Thursday, 7 September 2023

महात्मा गांधी और स्वच्छता

महात्मा गाँधी और स्वच्छता (भाग एक )

  गांधी जी ने कहा था ‘स्वच्छता आजादी से अधिक महत्त्वपूर्ण है। मुझे पहले स्वच्छ भारत चाहिए बाद में आजादी।’
१९१७ में गाँधी ने कहा था, जब तक हम अपने गाँवों और शहरों को नहीं बदलते, अपनी आदतों को नहीं बदलते, बेहतर शौचालय नहीं बनाते तब तक स्वराज का कोई अर्थ नहीं।
चम्पारन से स्वच्छता का गाँधी का पहला कदम था।
एक तरफ देश की आजादी की लड़ाई चल रही थी तो दूसरी ओर गाँधी साथ में स्वच्छता आन्दोलन की बात भी उतनी ही सिद्दत से कर रहे थे। 
उनका मानना था कि स्वच्छता से स्वास्थ्य ठीक होगा और स्वच्छता और स्वास्थ्य दोनों से देश मजबूत होगा।
जब देश स्वच्छ नहीं होगा तब तक देश का विकास अधूरा है।

वस्तुतः विचार करें तो स्वतंत्रता से देश की मोदी सरकार के आने तक किसी भी सरकार ने स्वच्छता को उतना जोर नहीं दिया जितना गाँधी जी की इच्छा थी। 
मोदी जी का यह स्वच्छता उनकी न केवल गाँधी के प्रति श्रद्धांजलि है, बल्कि देश को समझने का परिणाम है।
स्वच्छता के लिए इस देश के कुछ नेताओं ने भी अवश्य प्रयत्न किया जिनमें, डॉ राम मनोहर लोहिया, इंदिरा गाँधी, जयराम रमेश और डॉ रघुवंश प्रसाद।
मोदी जी ने १५ आगस्त ,२०१४ को लाल किले से अभियान की घोषणा कर खुले में शौचालय से मुक्ति और हर घर में शौचालय का अभियान चलाया।
मोदी जी का मिशन हडप्पा काल की स्वच्छता से अपने को जोडऩा है।
आज स्वच्छता आन्दोलन बन गया है।
स्कूल, कालेज तथा विभिन्न सरकारी एजेन्सियाँ पोस्टर, जागरण, गोष्ठियों तथा प्रतियोगिताओं के माध्याम से जागरण कर रही हैं। 

माना जाता है कि सिंगापुर के प्रधान लीक बान यून ने १९६५ में जब देश की सत्ता संभाली तो अपने प्रधानमंत्री से पूछा कि देश के विकास के लिए क्या करना चाहिए। 
तब उनके प्रधान मंत्री ने चार बातें बताई थीं जिनमें दो बाते प्रधान थीं- एक: हमारे यहाँ के नागरिक सडक़ों, रास्तों में न केवल थूकते हैं बल्कि नाना प्रकार की गंदगी करते हैं, उसे बन्द किया जाना चाहिए। इसके लिये कड़ा दण्ड विधान हो।
दूसरा: सिंगापुर को उद्योगिक घरानों से मुक्त रखना चाहिए। हमें अपनी मार्कटिंग पर ज्यादा ध्यान रखना चाहिए।
प्रभाव यह हुआ कि जिस देश की प्रति व्यक्ति आय १९६४ में ४०० डालर थी, वह १९९० में १२०० डालर हुई और आज ५७००० डालर है। 
तात्पर्य यह कि स्वच्छता विकास का कारगर पैमाना है। और इसे गांधी जी के अभियान से जोड़कर समझाने में मुझे कोई सकोंच नहीं.

