Thursday, 16 May 2024

तुम कहती हो चुप रहता हूं

तुम कहती हो चुप रहता हूँ
सब सुनता हूँ सब सहता हूँ 
कलियों सा कोमल लगता हूँ 
चन्दन सा शीतल रहता हूँ 
पर सोचो चाहे कुछ भी तुम
अंत:सलिला सा सब में बहता हूँ

कुछ हँस लेता हूँ कुछ गा लेता हूँ 
इससे सब का मन बहला देता हूँ 
किंचित-सा रस उन सबसे लेता हूँ 
अपना सरबस उन सब को देता हूँ 
पर सोचो चाहे कुछ भी तुम 
विषपान करूँ पर अमृत ही देता हूँ

पहले भी कुछ बोला करता था 
अब भी कुछ बोला करता हूँ 
तब शब्दसहित बोला करता था 
अब शब्दरहित बोला करता हूँ 
पर सोचो चाहे कुछ भी तुम 
अन्त्यज की पीड़ा  ही बोला करता हूँ

शब्दों का मौन कहाँ जाता 
हंशी सितारों की वह लता
चन्द्र रश्मि बन झर जाता 
घिरी घटाओं में बिजली बन 
वर्षा संग धारा में बह जाता
पर सोचो चाहे कुछ भी तुम 
पनिहारिन गागर डोला करता हूँ

“तूफान नहीं मलयज बन बिखरो 
दावानल आगोश भरो पल ठहरो 
सिसकी शिशु-वन की सुन लो 
सबल कलम से कंटक चुन लो” 
पर सोचो चाहे कुछ भी तुम 
तुम्हारे इन संकल्पों को ही पूरा करता हूँ

१२/५/१८

Monday, 6 May 2024

व्यक्तित्व विकास एवं चरित्र निर्माण प्रश्नोत्तरी (दो)

 

 

व्यक्तित्व विकास एवं चरित्र निर्माण

 

इकाई -एक

व्यक्तित्व विकास- (शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक विकास) अर्थ , अवधारणा , व्यक्तित्व विकास के कारक तत्व।

चरित्र निर्माण (व्यक्तिगत एवं राष्ट्रीय चरित्र) अर्थ, अवधारणा ,चरित्र के कारक तत्व तथा चरित्र निर्माण के साधन।

 

 

इकाई एक ()

व्यक्तित्व विकास

 

ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै । तेजस्वि नावधित्मस्तु । माँ विद्वीषावहै ।

ॐ शांति: शांति: शांति:

             

 

1.       जिज्ञासा - व्यक्तित्व विकास का अर्थ क्या है ?

        समाधान -  व्यक्तित्व विकास अर्थात् व्यक्ति का शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक विकास । दूसरे शब्दों में  कहें तो व्यक्तित्व का समग्र विकास, सर्वांगीण विकास ।

 

2.       जिज्ञासा -  व्यक्तित्व क्या है ? इसका विकास किस तरह से होता है ?

समाधान - शास्त्र कहते हैं अव्यक्त ब्रह्म ने एक कामना की सोऽकामयत एकोऽहं बहुस्याम प्रजायेय।परिणाम स्वरूप सृष्टि का निर्माण हुआ। इस सृष्टि में ब्रह्म स्वयं अनुस्यूत होकर व्यक्त हुआ और व्यक्ति बना । अर्थात् ब्रहम तत्व ने अपने में से ही समग्र सृष्टि का सृजन किया । वही सृष्टि बन गयी व्यक्तित्व इसी सृष्टि तत्व का विस्तार है । व्यक्ति के व्यक्तित्व के अन्दर  शरीर, प्राण, मन, बुद्धि, चित्त का स्वरुप पाता गया

 

3.       जिज्ञासा -  व्यक्तित्व के समग्र विकास में समष्टिगत विकास की क्या भूमिका है ?

समाधान -  व्यक्तित्व के समग्र विकास में समष्टिगत विकास एक महत्वपूर्ण पहलू है ।व्यक्तित्व विकास या सर्वांगीण विकास  का अर्थ है, समाज से अपनत्व का बोध । समाज के प्रति भक्ति ।  सिद्धांतों की स्पष्टता ।  भ्रमों के निवारण की समुचित क्षमता । दायित्व बोध और परिणाम मूलक कार्य करने का स्वभाव । व्यक्ति से समष्टि का अंतर्संबंध बने  

 

4.       जिज्ञासा -  व्यक्ति से समष्टि तक के विकास के कितने पायदान हैं ?

समाधान- भारतीय परम्परा के अनुसार विकास के सात पायदान हैं - व्यक्ति से परिवार, परिवार से समाज, समाज से राष्ट्र, राष्ट्र से विश्व, विश्व से सम्पूर्ण चराचर श्रृष्टि , चराचर श्रृष्टि से परमेष्टि की एकात्मता ।

 

5.       जिज्ञासा - व्यक्ति से समष्टि तक के विकास में भारतीय दृष्टि क्या हैं ?

