Monday, 19 July 2021

राष्ट्र निर्माण में शिक्षकों की भूमिका

 

रामदत्त चक्रधर

राष्ट्र निर्माण में शिक्षकों की भूमिका

        शिक्षकों के बीच में राष्ट्र निर्माण की बात बताना वास्तव में सूर्य को दीपक दिखाना जैसा ही होगा। अपना राष्ट्र निर्माण करना है यानी क्या करना है ? कैसे करना है? कौन करेगा? ऐसे कई प्रकार के विचार हम सब लोगों के मन में उपस्थित होते हैं। अपने देश के एक सुप्रसिद्ध क्रान्तिकारी महर्षि अरविन्द कहा करते थे कि हरेक के मन में इच्छा रहती है कि अपना राष्ट्र अच्छा बने। लेकिन राष्ट्र अच्छा कैसे बनेगा ? तो कहते हैं कि ‘‘कल कारखानों से कोई देश नहीं बनता है। कोई बहुत बड़ी जनसंख्या होगी उससे भी देश नहीं बनता है। कोई उद्योग धंधे बहुत बड़ी मात्रा में हो गये हैं तो उससे भी देश नहीं बनता है।’’ तो देश किसके आधार पर बनता है? महर्षि अरविन्द कहते हैं कि , एक- देश के सामान्य नागरिकों के अन्दर इस देश के अतीत के बारे में गौरव का बोध होना चाहिए।दो- चूकि अतीत गौरवशाली था इसलिए वर्तमान ऐसा नहीं है इसलिए वर्तमान के बारे में उसके मन में पीड़ा होनी चाहिए।  तीन-अतीत हमारा गौरवशाली था, वर्तमान हमारा वैसा नहीं, किन्तु भविष्य में हम अपने देश को वैसा बनायेंगे उसके आँखों में सपने होने चाहिए।ऐसे जब लोग खड़े होंगे तब देश खड़ा होगा, तब राष्ट्र का निर्माण होगा।

       हमारे देश का अतीत कैसा था ? राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त कहते हैं-         

भू लोक का गौरव, प्रकृति का पुंज लीलास्थल कहाँ?

         फैला  मनोहर  गिरि  हिमालय,  और गंगाजल कहाँ,

        सम्पूर्ण  देशों  से  अधिक  किस  देश  का उत्कर्ष है,

        उसका  कि जो ऋषिभूमि है, वह कौन भारतवर्ष है।।

        हाँ,  वृद्ध  भारतवर्ष  ही     संसार का  सिरमौर  है

        ऐसा  पुरातन  देश  कोई     विश्व  में  क्या और है?

        संसार  की  भवभूतियों   का    यह  प्रथम भंडार है

        विधि ने किया नर-सृष्टि  का   पहले यहीं विस्तार है

        संसार  को पहले  हमीं ने  दी  ज्ञान  भिक्षा दान की

       आचार  की  विज्ञान की  व्यापार की  व्यवहार की।।

       ऐसा हर दृष्टि से सारी दुनिया का मार्गदर्शन करने वाला अपना परमप्रिय राष्ट्र भारत’, आज दुर्भाग्य से वैसा नहीं है। इस पीड़ा की अनुभूति वर्तमान पीढी़ के मन में है अथवा नहीं ? इस पीड़ा को निर्माण करने का काम भी हम सब बन्धुओं का है। हम सब शिक्षकों का है। यह करना है तो क्या करना पड़ेगा? तो इस देश का जो सामान्य नागरिक है उसको हम लोगों को खड़ा करना पड़ेगा। सामान्य नागरिक जब तक खड़ा नहीं होगा तब तक देश खड़ा नहीं होगा। स्वामी विवेकानन्द जी कहा करते थे-I wanta man with capital “M” मुझे मनुष्य चाहिए। लेकिन कैसे मनुष्य चाहिए, तो साधारण मनुष्य नहीं चाहिए। श्रेष्ठ उद्देश्य लेकर चलने वाले ऐसे मनुष्य चाहिए।