गांधी जयन्ती के अवसर पर हमारे देश ने भी स्वच्छता का संकल्प लिया है जिसमें खेल जगत से लेकर, सिने, किसान और फौज तथा स्कूल तक जुड़ गये हैं। 
सार्वजनिक स्थान स्वच्छ दिखने भी लगें हैं किन्तु हमें अभी गाँधी के स्वच्छता के दस सूत्रों को विस्मरण नहीं करना चाहिए जो न केवल भौतिक सफाई की बात का रहे हैं बल्कि पूरी मनुष्यता के उत्थान की बात कर रहे है. उस अस्पृश्यता की ओर संकेत कर रहे है जो मनुष्यता के लिए कलंक है.
 

इस अवसर पर गाँधी के स्वच्छता के सूत्र को आत्मसात करना होगा जो आज भी उतने ही प्रासंगिक है जो देश की स्वतंत्रता के पहले थे -
१. स्वच्छता स्वभाव बने। हर कोई अपना कचरा स्वयं साफ करे।
२. राजनीतिक स्वतंत्रता से जरूरी स्वच्छता है। ( चूकि अब हमें आजादी मिल चुकी है तो शारीरिक और मानसिक स्वच्छता की उतनी ही आवश्यकता है।)
 ३. यदि कोई व्यक्ति स्वच्छ नहीं है तो वह स्वस्थ्य नहीं रह सकता।
४. बेहतर साफ-सफाई से ही गाँवों को आदर्श बनाया जा सकता है।
५. शौचालय को ड्राइंग रूम से भी अधिक साफ रखना चाहिए।
६. नदियों को स्वच्छ रख कर हम अपनी सभ्यता को जिन्दा रख सकते हैं।
७. अपने अन्दर की स्वच्छता को बढ़ाया जाना चाहिए, शेष बातें सब अपने आप ठीक हो जायेगी।
८. मैं किसी को गंदे पैर से अपने मन और घर से नहीं गुजरने दूँगा। 
९. अपनी गलती को स्वीकार करना छाडू लगाने के समान है, जो अपने अन्दर को चमकदार बनाये रखती है।
१०. स्वच्छता आचरण में बादत बन जाये।
पढ़ते – पढ़ते (निरन्तर)..

Monday, 4 September 2023

आओ
तुम  भी
स्मरण कर लो
भूलने से पहले 
वह दर्द क्या था ?

दो पीढ़ियों ने झेली है 
वह असह्य वेदना
निरापराध सजा
तोड़ दी थी नशें
विकलांग जीने को
विवश कर दिया था
तुम्हारे पुरखों ने 
 चाहते हो जानना 
वह दर्द क्या था ?
 
आधी रात को
उठा लिया गया था
बीमार, बूढ़े बाप को
डाल दी गई थी
हाथ पैर में 
हथकड़ी और बेड़ियां 
 
बताते रहे वे 
निरपराध जन हूँ 
शिक्षक हूं
  लेखक हूं
 बर्तन,घी,गल्ले का
व्यावसायी हूं
  युवा-विद्यार्थी हूं
  मजदूर- अन्नदाता हूं
  पत्रकार हूं, समाजसेवी हूं
मार खा घिसटते रहे 

पूछोंगे नहीं !
क्या आपराध था उनका ?
स्वीकार नहीं था नेतृत्व
उन्हें तुम्हारा  
क्योंकि तुमने 
तोड़ी थी लोकतंत्र की मर्यादा 
अनदेखा किया था न्याय का आदेश 
हिला दिया था प्रजातंत्र के खम्भे 
बना दिया था गूंगा-बहरा 
सारे तंत्र को 

बस जनता ने जनता को
इतना ही तो बताया था

और 
तुमने 
 बंद कर दिया उन्हें 
काल कोठरी में
जड़ दिए ताले
मकान, दुकान पर
बिलखते भूखे परिवार को
बा़ंध दिया था 
थाना-पुलिस ने 
आतंकी धमकियों से
पूछोंगे नहीं क्यों ?
 
