Tuesday, 28 June 2022

आपको जाति, अगड़ा -पिछड़ा का प्रमाण-पत्र क्यों चाहिए? कुछ कठिनाई है? 

स्मरण रहे, पुरखों ने कहा है, जिस दिन आपके सामने कोई कठिनाई नहीं होगी, समझ लेना चाहिए कि आप ग़लत मार्ग पर चल रहे हैं।



यदि सिंहासन के एक, दो , तीन पायदान के लिए स्थान चाहिए तो इंतजार करते - करते कई पीढ़ियां भू-लुंठित हो जायेंगी।

और आप को तब तक इंतज़ार करना होगा जब तक कि आप यूज मी बनने लायक नहीं हो जायेंगे।

फिर भी स्मरण रहे, कोई लक्ष्य मनुष्य से बड़ा नहीं,हारा वही जो लड़ा नहीं।

 हां इसमें यह भी बहुत महत्वपूर्ण है कि आप तथाकथित अगड़ी के कौन से पायदान पर हैं? हां यहां भी लोचा है। आप तर्जनी हैं तो भी सुरक्षित हैं।समायोजन लायक हैं। 

यदि बहुत सारे धनुष बचपन में ही तोड़ डाले हैं तो फिर प्रतीक्षा आगे की कई पीढियों तक लम्बित है।

स्मरण रहे, जब तक आप दुःख पर विश्वास नहीं करते,तब तक आप ईश्वर पर भी विश्वास नहीं करते।

 परशुराम की प्रतीक्षा है या एकलब्य का अंगूठा दोनों में धनुष की टंकार अन्त:निहित है।

अतः स्मरण रहे, जैसा सोचोगे वैसा बन जाओगे।


महाभारत अभी पांच हजार साल पहले ही तो हुआ है। अश्वत्थामा अभी यदि जिंदा है तो भीष्म और धृतराष्ट्र भी हैं।

स्मरण रहे, ब्रह्माण्ड की सारी शक्तियां पहले से ही हमारे पास हैं,वह हम ही हैं जो गांधारी बने, धृतराष्ट्र की सेवा कर रहे हैं।

वर्षों से एक पंक्ति पीढ़ी दर पीढ़ी सुनी जा रही है - बस वही लोग जीते हैं जो दूसरों के जीवन के लिए काम करते हैं।

अनुभव ही आपका सर्वोत्तम शिक्षक है,जब तक जीवन है, सीखते रहें।

हमें ऐसी शिक्षा चाहिए जिसमें चरित्र बसे, मानसिक विकास 



 

Sunday, 19 June 2022

योग yog

आप सही कह रहे हैं। सही भी है पेंशन पाकर, मुफ्त सुविधा हथिया कर जीवन का संघर्ष समाप्त होता है।

जीवन में भोग की वृत्ति बढ़ती है।

 वैराग्य का अभ्यास लगभग शून्य हो जाता है।

साहित्य स्मरण कराता है-

साईं इतना दीजिए जामे कुटुंब समाय।
मैं भी भूखा न रहूं अतिथि न भूखा जाय।।

आज शिक्षा से विद्या जो जीवन में कला और मूल्य का बोध कराता है, पाठ्यक्रम में सिकुड़ता जा रहा है।

रोजगार और स्वरोजगार नैतिक आधार छोड़ रहे हैं।

दवा हो या दारू, भोजन हो भजन सब मिलावट के शिकार होकर समाज में ज़हर घोल रहे हैं।

पंच परमेशवर, दीपदान कहानी, हल्दीघाटी, तो छोड़िए चार पंक्ति की कविता-
'मुझे तोड़ लेना वन माली ' भी पाठ्यक्रम से गायब हो गई।

भाषा की परीक्षा वस्तु निष्ठ प्रश्न आधारित हो गई। कैसे जिंदा रहेगी मातृभाषा? जब विद्यार्थियों को लिखना ही नहीं आयेगा?

मंदिर, गुरुद्वारे,पूजाघर के मनोविज्ञान को पढ़ना-पढ़ाना गंगा -जमुनी के लय ताल के रसास्वाद को स्वाद विगाड़ता है!

तकनीकी ग्यान, आर्टीफिशियल इंन्टेलीजेंस की अपनी मर्यादा होते हुए भी सुरसा मुखी हो रही है।

अतः समझना होगा-

भारत भोग नहीं 'तेनत्यक्तेनभुंजिथा' है। संचय नहीं अपरिग्रह है। 

कल योग  को योगा दिवस के रूप में मनाया जायेगा, जहां से यम और नियम के दसों  नियामक तत्व गायब होंगे!

