्ड होता है।
गांधी लिखते हैं, ‘हरिश्चन्द्र के
दु:ख देखकर, उनका स्मरण करके
मैं खूब रोया हूँ। .. ..मेरे विचार से हरिश्चन्द्र और श्रवण आज भी जीवित है। मैं
मानता हूँ कि आज भी उन नाटकों को पढूँ, वे मेरी आँखों से आँसू बह निकलेंगे।’ गांधी की इस प्रवल इच्छा को हम आज १५० वें वर्ष पर कितना सम्मान दे रहे हैं,
आत्मावलोकन करने का विषय है। भला हो राजनीति का
जिसने गांधी को आज जिन्दा रखा है अन्यथा श्रवण कुमार और राजा हरिश्चन्द्र तो हमारे
शिक्षा व्यवस्था से ‘ईद के चाँद’
हो गये हैं जो कभी कभार मुहावरों की तरह उल्लेख
किये जाते हैं। गांघी के इस संदेश को हर माता-पिता को समझना होगा। देश की राजनीति
भी यदि कोई अवसर देती है तो उसका लाभ सजग समाज को अवश्य उठाना चाहिए। वह गाँधी के
बहाने ही क्यों न हो!
गांधी जी के पश्चाताप को समझें। ‘मैं चाहता हूँ मुझे यह प्रकरण न लिखना पड़ता। लेकिन इस कथा में मुझको ऐसे
कितने ही कड़वे घूँट पीने पड़ेंगे।’ ध्यान देने वाली बात है कि गांधी लिखना चाहते हैं आत्मकथा (सत्य के प्रयोग)
फिर भी कड़वा घँूट कह रहे हैं। हैं न हैरानी की बात! जी हाँ। आज देश-विदेश में
असंख्य आत्मकथाएँ आ चुकी हैं किन्तु गांधी की आत्मकथा विरली ही है, इसीलिए क्योंकि इसमें लेखक को कड़वे घूँट पीना
पड़ रहा है। लोग अपनी आत्मकथा में यशगाथा लिखते हैं या परिस्थितियों का रोना-धोना
या अनेक अंतरंग प्रेमप्रशंग जो उनकी प्रगतिशीलता की निशानी होती है।
गांधी जी क्या कहते हैं, ‘यह कहते हुए मेरा
मन अकुलाता है कि तेरह साल की उमर में मेरा विवाह हुआ था। आज मेरी आँखों के सामने
बारह-तेरह साल का बालक मौजूद है।.. मेरी एक एक करके तीन बार सगाई हुई। .. इसमें
हमारे कल्याण की बात नहीं थी। हमारी इच्छा की तो थी ही नहीं। बात सिर्फ बड़ों की
सुविधा और खर्च की थी।’ (विचार करें यदि
गांधी जिन्दा होते और आज के बालविवाह और विवाह प्रसंगों को देखते, जो धरती से लेकर आसमान तक में हो रहे हैं,
उस पर माता-पिता की आडम्बरपूर्ण विलासिता के
प्रदर्शन को देखते तो आगे की आत्मकथा में क्या लिखते, हम और आप अंदाज लगा सकते हैं। मेरा मत है इस दो पाये को वे
मनुष्य तो नहीं केवल धनपशु ही कहते यदि उनको मैथिलीशरण जी पशु कहने की अनुमति दे
देते तो!) खैर।
जरा
समझें, गांधी जी यहाँ केवल यह कह
कर बच सकते थे कि मैं क्या करता यह तो उस समय की परम्परा थी। बड़ों का निर्णय था।
किन्तु वे यहीं संतुष्ट नहीं हैं। यहाँ गांधी का मन अकुला रहा है। दूसरा बड़ा
वाक्य है, ‘मेरे सामने आज तेरह साल
का बालक मौजूद है’। यह सत्य का
सामाजिक साक्षात्कार है। गांधी का मन अकुला रहा है किन्तु क्या हमारे समाज का मन
भी अकुला रहा है, यह बड़ा प्रश्र
है ? यह ध्यान रखना होगा गांधी
किसी सामान्य परिवार के बालक नहीं थे। उन्हीं के शब्दों में, ‘पोरबन्दर से पिता जी राजस्थानिक कोर्ट के सदस्य
बनकर राजकोट गये।..बीकानेर के दीवान थे।’ सम्भवत: गांधी की पीड़ा पाठक को आज सवा सौ साल पीछे ले जाकर यह बोध कराना
चाहती है कि हमारा समाज अभी भी किस तरह रूढिय़ों में जकड़ा है। इसकी पुष्टि समझें,
