‘अज्ञेय’ ‘अज्ञेय’ की दृष्टि में
किसी का सत्य था,
मैंने संदर्भ में जोड़
दिया ।
कोई मधुकोष काट लाया
था,
मैंने निचोड़ लिया ।
किसी की उक्ति में
गरिमा थी
मैंने उसे थोड़ा-सा
संवार दिया,
किसी की संवेदना में
आग का-सा ताप था
मैंने दूर हटते-हटते
उसे धिक्कार दिया ।
कोई हुनरमन्द था,
मैंने देखा और कहा, ‘यों!’
थका भारवाही पाया -
घुड़का या कोंच दिया, ‘क्यों!’
किसी की पौध थी,
मैंने सींची और बढ़ने
पर अपना ली।
किसी की लगाई लता थी,
मैंने दो बल्ली गाड़
उसी पर छवा ली ।
किसी की कली थी
मैंने अनदेखे में बीन
ली,
किसी की बात थी
मैंने मुँह से छीन ली
।
यों मैं कवि हूँ, आधुनिक
हूँ, नया हूँ,
काव्य-तत्त्व की खोज
में कहाँ नहीं गया हूँ ?
चाहता हूँ आप मुझे
एक-एक शब्द
पर सराहते हुए पढ़ें ।
पर प्रतिमा..अरे, वह
तो
जैसी आप को रुचे आप
स्वयं गढ़ें ।
(नया कवि आत्म-स्वीकार : अज्ञेय)
अज्ञेय का बचपन- अज्ञेय बचपन में कैसे थे - “बचपन में हठी ऐसे
रहे कि अपना माथा पक्का करने के लिए कुर्सी की पीठ पकड़कर बार-बार यों उससे टक्कर
मारते हुए तब माथा पक्का किया। इस पक्के माथे से उन्होंने मास्टर होकर न जाने कितनों
को टक्कर मारी और पक्के सिद्ध हुए। नालंदा की अमराई में एक डाक-बंगला
था- हीरानंद शास्त्री उसमें रहे थे- अज्ञेय का शरारती बचपन वहाँ भी रंग लाया।”
“नालंदा में ही एक पुस्तक
ऐसी मिली कि उसमें ‘बारूद’ बनाने की विधियाँ भी दी हुई थीं और उसी की सहायता से
धीरे-धीरे गंधक और शोरा सब किस्तों में खरीद कर बारूद वगैरह बनाना शुरू किया। घर
पर भोजन बनाना-मिठाइयाँ बनाना-पाक विद्या में गति प्राप्त की तथा आतिशबाजी बनाना
भी सीखा।”
“ सन् 1921-22 का गाँधी युग। गाँधी जी का सत्याग्रह आंदोलन चला। इस आंदोलन का बालपन पर
प्रभाव पड़ा और अँग्रेजी शिष्टाचार के प्रति ‘गुड मार्निंग, गुड
इवनिंग’ के प्रति विरोध के बीज पनपे। लेकिन उनके घर तो पश्चिमी अदब-कायदे के
अँग्रेजी दाँ लोग भी आते थे- उनसे ‘नमस्कार’ शुरू किया। गाँधी के प्रभाव में
विदेशी कपड़ों का बहिष्कार। अज्ञेय ने बालपन से ही घर पर अपने विदेशी कपड़ों की होली
जलाई।”
अज्ञेय के स्वयं के
शब्दों में -“ लड़ाई-झगड़ा करके स्कूल छोड़कर चला आया, अलग-अलग प्रदेशों में
रहने के कारण भाषा बदलती रही। बोलना लखनऊ में सीखा। फिर कश्मीर चले गए और फिर
बिहार।”
“इन तरह हिन्दी उनके लिए सीखी हुई
भाषा रही। दक्षिण में वे कोरीविडी तथा ऊटकमण्ड में रहे- अँग्रेजी सीखी। पढ़ाई कम
हुई इस तरह गढ़ा ज्यादा। इसका लाभ यह हुआ कि ‘भ्रष्ट भाषा’ से दूर रहे। आकर-ग्रंथों
से भाषा का संस्कार पाया।”
“ पिता का कड़ा
अनुशासन भी जीवन-भर काम आया। पिता से पुत्र की टकराहट भी कम नहीं रही। पिता दौरे
पर जाते तो उनके साथ कभी-कभार तो अकेले अज्ञेय जाते। अकेले घूमने की प्रवृत्ति और
अपनी आजादी का आनंद। हर जगह वे नारद-भाव से घूमे-रमे और रहे। आठ भाई, दो-बहिनें,
माँ का स्वास्थ्य खराब तो घर का हर काम अकेले करना ही था। अज्ञेय