समाधान - भारतीय दृष्टि सनातन एवं वैदिक है । इसका मानना है कि चित्त, मन, बुद्धि, अहंकार, ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रिया, पंच तन्मात्रा, पंचमहाभूत आदि की उत्पत्ति समष्टि के विकास के साथ ही हुई है । उसी में से सूर्य, वायु, पृथ्वी, जल आदि बने। उसी में से वृक्ष, वनस्पति, पर्वत, अरण्य, मनुष्य बने। इन सबमें वह आत्मतत्त्व स्वयं अनुस्यूत ही है। स्वयं के इन विभिन्न स्वरूपों का सृजक भी वह स्वयं ही है । इसीलिये यह सम्पूर्ण सृष्टि मूल रूप में एक है और आत्मतत्त्व का ही विस्तार है । इसी लिए व्यक्ति के अंदर जो भी है वही सब कुछ समष्टि में है ।यत पिंडे तत ब्रहामंडे

 

6.       जिज्ञासा - भारतीय दृष्टि में व्यक्तित्व विकास की अवधारणा क्या है ?

समाधान -  ‘व्यक्तित्त्व’ के मूल में ‘व्यक्ति’ शब्द है ‘व्यक्ति’ के मूल में ‘व्यक्त’ शब्द है।

 

7.       जिज्ञासा - ‘व्यक्त’ का अर्थ क्या है ?

समाधान - ‘व्यक्त’ का अर्थ है किसी अदृष्ट (न देखने योग्य), अनाकलनीय (आकलन न करने योग्य), अचिन्त्य ( चिंतन न करने योग्य) तत्त्व का दृष्ट, चिन्तनीय आकलनीय प्रकट स्वरूप ब्रह्म या आत्मतत्त्व अदृष्ट, अस्पर्श्य, अश्रव्य, अविचार्य, अनाकलनीय तत्त्व है। अर्थात् उसे हम देख नहीं सकते, सुन नहीं सकते, छू नहीं सकते, चख नहीं सकते, सूंघ नहीं सकते, उसके स्वरूप को मन से या बुद्धि से जान नहीं सकते, फिर भी वह है। अपने दायरे में नहीं है तो भी वह है।

 

8.       जिज्ञासा - ‘व्यक्ति’ क्या है ?

समाधान - व्यक्त आत्मतत्त्व ने अपने आपको इस सृष्टि के रूप में प्रकट किया । उसी रूप में वह हमारे लिये आकलनीय बना । इसलिए यह सम्पूर्ण सृष्टि उस आत्मतत्त्व का प्रकट अर्थात् ‘व्यक्त’ रूप है। यह ‘व्यक्त’ रूप आत्मतत्त्व ने प्रकृति के साथ मिलकर निर्मित किया । इसलिए यह ‘व्यक्ति’ है

 

9.       जिज्ञासा - क्या व्यक्तित्व जड़ -चेतन सभी में है ?

समाधान - ‘व्यक्ति’ की भाववाचक संज्ञा ‘व्यक्तित्त्व’ है । इस अर्थ में व्यक्तित्त्व जड़ -चेतन सभी का होता है । इसीलिये भारतीय ज्ञान परम्परा ने जड़-चेतन के अस्तित्व को स्वीकार करते हुए जीव मात्र का आदर करना सिखाया है 

 

10.   जिज्ञासा - भारतीय शिक्षा दृष्टि क्या है ?

 समाधान - अंग्रेजों की अवधारणा को लेकर चली शिक्षा नीति ने पाठ्यक्रम से भारतीय ज्ञान परम्परा को हटाया । जब की      भारतीय शिक्षा दृष्टि यह है कि विद्यार्थी के जीवन का समग्र विकास हो, उसके व्यक्तित्व का समग्र मूल्यांकन हों, उसके जीवन             में जीवन का सचमुच में बोध हो  

 

11.   जिज्ञासा - व्यक्तित्व विकास में भारतीय और पश्चिम की दृष्टि में अंतर क्या है ?

समाधान - भारतीय में विकास का चिंतन समग्रता का (integrated) है, इसमें शरीर-मन-बुद्धि-आत्मा चारों का संतुलित              विकास अपेक्षित है । भारतीय व्यक्तित्व के विकास की दृष्टि आनंदमय कोश तक जाती है ।  जब की पश्चिम के विकास की       दृष्टि शरीर, मन और बुद्धि तक सीमित होकर केवल भौतिक सुख का निर्माण करने में सहायक है । पश्चिमी चिंतन      (compartmental) टुकड़ों (खंड -खंड) में है

 

12.   जिज्ञासा - विद्यार्थी के समग्र विकास में प्रथम चरण क्या है ?

समाधान - दृष्टिकोण का विकास । विद्यार्थी की धारणा को स्पष्ट करना होगा की वह शिक्षण संस्थानों में मनोरंजन या मात्र सूचानाओं को प्राप्त करने नहीं आया है, अपितु गंभीर सिद्धांत और सिद्धता के लिए आया है । इसलिए अपने जीवन के एक-एक दिन का सदुपयोग कैसे करूं यह दृष्टि निर्मित हो । इसके लिए उसे यह भी समझना होगा

 

13.   जिज्ञासा - क्या व्यक्तित्व विकास और पर्सनेलिटी डेवलपमेंट एक ही अर्थ देते हैं ?