‘बाल-विवाह की चर्चा करते हुए पिता जी के कार्य
की जो टीका मैंने आज की है, वह मेरे मन ने उस
समय थोड़े ही की थी? तब तो सब कुछ
योग्य और मन पसन्द ही लगा था।’
गांधी की बाल विवाह की पीड़ा आज के समाज की पीड़ा तो थी ही उसके बाद जो लिखते
हैं वह आज के भारतीय सम्प्रभु-पुरुष-समाज (राजनेता,नौकरशाह,टेक्रोक्रेट,व्यवसायी,उद्योगपति,) की चेतना को
झकझोरने वाला है। ‘मैंने पढ़ा था कि
एक पत्नी-व्रत पालना पति का धर्म है। बात हृदय में रम गयी। सत्य का शौक तो था ही,
इसलिए पत्नी को धोखा तो दे ही नहीं सकता था।
इसी से यह भी समझ में आया कि दूसरी स्त्री से सम्बन्ध नहीं रहना चाहिये।’
आज जब मीटू और हनीट्रेप हो रहे हैं उस समय गांधी कितने प्रासंगिक है, समझ में आता है कि जो जीवनी आज १५० वर्ष के
बहाने स्कूल-कालेज में पढ़ाई जा रही है, अगर वह ७० साल से पढ़ाई जाती तो परिणाम कुछ और ही होता।
गांधी
हठी (सत्याग्रही भी) कब और कैसे बने । समझना होगा गांधी देवता नहीं थे। गांधी
हमारे ही तरह के एक मनुष्य थे। इच्छा-आकांक्षाएँ, राग-द्वेष सब कुछ उनके अन्दर था। यहाँ जब वे एक पत्नी-व्रत
का पालन की बात का हठ कहें या दृढ़ निश्चय कहें, करते हैं तो उनके अन्दर दूसरी मानवीय कमजोरी तत्काल उत्पन्न
होती है। वह थी कस्तूरवा जी को भी निगरानी में रखना प्रारंभ किया और ईष्यालु बन
गये। उन्हीें के शब्दों में, ‘पर इन सद्विचारों
का एक बुरा परिणाम निकला। अगर मुझे एक पत्नीव्रत पालना है, तो पत्नी को एकपति-व्रत पालना चाहिए। इसी विचार के कारण मैं
ईष्र्यालु बन गया।’
मैं गांधी की दो
बातों को यहाँ रख कर फिर आगे बढऩा चाहूँगा। एक, ‘लेकिन पाठक यह न माने कि हमारे इस गृह जीवन में कहीं भी
मिठास नहीं थी। मेरी वक्रता की जड़ प्रेम में थी। मैं अपनी पत्नी को आदर्श बनाना
चाहता था। मेरी यह भावना थी कि वह स्वच्छ बने, स्वच्छ रहे, जो मैं सीखूँ सो
सीखे, मैं पढूँ सो पढ़े (मैं
लिख चुका हूँ कि कस्तुरवा निरक्षर थी), और हम दोनों एक दूसरे में ओत-प्रोत रहें।’
यह भारतीय आदर्श जीवन की एक बालक की कल्पना थी, जिद थी, हठ था। हाँ एक
बात वे अवश्य कहते हैं कि ‘यों अपनी पत्नी
के प्रति विषयासक्त होते हुए भी मैं किसी कदर कैसे बच सका, इसका एक कारण .. जिसकी निष्ठा सच्ची है, उसकी रक्षा स्वयं भगवान ही कर लेते हैं।’
ध्यान रखना होगा गांधी बाल-विवाह की वकालत नहीं
कर रहे। अपने जीवन के अनुभव को साझा कर संदेश दे रहे हैं।
यह वह समय था जब
स्कूल में पढऩे वाले छात्र का आचरण प्रमाण पत्र माता-पिता को भेजा जाता था। गांधी
कहते हैं, ‘हाईस्कूल में मेरी गिनती
मन्दबुद्धि विद्यार्थियों में नहीं थी। (ध्यान रखना कभी-कभी हमें सुनाई देता है,
हम तो सदा गांधी डिवीजन पाते रहे, यह धारणा गलत है।) पढ़ाई का अर्थ डिग्री तो था
किन्तु गांधी की नजरों में पढ़ाई का अर्थ आचरण की सुचिता थी। ‘जो शिक्षा आचरण की सुचिता नहीं पैदा करती,
वह चरित्र निर्माण नहीं कर सकती।’
विद्याभ्यास में व्यायाम पर उन्हीं के शब्दों में, ‘बाद में मैं समझा कि विद्याभ्यास में व्यायाम का, अर्थात् शारीरिक शिक्षा का मानसिक शिक्षा के