       डायसनेस नाम का ग्रीक देश का एक दार्शनिक भरी दोपहरी में लाखों की भीड़ में लालटेल लेकर निकलता है, वह कहता है मुझे मनुष्य चाहिए।लोग कहते हैं, ‘पागल हो गया है क्या? इतनी लाखों की भीड़ है फिर भी भरी दोपहरी में लालटेल लेकर मनुष्य ढूँढऩे के लिए निकला है, यह सब मनुष्य नहीं हैं, तो क्या है।तो डायसनेस कहता है, ‘गेट आउट, आई वान्ट मैन नाट मीन।मुझे बौने लोग नहीं चाहिये। मुझे सही अर्थों में मनुष्य चाहिए।

       राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त भी कहते हैं-

करते हैं हम पतित जनों में,      बहुधा पशुता का आरोप।

करता है पशुवर्ग कि न्तु क्या, निज-निर्सग नियमों का लोप।

मैं मनुष्यता को सुरत्व की       जननी भी कह सकता हूँ

किन्तु पतित को पशु कहना  मैं कभी नहीं सह सकता हँू।।

       जो आदमी रास्ते से भटक जाता है हम लोग कह देते हैं कि यह जानवर हो गया, पशु हो गया। किन्तु जरा चिन्तन करें, पशु भी अपनी प्रकृति के निर्सग के नियमों का उलंघन करता है क्या? तो पशु भी प्रकृति के जो नियम हैं उसका उलंघन नहीं करता। निसर्ग के नियमों का उलंघन पशु नहीं करता। जो गिरा हुआ मनुष्य है वह तो प्रकृति प्रदत्त नियमों का भी उलंघन कर जाता है, ऐसे व्यक्ति को पशु कहना यह पशु का भी अपमान करना है। यदि किसी के अन्दर सही अर्थों में मनुष्यता है तो मैं तो उसे देवताओं की जननी भी कह सकता हूँ। योद्धओं की जननी भी कह सकता हँू। ऐसे मनुष्य के निर्माण का काम किसका है, हम सब का। एक सुप्रसिद्ध कवि कहते हैंवान्टेड मैंन,नाट सिस्टम फिट,एन्वायस नाट फेट विथ अर्जेंट,नाट माउंन्टेन आइस,नाट पावन..। हरेक को अच्छा व्यक्ति चाहिए । अच्छा व्यक्ति कहाँ से आयेगा?किसी वस्तु की दुकान में नहीं मिलेगा। हम आप के बीच से ही ऐसे मनुष्यों की निर्मित करनी पड़ेगी। अभी-अभी जैसे एसियाड नामक खेल चल रहा था, वैसे ही 1982 के समय एक एसियाड 82’ भारतवर्ष में हुआ। हम सबको विदित होगा उस समय दूरदर्शन का चलन बहुत नहीं था, उस समय नया-नया टी.वी.आया था, तो लोगों ने बहुत टी.वी. की खरीददारी की थी। उस ऐसियाड 82’ का खेल देखने के लिए अमेरिका से एक बहन आई हुई थी। खेल एक महीने तक चला। उनके मन में विचार चला कि आखिर इतनी दूर आई हूँ तो भारत में मेरी एक सहेली रहती है उससे मिल लूँ। उसकी सहेली कलकत्ता में रहती थी। कलक त्ता चली आई। हमारे देश का शौभाग्य कहें या दुर्भाग्य कहें, विदेशी यदि कोई आया है या विदेशी कोई सामने दिखा तो उसके प्रति आकर्षण कुछ ज्यादा ही दिखाई देता है। वह बहन आई हुई थी। उनको मिलने के लिए, हाथ मिलाने के लिए कई लोग उनके घर पर आ गये। उस सहेली ने सोचा इतने लोग आये हैं तो एक छोटा सा चाय का कार्यक्रम क्यों न रखें। चाय का कार्यक्रम रख लिया। लगभग चालीस-पचास लोग आ गये। लोगों के बीच प्रश्रोत्तर का कार्यक्रम हुआ। लोगों ने पूछा, ‘बहन जी, आपका अमेरिका कैसा है?’ उन्होंने कहा, ‘बहुत अच्छा है। उन्होंने अमेरिका की कुछ चार-छह बातें बताईं। तो उन लोगों ने पूछा, ‘आपको हमारा कलकत्ता कैसा लगा।उस बहन ने स्वाभाविक रूप से, वह तो अतिथि ही थी, उन्होंने कहा, ‘बहुत अच्छा है तुम्हारा कलकत्ता।फिर दो-चार ने कुरेदने की कोशिश की, ‘नहीं, कुछ तो बताइये कलकत्ता के बारे में।तो उस अमेरिकन बहन ने बताया कि कलकत्ता शहर है तो बहुत अच्छा, किन्तु जगह-जगह गन्दगियों का ढेर है, दुर्गन्ध है।तो एक बहन ने खड़े होकर कहा, ‘मैडम आप जानती नहीं, कलकत्ता की आवादी 85 लाख से ऊपर है।यानी उस गंन्दगी का कारण क्या है, यह पच्चासी लाख की जनसंख्या है। उस अमेरिका की बहन ने तपाक से उत्तर दिया, ‘इस कलकत्ता की गन्दगी को दूर करने को और कितने लाख लोग चाहिए ?’ सवाल इस बात का है कि लोग तो हैं, लेकिन लोग कैसे हैं। जनसंख्या जब देश के बारे में चिन्तन करने वाली बनती है, जनसंख्या जब देश के पर्यावरण, स्वच्छता अन्य सारी बातों को सोच कर काम करने वाली होती है, तो जनसंख्या भार नहीं देश के लिए एसेट्सहोती है।

