Friday, 28 March 2025
जन्मदिन की शुभकामनाएं
चक्रों के रंग
चक्रों के रंग
१. चक्र : मूलाधार, तत्व : पृथ्वी, बीज मंत्र : लं, चक्र रंग : लाल ।
२. चक्र : स्वाधिष्ठान, तत्व : जल, बीज मंत्र : वं,चक्र रंग :नारंगी
३. चक्र : मणिपुर, तत्व : अग्नि, बीज मंत्र : रं, चक्र रंग : पीला
४. चक्र : अनाहद,तत्व : वायु,बीज मंत्र : यं,चक्र रंग : हरा
५. चक्र : .विशुद्धाख्य, तत्व : आकाश, बीज मंत्र : हं, चक्र रंग : आसमानी
६. चक्र : आज्ञाचक्र, बीज मंत्र : शं, चक्र रंग : नीला
७. चक्र : सहस्रार,बीज मंत्र : ॐ,चक्र रंग : बैंगनी
Monday, 3 March 2025
तिरुवल्लुवर और ‘तिरूकुरल’
तिरुवल्लुवर और ‘तिरूकुरल’
तिरुवल्लुवर तमिल के
एक प्रसिद्ध कवि हैं जिन्होंने तमिल में नीति पर आधारित ‘तिरुकुरल’ या ‘थिरूकुरल’ नामक ग्रंथ की रचना की।
उन्हें थेवा पुलवर, वल्लुवर और पोयामोड़ी पुलवर जैसे नामों से
जाना जाता है। तिरुवल्लुवर का जन्म मायलापुर में हुआ था। उनकी पत्नी वासुकि ईश्वर
अनुग्रह प्राप्त विदुषी थीं। एक ऐसी आदर्श
पत्नी जिसने कभी भी अपने पति के आदर्शों की अवज्ञा नहीं की और उनका शतश: पालन किया।
तिरुवल्लुवर ने लोगों को बताया कि एक व्यक्ति गृहस्थ या गृहस्थ स्वामी का जीवन
जीने के साथ-साथ एक दिव्य जीवन या शुद्ध और पवित्र जीवन जी सकता है। उन्होंने
लोगों को बताया कि शुद्ध और पवित्रता से परिपूर्ण दिव्य जीवन जीने के लिए परिवार को
छोड़कर संन्यासी बनने की आवश्यकता नहीं है। उनकी ज्ञान भरी बातें और शिक्षा अब एक पुस्तक
के रूप में मौजूद है जिसे ‘‘थिरूकुरल’’ के रूप में जाना जाता है, तमिल कैलेंडर की अवधि उसी समय से है और उसे तिरुवल्लुवर ‘आन्दुवर्ष’ के
रूप में संदर्भित किया जाता है। तिरुवल्लुवर के अस्तित्व का समय पुरातात्विक साक्ष्य
के बजाय ज्यादातर भाषाई साक्ष्यों पर आधारित है । उनके काल का अनुमान 200 ई.पू. से 30 ई.पू. के बीच लगाया गया है।
तिरुवल्लुवर में ‘तिरु’ एक तमिल शब्द है जिसका अर्थ महनीय होता है,
जो श्री के समान है और ‘वल्लुवर’ ; तमिल
परंपरा के अनुसार ‘वल्लुवन’ के लिए एक विनम्र नाम से बना है। उनके वास्तविक नाम के
बजाए ‘वल्लुवन’ नाम एक सामान्य नाम है जो उनकी जाति या व्यवसाय का प्रतिनिधित्व करता
है। लोक मान्यता है कि ‘थीरूकुरल’ के लेखक का नाम उनके समुदाय पर रखा गया है । तिरुवल्लुवर
के जन्म के बारे में अनेक किंवदन्तियाँ हैं। माना जाता है कि तिरुवल्लुवर का जन्म और
लालन-पालन मायलापुर में हुआ था जो वर्तमान में मद्रास शहर का एक हिस्सा है। उन्हें
जुलाहे अथवा बुनकर जाति में माना जाता है । एक अन्य मत के अनुसार शैव, वैष्णव, जैन, बौद्ध
सम्प्रदायों का तर्क है कि तिरुवल्लुवर उनसे सम्बन्धित हैं। तिरुवल्लुवर के जन्म के
बारे में जो किंवदंतियां हैं उनमें एक यह भी है कि उन्हें एक जैन संत तथा हिंदू कहा