समान ही स्थान होना चाहिए।.. फिर भी मुझे नुकासन नहीं हुआ। .. मैंने पुस्तकों में
खुली हवा में घूमने जाने की सलाह पढ़ी थी.. ..टहलना भी व्यायाम तो है ही, इससे मेरा शरीर अपेक्षकृत सुगठित बना।’ गांधी जी पढ़ाई में सुन्दर लेखन के प्रति भाव
व्यक्त करते हैं, ‘इसलिए शरीर
व्यायाम न देने की गलती के लिए तो शायद मुझे सजा नहीं भोगनी पड़ी.. ..पर दक्षिण
अफ्रीका में, जब मैंने वकीलों
कि तथा दक्षिण अफ्रीका में जन्में और पढ़े-लिखे नवयुवकों के मोती के दानों जैसे अक्षर देखे,
तो मैं शरमाया और पछताया।’
संस्कृत भाषा पर अपना संस्मरण लिखते हैं, ‘उन्होंने मुझे बुलाया और कहा: ‘‘यह तो समझ कि तू किनका लडक़ा है। क्या तू अपने धर्म की भाषा
न हीं सीखेगा? तुझे जो कठिनाई
हो, उसे मुझे बता। मैं तो सब
विद्यार्थियों को बढिय़ा संस्कृत सिखाना चाहता हूँ। आगे चलकर उसमें रस के घँूट पीने
को मिलेंगे। तुझे यों हारना नहीं चाहिये। तू फिर से मेरे वर्ग में बैठ।’’ मैं शरमाया। शिक्षक के प्रेम की अवमानना न कर
सका। आज मेरी आत्मा कृष्णशंकर मास्टर का उपकार मानती है। क्योंकि जितनी संस्कृत
मैं उस समय सीखा उतनी भी न सीखा होता, तो आज संस्कृत शास्त्रों में मैं जितना रस ले सकता हूँ उतना न ले पाता। मुझे
तो पश्चाताप होता कि मैं संस्कृत न सीख सका। क्योंकि बाद में मैं समझा कि किसी भी
हिन्दू बालक को संस्कृत का अच्छा अभ्यास किये बिना रहना ही न चाहिये।’ (पाठकों को स्मरण होगा कि कृष्ण मास्टर बहुत
कठोर दण्ड देनेवाले शिक्षक थे, अत: गांधी जी ने
नरम स्वभाव के फारसी शिक्षक की कक्षा चुन ली थी।)
लगभग ११-१२ वर्षीय बालक मोहनदास के सुधार आन्दोलन को गांधी दु:खद प्रसंग मानते
हैं। ऐसी दो घटनाएँ हैं जो उन्हें आत्मकथा लिखते समय व्यथित करती हैं। यह स्मरण
कराते हुए वे लिखते हैं,‘लेकिन मुझे तो
सुधार करना था। मांसाहार का शौक नहीं था। यह सोचकर कि उसमें स्वाद है, मैं मांसाहार शुरु नहीं कर रहा था। मुझे तो
बलवान और साहसी बनना था, दूसरों को वैसा
बनाने के लिए न्योतना था और फिर अंग्रेजों को हराकर हिन्दुस्तान को स्वतंत्र करना
था। ‘स्वराज्य’ शब्द उस समय तक मैंने सुना नहीं था। सुधार के
उस जोश में मैं होश भूल गया था।’
गांधी की इस सफाई के बाद जरा परिस्थितियों को समझें, ‘दूसरी सोहबत मेरे जीवन का एक दु:खद प्रकरण है।.. मेरी माता
जी, मेरे जेठे भाई और मेरी
धर्मपत्नी तीनों को यह सेहबत कड़वी लगती थी। पत्नी की चेतावनी को तो मैं अभिमानी
पति क्यों मानने लगा? (अभिमानी पति यहाँ
बहुत कुछ कह जाती है।)’ बड़ेभाई को दिया
गया उत्तर भी समझना चाहिए, ‘उसके जो दोष आप
बताते हैं, उन्हें मैं जानता हूँ।
उसके गुण तो आप जानते ही नहीं। वह गुण मुझे गलत रास्ते नहीं ले जायेगा, क्योंकि उसके साथ मेरा सम्बन्ध उसे सुधारने के
लिए ही है। मुझ ेयह विश्वास है कि अगर वह सुधर जाये, तो बहुत अच्छा आदमी निकलेगा। मैं चाहता हूँ कि आप मेरे विषय
में निर्भय रहें।’’
उस मित्र द्वारा दिया गया तर्क भी गांधी जी आत्मकथा लिखते समय बताते हैं,
‘‘हम मांसाहार नहीं करते, इसलिए प्रजा के रूप