       उत्कृष्ट विद्यालय के प्राचार्य ही नहीं तो समस्त शिक्षकों की भूमिका क्या है? तो इस देश के तरुणों को देश के एसेट्सके रूप में बदलने का महती दायित्व हम सब का है। इस दायित्व को हम सब ने स्वीकार करना है।

       बन्धुओं, बहनों! अपने देश के जितने भी अमूलाग्र चिन्तक हैं, उन सब ने भारत के निर्माण के बारे में क्या विचार किया था, क्या चिन्तन किया था? अपने देश के पूज्य महात्मा गांधी, वे 1948 में हरिजननामक पत्रिका में लेख के माध्यम से कहते हैं, ‘स्वराज्य तभी तक कायम रह सकता है, तभी काम कर सकता है और तभी सफल हो सकता है, जब इस देश की बड़ी संख्या में नैतिक और राष्ट्रीय लोग अपने निजी लाभ को एक किनारे करके और तमाम दूसरे सरोकारों से ऊपर उठकर राष्ट्रीय हित को सर्वोपरि मानकर काम करेंगे, तभी देश का स्वराज्य कायम रहेगा, स्वराज्य सफल होगा।

       सुभाष बाबू आजाद हिन्द फौजके निर्माता, वे कहते हैं, ‘चमत्कारी जन उर्जा को प्रवाहमान बनाकर, उसको दिशा देने वाला एक अनुशासित संगठन देश के अन्दर खड़ा करना इस देश के सामने अत्यन्त आवश्यक है। जो नि:स्वार्थी हो, देशभक्ति से युक्त हो, और अनुशासित हो।