में मौत के प्रति 'सखा-भावÓ की मनोभूमिका
का रहस्य भी यही रहा कि वे अकेलेपन में रमे रहे।”
“ बचपन 1911
से 15 तक लखनऊ में रहे और तुतलाना हिंदी में शुरू किया। संस्कृत-मौखिक
परंपरा से शिक्षा की आरंभ 1915 से 1919
में स्कूली शिक्षा में पिता हीरानंद शास्त्री को विश्वास न था। घर पर ही संस्कृत-अँग्रेजी-फारसी
की शिक्षा मिली।”
“कुल परंपरा से मेरी
पढ़ाई रटन्त से आरंभ हुई : गायत्री-मंत्र और अष्टाध्यायी के साथ-साथ मुझे अपने
वयोवृद्ध गुरु की स्नेह भरी पंडिताऊ गालियाँ भी अभी तक याद हैं। लेकिन
प्रबुद्ध-चेता पिता ने ‘स्वौजसभौट्छष्टाभ्यांभ्यस् डोसाम्सडिओस्मुप’ की रटाई के
साथ-साथ अँग्रेजी की मौलिक शिक्षा भी आरंभ करवा दी और अक्षर ज्ञान से पहले ही मैं
दो-ढाई सौ अँग्रेजी शब्द सीखकर वह भाषा वैसे बोलने लगा था, जिसे
‘फर्र-फर्र’ अँग्रेजी कहते हैं।
अज्ञेय नाम कैसे पड़ा-
“ सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय जन्मजात विद्रोही और देशभक्त क्रांतिकारी।
उनके बचपन का एक नाम ‘सच्चा’। इस नाम को वे ‘सत्य’ नाम से सुरक्षित रखने में कभी
नहीं चूके। लेखों-टिप्पणियों के नीचे कभी ‘वा’ कभी ‘वत्स’ कभी ‘वत्सल’ कभी ‘वात्स्यायन’।
क्रांतिकारी-जीवन में वे छिपकर कभी ‘साइंटिस्ट’ कभी ‘मुहम्मद बख्श’ कभी ‘श्री
गजानन’ कभी ‘डॉ. अब्दुल लतीफ’ कभी ‘समाज द्रोही नंबर’ आदि न जाने कितने छद्म नामों
से लिखते रहे। ललित-निबंध ‘कुट्टि चातन्’ नाम से लिखे और रचनात्मक साहित्य-जैनेन्द्र
कुमार द्वारा दिए गए नाम ‘अज्ञेय’ से। पत्रकारिता में हमेशा ‘सच्चिदानंद
वात्स्यायन’ या ‘स.ही. वात्स्यायन’ का प्रयोग किया। अज्ञेय एक उन्मुक्त-विशाल किरीटी-तरु
की तरह स्वाधीन जिए और जीवन-भर ‘स्वाधीनता’ को जीवन का सर्वोच्च मूल्य माना। इस
तरह वह बाल-विद्रोही,
सिपाही-विद्रोही, शिल्पी-चित्रकार, संपादक-आलोचक, व्याख्यता-राजनीतिक
चिंतक, कर्मठ-श्रमरतमानक, प्रकृति और
सागर के अद्भुत प्रेमी, चित्रकार, साहित्य
के इतिहास-समीक्षक, भाषा के प्रेमी, यायावर
सप्राण छाया-कल्पक न जाने क्या-क्या रहे।”
अज्ञेय का क्रांतिकारी
जीवन- “विद्यार्थी काल से ही वह 'क्रांतिकारी आंदोलन’ का अंग
रहे। उनका क्रांतिकारियों से सम्पर्क रहा।
कॉलेज में सहपाठियों से राजनीति पर चर्चा और नीति बनाकर क्रांति से जुड़ने की मानसिक
तैयारी। उन दिनों लाला लाजपतराय का पंजाब में व्यापक प्रभाव था। युवाओं में
भगतसिंह की प्रसिद्धि। उनसे प्रभावित होकर विद्यार्थियों ने एक दल बनाया। गुप्त कार्य
शुरू किए। पर्चें भी छापकर बाँटना प्रचार का अंग रहा। क्रांति होनी चाहिए, इस मनोभाव के कारण एक दिन ऐसा आया कि भगतसिंह दल के कुछ सदस्यों से परिचय
हो गया। ये सदस्य उन दिनों ‘हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन या एसोसिएशन’ के सदस्य
नाम से जाने जाते थे। सदस्यगण उन दिनों भगतसिंह को जेल से छुड़ाने की योजना बना रहे