गया है। वल्लुवर जतीय नाम है।
कुरल
का अर्थ दोहा होता है। उनके ग्रंथ का प्रारम्भ सर्वशक्तिमान परमात्मा की वन्दना से
होता है अत: उन्हें नास्तिक नहीं कहा जा सकता। उनके परमेश्वर सर्वशक्तिमान हैं, सारे संसार के निर्माता हैं और जो अपने भक्तों की रक्षा करते हैं। दरअसल कुरल
किसी भी विशिष्ट या सांप्रदायिक धार्मिक आस्था की वकालत नहीं करता है। एक कथा में
उन्हें पंड्या शासकों की प्राचीन राजधानी मदुरै से जोड़ा जाता है, जिन्होंने तमिल साहित्य को सख्ती से बढ़ावा दिया था। और उन्होंने अपनी कृति
‘थिरुकुरल’ को जमा करने के लिए मदुरै की यात्रा की ताकि वे राजा पंडियन और उनके कवियों
के समूह से अनुमोदन प्राप्त कर सके। कुछ परंपरागत कहानियाँ हैं जिसमें कहा गया है कि
मदुरै का तमिल संगम; नियमित तौर पर आयोजित किया जाने वाला
प्रख्यात विद्वानों और शोधकर्ताओं की ऐसी (सभा) सम्मेलन व प्राधिकरण था जिसके माध्यम से तिरुक्कुरल को
विश्व के सामने पेश किया गया। हो सकता है कि तिरुवल्लुवर ने अपना अधिकांश जीवन
मदुरै में बिताया हो क्योंकि यह पांडिया शासकों के अधीन था जहाँ कई तमिल कवि आगे
बढ़े। अभी हाल ही में कन्याकुमारी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक शोध केन्द्र द्वारा दावा किया गया कि वल्लुवर एक राजा थे
जिन्होंने तमिलनाडु के कन्याकुमारी जिले के एक पहाड़ी इलाके वल्लुवनाडु पर शासन किया
था।
जॉर्ज
उग्लो पोप या जी.यू. पोप जैसे अधिकांश शोधकर्ताओं और तमिल के महान शोधकर्ताओं ने
जिन्होंने तमिलनाडु में कई वर्ष बिताए और तिरुक्कुरल का अंग्रेजी में अनुवाद किया
है,
उन्होंने तिरुवल्लुवर को परैयार के रूप में पहचाना है। कार्ल ग्रौल
(1814-1864) ने पहले ही 1855 तक तिरुक्कुरल
को बौद्ध पंथ की एक कृति के रूप में चित्रित किया था। इस संबंध में यह विशेष जिज्ञासा
का विषय था कि थिरुक्कुरल के लेखक तिरुवल्लुवर
को तमिल परंपरा में परैयार के रूप में पहचाना गया; जैसा कि,
संयोग से, अन्य प्रसिद्ध प्राचीन तमिल लेखकों के
मामले में था।
‘तिरुक्कुरल’ तमिल की
एक सबसे श्रद्धेय प्राचीन कृति है। ‘तिरुक्कुरल’ का निर्माण ‘तिरु’ और ‘कुरल’ दो
शब्दों को जोड़कर हुआ है अर्थात् तिरु + कुरल = तिरुक्कुरल। कुरल को दुनिया का आम
विश्वास माना जाता है, क्योंकि यह मानव नैतिकता और जीवन में
बेहतरी का रास्ता दिखलाता है। माना जता है कि बाइबल, कुरान, गीता
और रामचरितमानस की तरह कुरल का भी अनेक भाषाओं में अनुवाद किया गया है। 1730 में ‘तिरुक्कुरल’ का लैटिन अनुवाद कोस्टांज़ो बेस्ची द्वारा किया गया
जिससे यूरोपीय बुद्धिजीवियों को उल्लेखनीय रूप से तमिल साहित्य के सौंदर्य और
समृद्धि को जानने में मदद मिली।
‘तिरुक्कुरल’
तीन वर्गों में विभाजित है। पहले खंड में अरम, विवेक और
सम्मान के साथ अच्छे नैतिक व्यवहार, शुद्धाचरण को बताया गया