       डॉ ए.पी.जे.अब्दुल कलाम, इस देश के पूर्व राष्ट्रपति, कहते हैं कि, ‘‘भारत दुर्वल क्यों हो गया क्योंकि हमने शक्ति की उपासना को तिलांजलि दे दी।’’ शक्ति कहाँ है?  ए.पी.जे कहते हैं, ‘‘शक्ति सेना में नहीं है, शक्ति पुलिस के अन्दर भी नहीं, शक्ति शासन के अन्दर भी नहीं, शक्ति प्रशासन में भी नहीं है, तो शक्ति कहाँ है? तो जनता के बीच में है।’’ लेकिन कौन सी जनता? तो वे रेखांकित करते हुए कहते हैं, ‘‘अपने आँखों से स्वार्थ का पर्दा हटाकर, देश को बड़ा बनाने का सपना लेकर खड़ी हुई जनता। उसकी जो शक्ति है, सबसे बड़ी शक्ति है। उस शक्ति को खड़ा किए बिना देश खड़ा नहीं होगा।’’ यह देश के पूर्व राष्ट्रपति कहते हैं।

       स्वं. कुरियन हम सब ने नाम सुना होगा। दुग्धक्रांति के जनक, जिन्होंने गुजरात के अन्दर आणन्दनाम की सरकारी संस्था में काम करके पैतीस लाख लोगों को रोजगार उपलब्ध कराने में सफलता प्राप्त की। वे अपने अनुभवों को बाँटते हुए कहते हैं, ‘‘केवल सरकारी मशीनरी और तंत्रों पर भरोसा रख कर, कोई भी विधायक काम, इस देश की चेतना का भाव जगाए बिना कुछ भी संभव नहीं है। सामान्य नागरिकों के मन के अन्दर देशार्थबोध की चेतना जगाना और उनके सद्गुणों का स्तर ऊँचा करना यह काम लम्बा है, रास्ता भी लम्बा है, लेकिन इसके अलावा दूसरा कोई सार्टकट भी नहीं है। इस देश के जितने भी अमूलाग्र चिंतक हैं, चाहे विचारगत किसी भी प्रकार से हो, साम्यवादी हो, अन्य किसी भी विचारधारा को मानने वाला हो- पूँजीवादी हो, समाजवादी हो, निष्कर्ष पर जायेंगे, अन्तिम बिन्दु पर जायेंगे तो सब

का निष्क र्ष एक ही है। सामान्य नागरिकों के गुणों का स्तर जब तक नहीं बढ़ायेंगे तब तक कुछ भी सम्भव नहीं है। हमारे देश के सामान्य नागरिकों के सोचने का स्तर कैसा है, दिशा कैसी है? ए.पी.जे.अब्दुल कलाम जब राष्ट्रपति बने उनका बैठक का एक कमरा था, उस बैठक के कमरे में महाद्वीपों के चित्रों क ा बहुत सुन्दर एक कैलेण्डर लगा था। यूरोप, अफ्रीका, आस्ट्रेलिया ऐसे महाद्वीपों का कैलेण्डर। वह कैलेण्डर इतना खूबसूरत, इतना सुन्दर था कि देखने में हरेक को आकर्षित करता था। जो भी लोग आते थे सब देखते थे। डॉ.साहब यह कैलेण्डर तो बहुत अच्छा बना है, डॉ साहब कहते थे, यह कैलेण्डर जर्मन कम्पनी ने छापा है। तो बैठे हुए लोग कहते थे, वाह! क्यो नहीं। जर्मन तो आखिर देश वैसा ही है, क्यों नहीं छापेगा। लेकिन जब डॉ.ए.पी.जे. कहते, ‘ये छापा जर्मन कम्पनी ने जरूर है लेकिन जो ये चित्र प्राप्त हुआ, यह भारतीय उपग्रह से प्राप्त हुआ चित्र है।यह सुनकर सब लोग आश्चर्य चकित हो जाते थे। ऐसे कैसे सम्भव है? डॉ.ए.पी.जे.अब्दुल कलाम उन अतिथियों को कैलेण्डर के पास ले जाकर दिखाते थे कि जर्मन कम्पनी ने नीचे लिखा है, ‘साभार-यह चित्र हमको भारतीय उपग्रह से प्राप्त हुआ है, हमारी कम्पनी ने इसे छापा जरूर है इसलिए हम भारतीय उपग्रह का आभार व्यक्त करते हैं।जब ऐसा लिखा हुआ दिखाया तो लोगों को आश्चर्य लगता था। मन में गौरव बोध नहीं होता था, आश्चर्य लगता। यह भारत का मानस है।