हर उस व्यक्ति का भाषण होगा , जो अंग -अंग को तोड़ता है, जो अपने पांचों इंद्रियों से अहार लेता है,वह खाद्य सामग्री का प्रत्याहार समझायेगा। 

जो पंच प्राण और उनके उप प्राणों को भी नहीं जानता वह प्राणायाम समझायेगा।

फिर भी इस योग की सुरसरी में अगर कुछ लोग भी गोता लगा ध्यान और समाधि का मोती प्राप्त कर सकेंगे तो भी इस आह्वान को सार्थक माना जायेगा।

विश्वास है आसन में बैठकर  सनातनी धारणा को आत्मसात कर हम अग्निवीर, त्यागवीर, दानवीर, कर्मवीर बन राष्ट्र और संस्कृति के संरक्षण और सेवा योग्य बन सकेंगे।

शुभकामनाएं

20/6/22

Thursday, 16 June 2022

NEP 2020 राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020

मैकाले को दोष देनेवाले स्वतंत्र राष्ट्र के बौद्धिकों से एक विमर्श-

मैकाले एक कम्पनी प्रबंधक विलियम बेंटिक का (क्लर्क) बाबू था। मैकाले की शिक्षा नीति पर बेंटिक ने तब हस्ताक्षर किए थे, जब भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी राजाओं और नवाबों के बीच छल-बल से काम कर रही थी।

स्वतंत्रता के पश्चात आए वर्तमान शिक्षा तंत्र पर उसका कहीं कोई प्रभाव नहीं है। फिर भी मैकाले के नाम पर रुदन? 

स्वतंत्रता/स्वाधीनता के 75 वर्ष किसी राष्ट्र के लिए लघु काल हो सकता है, किंतु राजकीय सत्ता के लिए वानप्रस्थ अवस्था होती हैं। 

सीधे शब्दों में समझें तो राजसत्ता के विकास की बौद्धिक अवस्था। यदि राज सत्ता ठीक दिशा में स्वत्वों का आधार लेती हुई बढ़ती है तो , इसके बाद यह सीमा टूटती है, और राज सत्ता क्रमशः राष्ट्र सत्ता (आध्यात्मिक) की छाया में प्रवेश करती है। 

दूसरे शब्दों में राजसत्ता रूपी शिशु राष्ट्र सत्ता की गोद में किलकारी भरता है। तब कहीं यौवन को प्राप्त करता हुआ ,  राजसत्ता की केंचुल उतार संसृति का आधार (नित्य नूतन चिर पुरातन राष्ट्र) शेषनाग बनता है।

स्वतंत्र भारत के शिक्षा तंत्र पर यदि कोई गंभीर चूक रही है तो वह यह कि शिक्षा के तंत्र को संचालित करने वाले भारतीय ज्ञान परम्परा के बाहर की पाठशाला से निकले लोग थे। चाहें वे तत्कालीन केन्द्रीय सरकार में रहे हो या प्रांतीय सरकारों में। वे या तो ईसाई स्कूलों से पढ़े थे या इस्लामी स्कूलों से।
 भारतीय ज्ञान परम्परा आधारित तंत्र से नहीं।

 जिनका भारत से थोड़ा बहुत परिचय था तो वह उनका स्वयं का अपना था। परिणाम दौलत सिंह कोठारी की 1964 की रिपोर्ट हो या राधाकृष्णन की विश्वविद्यालय आधारित नीति हो।

 सभी रिपोर्ट के बावजूद 1947 से आज तक हम एक और एंग्लो इंडियन शिक्षा ले रहे हैं तो दूसरी और अल्पसंख्यक आधारित मजहवी शिक्षा।

1947 तक अखंड भारत में 14 विश्व विद्यालय और दो लाख विद्यार्थी थे। आज 44 केन्द्रीय विश्वविद्यालय,306 स्टेट विश्व विद्यालय,154 निजी विश्वविद्यालय,129 डीम्ड विश्वविद्यालय,67 अन्य राष्ट्रीय संस्थान। कुल मिलाकर 700 के आसपास उच्च शिक्षा संस्थान हैं। जिसमें करोड़ों विद्यार्थी हैं।

जिस गति से संस्थान बढ़ रहे हैं लिखते-लिखते यह आंकड़ा बढ़ भी गया होगा। 

700 संस्थाओं की उपलब्धि कुछ गिनती की है,वह अंतरिक्ष विज्ञान की होगी।  भारत के अधिकतम अर्थशास्त्री विदेशी विश्वविद्यालयों के, चिकित्सक विदेशी विश्वविद्यालयों के, शिक्षाविद् विदेशी विश्वविद्यालयों के।