समाधान - नहीं । विकास का पश्चिमी माडल ‘पर्सनेलिटी डेवलपमेंट’ व्यक्तित्व विकास से सर्वथा भिन्न और बाह्य विकास तक सीमित है । इस डेवलपमेंट में अच्छा कैसे बोलना, अच्छे कपड़े कैसे पहनना अच्छा कैसे दिखना ? इसके साथ-साथ उसकी चाल- दाल, हाव-भाव प्रभावी कैसे बनाना ? जैसे बिन्दुओं को बताया सिखाया जाता है । यह किसी नौकरी में (इन्टरव्यू) मौखिकी में सहायक हो सकता है किन्तु जीवन निर्माण में नहीं ।

 

14.   जिज्ञासा - शारीरिक विकास क्या है ?

समाधान -  जीवन के श्रेष्ठ उद्देश्य, स्वस्थ मन, बुद्धि, योजना और कौशल आदि सभी गुणों का आधार स्वास्थ्य तथा शारीरिक सुदृढ़ता है । व्यक्ति की अपनी चुस्ती,फुर्ती , स्थैर्य , सामूहिक नेतृत्व क्षमता, सामूहिक अनुशासन का भाव आदि के लिए शरीर स्वस्थ होना आवश्यक है ।

 

15.   जिज्ञासा - मानसिक एवं बौद्धिक विकास क्या है ?

समाधान - जिस तरह मनुष्य का विकास प्राकृतिक रूप से होता है तथापि उसे स्वस्थ बनाए रखने के लिए प्रयत्न करना पड़ता है, उसी प्रकार मन और बुद्धि के विकास के लिए भी प्रयत्न करना पड़ता है । स्वाध्याय, चिंतन, निरंतर अभ्यास से वैदिक ज्ञान परमपरा और आधुनिक वैज्ञानिक तकनीक का उपयोग करते हुए दोनों का विकास होता है । मन के ऊपर जब इन्द्रियां प्रभावी ना हों और मन तथा चित्त का समन्वय बन जाए तब उसे मानसिक और बौद्दिक विकास कहते हैं। 

 

 

16.   जिज्ञासा - भावनात्मक विकास क्या है ?

समाधान - भावनात्मक विकास में ह्रदय प्रधान होता है । बुद्धि हर समय सही निर्णय नहीं लेती और इन्द्रियों के माध्यम से गलत निर्णय कर लेता है, ऐसे समय में ह्रदय की भूमिका प्रधान होती है । ईश्वर प्रणिधान और तात्कालिक परिस्थियों से बिना विचलन के बुद्धि को भी एक तरफ रख कर जो निर्णय लिए जाते हैं उन्हें भावनात्मक निर्णय कहते हैं । माता-पिता , देश -राष्ट्र, संस्कृति और धर्म, इतिहास - महापुरुष , मानवता और परोपकार आदि में भावनात्मक सम्बन्ध प्रभावी होते हैं । यहाँ बुद्धि पीछे रहा जाती है अर्थात तर्क वितर्क नहीं होता । इसमें आस्था और अस्मिता आगे रहती है ।

 

17.   जिज्ञासा - पंचकोशीय अवधारण क्या है ?

समाधान - मनुष्य के शरीर के अन्दर पांच कोशों की कल्पना की गई है । इन्हें क्रमशः अन्नमय कोष, प्राणमय कोष, मनोमय कोष, विज्ञानमय कोष और आनंदमय कोष कहते हैं । विद्यार्थी के व्यक्तित्व विकास के लिए भारतीय ज्ञान परंपरा में इस पंचकोषीय अवधारणा का विकास आवश्यक माना गया है । इसे क्रमशः शरीर, मन, बुद्धि, (आत्मा) चित्त से चिति तक के स्वरूप का विकास निर्भर करता है ।   

 

18.   जिज्ञासा - पंचकोशीय अवधारणा में षडपदी क्या है ?

 समाधान - व्यक्तित्व के समग्र विकास में व्यक्ति से लेकर समष्टिगत विकास को षडपदी कहा जाता है । कहीं - कहीं इसे सप्तपदी भी कहते हैं, जो विकास के इस क्रम से जानी जाती है - (i) व्यक्ति से परिवार, (ii)  परिवार से समाज, (iii) समाज से राष्ट्र , (iv) राष्ट्र से विश्व (v)  विश्व से ब्रह्माण्ड (vi) ब्रह्माण्ड से अनन्त ब्रह्माण्ड नायक से एकात्म होनी की यात्रा  ।इसे विकास क्रम में ‘नर से नारायण’ की यात्रा भी कहा जाता है ।

 

19.   जिज्ञासा -  व्यक्तित्व विकास के कारक तत्व कौन से हैं ?