है। खंड दो में पारुल सांसारिक मामलों की सही ढंग से चर्चा की गई है और तीसरे
अनुभाग इन सम में पुरुष और महिला के बीच प्रेम सम्बन्धों पर विचार किया गया
है। प्रथम खंड में 38 अध्याय हैं, दूसरे में 70
अध्याय और तीसरे में 25 अध्याय हैं। प्रत्येक अध्याय में कुल
10 दोहे या कुरल है और कुल मिलाकर कृति में 1330 दोहे हैं।
भारत में कन्याकुमारी
के दक्षिणी सिरे पर स्वामी विवेकानंद शिला के पास संत तिरुवल्लुवर की 133 फुट लंबी प्रतिमा बनाई गई है, जहाँ अरब सागर,
बंगाल की खाड़ी और हिंद महासागर मिलते हैं। जिसे ‘तिरुवाल्लुवर स्टैचू फेरी टर्मिनल’ के नाम
से जाना जाता है। 30 दिसंबर, 2024 से स्वामी विवेकानंद शिला और तिरुवल्लुवर की
प्रतिमा को ‘ग्लास फाइबर फुट ओवर ब्रिज’ बनाकर जोड़ा गया है। तिरुक्कुरल के 133 फुट
लंबी प्रतिमा को 01 जनवरी, 2025 को तमिलनाडु सरकार ने ‘बुद्धि की प्रतिमा’ घोषित किया है । प्रतिमा
में (ध्यान से देखें तो तीन उँगलियाँ आकाश को इंगित करती दिखाई देती हैं ) तिरुक्कुरल
के सम्पूर्ण अध्यायों या अथिया करम का प्रतिनिधित्व मिलता है जो उनकी तीन अँगुलियाँ-
अरम, पोरूल और इबनम; अर्थात् तीन विषयों- धन, नैतिकता और
प्रेम की ओर इंगित करती हैं। तिरूकुरल के तीन भागों को धर्म, अर्थ और काम के रूप में भी माना जाता है।
क्रमश:
तिरुक्कुरल :
तिरुक्कुरल में नीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र और विदुर
नीति का किस प्रकार समावेश किया गया है, इसे भी यहाँ देखना
चाहिए। तिरुक्कुरल प्रथम भाग- तमिल भाषा के प्राचीनतम् ग्रंथों में तीन ग्रंथ ऐसे
हैं जो सर्वव्यापी और कालजयी हैं। इनके नाम इस प्रकार हैं- तिरुवासगम, तिरुमंदिरम् और तिरुकुरल। दूसरे शब्दों में कहें यह तीनों ग्रंथ क्रमश:
तमिल संस्कृति (सनातन परम्परा) के हृदय, आत्मा और तमिल जीवन
हैं। तुरुकुरल एक प्रवित्र ग्रंथ है। यह भारत के संत तिरुवल्लवर की महान कृति है।
जिसके अध्ययन से हम आन्तरिक शांति, समन्वय, स्वास्थ्य, धन, शक्ति, कृपा और शुभकामनाओं का आनन्द उठा सकते हैं। तिरुकुरल की अर्थ दृष्टि घर, समाज और राष्ट्र के अन्दर शान्ति और सुख को उजागर करती है। इसका आधार देश,
समाज, घर के आर्थिक सम्बन्ध से है। इसके अंदर
गीता का समन्वय भी दिखाई देता है ।
यह भारतवर्ष का वह काल
था जब दक्षिण भारत में लोग गलियों, चौराहों और सार्वजनिक स्थलों
पर एकत्रित होकर यह चर्चा करते थे कि सत्य और असत्य क्या है? नैतिक और अनैतिक क्या है? जातीय संवेदनाएँ उतनी गहरी
नहीं थी। यद्यपि जैन, बौद्ध जैसे सनातन परम्परा के सम्प्रदाय
उस समय अपने अस्तित्व में थे, तथापि मनुष्य का मन इतना उदार
था कि वह अपने अलावा दूसरे के मत को भी सुनने को तैयार था। तिरुवल्लवर भी अपने समय
के सभी धर्मों, सम्प्रदायों से अभिन्न थे। तिरुवल्लुवर ऋषियों द्वारा स्थापित प्रथमत:
भारतीय जीवन के तीन पुरुषार्थों की बात करते हैं- अर्थ, धर्म,
काम। उनका मानना है कि यदि मनुष्य इन तीनों को साध ले तो चौथा मोक्ष
स्वयमेव सिद्ध होता है। तिरुकुरल में यह तीन भागों में क्रमश: अर्थुप्पल, पोर्तुप्पल और कामाथुप्पल नाम से जाने जाते हैं। उनका यह भी मानना है कि
मोक्ष अनुभूति का विषय है न कि चर्चा का।
वस्तुतः दो हज़ार वर्ष पूर्व तिरुवल्लुवर के हृदय
सागर और मस्तिष्क के मंथन के फलस्वरूप निकले हुए सुचिन्तित विचार रत्न इतने
मूल्यवान हैं कि बीसवीं शताब्दी के इस भौतिक और अणु युग में भी इनका महत्व और उपयोगिता
कम नहीं हुई है और इसमें संदेह नहीं है कि यह आने वाले भविष्य का भी मार्गदर्शन
करेगी ।
तिरुक्कुरल मुक्तक काव्य होने पर भी विषयों के
प्रतिपादन में एक क्रमबद्धता लिए हुए है और विषयों की व्यापकता विषय-सूची को देखने
से ही ज्ञात हो सकती है। जबकि धर्म-कांड में ईश्वर, स्तुति,
गार्हस्थ्य, संन्यास, अध्यात्म,
नियति का बल आदि व्यक्तिगत आचारों और व्यवहारों पर विचार किया है।
अर्थ-कांड में राजनीति के अलावा जिसके अंतर्गत शासकों का आदर्श, मंत्रियों का कर्तव्य, राज्य की अर्थ-व्यवस्थाए
सैन्य आदि आते हैं, सामाजिक जीवन की सारी बातों पर विचार किया
गया है।
धर्म और अर्थ-कांड नीति प्रधान होने पर भी उनमें
कविता की सरसता और सौन्दर्य दिखाई देता है। काम-कांड में संयोग और वियोग श्रृंगार की ऐसी
हृदयग्राही छटा है जो अन्यत्र दुर्लभ है। मुक्तक काव्य की तरह जहाँ इसके एक- एक कुरल, अपने में पूर्ण हैं, वहीं सारे कांड एक सुंदर नाटक के
चलित दृश्य का भी आनंद देते हैं।
इन
नाटकीय दृश्यों में प्रधान पात्र नायक और नायिका हैं और उनकी सहायता के लिये एक सखी
और एक सखा का भी उपयोजन हुआ है। पूर्वराग, प्रथम मिलन,
संयोगानन्द, विरह-दु:ख फिर पुनर्मिलन के साथ
यह सरस कांड समाप्त होता है। दोहा छंद में तिरुक्कुरल का खूब अनुवाद हुआ है। अन्य
भाषा-भाषियों को पद्यानुवाद से मूल कुरल को कंठस्थ करने में सुगमता है। भारतीय भाषाओं और विश्व की कई भाषाओं में
तिरुक्कुरल का अनुवाद हो चुका है । विशेषत: कई अनुवाद हिन्दी में हो चुके है।
तिरुक्कुरल के प्रसिद्ध टीकाकार श्री परिमेलशगर हैं ।
‘कुरुल’ हिन्दी में दोहे के समान दो पंक्तियों का
होता है। दस दोहों या कुरुल को मिलाकर एक अध्याय बनता है। इस प्रकार सम्पूर्ण कुरुल
133 चैप्टर तथा 1330 जोड़ों या दो पक्तियों के पदों या
छंदों का है। प्रत्येक दोहा अपने आप में एक सम्पूर्ण विचार से गुंथे है। इसमें एक भी
शब्द व्यर्थ के नहीं हैं और न ही किसी प्रकार के अर्थ या भाव बोध में बाधा आती है।
प्रत्येक अध्याय एक बृहत विचार को अपने अन्दर समेटे है, यथा-
मित्रता, स्वतंत्रता, न्याय इत्यादि।
इस तरह दस दोहों ‘कुरुल’ में पूरा एक विचार
गुंथा हुआ है।
सम्पूर्ण काव्य तीन