       हम सबको मालूम ही है कि पुरी के पूर्व शंकराचार्य भारती कृष्ण तीर्थ जी ने अपनी साधना द्वारा शुल्ब सूत्रों और वेद की पृष्ठभूमि से गणित के कुछ अद्भुत सूत्रों और उपसूत्रों का आविष्कार किया। इन 16 मुख्य सूत्रों और 13 उपसूत्रों के द्वारा सभी प्रकार की गणितीय गणनाएँ, समस्याएँ अत्यंत सरलता और शीघ्रता से हल की जा सकती हैं। इन सूत्रों के आधार पर उन्होंने एक पुस्तक लिखी वैदिक मेथेमेटिक्स। पुस्तक के महत्व को ध्यान में रखते हुए मुंम्बई में टाटा द्वारा मूलभूत शोध हेतु स्थापित संस्थान में कुछ लोग गये और वहाँ के प्रमुख से आग्रह किया कि गणित के क्षेत्र में यह एक मौलिक योगदान है, इसका परीक्षण किया जाये तथा इसे आपके पुस्तकालय में रखा जाये, तो संस्थान ने इसे यह कह कर स्वीकृति नहीं दी कि हमारा इस पर विश्वास नहीं है। जिस पुस्तक को नकार दिया गया वह देश में विचार का विषय आगे चलकर तब बनी,जब एक विदेशी गणितज्ञ निकोलस ने इंग्लैण्ड से आकर मुंबई में कुछ गणितज्ञों के सामने इन अद्भुत सूत्रों के प्रयोग बता कर कहा कि यह तो मेजिकहै। इसका प्रचार-प्रसार टाइम्स ऑफ इंडिया ने किया। यह घटना बताती है कि एक विदेशी इसका महत्व न बतलाता तो उसे मानने की हमारी मानसिकता नहीं थी।  तरुणाई के अन्दर गौरव बोध कैसे खड़ा होगा? यह खड़ा करने काम एक गंभीर दायित्व हम सबका है। मैं कहना चाहता हूँ कि भारत का सोचने का ढंग यूरोसेन्ट्रिक हो गया है। उसको भारत केन्द्रित बनाने की महती जिम्मेदारी हम सब को मिलकर उठाने की आवश्यकता है।

