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उपनिषद् upnishad prarthana
Thursday, 5 October 2023
उपनिषद: सार upnishad
उपनिषद
सनातन वैदिक
धर्म के ज्ञानकाण्ड को उपनिषद् कहते हैं । सहस्त्रों वर्ष पूर्व भारतवर्ष में जीव-जगत तथा तत्सम्बन्धी अन्य
विषयों पर गम्भीर चिन्तन के माध्यम से उनकी जो मीमांसा की गयी थी, उपनिषदों में उन्हीं का संकलन है। उपनिषद् हिन्दू
धर्म के महत्त्वपूर्ण श्रुति धर्मग्रन्थ हैं । ये वैदिक वाङ्मय के अभिन्न भाग हैं
। इनमें परमात्मा-ब्रह्म और आत्मा के स्वभाव और सम्बन्ध का बहुत ही दार्शनिक और
ज्ञानपूर्वक विवेचन किया गया है । उपनिषदों में कर्मकांड को 'अवर' कहकर ज्ञान को इसलिए महत्व दिया गया कि ज्ञान
स्थूल से सूक्ष्म की ओर ले जाता है । ब्रह्म, जीव और जगत्
का ज्ञान पाना उपनिषदों की मूल शिक्षा है । उपनिषद ही समस्त भारतीय दर्शनों के मूल
स्रोत हैं, चाहे वो वेदान्त हो या सांख्य या जैन धर्म या
बौद्ध धर्म । उपनिषदों को स्वयं भी वेदान्त कहा गया है । दुनिया के कई दार्शनिक
उपनिषदों को सबसे बेहतरीन ज्ञानकोश मानते हैं । उपनिषद् भारतीय सभ्यता की विश्व को
अमूल्य धरोहर है । मुख्य उपनिषद 13 हैं । हरेक किसी न किसी
वेद से जुड़ा हुआ है । ये संस्कृत में लिखे गये हैं । १७वी सदी में दारा शिकोह ने
अनेक उपनिषदों का फारसी में अनुवाद कराया ।
पाश्चात्य
विद्वान और उपनिषद:
सन् 1775 ई. के पहले तक किसी भी पाश्चात्य विद्वान की दृष्टि उपनिषदों पर नहीं
पड़ी थी । अयोध्या के नवाब सुराजुद्दौला की राजसभा के फारसी रेजिडेंट श्री एम.
गेंटिल ने सन् 1775 ई. प्रसिद्ध यात्री और जिन्दावस्ता के
प्रसिद्ध आविष्कारक एंक्वेटिल डुपेर्रन को दारा शिकोह के द्वारा सम्पादित उक्त
फारसी अनुवाद की एक पाण्डुलिपि भेजी । एंक्वेटिल डुपेर्रन ने कहीं से एक दुसरी
पाण्डुलिपि प्राप्त की और दोनों को मिलाकर फ्रेंच तथा लैटिन भाषा में उस फारसी
अनुवाद का पुन: अनुवाद किया । लैटिन अनुवाद सन् 1801-2 में
‘ओपनखत’ नाम से प्रकाशित हुआ । फ्रेंच अनुवाद नहीं छपा । बाद में प्रसिद्ध जर्मन
दार्शनिक शेपेनहावर- सन् 1788-1860) ने गम्भीर अध्ययन पश्चात
लिखा- ‘मैं समझता हूँ कि उपनिषद् के द्वारा वैदिक साहित्य के साथ परिचय लाभ होना वर्तमान शताब्दी (सन् 1818)
का सबसे अधिक परम लाभ है जो इसके पहले किन्हीं भी शताब्दियों को
नहीं मिला । चौदहवीं शताब्दी के ग्रीक साहित्य के अभ्युदय में ग्रीक-साहित्य के
पुनरभ्युदय से यूरोपीय साहित्य की जो उन्नति हुई थी, संस्कृत-
साहित्य का प्रभाव उसकी अपेक्षा कम फल उत्पन्न करने वाला नहीं होगा।’ वे
उपनिषदों के बारे में आगे लिखते हैं- ‘जिस
देश में उपनिषदों के सत्य समूह का प्रचार था, उस देश में
ईसाई-धर्म का प्रचार व्यर्थ है।’ शेपेनहावर की भाविष्यवाणी सिद्ध हुई और स्वामी
विवेकानन्द की शिष्या ‘सारा बुल’ ने अपने एक पत्र में लिखा कि “जर्मन का दार्शनिक सम्प्रदाय, इग्लैण्ड