थे। यह बड़ा काम था लेकिन बेहद कठिन जोखिमों से भरा। भगतसिंह को छुड़ाकर लाने के बाद
छिपाकर रखने की व्यवस्था बड़ी चुनौती थी-
“ इन सबके सिलसिलें
में उन लोगों की बात मेरे साथियों से और मुझसे हुई थी और उन्हीं के द्वारा फिर
मेरा आजाद (चन्द्रशेखर आजाद) से परिचय हुआ। भगवतीचरण बोहरा से परिचय हुआ। और जो
भगतसिंह को छुड़ाने की योजना थी उसका निर्देशन चंद्रशेखर आजाद को सौंपा गया था। वही
योजना बना रहे थे और उन्होंने मुझे काम सौंपा था। उस ट्रक को चलाने का जिसमें
भगतसिंह को छुड़ाकर ले जाने का प्रयत्न किया जाएगा।”
“अज्ञेय की गिरफ्तारी
तो अमृतसर में हुई। वे वहाँ पर तरह-तरह के छद्म वेश धारण करके रहे। जहाँ गिरफ्तारी
हुई वहाँ वे मुसलमान कारीगर बनकर, इलेक्ट्रीशियन का रूप धारण करके गुप्त वास
करते थे। इलेक्ट्रीशियन बनकर अज्ञेय सुबह घर से निकल जाते और शाम ढले घर वापस आते।
कभी-कभीर अमृतसर में एक प्रसिद्ध दुर्गामाता मंदिर के पास भी समय गुजारते। उसके
बाद जलियाँवाला बाग की गली में एक कमरा लिया। वहाँ ‘साइन बोर्ड पेंटर’ बनकर रहे-और
कलाकर अज्ञेय ने कुछ साइन बोर्ड पेंट किए भी। थोड़े से पैसे भी कमाए। शहर के बाहर ‘इलेक्ट्रीशियन’
बनकर और शहर में दूसरी जगह ‘साइन बोर्ड पेंटर’ बनकर। कुछ समय बाद एक मस्जिद में भी
रहे और इमाम से अंतरंग होकर। वहाँ रहकर खाली कारतूसों तथा खराब हथियारों को ठीक कर
कारखाना चलाने का मन भी बनाया-पिस्तौलें, रिवाल्वरें इकट्ठी
भी की गईं।”
रचनाकार अज्ञेय- “ जिन
पाठकों ने उनकी कहानियाँ,
कविताएँ-निबंध कभी भी पढ़े हैं- वे जानते हैं कि अज्ञेय अग्निधर्मा-आकाशधर्मा
सर्जक और चिंतन का नाम है- उनकी सार्वजनिकता कहीं भी छिपी नहीं रह सकती- चाहे वे ‘
शेखर : एक जीवनी’ जैसा उपन्यास लिखे-या विद्रोही तेवर की कहानियाँ-कविताएँ।
उन्होंने कविताओं में अपना ‘ आत्मपरिचय’ दिया है। ‘इस तरह मैं कवि हूँ, आधुनिक हूँ, नया हूँ। यह भी कहा है- ‘मैं वह धनु हूँ जिसे साधने में प्रत्यंचा टूट गयी
है स्खलित हुआ है बाण, जदपि ध्वनि दिग-दिगंत में फूट गयी है।’
अज्ञेय का ‘हियहारिल’ भी अनथक पंखों की चोटों से विचारों की हलचल उत्पन्न करता रहा
है।”
अँग्रेजी में भी कुछ
हलकी कविताएँ और तुकबंदियाँ रट ली थीं- हमारा दुर्भाग्य था कि तब हिंदी में
बाल-साहित्य लगभग नहीं था। तो अँग्रेजी तुक से प्रेरणा पाकर अंग्रेजी के सहारे ही
लोगों को चिढ़ाने वाली कुछ तुकबंदियाँ भी की थीं और एक-आध
बार बड़ों की इस अवमानना के कारण दंड भी पाया था। स्पष्ट है कि इन्हें कविता नहीं का
जा सकता, लेकिन ‘वागर्थसम्पृक्ति’ के ज्ञान के बाद अगला कदम
तो छंद-परिचय ही है।” (आत्मपरक मेरी पहली कविता, पृ. 21) चार वर्ष के अज्ञेय ने ‘नाचत है भूमिरी’ गायी
जिसमें भँवरी ही नहीं सारी भूमि नाच रही है। ताल और छंद पर खुद भी नाच रहे हैं।
सृष्टा की शक्ति को, शब्द की शक्ति को पहचान लिया।
“ वे कभी यह नहीं भूल
