Thursday, 14 April 2022

" परस्परं भावयन्त: श्रेय: परमवाप्स्यथ।" इन शब्दों के अन्दर हम विश्व मानवता की झंकार सुनते हैं।

किंतु राजनीति के मुखौटे होते हैं, तो राष्ट्रनीति में त्याग- तपस्या कभी दिगम्बरी तो कभी पीतम्बरी हैं।

 जन फुसलाने की सजीव वस्तु है। चकाचौंध में पूर्णकालिक प्रशासक टिड्डी दल से आते बल खाते , इठलाते, मुस्कराते  सड़क से संसद तक झोपड़ी को उजाड़ते , महलों से लेकर रेल्वे तक कबूतर बाजी करते फायरब्रांड बन जाते हैं।  

बफादारी और चमचागीरी के बीच उठाईगीरों की वाहवाही है। सायकल जेट एयर में बदल गई है। 

आत्मानुशासन अनुशासन में ढल गया है। डंडा छोटा , मुक्का प्रभारी हो गया है।लात-घूंसा चटकारे के विषय हैं।
 
पांच साल में चुनाव होंगे यह ज्ञात है फिर भी कंडीडेट अंतिम दिन तय होते हैं। 

यह तय करने का साहस किसी में नहीं दिखता की जो एक बार विधायक या सांसद बन गया वह दुबारा नहीं बनेगा । यदि दिखता भी है तो या तो निरीह होगा या निष्ठावान।

 क्षेत्र में दस विधायक की जगह एक ही विधायक दस वार क्यों? यदि विचारधारा और दल बड़ा है, तो व्यक्ति बदलने में डर क्यों? 

बदलाव का साहस कैसे आयेगा, जब मूल में ही एक - एक चेहरे वर्षों से नवरत्न बनें रहते हैं। वृक्ष की लहलहाने की शर्त मजबूत जड़ जाल है, किन्तु बरगद नहीं ,जिसके नीचे प्रेतात्माएं तो पूजी जा सकती हैं, नवीन दूर्वा नहीं उग सकती !!

दंभ इतना कि हम ही दुनिया समझते हैं ,सत्य यह कि दो कदम आगे का भी नहीं देख पा रहे हैं। 

सम्हलने की गुंजाइश क्षीण हो रही है। राष्ट्र के चिंता में त्यागी पद और टिकट न मिलते ही दल-विचार की डफली ही फोड़ देते हैं। 

कभी गांधी जिंदा होते हैं ,कभी जय प्रकाश तो कभी अंम्बेडकर, कभी सुब्रह्मण्यम भारती तो कभी श्यामा प्रसाद।

 दिशा, काल और स्वार्थ के साथ नायक  वाणी में विराजते हैं। सच मानें तो कार्यकर्ता गायब है ,कार्यालय आलय है।

 इसलिए इधर हो या उधर हाल और चाल एक ही है। रीढ़ इधर भी नहीं, उधर भी नहीं।

कामिनी कुमार राय की एक कविता- 
आपनारे लये बिब्रत रहिते, आसे नाइ केहो अबनी परे।
सकलेर तरे सकले आमरा, प्रत्येक आमरा परेर तरे।।
अर्थात् केवल अपने को लेकर व्यग्र रहने के लिए कोई मनुष्य धरती पर नहीं आया है, हम लोग सभी के लिए हैं और प्रत्येक व्यक्ति दूसरों के हित के लिए है।

राजनीति और राष्ट्र नीति में यही अन्तर है।

Monday, 11 April 2022

अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध

अयोध्या सिंह उपाध्याय "हरिऔध"

(15 अप्रेल 1965 - 16 मार्च 1947)


    अयोध्या सिंह उपाध्याय "हरिऔध" द्विवेदी युग के प्रतिनिधि रचनाकार माने जाते हैं । श्री "हरिऔध" का जन्म 1865 ई. में उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले में निजामाबाद नामक स्थान पर हुआ था। पिता का नाम पंडित भोला सिंह उपाध्याय तथा माता का नाम रुक्मिणी देवी था। निजामाबाद से मिडिल परीक्षा पास करने के पश्चात "हरिऔध" जी काशी  के क्वींस कालेज में अंग्रेजी पढ़ने के लिए गए, किन्तु स्वास्थ्य बिगड़ जाने के कारण उन्हें कॉलेज छोड़ना पड़ा । उन्होंने घर पर ही रह कर संस्कृत, उर्दू, फ़ारसी,अंग्रेजी आदि का अध्ययन किया । 1884 में निजामाबाद में इनका विवाह निर्मला कुमारी के संग हुआ ।