 अभी पिछले कुछ वर्षों से यह बात अवश्य ध्यान में आई हैं कि भारतीय ज्ञान परम्परा शिक्षा का आधार बने।और परिणाम राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 है।

किन्तु वह भी मातृभाषा में सांस नहीं ले पाई। एन ई पी तो ज्वलंत उदाहरण है। ऐसे अनेक शब्द हैं, जिनका हिन्दी में सुंदर उपयोग हो सकता है , यथा- योग, राम, कृष्ण , स्वतंत्रता, स्वाधीनता किंतु  योगा,रामा,कृष्णा , आजादी जैसे शब्दों का व्यवहार न केवल बौद्धिक जगत के आत्मगौरव का दिवालियापन दिखाता है अपितु भावी पीढ़ी के लिए व्याकरण और स्वभाषी शब्दों का भ्रम भी पैदा करता है।

ऐसा नहीं है कि हमारे पास भारतीय ज्ञान परम्परा के इतिहासकारों, वास्तुशास्त्रियों, वैज्ञानिकों, चिकित्सकों, समाजशास्त्रीयों, जीवशास्त्रियों, शिक्षा विदों की कमी है। कमी है तो तंत्र के भारतीय दृष्टि की। आखिर 70 वर्षों से आत्मकेंद्रित, आत्ममुग्ध तंत्र को बदलना इतना सरल भी तो नहीं।

फिर भी यदि राष्ट्रीय शिक्षा नीति के पालन में विश्वविद्यालयों, उच्च शिक्षा संस्थानों की वास्तविक स्वायत्तता भारतीय शिक्षा तंत्र के आधार पर मिल सके तो परिवर्तन सम्भव है।

इसके लिए शिक्षा का समवर्ती सूची में होना भी सम्पूर्ण देश में एक साथ लागू करना  कठिन है।

फिर भी पहले चरण में-
 नेक के पश्चिमी पैरामीटर बदलकर भारतीय करने होंगे।
 परम्परागत व्यावसायिक शिक्षा को बढ़ावा देना होगा।
 इसके लिए उच्च शिक्षा के वर्तमान अधिनियम,परिनियम बदलने होंगे।
 पाठ्यक्रम निर्माण मंडल और शोध समितियों, कुलपतियों, कुलसचिवों के अधिकार और कर्तव्य निश्चित करने होंगे।

तब कहीं जाकर दूसरे चरण में-
 वर्षों के नास्तिक भौतिकवादी विद्वानों के तंत्र से छुटकारा ले कर भारतीय ज्ञान परम्परा आधारित सभी क्षेत्रों के अध्ययन सामग्री, शोधकर्ताओं की दृष्टि तैयार  होगी।

मातृभाषा में शिक्षा अनिवार्य हो, अल्पसंख्यक संस्थान भी भारतीय ज्ञान/विद्या परम्परा आधारित शिक्षा दें। भारतीय दर्शन शिक्षा का आधार हो। शिक्षा व्यवसाय की परिधि से मुक्त हो। किन्तु व्यवसाय आधारित स्वरोजगार/रोजगारोन्मुखी हो।

यूरो-अमेरिकन-चीनी धारा से अनुप्राणित व्यूरोक्रेसी शिक्षा के सूत्र धार न होकर भारत केन्द्रित  शिक्षाविद्, चिकित्साविद, विज्ञानविद, व्यूरोक्रेट सूत्रधार हो।

तब कहीं जाकर राष्ट्रीय शिक्षा नीति - 2020  राष्ट्र से लेकर वैश्विक स्तर भारतीय विद्या/ ज्ञान परम्परा से  स्व-सम्पन्न, आत्मगौरवयुक्त शिक्षाविदों और विद्यार्थियों के माध्यम से अपनी उपस्थित का बोध करा सकेगी।

राष्ट्र की आराधना में हमारी बौद्धिक चेतना पुष्ट हो । 

उमेश कुमार सिंह
umeshksingh58@gmail.com
7389814071
16/6/22

Sunday, 5 June 2022

पूज्य प्र-प्र पितामह'आदि सुघनी साहू'मनोहर साहू की छठी पीढ़ी में जयशंकर प्रसाद का जन्म हुआ।प्रपितामह जगनसाहू ने पैतृक चीनी के व्यवसाय छोड़ कर सुर्ती-तंबाकू का काम प्रारंभ किया। इसके बाद पितामह शिवरतन साहू जिनके नाम में 'सुघनी' नाम ऐसे जुड़ा जो समस्त पूर्वजो से लेकर आगे की पीढ़ी तक पहचान बन गया।