सके कि शब्द शक्ति का रूप है और शब्द का सार्थक प्रयोग सिद्धि। छठे वर्ष की बात है
बहुत कुछ जाना-सीखा। कविता से भी परिचय बढ़ा और ग्यारहवें वर्ष में एक और टेनीसन की
कविता से परिचय हुआ तो दूसरी ओर असहयोग के पहले दौर से और तत्कालीन ‘प्रिंस ऑफ
वेल्स’ को भारत यात्रा के बहिष्कार के आंदोलन से।” इसी समय स्वामी दयानंद की गंगा को
लक्ष्य करके लिखी गई कविता-उद्बोधनात्मक पढी-
‘गंगा उठो कि नींद में सदियाँ गुजर गयीं,
देखो तो सोते-सोते ही बरसें किधर गयीं।’
वे लिखते नहीं - “इन सबकी सम्मिलित प्रेरणा से
मैंने भी गंगा की एक स्तुति लिखी थ जो अनंतर गंगा मैया को ही भेंट चढ़ गयी। वह मुझे
स्मरण होती तो पहली कविता के नाम पर कदाचित् उसी का उल्लेख होता। किंतु एक तो यह
अँग्रेजी में थी,
दूसरे कविता याद न होने पर भी इतना तो याद है कि इसके छंद पर,
भाषा पर, शैली पर, टेनीसन
की गहरी छाप थी।” सन् 1919 में पिता के साथ नालंदा आए। इसके
बाद 1925 तक पिता के साथ रहे। शास्त्री जी नालंदा से पटना आए
तो काशी प्रसाद जायसवाल, राखालदास बनर्जी से परिवार का परिचय
हुआ। यहीं अज्ञेय के मन में अँग्रेजी से विद्रोह की भूमिका तैयार हुई। राखालदास के
संपर्क में आकर बंगला सीखी और बंगला की तमाम पुस्तकें पढ़ डालीं।
“ सन् 1921
से 25 तक ऊटकमंड में रहे। सन् 1921 में
उडिपी के मध्वाचार्य के द्वारा इनका यज्ञोपवीत संस्कार हुआ। इसी मठ के पंडित ने छह
महीने तक तमिल तथा संस्कृत की शिक्षा दी। यही वह समय है जब ‘भणोत्’ से ‘वात्स्यायन’
में परिवर्तन हुआ। इसी मठ में पहली बार गीता का अध्ययन किया और अन्य धर्मों के
ग्रंथ पढ़े। टेनीसन के साथ वर्ड्सवर्थ, शेक्सपियर, लांगफेलो, हाल्ट हिटमैन गोडस्मिथ, तुर्गनेव, ताल्स्ताय को पढ़ा। अज्ञेय ने लिखा है- “ इन्हीं
दिनों पिता के साथ ऊटकमण्ड चला गया। मैं स्वभाव से ही एकांतप्रिय था और
परिस्थितियाँ भी अकेला रखती आयी थीं- यह ऊटकमण्ड से तीन मील दूर फर्नहिल नामक स्थान
के एक बँगले में रहकर तो मानो एकांत में डूब ही गया-यद्यपि प्रकृति के स्पंदन भरे
एकांत में, जिससें इस बात की चिंता नहीं थी कि परिवार के
बाहर कोई भी हमारा एक शब्द भी समझने वाला न था, न हम किसी का
एक भी शब्द समझते थे। इसी एकांत काल में मैंने पहले चित्र-संग्रह करना शुरू किया, मुख्यतया
अवनीन्द्रनाथ ठाकुर और उनके नव-बंग संप्रदाय की शिष्य परंपरा के चित्र-और उनके
एलबल बनाये। यहाँ सहसा पाया कि मैंने एक हस्तलिखित पत्रिका निकाल दी है-‘आनंद बंधु’
और इस पत्रिका में पहले पृष्ठ पर कविता से लेकर अंत में संपादकीय के बाद चित्र
परिचय तक सब कुछ था- जैसा कि उससे पहले भी स्वर्गीय महावीर प्रसाद द्विवेदी के
संपादकत्व में ‘सरस्वती’ में हुआ करता था । पहले अंक में तो कविता के नाम पर गुप्त
जी की ‘नीलाम्बर-परिधान हरित तट पर सुंदर है’, वाली स्वदेश
वंदना दी गयी थी, पर दूसरे अंक से समझ में आने लगा कि इस प्रकार
उद्धृत सामग्री देना संपादन कला के विरुद्ध है। (आत्मपरक, पृ.