समाधान -  व्यक्तित्व विकास के कारक तत्व इस प्रकार हैं -

(क ) व्यक्ति आधारित कारक तत्व - (i) आस्था- समाज, राष्ट्र, संस्कृति, महापुरुषों एवं सद्ग्रंथों के प्रति श्रद्धा भाव ।  (ii) आतंरिक गुण- संयम, नैतिकता, परोपकार, आडम्बर शून्यता, मितव्ययता आदि ।  (iii) अन्दर की पूर्णता का बोध- स्व का बोध, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान, समर्पण आदि ।

(ख ) अन्य बाह्य कारक तत्व -  (i) शिक्षा के सिद्धांत, व्यवहार एवं नीति निर्धारण में स्वायत्तता ( ii) शिक्षा के परिणाम और व्यवहार में एकरूपता (iii) भौतिकता, वैज्ञानिकता, आधुनिकता और आध्यात्मिकता में समन्वय ।  (iv) शिक्षा में जीवन जीने की कला की उपस्थिति  (v) स्वतंत्र अस्तित्व (vi) आत्मनिर्भरता (vii) शैक्षिक परिवार की भावना- विद्यार्थी, प्राचार्य, आचार्य और कर्मचारियों में समन्वय एवं आत्मीयता (vii)  विषय आधारित नहीं विद्यार्थी आधारित शिक्षा । (viii)  सैद्दांतिक के साथ व्यवहारिक पाठ्यक्रम की विषय वस्तु ।

                                

20.   जिज्ञासा - शिक्षा में एकात्मकता और अखंडता क्यों ?

समाधान -  डॉ राजेन्द्र प्रसाद का कथन है की - “ हमें केवल अपने राष्ट्र की अखंडता ही सुरक्षित नहीं रखन है , उसके साथ अपनी संस्कृति , परम्पराओं को भी अक्षुण रखना होगा । समय आ गया है अब अध्यात्म और विज्ञान का समन्वय करने का । यह समन्वय  ही हमें आणविक युग में सुरक्षा  प्रदान कर विकास की ओर उन्मुख कर सकेगा ।”  स्पष्ट है की इसके लिए शिक्षा का स्वरुप भारतीय ज्ञान परम्परा के अनुसार समग्र (integrat) होनी चाहिए ।

 

21.   जिज्ञासा -  शिक्षा में विद्यार्थी के समग्र विकास के लिए आज किस तरह के पाठ्यक्रम की आवश्यकता है ?

समाधान - आज समाज जाति, भाषा, प्रांत, पंथ, जाति-पात, अमीर-गरीब, महिला-पुरुष, तथाकथित सवर्ण, दलित आदि में बंटा हुआ है । विद्यार्थियों को प्रवेश के प्रपत्र भरते समय ही जाति, भाषा, वर्ग आदि से परिचित कराया जाता है हमारी विविधता को विभाजन का माध्यम बनाने के बदले एकता का माध्यम बनाना होगा खान-पान, भाषा, वेश-भूषा, पंथ, जाति-पाति , वर्ग अनेक होने के उपरान्त भी हम एक भारतवासी हैं । हमारी संस्कृति, धर्म, परम्परा, पूर्वज सब एक हैं । विभिन्न पंथ, सम्प्रदाय को मानने वाले एक ही परम्परा के अंश हैं, इसका बोध हो, एक जन, एक राष्ट्र, एक संस्कृति का मनोभाव बने, इसी दृष्टि से पाठ्यक्रम का स्वरूप बनाना होगा । इसलिए भारतीय ज्ञान परम्परा को शिक्षा के सभी विषयों में कैसे प्रवेश दें यह विचार करना होगा । पाठ्यक्रम निर्माण समितियां अथवा अध्ययन मंडल में भारतीय परम्परा के चिन्तक हों आवश्यक है ।    

 

22.   जिज्ञासा - परंपरा एवं आधुनिकता का समन्वय कैसे हो ?

समाधान - पुराना सब श्रेष्ठ है और आधुनिक सब गलत है या पुराने को कूड़े में डालो और आधुनिकता अपनाओ इस प्रकार की अतिवादी मानसिकता सर्वथा अनुचित है । हमें प्राचीन एवं आधुनिकता का समन्वय करना होगा। इसके लिए भारतीय ज्ञान परम्परा के शिक्षा के मूलभूत सिद्धांतों के आधार पर आधुनिक समाज की आवश्यकतानुसार शिक्षा में एक नई व्यवस्था देने का चिन्तन करना होगा । उदहारण के लिए संस्कृत और संगणक (कम्प्यूटर) का तालमेल बैठाना होगा  सीखने की पद्धति में संगणक के समावेश के साथ-साथ संवाद माध्यम के अधिक से अधिक उपयोग को पुनः लाना होगा । कैलकुलेटर के आवश्यक उपयोग के साथ पहाड़े का महत्व कम आंकना बड़ी भूल होगी । आधुनिक गणित के साथ वैदिक गणित के महत्व को समझना होगा । आधुनिक सुविधायुक्त विद्यालयों के भवनों में भी गुरु-शिष्य की श्रेष्ठ परम्परा को पुनः स्थापित करना होगा । क्योंकि -“ सम्पूर्ण शिक्षा तथा समस्त अध्ययन का एकमेव उद्देश्य है व्यक्तित्व को गढ़ना। इसके लिए विद्यार्थी अभिभावक दोनों को  सक्रिय होना होगा ।

