भारत की संपूर्ण परंपरा को ज्ञान परंपरा, ऋषि परंपरा, साधना परंपरा और सिद्ध परंपरा, गुरु- शिष्य परंपरा रही है। विवेकानंद, महात्मा गांधी सहित संपूर्ण तेज परंपरा प्रकाश परंपरा ज्ञान परंपरा शौर्य परंपरा का बोध समाज में यथाशक्ति फैलाने को ही अपना स्वधर्म समझना चाहिए। जो सत्य का चित का और आनंद का धर्म है वही भारतीय संस्कृति का सुधर्म है ।
राष्ट्र से आगे ब्रह्मांड और परमेष्ठी तक को बौद्धिक स्तर पर स्पर्श करना चाहिए। इस व्यापक संदर्भ में स्वयं को तलाशना चाहिए। अंतर्दृष्टि की शक्ति को विकसित कर विराट लोक चेतना में प्रवेश करने की सामर्थ्य प्राप्त करना चाहिए ,तभी स्वधर्म का समझना संभव है ।
वर्तमान में वैचारिक दृष्टि में अनेक आसुरी शक्तियां दिखाई देती है जो व्यक्तित्व निर्माण में बाधक और अवरोधक तत्व के रूप में सामने आती है ।
हमें भारत अर्थात प्रकाश में रत , ज्ञान में रत भारती कहलाने का अधिकार है ।चेतना सूर्य की उपासना करते हुए स्वयं को ट्रांस एंड करते हुए पूरे भारत की चेतना के साथ और विश्वेश्वर की चेतना के साथ एक में वो कर हमारा यह समाज का मारी उच्च शिक्षा संस्थाएं काम करें यही मेरी मंगल कामना है भारत के अमर मदन की महत्वपूर्ण है महत्वपूर्ण है भारत में भारत में कुल परंपरा कुल परंपरा के गुरु परंपरा कहती है हमें भारत के साथ शेष विश्व को भी आधुनिक काल के संपूर्ण विश्व को जानने का शांत चित्र से प्रयास करना चाहिए पहले हमें भारत के सत्य को जानना चाहिए फिर उसको विश्व के सत्य के रूप में प्रकृति करण करना चाहिए यह संपूर्ण शक्ति अगर कहीं है तो भारतीय गुरु शिष्य परंपरा के अंतर्गत है भारत को महत्व इस आर्थिक सांस्कृतिक पुरुषार्थ में है सनातन धर्म की साधना में है कोमलता में है रिजुता विवेक और पुण्य कर्मों की साधना में है बर्बरता पैसा चिता मैं जिस तरह से उभर रही है उसका सामना हम भारतीय प्रज्ञा परंपरा धर्म और श्रेष्ठ कार्य ईश्वरी उपासना के माध्यम से ही समाप्त कर सकते हैं बौद्धिक चेतना का जागरण बॉडी को का कर्तव्य राजसूय यज्ञ करना है बौद्धिक आलस्य के साथ केवल पश्चिम कर देना या विरोध प्रदर्शन करना दयनीय स्थिति है हमें पुरुषार्थ करना चाहिए इतिहास को समझना होगा इसके मूंग को कठोर बौद्धिक परिश्रम करने की आवश्यकता है और इसके लिए हमारी गुरु परंपरा उन्हें प्रेरणा देती है हमारी दृष्टि अगर हमारी परम जुड़ जाती है तो निश्चित रूप से मान्यताओं आस्थाओं और सत्य के आधार पर आज वैश्विक हमारी भी कुरु कुरु ताऊ के साथ लड़ सकते हैं.