भागों में विभक्त है। प्रथम खण्ड का शीर्षक है -अरम (नीति या आचरण) का प्रयोग तमिल
में संस्कृत के के समान होता है, जो
भारीतय पारिवारिक जीवन मूल्यों का प्रतिनिधित्व करता है, साथ
ही आत्मिक उत्थान का मार्गदर्शन करता है। दूसरा खण्ड- पोरुल (अर्थ) के ‘कुरुल’ न केवल
राजकीय अर्थ व्यवस्था बल्कि रोयल्टी, संसद , राजनीति और एलाएन्स की बात करते हैं । तीसरे खण्ड में काम (प्रेम) की बात आई
है , जिसमे विवाह, पारिवारिक जीवन,
दाम्पत्य प्रेम का वर्णन आता है। इस प्रकार तिरुकुल आदर्श और नैतिकता
की पुस्तक है। इसका तमिल साहित्य में विशिष्ठ स्थान है। इसके अन्तर्गत नैतिकता की
विभिन्न ऊँचाइयों, आत्मिक एवं आध्यात्मिक ज्ञान, पूर्ण स्वास्थ्य, अर्थ और कामयावी के विभिन्न रास्तों
का वर्णन है। यह ग्रंथ एक तरह से परिवार, माता, पुत्र, बच्चे, श्रमिक, शिक्षक, राजनेता, कलाकार और
ग्रामीण सभी के लिए समान रूप से उपयोगी है।
प्रथम खण्ड में
तिरुवल्लुवर जी ज्ञान-अज्ञान, नैतिकता-अनैतिकता की बात करते
हैं। जीवन में एक चरित्र और व्यवहार की शर्तों की बात भी सामने रखते हैं। पहले दस
छंदों में ईश्वर की प्रार्थना की गई है। ईश्वर से अटूट सम्बन्धों की बात और ईश्वर को
शान्ति का आधार, प्रसन्नता का घर और ज्ञान का भण्डार बताते
हैं। संसार के सभी ज्ञान ईश्वर में समाप्त हो जाते हैं। जीवन का लक्ष्य क्या?
उत्तर में जन्महीन मृत्यु, दर्द और पीड़ा,
पुनरागमन के बन्धन से मुक्ति है और इसका प्राप्ति ईश्वर के प्रति
पूर्ण समर्पण पर ही सम्भव है। संसार में उनसे महान कोई नहीं है जिन्होंने इस संसार
को त्याग दिया है। वे दोनों प्रकार के संसार को जानते हैं जिसमें ईश्वर प्राप्ति
में अनेक कठिनाइयाँ हैं और शरीर, मन,बुद्धि
का असहनीय कष्ट भी। वे उस संसार में जीते हैं जो शांति और आंतरिक आनन्द होता है। पंचेन्द्रियों को बस में करने का अर्थ
होता है, ईश्वर साक्षात्कार का प्रथम चरण। यह वह बीज है जो
स्वर्ग में फूल बनता है। योगी जो इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर लेता है, सचमुच में वही राजा होता है। शेष संसार दास है। तिरुववल्लुवर कहते हैं,
हमें अच्छे और बुरे के पचड़े में ज्यादा नहीं पड़ना चाहिए। अच्छाई मन की
शुद्धता है।
पारिवारिक गुण-धर्म के
बारे में बीस अध्यायों में लिखते हैं जो उपदेश सम्पूर्ण संसार के लिए उपयोगी हैं।
परिवार, व्याह, संतान, सत्कार, मीठी वाणी, कृतज्ञता,
आत्मसंयम, उत्तम चरित्र आदि के बारे में
स्पष्ट निर्देश देते हैं। योगी का सच्चा कार्य ईश्वर सेवा और साक्षात्कार है। एक गृहस्थ
जो धनार्जन करता है, उसका कतर्व्य है कि वह योगी भी हो।
गृहस्थ को सदा आत्मनिरीक्षण करते रहना चाहिए। गृहणी पति की अच्छी कोषागार होती है ,तो बच्चे अच्छे खजांची।
उनका मानाना है कि जो
व्यक्ति बात-बात में अपमानित होना महसूस करता है और दर्द, कष्टों