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इकाई एक ()

चरित्र-निर्माण

इकाई एक ()

चरित्र निर्माण (व्यक्तिगत एवं राष्ट्रीय चरित्र) अर्थ, अवधारणा, चरित्र के कारक तत्व तथा चरित्र निर्माण के साधन

 

1.       जिज्ञासा - चरित्र का अर्थ क्या है ?

समाधान - सद्विचारों और सत्कर्मों की एकरूपता ही चरित्र है । अर्थात सदाचार का दूसरा नाम ही चरित्र है  जीवन की सफलता का आधार मनुष्य का चरित्र ही है । इसीलिए चरित्र को मनुष्य की स्थायी निधि कहा जाता है

 

2.       जिज्ञासा - शिक्षा का उद्देश्य क्या है ?

समाधान - शिक्षा का उद्देश्य चरित्र का निर्माण करना ही होता था । शिक्षा प्राति के उपरांत विद्यार्थी के चरित्र में बदलाव शिक्षा प्राप्ति की सफलता मानी जाती थी । शिक्षा के बिना मनुष्य पशु के समान माना जाता है । शिक्षा प्राप्ति के पश्चात विद्यार्थी एक चिंतक की भाँति स्वयं अथवा परिवार और समाज के विषय में सोचता है

 

3.       जिज्ञासा - भारतीय ज्ञान परम्परा में चरित्र का क्या महत्व माना गया है ?

समाधान - भारतीय ज्ञान परम्परा में वैदिक काल से ही चरित्र निर्माण को आचरण का विषय कैसे बनाया जाये विचार किया जाता था । विद्यार्थी के आहार-विहार तथा आचार-विचार को धर्म के आधार पर दिशा देने का प्रयत्न किया जाता था।  प्रारंभ से ही धर्म और नीति शास्त्र की शिक्षा छोटी छोटी कथा कहानियों के माध्यम से दी जाती थी । एक चरित्रवान मनुष्य हमेशा समाज की कुशलत के विषय में सोचेगा, जबकि चरित्र विहीन मनुष्य अपने स्वार्थ की पूर्ती में व्यस्त रहेगा

 

4.       जिज्ञासा -चरित्र निर्माण में शिक्षक की भूमिका क्या है  ?

                             समाधान -  चरित्र निर्माण की शिक्षा गुरु रूपी तीर्थ में प्राप्त होती है । प्राचीन भारत में यह परंपरा अति समृद्धि थी                                   तथा इसके माध्यम से धर्म, अर्थ, काम को आधार बना कर व्यक्ति के संपूर्ण व्यक्तित्व को विकसित करना था                                          । ए.पी.जे अब्दुल कलाम अपनी पुस्तक 'India 2020 A Vision Millennium' में लिखते हैं- “यदि आप                                 राष्ट्र निर्माण करना चाहते हैं तो बच्चों का चरित्र-निर्माण अपेक्षित है । किसी राष्ट्र की रक्षा उसकी सभ्यता और                                        संस्कृति की रक्षा करने पर ही निर्भर करती है । यह कार्य शिक्षक की भूमिका पर ही निर्भर है ।

 

5.       जिज्ञासा -चरित्र के बाह्य और आतंरिक अंग कौन से हैं  ?

समाधान - सेवा, दया, परोपकार, उदारता, त्याग, शिष्टाचार और सद व्यवहार आदि चरित्र के बाह्य अंग है उत्कृष्ट चिंतन, नियमित व्यवस्थित जीवन, शांत गंभीर मनोदशा चरित्र के आंतरिक लक्षण है

 

6.       जिज्ञासा - चरित्र निर्माण में साहित्य का क्या महत्व है ?

समाधान - व्यक्ति के विचार, इच्छाएँ, आकांक्षाएँ और आचरण जैसा होगा, उन्हीं के अनुरूप चरित्र का निर्माण होता है । चरित्र निर्माण में साहित्य का बहुत महत्व है । विचारों को दृढ़ता व शक्ति प्रदान करने वाला साहित्य आत्म निर्माण में बहुत सहायता करता है । ए.पी.जे    अब्दुल कलाम अपनी पुस्तक 'India 2020 A Vision Millennium' में लिखते हैं- “सभी विरोधों के बावजूद संस्कृत विषय को जारी रखना चाहिये, क्योंकि भर्तृहरि, महाकवि कालिदास आदि लिखे चरित्र-निर्माणकारी सूत्र (नीतिशतकम, वैराज्ञ शतकम आदि काव्यहेतु मूल आधार हैं ।)”

7.       जिज्ञासा - चरित्र निर्माण में महापुरुषों और संतों का क्या महत्व है ?