आज के इस अत्यंत महान्य मैं आत्मा भरीत भावा भारित प्रेरणास्पद पावन अवसर पर मां भारती के चरणो में कोटि-कोटि नमन अर्पित करता हूं साथ ही उस गुरु परंपरा को भी प्रणाम करता हूं परंपरा आज अक्षर रुप से हमारे सामने हैं दिव्य चेतना को मंगलमय चेतना को भी प्रणाम करते हैं जो हमारे इन गुरु परंपराओं के अंदर विराजित है. हम जिस विराट चेतना की बात करते हैं व्हाट इस ब्रह्मांड से किस प्रकार जुड़ी हुई है इसकी संस्कृति की गहराई में जाना होगा संस्कृति सनातन संस्कृति है यह लक है आनंद मुल्क है चेतन मुल्क है सत्य मुल्क है वे द मुल्क है ऋषि मुल्क है ईश्वर मुल्क है आत्मा मुल्क है वह हम सबको किशन हम सब में से अपने आप को अभिव्यक्त करना चाहती है व्यक्त हो दान देना चाहते हैं या नहीं यह हमें तय करना होगा. जींस पहन लेने में कोई डर नहीं है जो जींस गुनगुना रहा है छटपटा रहा है वेद की दिशाओं की अभिव्यक्ति करना चाहता है उसको दबाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए
टी के अंदर तीन प्रकार की शक्तियां काम करती है वरना की एक चिंतन की और एक क्रिया की. एक प्रवाह है एक देवकूल और एक ऋषि कुल 1 पुत्र को. के पीछे हमारी संस्कृत का अत्यंत समृद्ध रूप में प्रामाणिक रूप में परिषद रूप में प्रवाह है देव कॉल रिसीव कॉल गुरुकुल और पवित्र कॉल.
हम परिवर्तन के विरोधी नहीं हैं अरे शास्त्र कहते हैं कि परिवर्तन का एक प्रयोजन होना चाहिए. गच्छति की जगत:, संस रति इति संसार:। वेद इसे नीति नीति कह कर बताना चाहते हैं एपीके विकसित हो रही है हास कर रही है उल्लास कर रही है । प्रहास कर रही है क्रीड़ा कर रही है।
हमारी संस्कृति चिरयौवना संस्कृति है।
इसी संदीपनी आश्रम में शिक्षा प्राप्त विद्या प्राप्त करने वाले श्री कृष्ण कहते हैं मैं चीर एक अव्यक्त हूं, विलसित होता हुआ निरंतर गुंजायमान निरंतर प्रकाशमान हूं। यही दृष्टि हमेशा चैतन्य की दृष्टि रही है। इसे ठीक से समझना होगा समझना होगा। हमारा सुधर्मा और जो धर्म का प्रभु अच्युत है उससे अलग होकर हम अपनी सुधर्म को समझ नहीं पाएंगे।
आदिगुरु वेदव्यास जी ने कहा है- मैं गुह्य ही ब्रह्म को बताता हूं- मनुष्य से श्रेष्ठ कुछ नहीं है सारी सृष्टि के केंद्र में यह मनुष्य है. इसीलिए केंद्र को हम पटोले. उसकी ताकत क्या है उसका लक्ष्य क्या है और हम पूरे समाज को लेकर चिंतन करें. बोल समाज को क्यों लास्ट को लेकर. पूरे राष्ट्र ही को क्यों पूरे ब्रह्मांड को , परमेष्ठी को भी आत्मसात करें.