    सन 1889 में "हरिऔध" जी को क़ानून गो की सरकारी नौकरी मिल गई । इस पद से सन 1932 में अवकाश ग्रहण करने के बाद आप ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में अवैतनिक शिक्षक के रूप में सन 1941 तक अध्यापन किया । उसके बाद यह निजामाबाद वापस चले आए तथा गाँव में रह कर ही साहित्य-सेवा कार्य करते रहे । अपनी साहित्य-सेवा के कारण हरिऔध जी ने काफी ख़्याति अर्जित की।  हिंदी साहित्य सम्मलेन ने उन्हें एक बार सम्मेलन का सभापति बनाया और विद्यावाचस्पति की उपाधि से सम्मानित किया। हरिऔध जी अपने जीवन काल में कवि सम्राट, साहित्य वाचस्पति आदि उपाधियों से सम्मानित हुए । इनकी रचना प्रिय प्रवास पर इन्हें हिंदी के सर्वोत्तम पुरस्कार "मंगला प्रसाद पारितोषिक" से सम्मानित किया गया। वर्ष 1947 में इनका देहावसान हो गया। 

    कृतित्व : अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' कवि, निबन्धकार तथा सम्पादक थे । प्रारंभ में 'हरिऔध' जी ब्रज भाषा में काव्य रचना किया करते थे, परंतु बाद में महावीर प्रसाद द्विवेदी की प्रेरणा से उन्होंने खड़ी बोली हिंदी में काव्य रचना की । 'हरिऔध' जी के काव्य में लोक मंगल का स्वर मिलता है ।  'हरिऔध' जी कि 15 से अधिक लिखी रचनाओं में तीन रचनाएं विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं  –

    प्रियप्रवास (1914 ई .), प्रियप्रवास खड़ी बोली में लिखा गया पहला महाकाव्य है, जो 17 सर्गों में विभाजित है । इसमें राधा कृष्ण को सामान्य नायक-नायिका के स्तर से उठाकर विश्वसेवी एवं विश्वप्रेमी के रूप में चित्रित किया गया है ।'प्रियप्रवास' में अयोध्या सिंह उपाध्याय की प्रबंध पटुता एवं काव्य प्रतिभा का अद्भुत संयोग दृष्टिगोचर होता है । इसकी कथावस्तु में श्री कृष्ण के मथुरा गमन, राधा एवं गोपियों की विरह व्यथा, पवन दूती प्रसंग, यशोदा की व्यथा, उद्धव गोपी संवाद, राधा उद्धव संवाद आदि का मार्मिक चित्रण किया गया है । इस महाकाव्य में आध्यात्मिक एवं अलौकिक प्रेम को प्रस्तुत करते हुए भी लोकपक्ष एवं लोक कल्याण पर 'हरिऔध' जी ने ध्यान केंद्रित किया है। 

    वैदेही वनवास (1940 ई ., करुणरस-प्रधान महाकाव्य) ।, 'पारिजात' (1937 ई .,स्फुट गीतों का क्रमबद्ध संकलन), 'चुभते- चौपदे'(1932 ई.), 'चोखे चौपदे' (1924 ई.) (दोनों बोलचाल वाली मुहावरों से युक्त भाषा में लिखित स्फुट काव्य संग्रह) और 'रसकलश' ((1940 ई. ब्रजभाषा के छन्दों का संकलन) हैं। प्रेमकांता, 'ठेठ हिन्दी का ठाठ' (उपन्यास -1899 ई.) 'अधखिला फूल' (उपन्यास-1907 ई .), ‘प्रद्युम्न विजय ‘(नाटक -1893ई.) 'रुक्मिणी परिणय' (नाटक-1894 ई.), आदि मौलिक गद्य रचनाओं के अतिरिक्त आलोचनात्मक और अनूदित रचनाएँ भी इनकी हैं।  

    अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध काव्यगत विशेषताएं: महावीरप्रसाद द्विवेदी के प्रभाव से खड़ीबोली के क्षेत्र में आये और खड़ीबोली काव्य को नया रूप प्रदान किया । भाषा, भाव, छन्द और अभिव्यंजना की घिसी पिटी परम्पराओं को तोड़कर इन्होंने नयी मान्यताएँ स्थापित ही नहीं कीं, अपितु उन्हें मूर्त रूप भी प्रदान किया । इनकी बहुमुखी प्रतिभा और साहस के कारण ही काव्य के भाव-पक्ष और कला-पक्ष को नवीन आयाम प्राप्त हुए । पण्डित श्रीधर पाठक के उपरान्त ‘ हरिऔध ‘ जी को ही खड़ी बोली में सरस एवं मधुर रचनाएं प्रस्तुत करने का श्रेय दिया जाता है । उनकी खड़ी बोली कविता को पढ़कर ही लोगों को लगा कि खड़ी बोली काव्यभाषा के लिए पूर्णतः उपयुक्त भाषा है । इनके काव्यों में वात्सल्य रस एवं विप्रलम्भ श्रृंगार का जगमगाता रूप झलकता है।

    ऐसा माना जाता है की भाषा की जैसी विविधता 'हरिऔध' जी के काव्य में है, वैसी विविधता महाकवि निराला के अतिरिक्त अन्य किसी के काव्य में नहीं है । इन्होंने कोमल कान्त पदावली युक्त ब्रजभाषा – 'रसकलश' में, संस्कृतनिष्ठ खड़ीबोली- 'प्रियप्रवास' में, मुहावरे युक्त बोलचाल की खड़ीबोली- 'चोखे चौपदे' और 'चुभते चौपदे' में पूर्ण अधिकार और सफलता के साथ प्रयुक्त की है । आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इसीलिए इन्हें 'द्विकलात्मक कला' में सिद्ध हस्त कहा है। इन्होंने प्रबन्ध और मुक्तक शैलियों में सफल काव्य रचनाएँ की हैं। इतिवृत्तात्मक, मुहावरेदार, संस्कृत काव्य, चमत्कारपूर्ण सरल हिन्दी शैलियों का अभिव्यंजना-शिल्प की दृष्टि से सफल प्रयोग भी किया है । 

लोक-सेवा की भावना- हरिऔध जी ने कृष्ण को ईश्वर रूप में न दिखा कर आदर्श मानव और लोक-सेवक के रूप में चित्रित किया है। उन्होंने स्वयं कृष्ण के मुख से कहलवाया है-

विपत्ति से रक्षण सर्वभूत का,

सहाय होना असहाय जीव का।

उबारना संकट से स्वजाति का,

मनुष्य का सर्व प्रधान धर्म है।

कृष्ण के अनुरूप ही राधा का चरित्र है वे दोनों की भगिनी अनाश्रितों की माँ और विश्व की प्रेमिका हैं। अपने प्रियतम कृष्ण के वियोग का दुख सह कर भी वे लोक-हित की कामना करती हैं- प्यारे जीवें जग-हित करें, गेह चाहे न आवें।

प्रकृति-चित्रण- हरिऔध जी का प्रकृति चित्रण सराहनीय है। अपने काव्य में उन्हें जहाँ भी अवसर मिला है, उन्होंने प्रकृति का चित्रण किया है। और उसे विविध रूपों में अपनाया है। हरिऔध जी का प्रकृति-चित्रण सजीव और परिस्थितियों के अनुकूल है। संबंधित प्राणियों के सुख में प्रकृति सुखी और दुःख में दुखी दिखाई देती है। कृष्ण के वियोग में ब्रज के वृक्ष भी रोते हैं-

फूलों-पत्तों सकल पर हैं वादि-बूँदें लखातीं,

रोते हैं या विपट सब यों आँसुओं की दिखा के।

जहाँ हरिऔध जी ने वृक्षों आदि को गिनाने का प्रयत्न किया है, वहाँ उनका प्रकृति-वर्णन कुछ नीरस क्षौर परंपरागत-सा लगता है, किंतु ऐसा बहुत कम हुआ है। अधिकतर उनका प्रकृति चित्रण सरल और स्वाभाविक और ह्रदयग्राही है। :संध्या का एक सुंदर दृश्य देखिए-

दिवस का अवसान समीप था,

गगन था कुछ लोहित हो चला।

तरु शिखा पर थी जब राजती,

कमलिनी-कुल-वल्लभ का प्रभा।

 भाव पक्ष - विषय की विविधता हरिऔध जी की प्रमुख विशेषता है । इनके काव्य में प्राचीन कथानकों में नवीन उद्भावनाओं के दर्शन होते हैं । इनकी रचनाओं में इनके आराध्य भगवान मात्र न होकर जननायक एवं जनसेवक हैं । उन्होंने कृष्ण-राधा, राम-सीता से संबंधित विषयों के साथ-साथ आधुनिक समस्याओं को लेकर उन पर नवीन ढंग से अपने विचार प्रस्तुत किए हैं।