के प्राच्य पण्डित और हमारे अपने देश के एरसन आदि साक्षी दे रहे हैं कि पाश्चात्य
विचार आजकल सचमुच ही वेदान्त के द्वारा
अनुप्राणित हैं ।” सन् 1844 में बर्लिन में श्रीशेलिंग महोदय
की उपनिषद सम्बन्धी व्याख्यानोंव्याखान को सुनकर मैक्समूलर का ध्यान सबसे पहले
संस्कृत की ओर आकृष्ट हुआ । शोपेनहार लिखता है- “सम्पूर्ण विश्व में उपनिषदों के
समान जीवन को उँचा उठाने वाला कोई दूसरा अध्ययन का विषय नहीं है। उससे मेरे जीवन
को शान्ति मिली है, उन्हीं से मुझे मृत्यु में भी शान्ति मिलेगी।” शोपेनहार
आगे लिखता है- ‘ये सिद्धान्त ऐसे हैं,
जो एक प्रकार से अपौरषेय ही हैं । ये जिनके मस्तिष्क की उपज हैं,
उन्हें निरे मनुष्य कहना कठिन है ।
शोपेनहार के इन्हीं शब्दों के समर्थन में प्रसिद्ध पश्चिमी विद्धान मैक्स
मूलर लिखता है-‘शोपेनहार के इन शब्दों के लिये यदि किसी समर्थन की आवश्यकता हो तो
अपने जीवन भर के अध्ययन के आधार पर मैं उनका प्रसन्नतापूर्वक समर्थन करूँगा’
जर्मनी के प्रसिद्ध विद्वान पाल
डायसन ने उपनिषदों को मूल संस्कृत में अध्ययन कर अपनी टीप देते हुए अपनी पुस्तक (philosophy of the
Upanisads) में लिखा-‘उपनिषद के भीतर, जो
दार्शनिक कल्पना है, वह भारत में तो अद्वितीय है ही, सम्भवत: सम्पूर्ण विश्व में अतुलनीय है’
मैक्डानल कहता है,‘मानवीय चिन्तना के इतिहास में पहले
पहल वृहदारण्यक उपनिषद में ही ब्रह्म अथवा पूर्ण तत्व को प्राप्त करके उसकी यर्थाथ
व्यंजना हुई है।’ फ्रांसीसी विद्वान दार्शनिक विक्टर कजिन्स् लिखते हैं,-‘जब हम पूर्व की और उनमें भी शिरोमणि स्वरूपा भारतीय साहित्यिक एवं
दार्शनिक महान् कृतियों का अवलोकन करते हैं, तब हमें
ऐसे अनेक गम्भीर सत्यों का पता चलता है, जिनकी उन
निष्कर्षों से तुलना करने पर जहाँ पहुँचकर यूरोपीय प्रतिभा कभी-कभी रुक गयी है, हमें पूर्व के
तत्वज्ञान के आगे घुटना टेक देना चाहिए । जर्मनी के एक दूसरे प्रसिद्ध दार्शनिक
फ्रेडरिक श्लेगेल लिखते हैं- ‘ पूर्वीय आदर्शवाद के प्रचुर प्रकाश पुंज की तुलना
में यूरोपवासियों का उच्चतम तत्वज्ञान ऐसा
ही लगता है, जैसे मध्याह्न सूर्य के व्योमव्यापी प्रताप की
पूर्ण प्रखरता में टिमटिमाती और अनल शिखा की कोई आदि किरण, जिसकी
अस्थि और निस्तेज ज्योति ऐसी हो रही हो मानो अब बुझी कि तब ।’
उपनिषदों
सार - उपनिषदों की संख्या लगभग 108 है, जिनमें से प्रायः 11 उपनिषदों को
मुख्य उपनिषद् कहा जाता है । मुख्य उपनिषद, वे उपनिषद हैं, जो प्राचीनतम
हैं और जिनका आदि शंकराचार्य से लेकर अन्य आचार्यों ने भाष्य किए हैं - (1) ईशावास्योपनिषद्, (2)
केनोपनिषद् (3) कठोपनिषद् (4)
प्रश्नोपनिषद् (5) मुण्डकोपनिषद् (6)
माण्डूक्योपनिषद् (7) तैत्तरीयोपनिषद् (8) ऐतरेयोपनिषद् (9) छान्दोग्योपनिषद् (10) बृहदारण्यकोपनिषद् (11) श्वेताश्वतरोपनिषद् ।आदि शंकराचार्य ने इनमें से १० उपनिषदों पर टीका
लिखी थी। इनमें माण्डूक्योपनिषद सबसे छोटा और बृहदारण्यक सबसे बड़ा उपनिषद।