यह कैसे होगा? इसके लिए और बुद्धि की आवश्यकता है बुद्धि के लिए गुरु चाहिए, शास्त्र चाहिए इष्ट देवता चाहिए चाहिए।
आज के इस पावन अवसर पर इतना ही कहना चाहूंगा कि हम गुरु की मां में प्रवेश करें, तब तो रूपी गुरु को आत्मसात करें, गुरु को आत्मसात करें, शास्त्र की आत्मा को आत्मसात करें, और भारतीय गुरु शिष्य परंपरा को जीवन में जीने अभ्यास करें। हम सब ईश्वर के पी के निमित्त है गीता कहती है - निमित्त मात्रं भव सव्यसाचिन। हे सव्यसाची निमित्त मात्र हो जा।
संपूर्ण परंपरा की ज्ञान परंपरा निषाद परंपरा साधना परंपरा और सिद्ध परंपरा डोगरा परंपरा की अध्यक्षता रही है इतिहास डिस्ट्रिक्ट के सामने लाए तो जो घटनाओं के मध्य में पढ़ती हैं उनके बाहरी विस्तार तक संकीर्ण नहीं रहती विवेकानंद महात्मा गांधी सहित संपूर्ण तेज परंपरा प्रकाश परंपरा ज्ञान परंपरा शौर्य परंपरा का बोध समाज में यथाशक्ति फैलाने को ही अपना स्वधर्म समझना चाहिए जो सत्य का चित्र का और आनंद का धर्म है वही भारतीय संस्कृति का सुधर्म है राष्ट्र से आगे ब्रह्मांड और परमेष्ठी तक को बौद्ध के स्तर पर स्पर्श करना चाहिए इस व्यापक संदर्भ में स्वयं को लोकेट करना चाहिए अंतर्दृष्टि की शक्ति को विकसित कर विराट लोक चेतना में प्रवेश करने की सामर्थ्य प्राप्त करना चाहिए तभी स्वधर्म का बहुत संभव है दृष्टि से समाज में अनेक आसुरी शक्तियां दिखाई देती है बाधक और अवरोधक तत्व है हमें भारत अर्थात और रक्त निरंतरता के साथ भारती कहलाने का अधिकार है चेतना सूर्य की उपासना करते हुए स्वयं को ट्रांस एंड करते हुए पूरे भारत की चेतना के साथ और विश्वेश्वर की चेतना के साथ एक में वो कर हमारा यह समाज का मारी उच्च शिक्षा संस्थाएं काम करें यही मेरी मंगल कामना है भारत के अमर मदन की महत्वपूर्ण है महत्वपूर्ण है भारत में भारत में कुल परंपरा कुल परंपरा के गुरु परंपरा कहती है हमें भारत के साथ शेष विश्व को भी आधुनिक काल के संपूर्ण विश्व को जानने का शांत चित्र से प्रयास करना चाहिए पहले हमें भारत के सत्य को जानना चाहिए फिर उसको विश्व के सत्य के रूप में प्रकृति करण करना चाहिए यह संपूर्ण शक्ति अगर कहीं है तो भारतीय गुरु शिष्य परंपरा के अंतर्गत है भारत को महत्व इस आर्थिक सांस्कृतिक पुरुषार्थ में है सनातन धर्म की साधना में है कोमलता में है रिजुता विवेक और पुण्य कर्मों की साधना में है बर्बरता पैसा चिता मैं जिस तरह से उभर रही है उसका सामना हम भारतीय प्रज्ञा परंपरा धर्म और श्रेष्ठ कार्य ईश्वरी उपासना के माध्यम से ही समाप्त कर सकते हैं बौद्धिक चेतना का जागरण बॉडी को का कर्तव्य राजसूय यज्ञ करना है बौद्धिक आलस्य के साथ केवल पश्चिम कर देना या विरोध प्रदर्शन करना दयनीय स्थिति है हमें पुरुषार्थ करना चाहिए इतिहास को समझना होगा इसके मूंग को कठोर बौद्धिक परिश्रम करने की आवश्यकता है और इसके लिए हमारी गुरु परंपरा उन्हें प्रेरणा देती है हमारी दृष्टि अगर हमारी परम जुड़ जाती है तो निश्चित रूप से मान्यताओं आस्थाओं और सत्य के आधार पर आज वैश्विक हमारी भी कुरु कुरु ताऊ के साथ लड़ सकते हैं.