में हम निर्वीर्य हैं। अंग्रेज हम पर इसीलिए राज्य करते हैं कि वे मांसाहारी हैं।
मैं कितना मजबूत हूँ और कितना दौड़ सकता
हूँ, सो तो तुम जानते ही हो।
इसका कारण भी मांसाहार ही है। मांसाहारी को फोड़ा नहीं होते, होने पर झट अच्छे हो जाते हैं। हमारे शिक्षक
मांस खाते हंै, इतने प्रसिद्ध
व्यक्ति खाते हैं, सो क्या बिना
समझे खाते हैं? तुम्हें भी खाना
चाहिए। खाकर देखो तो मालूम होगा कि तुममें कितनी ताकत आ जाती है।’’ यह दु:खद प्रसंग अपने निहितार्थ के साथ हमारे
सामने हैं जिसका परिणाम मांसाहारी बालक मोहनदास को कैसे विदेशों में रहकर भारी
दबाव के बाद भी मांसाहार नहीं करने दिया।
दूसरा
प्रसंग मित्रों की योजना से वैश्याओं की वस्ती में भेजना था किन्तु दोनों ही
परिस्थिति में वे अपने को बचा लेत हैं। इन सब अनुभवों के बाद दम्पति के बीच जो कुछ
मतभेद पैदा हुआ था वह समझ में आते ही खत्म हो गया। उसके बाद मोहनदास की दिशा और
विचार को समझने लायक है,‘‘यहीं फूट जाता
है। वहाँ कहाँ जावें ? उच्च माने जानेवाले वर्ण की हिन्दू स्त्री
अदालत में जाकर बँधी हुई गाँठ को कटवा भी
नहीं सकती, ऐसा इकतरफा न्याय
उसके लिए रखा गया है। इस तरह का न्याय मैंने दिया, इसके दु:ख को मंै कभी नहीं भूल सकता। इस सन्देह की जड़ तो
तभी की जब मुझे अहिंसा का सूक्ष्म ज्ञान हुआ, यानी जब मैं ब्रह्मचर्य की महिमा को समझा और यह समझा कि
पत्नी पति की दासी नहीं, पर उसकी
सहचाारिणी है, सहधर्मिणी है,
दोनों एक -दूसरे के सुख-दु:ख के समान समझेदार
हैं, और भला-बुरा करने की
जितनी स्वतंत्रता पति को है उतन ही पत्नी को है। सन्देह के उस काल को जब मैं याद
करता हूँ, तो मुझे अपनी मूख्र्रता
और विषयान्ध निर्दयता पर क्रोध आता है और मित्रता विषयक अपनी मूच्र्छा पर दया आती
है।’’
‘उन्होंने चिठ्ठी पढ़ी। आँखों से मोती की बंूदें टपकीं। चि_ी भीग गयी। उन्होंने क्षण भर के लिए आँखें
मूँदीं, चि_ी फाड़ डाली और स्वयं पढऩे के लिए उठ बैठे थे, सो वापस लेट गये।.. मैँ भी रोया। पिता जी का
दु:ख समझ सका। अगर मैं चित्रकार होता, तो वह चित्र आज सम्पूर्णता से खींच सकता। आज भी वह मेरी आँखों के सामने इतना
स्पष्ट है, मोती की बूँदों के उस
प्रेम-बाण ने मुझे बेध डाला। मैं शुद्ध बना! इस प्रेम को तो अनुभवी ही जान सकता
है। मेरे लिए अहिंसा का पहला पाठ था। .. इस प्रकार की शान्त क्षमा पिता जी के
स्वभाव के बिरुद्ध थी।’
गांधी जी का बीड़ी पीना, पैसे के लिए सोने
का कड़ा बेचना और फिर पछताना तथा अभिव्यक्ति के लिए पिता जी को पत्र का सहारा लेना,
पिता जी का प्रेमाश्रु बहना उनके जीवन का
परिवर्तन काल था। समझना होगा इस पन्द्रह-सोलह साल की उम्र तक आते-आते मोहनदास के
जीवन में सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह और सेवा ने अमूल्य स्थान बना लिया था। शायद यह वह
नीव थी जिसके कारण मोहनदास करमचन्द गांधी, महात्मा और बापू बन सके और हम उन्हें,
‘को न्वस्मिन सांप्रतं लोके गुणवान् कश्च
वीर्यवान्। धर्मज्ञश्च कृतज्ञश्च सत्यवाक्यों दृढव्रत:।। के रूप में स्मरण कर रहे
हैं।
उमेश कुमार सिंह
२१-२२ शुभालय विलास
बरखेडा-पठानी, भोपाल
४६२०२२