मैकाले को दोष देनेवाले स्वतंत्र राष्ट्र के बौद्धिकों से एक विमर्श-
मैकाले एक कम्पनी प्रबंधक विलियम बेंटिक का (क्लर्क) बाबू था। मैकाले की शिक्षा नीति पर बेंटिक ने तब हस्ताक्षर किए थे, जब भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी राजाओं और नवाबों के बीच छल-बल से काम कर रही थी।
स्वतंत्रता के पश्चात आए वर्तमान शिक्षा तंत्र पर उसका कहीं कोई प्रभाव नहीं है। फिर भी मैकाले के नाम पर रुदन?
स्वतंत्रता/स्वाधीनता के 75 वर्ष किसी राष्ट्र के लिए लघु काल हो सकता है, किंतु राजकीय सत्ता के लिए वानप्रस्थ अवस्था होती हैं।
सीधे शब्दों में समझें तो राजसत्ता के विकास की बौद्धिक अवस्था। यदि राज सत्ता ठीक दिशा में स्वत्वों का आधार लेती हुई बढ़ती है तो , इसके बाद यह सीमा टूटती है, और राज सत्ता क्रमशः राष्ट्र सत्ता (आध्यात्मिक) की छाया में प्रवेश करती है।
दूसरे शब्दों में राजसत्ता रूपी शिशु राष्ट्र सत्ता की गोद में किलकारी भरता है। तब कहीं यौवन को प्राप्त करता हुआ , राजसत्ता की केंचुल उतार संसृति का आधार (नित्य नूतन चिर पुरातन राष्ट्र) शेषनाग बनता है।
स्वतंत्र भारत के शिक्षा तंत्र पर यदि कोई गंभीर चूक रही है तो वह यह कि शिक्षा के तंत्र को संचालित करने वाले भारतीय ज्ञान परम्परा के बाहर की पाठशाला से निकले लोग थे। चाहें वे तत्कालीन केन्द्रीय सरकार में रहे हो या प्रांतीय सरकारों में। वे या तो ईसाई स्कूलों से पढ़े थे या इस्लामी स्कूलों से।
भारतीय ज्ञान परम्परा आधारित तंत्र से नहीं।
जिनका भारत से थोड़ा बहुत परिचय था तो वह उनका स्वयं का अपना था। परिणाम दौलत सिंह कोठारी की 1964 की रिपोर्ट हो या राधाकृष्णन की विश्वविद्यालय आधारित नीति हो।
सभी रिपोर्ट के बावजूद 1947 से आज तक हम एक और एंग्लो इंडियन शिक्षा ले रहे हैं तो दूसरी और अल्पसंख्यक आधारित मजहवी शिक्षा।
1947 तक अखंड भारत में 14 विश्व विद्यालय और दो लाख विद्यार्थी थे। आज 44 केन्द्रीय विश्वविद्यालय,306 स्टेट विश्व विद्यालय,154 निजी विश्वविद्यालय,129 डीम्ड विश्वविद्यालय,67 अन्य राष्ट्रीय संस्थान। कुल मिलाकर 700 के आसपास उच्च शिक्षा संस्थान हैं। जिसमें करोड़ों विद्यार्थी हैं।
जिस गति से संस्थान बढ़ रहे हैं लिखते-लिखते यह आंकड़ा बढ़ भी गया होगा।
700 संस्थाओं की उपलब्धि कुछ गिनती की है,वह अंतरिक्ष विज्ञान की होगी। भारत के अधिकतम अर्थशास्त्री विदेशी विश्वविद्यालयों के, चिकित्सक विदेशी विश्वविद्यालयों के, शिक्षाविद् विदेशी विश्वविद्यालयों के।
अभी पिछले कुछ वर्षों से यह बात अवश्य ध्यान में आई हैं कि भारतीय ज्ञान परम्परा शिक्षा का आधार बने।और परिणाम राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 है।
किन्तु वह भी मातृभाषा में सांस नहीं ले पाई। एन ई पी तो ज्वलंत उदाहरण है। ऐसे अनेक शब्द हैं, जिनका हिन्दी में सुंदर उपयोग हो सकता है , यथा- योग, राम, कृष्ण , स्वतंत्रता, स्वाधीनता किंतु योगा,रामा,कृष्णा , आजादी जैसे शब्दों का व्यवहार न केवल बौद्धिक जगत के आत्मगौरव का दिवालियापन दिखाता है अपितु भावी पीढ़ी के लिए व्याकरण और स्वभाषी शब्दों का भ्रम भी पैदा करता है।
ऐसा नहीं है कि हमारे पास भारतीय ज्ञान परम्परा के इतिहासकारों, वास्तुशास्त्रियों, वैज्ञानिकों, चिकित्सकों, समाजशास्त्रीयों, जीवशास्त्रियों, शिक्षा विदों की कमी है। कमी है तो तंत्र के भारतीय दृष्टि की। आखिर 70 वर्षों से आत्मकेंद्रित, आत्ममुग्ध तंत्र को बदलना इतना सरल भी तो नहीं।
फिर भी यदि राष्ट्रीय शिक्षा नीति के पालन में विश्वविद्यालयों, उच्च शिक्षा संस्थानों की वास्तविक स्वायत्तता भारतीय शिक्षा तंत्र के आधार पर मिल सके तो परिवर्तन सम्भव है।
इसके लिए शिक्षा का समवर्ती सूची में होना भी सम्पूर्ण देश में एक साथ लागू करना कठिन है।
फिर भी पहले चरण में-
नेक के पश्चिमी पैरामीटर बदलकर भारतीय करने होंगे।
परम्परागत व्यावसायिक शिक्षा को बढ़ावा देना होगा।
इसके लिए उच्च शिक्षा के वर्तमान अधिनियम,परिनियम बदलने होंगे।
पाठ्यक्रम निर्माण मंडल और शोध समितियों, कुलपतियों, कुलसचिवों के अधिकार और कर्तव्य निश्चित करने होंगे।
तब कहीं जाकर दूसरे चरण में-
वर्षों के नास्तिक भौतिकवादी विद्वानों के तंत्र से छुटकारा ले कर भारतीय ज्ञान परम्परा आधारित सभी क्षेत्रों के अध्ययन सामग्री, शोधकर्ताओं की दृष्टि तैयार होगी।
मातृभाषा में शिक्षा अनिवार्य हो, अल्पसंख्यक संस्थान भी भारतीय ज्ञान/विद्या परम्परा आधारित शिक्षा दें। भारतीय दर्शन शिक्षा का आधार हो। शिक्षा व्यवसाय की परिधि से मुक्त हो। किन्तु व्यवसाय आधारित स्वरोजगार/रोजगारोन्मुखी हो।
यूरो-अमेरिकन-चीनी धारा से अनुप्राणित व्यूरोक्रेसी शिक्षा के सूत्र धार न होकर भारत केन्द्रित शिक्षाविद्, चिकित्साविद, विज्ञानविद, व्यूरोक्रेट सूत्रधार हो।
तब कहीं जाकर राष्ट्रीय शिक्षा नीति - 2020 राष्ट्र से लेकर वैश्विक स्तर भारतीय विद्या/ ज्ञान परम्परा से स्व-सम्पन्न, आत्मगौरवयुक्त शिक्षाविदों और विद्यार्थियों के माध्यम से अपनी उपस्थित का बोध करा सकेगी।
राष्ट्र की आराधना में हमारी बौद्धिक चेतना पुष्ट हो ।
उमेश कुमार सिंह
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16/6/22