तुम्हारे 
आश्वासन के मार्ग पर
 चलना नहीं चाहता था जन 
सत्ता की कल्याणकारी योजनाएं !
बना रही थीं बधिया
जवान -बूढ़े -अपाहिज को भी   
बंद कर दी थी तुमने
प्रेस की आवाज
 चाहते थे 
उनके साथ
चल कर हत्या करता चलूं 
उनके दुश्मनों के नाम पर अपनों को 

सच तो यह था कि
तुमको हमारे सुख -दुख से
पिता के असामयिक मृत्यु से
बिलखती मां से
पथराई आंखों से
डायलिसिस पर पड़े बूढ़े से 
नहीं था कुछ भी सरोकार 
 
तोड़ दी थी 
न केवल बैसाखी परिवार की
बल्कि रौंद डाला था तुमने 
जनता के सपने
तोड़ दी थी हमारी टाँगें
व्यर्थ हो गया था
हमारा जीना न जीना

कोई दिलचस्पी नहीं थी
तुम्हारी देश दुनिया में 
चिंता थी तो सत्ता में बने रहने की

बुझ गया था आशा का सूरज
उनके  जुगनुओं के आश्वासन से

तुम्हारी  गरज
महज इतनी थी कि
जब तुम कहो  तब तुम्हारे  नारे में 
मेरा भी गला हो शामिल
तुम्हारे भाषण के लिखे
स्क्रिप्ट हम समाज में
नुक्कड़ चौराहों में 
मुनादी की तरह सुनाएँ 
जिससे बची रहे  
तुम्हारे कुचक्रों की सत्ता

किंतु दर्द सलाखों का
परिवार के होते विनाश का भी 
नहीं दिला सका  
अनुमोदन तुम्हारे स्याह-काले
इरादों को

आखिर तुम्हारा 
जमा क्रूर आसन
 डिगा, हिला,चरमराया
और धंसता गया
दिन -मास की गिनती के साथ 
जनता की आह में, कराह में

हां ! 
आज भी तुम काले बादल से
डरावने भूत से
विदेशी नक्कारों -नगाड़ों के साथ
छाये हो स्मृति पटल पर
दो कम पचास साल बाद भी।

किंतु 
अब भगवा किरणों ने
 दिया है
जीने का आश्वासन
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
अब तुम्हारी राह कठिन है
क्योंकि लोगों ने
उतार दिया है
तुम्हारा झंडा
तुम्हारे झंडे
अब जनता के झंडे नहीं हैं
तुम्हारी ताकत
हमारी ताकत नहीं है

हमें भर लिया है
वीर्यवान, धैर्यवान आश्वस्ति ने 
अपने बाजुओं में
 तुम्हारे पड़ोसियों को भी बता दी है
किस राह चलना है
 तय मंजिल पहुँचना है

हमने  प्रतिवर्ष 
तुम्हें भुलाते हुए
चलते-चलते बना ली है
दुर्गा दशप्रहरणधारिणी 
की मूर्ति 
तुम्हारे द्वारा रौंदे अधिष्ठान पर
जो दे रही है आश्वासन
उस काली छाया से  रक्षा की
समृद्धि की, एकात्मकता की
वसुधैव कुटुम्बकम् की
सर्वेभवन्तु सुखिन: की
जिसमें तुम्हारे वंशज भी शामिल हैं 

अब नहीं लगेगा आपातकाल 
मेरे पक्षधर न सही 
पर अब तुम भी 
बधुआ और पिट्ठू नहीं हो 
तुम्हें भी देश की खातिर 
चलना होगा हमारे साथ
हम दिलाते रहेंगे स्मरण
बार -बार इस दिन को
तब तक
जब तक तुम्हारे आंखों में 
 न दिखेगा शर्म का पानी,
झुक नहीं जायेगा 
माथा पछताबे से 

कायरता -भीरुता से अलग 
आत्म-सम्मान चाहिए तो
अब भी समझो तुम -हम 
हम हैं
और अब हमें 
स्वाभिमानी, आत्मनिर्भर, जगद्गुरु ‘भारत’ होना है। 
आ जाओ साथ
या मार डालो अपनी जमीर को ।

   -उमेश  (25/6/23)