 वियोग और वात्सल्य वर्णन:  हरिऔध जी के काव्य में वियोग एवं वात्सल्य का वर्णन मिलता है। उन्होंने प्रिय-प्रवास में कृष्ण के मथुरा गमन तथा उसके बाद ब्रज की दशा का अत्यंत मार्मिक वर्णन किया है। हरिऔध जी ने कृष्ण के वियोग में दुखी संपूर्ण ब्रज वासियों का तथा पुत्र वियोग में व्यथित यशोदा का करूण चित्र भी प्रस्तुत किया है। कृष्ण के वियोग में सारा ब्रज दुखी है। राधा की स्थिति तो अकथनीय है। नंद यशोदा आदि बड़े व्याकुल हैं। पुत्र-वियोग में व्यथित यशोदा का करुण चित्र हरिऔध ने खींचा है, यह पाठक के ह्रदय को द्रवीभूत कर देता है-

प्रिय प्रति वह मेरा प्राण प्यारा कहाँ है?

दुःख जल निधि डूबी का सहारा कहाँ है?

लख मुख जिसका मैं आजलौं जी सकी हूँ।

वह ह्रदय हमारा नैन तारा कहाँ है?

(कला पक्ष)  1.  'हरिऔध' जी ने ब्रजभाषा और खड़ी बोली दोनों में ही कविता की है, किंतु उनकी अधिकांश रचनाएँ खड़ी बोली में ही हैं। भाषा काव्य के क्षेत्र में भाव, भाषा, शैली, छन्द एवं अलंकारों की दृष्टि से हरिऔध जी की काव्य साधना महान है। इनकी रचनाओं में कोमल कांत पदावली युक्त ब्रजभाषा ( 'रसकलश') के साथ संस्कृत निष्ठ खड़ीबोली का प्रयोग (' प्रियप्रवास, ‘वैदेही वनवास' द्रष्टव्य है । इन्होंने मुहावरेदार बोलचाल की खड़ीबोली ('चोखे चौपदे' चुभते चौपदे') का प्रयोग किया । एक ओर सरल एवं प्रांजल हिंदी का प्रयोग, तो दूसरी ओर संस्कृत निष्ठ शब्दावली के साथ-साथ सामासिक एवं आलंकारिक शब्दावली का प्रयोग भी है। 

हरिऔध की भाषा प्रौढ़, प्रांजल और आकर्षक है। कहीं-कहीं उसमें उर्दू-फारसी के भी शब्द आ गए हैं। नवीन और अप्रचलित शब्दों का प्रयोग भी हुआ है। संस्कृत के तत्सम शब्दों का तो इतनी अधिकता है कि कहीं-कहीं उनकी कविता हिंदी की न होकर संस्कृत की सी ही प्रतीत होने लगती है। राधा का रूप-वर्णन करते समय देखिए-

रूपोद्याम प्रफुल्ल प्रायः कलिका राकेंदु-बिंबानना,

तन्वंगी कल-हासिनी सुरसि का क्रीड़ा-कला पुत्तली।

शोभा-वारिधि की अमूल्य मणि-सी लावण्य लीलामयी,

श्री राधा-मृदु भाषिणा मृगदगी-माधुर्य की मूर्ति थी।

भाषा पर हरिऔध जी का अद्भुत अधिकार प्राप्त था। एक ओर जहाँ उन्होंने संस्कृत-गर्भित उच्च साहित्यिक भाषा में कविता लिखी वहाँ दूसरी ओर उन्होंने सरल तथा मुहावरेदार व्यावहारिक भाषा को भी सफलतापूर्वक अपनाया। उनके चौपदों की भाषा इसी प्रकार की है। एक उदाहरण लीजिए-