       भारत यूरोसेन्ट्रिक नहीं भारत सेन्ट्रिक होना चाहिए। इस देश के बारे में कहा जाता है कि भारत युवाओं का देश है, सबसे ज्याद युवा कहाँ हैं ? तो भारत में हैं। सही बात है। इस समय उन्चास वर्ष अमेरिका की औसत आयु है। पूरे यूरोप की औसत आयु पैतालीस वर्ष है।, चाईना की आयु सैतीस वर्ष है, भारत की औसत आयु तीस वर्ष है। वर्तमान में सारी दुनिया के अन्दर सबसे युवा देश कौन है? तो भारत है। जहाँ ज्यादा युवा होंगे,वह देश ज्यादा उर्जावान होगा। उस देश की पोटेशियलिटी, उस देश की क्षमता स्वाभाविक है,ज्यादा होगी। लेकिन इस देश के युवा को ठीक दिशा देने,उसके निर्माण का काम किसका है? तो हम सब का। एक बार कालेज विद्यार्थियों के पिकनिक का कार्यक्रम तय हुआ। लेकिन वे ग्रामीण क्षेत्र में गये। आज कालेज में पढऩे वाले युवक गाँव देखे नहीं है, गाँव गये, साथ में प्राध्यापक भी थे। एक स्थान पर सडक़ के किनारे किसान रहट चला रहा था। रहट सब समझते होंगे। कुए के पानी छोटे-छोटे थैले या टिब्बों में से निकलता है। बैल चालू करने पर उसका फन्गसनिंग, उसका क्रियान्वयन कैसे होता है, यह दिखाने के लिए बस खड़ी कर दी, छात्रों को वहाँ किसान के खेत पर ले गये। किसान थोड़ी दूर पर काम कर रहा था। छात्रों को प्राध्यापक समझाने लगे, ‘देखो रहट कैसे चलती है। बैल घूम रहा है, चक्र घूमता है। अन्दर जाता है और डब्बे में से पानी भरकर बाहर निकालता है।धूप में काम कर रहा किसान जब आये हुए छात्रों को देखा तो वह भी आ गया। प्राध्यापक ने कहा, ‘किसान भइया जरा हमारे छात्रों को रहट की क्रिया विधि समझाओं।किसान ने बताया ऐसा-ऐसा होता है। बैल चलता है, पानी निकलता है, वह खेतों में, क्यारियों में जाता है। एक छात्र ने प्रश्र किया, ‘किसान भइया आप तो धूप में काम कर रहे थे, आपको कैसे पता चलता है कि बैल घूम रहा है तो किसान ने उत्तर दिया, ‘अरे भइया बैल के गले में घंटी बँधी हुई है, घंटी बजती रहती है, मैं समझता हूँ कि बैल घूम रहा है।छात्र जिज्ञासु होते हैं न,उस छात्र ने प्रति प्रश्र किया,‘किसान भइया यह भी तो हो सकता है कि बैल खड़ा रहे और अपनी गर्दन हिलाता रहे तो घंटी तो बजती रहेगी, किन्तु हट तो चलेगा नहीं। पानी तो निकलेगा नहीं।किसान का उत्तर बड़ा मार्मिक   था। वह बोला, ‘मेरा बैल आपके विश्वविद्यालय य विद्यालय में पढ़ा हुआ नहीं है। इसलिए ऐसी चालाकी नहीं करेगा।प्रश्र इस बात का है, कि हम विद्यार्थी को शिक्षा तो दे रहे हैं लेकिन शिक्षा उसके जीवन को देश के लिए उपयोगी बनाने वाली   है अथवा नहीं। या उसके माध्याम से चालाकी और चतुराई बढ़ रही है। शिक्षा के साथ हम सब लोगों को संस्कार देना होगा।

       हम सब जानते हैं संस्कार कहाँ से मिलेंगे? तो संस्कार का यदि उत्स है तो अध्यात्ममें ही। हम सब लोग अन्ना हजारे के गाँव के बारे में जानते हैं- रालेगाँव सिद्धि। महाराष्ट्र से कुछ पत्रकार और समाजवादी कार्यकर्ता उस गाँव का निरीक्षण करने के लिए गये थे। सब प्रकार से अध्ययन किया,सब प्रकार के जो परिवर्तन हुए वह भी उन्होंने आँखोंं के सामने देखा। अन्ना हजारे उनको एक मन्दिर में ले गये, मन्दिर बन रहा था, उन्होंने पूछा इस मन्दिर का बजट क्या है? कितना खर्च  हो रहा है? अन्ना हजारे जी ने बताया कि इस मन्दिर में इतना खर्च होने वाला है। तो जो लोग देखने गये थे,उन्होंने कहा ये मन्दिर में जो पैसा खर्च कर रहे हैं, वह फिजूल खर्ची नहीं है? अपव्यय नहीं है क्या? अन्ना हजारे ने कहा- कि आपने अभी पूर भ्रमण किया ही कहाँ है, पूरा भ्रमण करके आइये फिर बताइये। आगे उनको आम के बगीचे में ले गये, आम के बगीचे में आम फला हुआ है। फलों से लदा था। ऐसा लदा था कि कोई राहगीर राह चलते-चलते भी फल तोड़ सकता था किन्तु फिर भी वे फल सुरक्षित थे, एक भी फल तोड़े नहीं गये। जो लोग गये थे उनको बड़ा आश्चर्य लगा किये फल इतने निकट हैं फिर भी कोई क्यों नहीं तोड़ता?’ अन्ना हजारे ने उत्तर दिया-आपने जो पहला प्रश्र पूछा था, मन्दिर में इतना खर्च क्यों कर रहे हैं, उसका उत्तर यही हैै।