समाधान - मनुष्य जब अपने से अधिक बुद्धिमान, गुणवान, विद्वान और चरित्रवान व्यक्ति के संपर्क में आता है तो उसमें स्वयं ही इन गुणों का उदय होता है । जब मनुष्य साधु-संतों और महापुरुषों के साथ प्रत्यक्ष रूप में रहता है तो यह प्रत्यक्ष सत्संग होता है, किंतु जब महापुरुषों की आत्मकथाएँ और श्रेष्ठ पुस्तकों का अध्ययन करता है तो उसे परोक्ष रूप से सत्संग का लाभ मिलता है, जो सद्भावना के लिए आवश्यक है । मनुष्य सत्संग के माध्यम से अपनी प्रकृति को उत्तम बनाने का प्रयत्न कर सकता है, जिससे सद्भावना कायम रखी जा सके

 

8.       जिज्ञासा - क्या यह सत्य है की विचारों की नींव पर चरित्र रूपी भवन खड़ा होता है ?

समाधान -  ईश्वर मनुष्य का एक ऐसा अंतर्यामी मित्र है कि मन में ज्यों ही कोई बुरे संस्कार व विचार उठते हैं उसी समय भय, शंका और लज्जा के भाव पैदा करके वह ईश्वर बुराई से बचने को प्रेरणा देता है । उसी प्रकार अच्छा काम करने का विचार आते ही उल्लास और हर्ष की तरंग मन में उठती हैं । यह प्रेरणा भी ईश्वर की ही है श्रेष्ठ चिंतन एवं सद्गुणों की संपत्ति का निर्माण होता है  विचारों की नींव पर चरित्र रूपी भवन खड़ा होता है

 

9.       जिज्ञासा -  चरित्र का आभाव राष्ट्र के लिए कितना घातक होता है  ?

समाधान -  केवल भौतिक समृद्धि मनुष्य को शांति के पथ पर नहीं ले जा सकती । समाज में जब तक सात्विक प्रवृत्तियों का निर्माण नहीं होता, तब तक सारी भौतिक सुविधाएँ व्यर्थ हैं । ऐसी अवस्था समाज को अधोगति की ओर ले जाती है । चरित्र का अभाव राष्ट्र को पतन की ओर अग्रसर कर देता है । चरित्र बल मनुष्य की सबसे बड़ी शक्ति है । चरित्र निर्माण की प्रक्रिया जन्म से लेकर मृत्यु तक चलती रहती है । चरित्र मानवीय गुणों की मर्यादा है, यह स्वभाव और विचारों की दृढ़ता का सूचक है । आत्मशक्ति के विकास, सम्मान एवं वैभव का सोपान चरित्र बल है

 

10.   जिज्ञासा -  भारतीय संस्कृति में चरित्र का महत्व कितना है?

समाधान - भारतीय संस्कृति में चरित्र का महत्व सर्वोपरि है । चरित्र रूपी बल के आगे विश्व की बड़ी-बड़ी शक्तियों को भी नतमस्तक होना पड़ता है । स्वामी विवेकानंद जी मत है कि चरित्र बल ही कठिनाई रूपी पत्थर की दीवार में छेद कर सकता है स्वयं विवेकानंद जी ने इसी बल से शिकागो की यात्रा में आने वाली समस्त बाधाओं पर विजय प्राप्त करने, संपूर्ण विश्व में भारतीय संस्कृति का उद्घोष किया । चरित्र बल मनुष्य को तेजस्वी बनाता है । चरित्र रूपी धन के समक्ष संसार की विभूतियाँ, सुख, सुविधाएँ घुटने टेक देती हैं

 

11.   जिज्ञासा -   भारतीय परम्परा में  चरित्र का महत्व उदाहरण दे कर समझिए ?

समाधान - इतिहास साक्षी है कि महाराणा प्रताप के चरित्र बल के आगे भामाशाह ने भी अपनी संपूर्ण संपत्ति कर दी थी चरित्र बल से मनुष्य समाज में साधारण लोगों के समक्ष प्रेरणा स्तंभ बनकर उभरता है । उसकी कार्यशैली से मुग्ध होकर लोग स्वयं ही उसके अनुगामी बन जाते हैं सुभाष चंद्र बोस के इसी चरित्र बल से प्रभावित होकर असंख्य युवक-युवतियों ने अपना तन, मन, धन राष्ट्र हित में बलिदान कर दिया । श्रेष्ठ चरित्र संपन्न मनुष्य ही राष्ट्र को उन्नति एवं शांति के पथ की ओर से जा सकते हैं

 

12.   जिज्ञासा -  भारतीय परम्परा में अध्यात्म और चरित्र का क्या सम्बन्ध है ?