नहीं मिलते आँखों वाले, पड़ा अंधेरे से है पाला।

कलेजा किसने कब थामा, देख छिलते दिल का छाला।।

2. शैली:  हरिऔध जी ने विविध शैलियों को ग्रहण किया है। मुख्य रूप से उनके काव्य में निम्नलिखित शैलियाँ पाईं जाती हैं-1. संस्कृत-काव्य शैली- प्रिय प्रवास में। 2. रीतिकालीन अलंकरण शैली- रस कलश में। 3. आधुनिक युग की सरल हिंदी शैली- वैदेही-वनवास में। 4. उर्दू की मुहावरेदार शैली- चुभते चौपदों और चोखे चौपदों में। इन्होंने प्रबंध एवं मुक्तक दोनों शैलियों का सफल प्रयोग अपने काव्य में किया। इसके अतिरिक्त इनके काव्यों में इतिवृत्तात्मक, मुहावरेदार, संस्कृत काव्यनिष्ठ, चमत्कार पूर्ण एवं सरल हिंदी शैलियों का अभिव्यंजना शिल्प की दृष्टि से सफल प्रयोग मिलता है । 

रस-छंद-अलंकार: हरिऔध जी के काव्य में प्रायः संपूर्ण रस पाए जाते हैं, रुणा वियोग, शृंगार और वात्सल्य रस की पूर्णरूप से व्यंजना। हरिऔध जी की छंद-योजना में पर्याप्त विविधता मिलती है । आरंभ में उन्होंने हिंदी के प्राचीन छंद कवित्त सबैया, छप्पय, दोहा आदि तथा उर्दू के छंदों का प्रयोग किया। बाद में उन्होंने इंद्रवज्रा, शिखरिणी, मालिनी वसंत तिलका, शार्दूल, विक्रीड़ित मंदाक्रांता आदि संस्कृत के छंदों को भी अपनाया। अलंकार- रीतिकालीन प्रभाव के कारण हरिऔध जी अलंकार प्रिय है, किंतु उनकी कविता-कामिनी अलंकारों से बोझिल नहीं है। उनकी कविता में जो भी अलंकार हैं, वे सहज रूप में आ गए हैं और रस की अभिव्यक्ति में सहायक सिद्ध हुए हैं। हरिऔध जी ने शब्दालंकार और अर्थालंकार दोनों ही को सफलता पूर्वक प्रयोग किया है। अनुप्रास, यमक, उपमा उत्प्रेक्षा, रूपक उनके प्रिय अलंकार हैं ।

सार यह कि हरिऔध जी की काव्य प्रतिभा विविध रूपिणी है। उनकी रचनाओं में रीतिकाल ,भारतेंदु युग एवं द्विवेदी युग की झलक दिखाई देती है। किंतु इनके इन समस्त रूपों में द्विवेदी युग का ही रूप प्रमुख है। भाषा और भाव दोनों ही क्षेत्रों में इन्होंने नए-नए प्रयोग किए। अतः निश्चित रूप से यह हिंदी के गौरव हैं।



    

Thursday, 7 April 2022

आन वान और शान

नर्मदा का पानी
और
एक्वागार्ड का वाटर

पेट्रोल-डीजल के भाव
और
शेयर का चढ़ना उतरना

पसीने की कमाई
और
ऊपर की कमाई
बताती है पहचानछोटे और बड़े आदमी की।।


एक दो जून की रोटी  को मरता है
और
दूसरा करोड़ों का घोटाला करता है

एक गर्मी लू बरसात में मरता है
और
दूसरा एसी फ्रिज कॉटेज में रहता है

एक शंका पर बेटी बहू की गर्दन काटता है
और
दूसरा नारी स्वतंत्र का व्यवहार करता है

दिखाती है शान छोटे और बड़े आदमी का।।

एक सरकार को कोसने को जीता है
और
 दूसरा सरकार की नमक हलाली में जीता है

एक नासमझ टैक्सी सब्जी का भाव बढ़ाता है
और
दूसरा सरकार के प्रति अपनी आस्था बढ़ाता है

एक कभी चुप नहीं रहता करता आंदोलन है
और
दूसरा मौन रहकर भी सब कुछ बोलता है

 दर्शाती है आन छोटे और बड़े आदमी की।।

यह करता हाहाकार खुदते पहाड़ मिट्टी बालू कटते जंगल पर
और
वह लिखता है कविता गाय गोबर पर्यावरण भ्रष्टाचार पर।

यह लड़ता है लाउडस्पीकर कत्लगाह मदिरालय पर
और
 वह करता है भाषण गंगा-जमुनी आर्थिक प्रगति क्रय शक्ति पर 

यह करता है कानून कचहरी पुलिस पर विश्वास
और 
वह करता है जंजीरों न्यायाधीशों कप्तानों पर उपहास
स्थापित होती है वान छोटे और बड़े आदमी की