आज के इस अत्यंत महान्य मैं आत्मा भरीत भावा भारित प्रेरणास्पद पावन अवसर पर मां भारती के चरणो में कोटि-कोटि नमन अर्पित करता हूं साथ ही उस गुरु परंपरा को भी प्रणाम करता हूं परंपरा आज अक्षर रुप से हमारे सामने हैं दिव्य चेतना को मंगलमय चेतना को भी प्रणाम करते हैं जो हमारे इन गुरु परंपराओं के अंदर विराजित है. हम जिस विराट चेतना की बात करते हैं व्हाट इस ब्रह्मांड से किस प्रकार जुड़ी हुई है इसकी संस्कृति की गहराई में जाना होगा संस्कृति सनातन संस्कृति है यह लक है आनंद मुल्क है चेतन मुल्क है सत्य मुल्क है वे द मुल्क है ऋषि मुल्क है ईश्वर मुल्क है आत्मा मुल्क है वह हम सबको किशन हम सब में से अपने आप को अभिव्यक्त करना चाहती है व्यक्त हो दान देना चाहते हैं या नहीं यह हमें तय करना होगा. जींस पहन लेने में कोई डर नहीं है जो जींस गुनगुना रहा है छटपटा रहा है वेद की दिशाओं की अभिव्यक्ति करना चाहता है उसको दबाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए
टी के अंदर तीन प्रकार की शक्तियां काम करती है वरना की एक चिंतन की और एक क्रिया की. एक प्रवाह है एक देवकूल और एक ऋषि कुल 1 पुत्र को. के पीछे हमारी संस्कृत का अत्यंत समृद्ध रूप में प्रामाणिक रूप में परिषद रूप में प्रवाह है देव कॉल रिसीव कॉल गुरुकुल और पवित्र कॉल.
हम परिवर्तन के विरोधी नहीं हैं अरे शास्त्र कहते हैं कि परिवर्तन का एक प्रयोजन होना चाहिए. गच्छति की जगत:, संस रति इति संसार:। वेद इसे नीति नीति कह कर बताना चाहते हैं एपीके विकसित हो रही है हास कर रही है उल्लास कर रही है । प्रहास कर रही है क्रीड़ा कर रही है।
हमारी संस्कृति चिरयौवना संस्कृति है।
इसी संदीपनी आश्रम में शिक्षा प्राप्त विद्या प्राप्त करने वाले श्री कृष्ण कहते हैं मैं चीर एक अव्यक्त हूं, विलसित होता हुआ निरंतर गुंजायमान निरंतर प्रकाशमान हूं। यही दृष्टि हमेशा चैतन्य की दृष्टि रही है। इसे ठीक से समझना होगा समझना होगा। हमारा सुधर्मा और जो धर्म का प्रभु अच्युत है उससे अलग होकर हम अपनी सुधर्म को समझ नहीं पाएंगे।
आदिगुरु वेदव्यास जी ने कहा है- मैं गुह्य ही ब्रह्म को बताता हूं- मनुष्य से श्रेष्ठ कुछ नहीं है सारी सृष्टि के केंद्र में यह मनुष्य है. इसीलिए केंद्र को हम पटोले. उसकी ताकत क्या है उसका लक्ष्य क्या है और हम पूरे समाज को लेकर चिंतन करें. बोल समाज को क्यों लास्ट को लेकर. पूरे राष्ट्र ही को क्यों पूरे ब्रह्मांड को , परमेष्ठी को भी आत्मसात करें.
यह कैसे होगा? इसके लिए और बुद्धि की आवश्यकता है बुद्धि के लिए गुरु चाहिए, शास्त्र चाहिए इष्ट देवता चाहिए चाहिए।
आज के इस पावन अवसर पर इतना ही कहना चाहूंगा कि हम गुरु की मां में प्रवेश करें, तब तो रूपी गुरु को आत्मसात करें, गुरु को आत्मसात करें, शास्त्र की आत्मा को आत्मसात करें, और भारतीय गुरु शिष्य परंपरा को जीवन में जीने अभ्यास करें। हम सब ईश्वर के पी के निमित्त है गीता कहती है - निमित्त मात्रं भव सव्यसाचिन। हे सव्यसाची निमित्त मात्र हो जा।
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