समाधान - भोग विषयों एवं तामसिक विचारधारा से ग्रस्त मनुष्य देश को पतन की ओर धकेल देता है । भौतिक सुविधा संपन्न होने पर भी यदि चरित्र बल नहीं है, फिर तो पतन निश्चित ही है हमारी आध्यात्मिकता का केंद्र बिंदु उत्तम चरित्र ही है, चरित्र एक ऐसी मशाल के समान है, जिसका प्रकाश दिव्य और पावन होता है चरित्र बल के प्रकाश से संपूर्ण राष्ट्र को प्रेरणा मिलती है प्राचीन काल से ही हमारा देश श्रेष्ठ चरित्र का उपासक रहा है

 

13.   जिज्ञासा -  चरित्र की रक्षा क्यों करनी चाहिए ?

समाधान - हमारे देश में हजारों महापुरुषों की ऐसी लंबी श्रृंखला है, जिन्होंने अपने जीवन में चरित्र बल से विश्व का मार्गदर्शन किया । चरित्र की उपजाऊ भूमि पर ही चिंतन का बीजारोपण होता है । चरित्र बल मनुष्य में निर्भीकता पैदा करता है हमारे नीतिकारों का भी कहना है कि निर्बल बलवान से डरता है, मूर्ख विद्वान से डरता है, निर्धन धनवान से डरता है परंतु चरित्र बल से संपन्न मनुष्य से ये तीनों डरते हैं । चरित्र बल ही सबसे बड़ा धन है । इसकी सावधानीपूर्वक रक्षा करनी चाहिए

 

14.   जिज्ञासा -  चरित्र निर्माण की शिक्षा क्यों आवश्यक है ?

समाधान - चरित्र विहीन शिक्षा के कारण सारे संसार में मानसिक अशान्ति परिव्याप्त है । यूनेस्को (UNESCO) भी इस विषय में चिन्तित है क्योंकि प्रचलित शिक्षा पद्धति में बनने के बदले करने को शिक्षा दी जा रही है, इसीलिये अधिकांश नयी पीढ़ी नशे का शिकार हो रही है, आत्महत्या या ऐड्स जैसे हानिकारक संक्रामक बीमारियों के चपेट में आ रही है । आज पूरा विश्व, विशेषकर हमारा देश जिन संकटों से गुजर रहा है, वे सब अंततोगत्वा उसी एक संकट की ओर इशारा कर रहे हैं, जिसका नाम है- ‘चरित्र का अभाव यदि हम लोग केवल इसी एक संकट का सामना पूरे साहस और ईमानदारी के साथ करने की ठान लें तो अन्य सारी समस्याएँ आसानी से हल हो जाएँगी । यदि हम मानसिक शान्ति, विश्व शान्ति चाहते हैं, तो हमें चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा को अपनाना ही पड़ेगा  

15.   जिज्ञासा -  प्रश्न है कि चरित्र निर्माणकारी शिक्षा इतनी अनिवार्य है तो अब तक इसे उपेक्षित क्यों रखा गया है ?

समाधान - इसका पहला महत्वपूर्ण कारण यही है कि अधिकांश लोगों के मन में चरित्र के विषय स्पष्ट अवधारणा ही नहीं है तथा वे इसे कोई जन्मजात वस्तु मानते हैं । विशेषकर हमारे कुछ बुद्धिजीवी तो ऐसी धारणा बना चुके हैं कि इतने विशाल जनसंख्या वाले देश का चरित्र परिवर्तित कर पाना तो बिल्कुल ही असंभव है तथा अब इस समस्या को हल करने के लिए अधिक कुछ किया भी नहीं किया जा सकता है। अपनी इस पूर्वाग्रह सोच को संशोधित करते हुए पहले हमें निश्चित तौर पर यह समझना होगा कि जब तक हम व्यष्टि (व्यक्तिगत रूप से एक-एक व्यक्ति के चरित्र में परिवर्तन के लिए कोई प्रयास नहीं करते, जिनकी समष्टि से समाज बनता है, तब तक इस दिशा का कोई भी प्रयास अंततः विफल होने को बाध्य है।

 

16.   जिज्ञासा -  क्या सचमुच चरित्र कोई (vague) अस्पष्ट या न समझ में आने वाली बात है ?

समाधान - ज़रा विचार करें हम किसी मनुष्य को ऊपर से देख कर नहीं बता सकते की उसका चरित्र उसके किस स्थान विशेष में अवस्थित है? किंतु हमारे विचारों, वचनों या व्यवहार आदि की व्यभिव्यक्ति ही हमारे चरित्र को सामने लाती है। भाव-भंगिमा, बोलने का ढंग तथा व्यवहार को देखकर ही लोग बड़ी आसानी से हमारे चरित्र को समझ सकते हैं । कहा गया है-  दूरतः शोभते मूर्खो लम्बशाटपटावृतः। तावच्च शोभते मूर्खो यावत्किंचिन्न भाषत।। अर्थात - लंबी शाल तथा खेस इत्यादि धारण किया हुआ मूर्ख दूर से शोभित होता है, लेकिन वह तब तक ही शोभित होता है जब तक कुछ बोलता नहीं है ! क्योंकि वाचिक या व्यवहारिक अभिव्यक्ति हमारे आंतरिक गुणों की कलई खोल ही देती है।

 

17.   जिज्ञासा -   क्या चरित्र ही हमारा समग्र व्यक्तित्व है ?

