" परस्परं भावयन्त: श्रेय: परमवाप्स्यथ।" इन शब्दों के अन्दर हम विश्व मानवता की झंकार सुनते हैं।
किंतु राजनीति के मुखौटे होते हैं, तो राष्ट्रनीति में त्याग- तपस्या कभी दिगम्बरी तो कभी पीतम्बरी हैं।
जन फुसलाने की सजीव वस्तु है। चकाचौंध में पूर्णकालिक प्रशासक टिड्डी दल से आते बल खाते , इठलाते, मुस्कराते सड़क से संसद तक झोपड़ी को उजाड़ते , महलों से लेकर रेल्वे तक कबूतर बाजी करते फायरब्रांड बन जाते हैं।
बफादारी और चमचागीरी के बीच उठाईगीरों की वाहवाही है। सायकल जेट एयर में बदल गई है।
आत्मानुशासन अनुशासन में ढल गया है। डंडा छोटा , मुक्का प्रभारी हो गया है।लात-घूंसा चटकारे के विषय हैं।
पांच साल में चुनाव होंगे यह ज्ञात है फिर भी कंडीडेट अंतिम दिन तय होते हैं।
यह तय करने का साहस किसी में नहीं दिखता की जो एक बार विधायक या सांसद बन गया वह दुबारा नहीं बनेगा । यदि दिखता भी है तो या तो निरीह होगा या निष्ठावान।
क्षेत्र में दस विधायक की जगह एक ही विधायक दस वार क्यों? यदि विचारधारा और दल बड़ा है, तो व्यक्ति बदलने में डर क्यों?
बदलाव का साहस कैसे आयेगा, जब मूल में ही एक - एक चेहरे वर्षों से नवरत्न बनें रहते हैं। वृक्ष की लहलहाने की शर्त मजबूत जड़ जाल है, किन्तु बरगद नहीं ,जिसके नीचे प्रेतात्माएं तो पूजी जा सकती हैं, नवीन दूर्वा नहीं उग सकती !!
दंभ इतना कि हम ही दुनिया समझते हैं ,सत्य यह कि दो कदम आगे का भी नहीं देख पा रहे हैं।
सम्हलने की गुंजाइश क्षीण हो रही है। राष्ट्र के चिंता में त्यागी पद और टिकट न मिलते ही दल-विचार की डफली ही फोड़ देते हैं।
कभी गांधी जिंदा होते हैं ,कभी जय प्रकाश तो कभी अंम्बेडकर, कभी सुब्रह्मण्यम भारती तो कभी श्यामा प्रसाद।
दिशा, काल और स्वार्थ के साथ नायक वाणी में विराजते हैं। सच मानें तो कार्यकर्ता गायब है ,कार्यालय आलय है।
इसलिए इधर हो या उधर हाल और चाल एक ही है। रीढ़ इधर भी नहीं, उधर भी नहीं।
कामिनी कुमार राय की एक कविता-
आपनारे लये बिब्रत रहिते, आसे नाइ केहो अबनी परे।
सकलेर तरे सकले आमरा, प्रत्येक आमरा परेर तरे।।
अर्थात् केवल अपने को लेकर व्यग्र रहने के लिए कोई मनुष्य धरती पर नहीं आया है, हम लोग सभी के लिए हैं और प्रत्येक व्यक्ति दूसरों के हित के लिए है।
राजनीति और राष्ट्र नीति में यही अन्तर है।
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