को सहने में अक्षम होता है, वह ईश्वर का साक्षात्कार नहीं कर
सकता। अनादर्श और अनुपयोगी बातें मूर्खता की निशानी हैं। ध्यान रखना चाहिए कि यदि
एक बार उदारता जीवन से चली गई तो उसका स्थान संकीर्णता अपने आप ले लेगी। दूसरे को
प्यार करो। संसार एक दिन तुम्हारे कदमों में होगा। तिरुवल्लुवर तेरह अध्यायों में
संन्यास के बारे में लिखते हैं। सार रूप में वे कहते हैं कि जो व्यक्ति आज सफल
दिखाई देता है, वह अपने जीवन में अति कमजोर, निरीह और दुर्बल रहा है और उस समय अपने से सम्पन्न तथा उर्जावान के सामने
निरीह रहा है। उसे दया और प्यार बाँटना कभी नहीं भूलना चाहिए। मनुष्य जैसा दिखता
है उसे वैसा नहीं मानना चाहिए बल्कि वह कैसा कार्य करता है, यह
उसकी सही पहचान होती है। एक सीधा तीर मनुष्य के सीने में दर्द पैदा करता है किन्तु
एक तिरछी बासुरी मन को अपने स्वरों से आनन्दित करती है। तिरुवल्लुवर सदा इस पक्ष
में है कि मनुष्य को परोपकार में जीना चाहिए तथा दूसरे की प्रसन्नता के लिए काम करना
चाहिए। वे दिखावे के आदर्श के लिए दु:ख और कष्ट के पक्षपाती नहीं हैं। उनके अनेक कुरुल
में संस्कृत, हिन्दी और अन्य भारतीय
भाषायों के संतों के भाव सामान रूप से
दिखाई देते जो भारतीय एकात्मता के मूल रहस्य हैं
।
तुरुवाल्लुवर
के कुछ सूत्र जो आज तमिल और हिंदी या अन्य विषयों को लेकर हो रहे संवाद भारतवर्ष
की एकात्मता के बाधक हैं उनका समाधान देते
हुए कहते हैं - ‘यदि आप पूछतें है कि सत्य क्या हो सकता है तो हम कहेंगे कि
दुष्टता रहित, दुर्भाव रहित वाणी ही सत्य है।’
(291) ‘यदि सत्य की शुद्धता होगी तो उसका अर्थ होता है कि वह
मिश्रित सत्य नहीं होगा। सत्य असत्य से ही अनदेखा किया जाता है। या किया जा सकता
है।’ (292) ‘अहिंसा सभी जीवन मूल्यों का लक्ष्य है। किसी भी
जीव की हत्या पाप है।’ (321) ‘आप आवश्यक हो तो अपने जीवन को
त्याग दे किन्तु दूसरे की हत्या न करें।’ (327) ‘ईश्वरीय अधिष्टान के प्रति
पूर्ण निष्ठा और सर्वस्व त्याग ही इस संसार के पुनरागमन से रोक सकती है।’ (331)
‘जो दिन तुम्हे बहुत ही विश्वसनीय और सत्य दिखता है वह एक चाकू के
समान है और वह तुम्हारे जीवन के एक-एक भाग को धीरे-धीरे
प्रतिदिन काट रहा है।।’ (384) ‘यह आत्मा इस शरीर से उसी तरह एक दिन उड़ जायेगा जिस तरह पिजड़ या अण्डे से
एक दिन पंछी उड़ जाता है।‘ (338) ‘मृत्यु जहाँ गहरी निद्रा है
तो जन्म उस गहरी नीद से जागरण है।’ (339)
मुझे
विश्वाश है संत तुरुवल्लुवर की दिव्यात्मा और उनके ‘कुरुल’ हमारे उन राजनेताओं और तथाकथित लिबरल और सेक्युलर हिन्दुओं को अवश्य दृष्टि
, मति और गति देंगे जो आज भी उत्तर-दक्षिण भूगौलिक रचना और तमिल -संस्कृत -हिंदी भाषाओं
को लेकर राष्ट्र को ही नहीं तो विश्व को भी भ्रमित करने में सफलता और संतोष
प्राप्त करने का भ्रम पाले हुए हैं ।