समाधान -  हमारे बोलने, विचारने या आचरण से हमारे यथार्थ व्यक्तित्व का परिचय हो ही जाता है । वैज्ञानिक पद्धति से परीक्षण-निरीक्षण करने के बाद स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- ‘Character is an agglomeration of our propend is but the bundle of our habits अर्थात् चरित्र हमारी मानसिक प्रवृत्तियों की समष्टि है, यह हमारी आदतों का समूह है। दूसरे शब्दों में कहें तो- ‘ यह हमारे द्वारा पुनःपुनः दुहराए जाने वाले अभ्यासों की समष्टि मात्र है

18.   जिज्ञासा -   क्या आदतें हमारे चरित्र को परिवर्तित करती हैं ?

समाधान - जी हाँ ! आदतों का निर्माण एक दिन में नहीं होता । इसके लिए सजगता और निरंतरता अपेक्षित है । सचमुच अपना चरित्र सुंदर बनाना चाहते हैं तो हमें अपनी इच्छाओं को एक दिशा देना चाहिए , क्योंकि यह इच्छा ही हमारी विचार-शक्ति को निर्देशित करेगी । भर्तृहरि जी अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'नीतिशतकम्' में कहते है-

एते सत्पुरुषा: परार्थघटका: स्वार्थं परित्यज्य ये
सामान्यास्तु परार्थमुद्यमभृतः स्वार्थाविरोधेन ये।
तेऽमी मानुषराक्षसा: परहितं स्वार्थाय निघ्नन्ति ये

                      ये तु घ्नन्ति निरर्थकं परहितं ते के न जानीमहे॥ -नीतिशतकम्

              अर्थात् जो लोग बिना अपने लाभ की परवाह किए दूसरों के हितों को प्राप्त करने का प्रयास करते हैं, वे सज्जन हैं । दूसरी ओर     जो लोग बिना अपने स्वयं के हित को चोट पहुँचाए दूसरों की सहायता करते हैं, वे साधारण होते हैं । जो लोग अपने स्वयं के        हितों के लिए दूसरों को नुकसान पहुँचाते हैं, वे मनुष्यों की आड़ में राक्षस हैं । लेकिन हम यह नहीं जानते कि जो लोग बिना       किसी भी उद्देश्य दूसरों को नुकसान पहुँचानेवालों को क्या कहे ।

 

19.   जिज्ञासा -   चरित्र निर्माण कि प्रक्रिया क्या है ?

समाधान -   चरित्र निर्माण कि कोई एक निर्धारित प्रक्रिया नहीं  है । स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- Upon ages of struggle character is अर्थात् ‘युगों-युगों तक संघर्ष करने के बाद ही एक चरित्र का निर्माण होता है । चरित्र निर्माण कि अनेक प्रक्रियाएं हैं , जिसको अपना कर हम अपनी पुरानी और बुरी तथा अपवित्र मानसिक रुझानों को क्रमशः समाप्त करते हुए अपने निर्माण करने के पथ पर अग्रसर हो जाते हैं  हमारा प्रत्येक कार्य जो हम करते हैं, हर विचार जो हम सोचते हैं, हमारे मन के ऊपर शक्ति का रूप ले लेते हैं, जिसे चरित्र कहते हैं । जब वह हमारे जीवन में प्रकट होता है उसे, उसे संस्कृत में संस्कार कहते हैं । ये सभी संस्कार धीरे-धीरे स्थाई स्वरुप प्राप्त करते जाते हैं जिसे उस व्यक्ति का चरित्र कहा जाता है । यह उन मानसिक तथा दैहिक क्रियाओं का परिणाम है, जिन्हें अपने जीवन में किया है

20.   जिज्ञासा -   चरित्र निर्माण में संकल्पशक्ति का क्या महत्व है ?

समाधान - परिस्थितियाँ चाहे जैसी हों, हर अवस्था में किसी व्यक्ति की इच्छाशक्ति या उसकी संकल्पशक्ति' (Volition of Mind) ही उसको शारीरिक और मानसिक क्रियाओं के लिए- अन्तिम रूप से उत्तरदायी है इसमें परिवेश की भूमिका अहम नहीं है विगत वर्षों में- खुदीराम बोस, बाघा जतिन, चंद्रशेखर आजाद, सरदार भगत सिंह, राजगुर सुखदेव, विनय बादल-दिनेश, आदि स्वतंत्रता सेनानियों ने फाँसी के फन्दों में आसन्न मृत्यु को भी देख कर जिस तरह का आचरण किया था (आगे बढ़कर फाँसी के फन्दों को चूम लिया था), उनका आचरण पूरी तरह से भिन्न था, उनकी संकल्प शक्ति दृढ थी। इसीलिए समझना होगा की चारित्र कोई विलासिता की सामग्री  नहीं है ।