22)
आपके मन में प्रश्न
उठ सकता है कि हिन्दी कविता के प्रति राग या चस्का या आकर्षण कैसे पदा हुआ? इसका
उत्तर अज्ञेय से ही सुनिए-“इन्हीं दिनों गुप्त जी की कविता के अतिरिक्त मुकुटधर
पाण्डेय, श्रीधर पाठक, हरिऔघ, रामचरित उपाध्याय और आरा के प्रेमयोगी देवेन्द्र की कविता से परिचय हुआ।
इस सबसे छंदों के बारें में कौतूहल बढ़ा। रोला और वीर तो हिन्दी के अतिपरिचित छंद
हैं, जिनसे कौन हिंदी कवि बचा होगा, और
गुप्त जी (मैथिलीशरण गुप्त-अज्ञेय के गुरु-स्थानीय)की कृपा से हरिगीतिका और गीतिका
पर भी हाथ साफ करने का साहस हुआ। लेकिन कुछ संस्कृत छंदों ने भी आकृष्ट किया। ‘हरिऔध’
की यशोदा का विलाप पढ़कर मैंने मालिनी छंद में कई एक विलाप लिखे- ‘राधा का
प्रवंत्स्यपतिका, वीर-वधु का हत्यादि।’ मंदाक्रांता तब उतना अच्छा नहीं लगा था
जितना बाद में लगने लगा, पर 'शिखरणी,
पर मैं मुग्ध रहा विशेषकर पिता जी के 'महिम्नस्तोत्रÓ
के कारण। लेकिन ये छंद कभी मुझसे सधे नहीं, और
पीछे बरवै के आकर्षण में अपनी असफलता का दु:ख भी भूल गया।”
पिता जी ‘हिंदुस्तानी’
से चिढ़ते थे। वे संस्कारवान हिंदी के पक्षपाती थे और पिता के इन विचारों का प्रभाव
अज्ञेय की मानसिकता पर जीवनपर्यंत रहा। एक गद्य-पद्यमयी रचना पर रायबहादुर हीरालाल
ने अज्ञेय को पुरस्कृत किया। शब्द को ब्रह्म मानने वाले अज्ञेय की कविता ‘शब्द और
सत्य’ के साथ बात समाप्त करता हूँ-
“ यह नहीं कि मैं ने
सत्य नहीं पाया था
यह नहीं कि मुझ को
शब्द अचानक कभी.कभी मिलता है ,
दोनों जब-तब सम्मुख
आते ही रहते हैं।
प्रश्न यही रहता है ,
दोनों जो अपने बीच एक
दीवार बनाये रहते हैं
मैं कब, कैसे, उनके
अनदेखे
उसमें सेंध लगा दूँ
या भर कर विस्फोटक
उसे उड़ा दूँ।
कवि जो होंगे हों, जो कुछ
करते हैं, करें,
प्रयोजन मेरा बस इतना
है ,
ये दोनों जो
सदा एक-दूसरे से तन कर
रहते हैं,
कब, कैसे,
किस आलोक-स्फुरण में
इन्हें मिला दूँ-
दोनों जो हैं बन्धु
सखा, चिर सहचर मेरे।
(दमोती बाग नयी
दिल्ली 15 जून, 1957)
डॉ उमेश कुमार सिंह
7389814071
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