       इस देश की तरुणई को दिशा देने का काम, संस्कार देने का काम हम सबको करना होगा। और यह करना है तो क्या करना पड़ेगा। कैसे करना पड़ेगा। अंगे्रजी में कहते हैं, ‘यू कैन नाट टीच, ह्वाट यू वॉट’, आप जो चाहते है, वह बच्चों को नहीं सिखा सकते। यू कैन नाट टीच, ह्वाट यू नो’, आप जो जानते हैं, वह भी बच्चों को नहीं सिखा सकते। यू कैन ऑनली टीच ह्वाट यू आर।बच्चों को आप वही शिक्षा दे सकते हैं, जो आप हैं। आप यदि समय का पालन करते हैं तो बच्चों को बोलना नहीं पड़ेगा। वह अपने आप पाबन्द होता जायेगा। आप प्रामाणिक हैं तो आपक ो बोलना नहीं पड़ेगा, बच्चे खुद व खुद प्रामाणिक होते जायेंगे। आप अपनी दिनचर्या का पालन ठीक करते हैं तो बच्चों को कहना नहीं पड़ेगा, धीमें-धीमें वह देख कर वैसा ही दिनचर्या को पालन करने वाला बनेगा।

       मैं अभी एक दौरे में झारखण्ड गया था। वहाँ के एक बहुत पुराने अध्यापक ने अपना अनुभव सुनाया। उन्होंने अपने समय का अनुभव सुनाया हमारे एक अध्यापक थे तो कैसे थे, वे कहा करते थे कि कोई भी बच्चा यदि पाँच मिनिट भी क्लास रूप में देरी से आया है तो उसकी सजा क्या है? उसको क्लास से वंचित नहीं होना है किन्तु पूरे पीरियड में पीछे बेंच पर खड़ा होकर शिक्षा ग्रहण करेगा। यह उसकी सजा है।पढ़ाई से वंचित नहीं किंतु पीछे बेंच पर खड़े हो जाओ और वहीं से पढ़ो। कोई भी देर से आया यह करता था। एक दिन की घटना सब बच्चे खेल रहे थे। कक्षा का मानीटर प्राचार्य महोदय के पास जा कर बोला, ‘हमारे कक्षा शिक्षक नहीं आये हैं तो कृपया किसी को भेज दीजिये।प्राचार्य महोदय ने कहा, ‘उनका कोई आवेदन तो आया नहीं है जो शिक्षक आने वाले नहीं हैं ? इसलिए वे जरूर आयेंगे कोई न कोई ऐसी घटनाएँ हो गई होगी जिसके कारण वे नहीं आ सके। यदि नहीं आना होता तो उसका आवेदन जरूर आता। यदि नहीं आया है तो इसका मतलब है वे जरूर आयेंगे।उस शिक्षक के प्रति इतना विश्वास प्राचार्य के मन में भी था। कैसे शिक्षक  रहे वे? उस दिन बीस मिनिट देर से आये। देर से आये, सब बच्चे क्लास रूम के अन्दर। उन्होंने पढ़ाना शुरु किया। जो उपस्थिति ली वह भी उन्होंने खड़े-खड़े लिया। कुर्सी के ऊपर अपना एक पैर रखा और खड़े-खड़े उपस्थिति ली। और स्वयं बेंच पर खड़े हो कर एक घन्टे की कक्षा ली। एक घंटे की कक्षा उन्होंने पढ़ाया। उनके विद्यार्थियों ने बहुत आग्रह किया, ‘सर, आप कुर्सी में बैठ जाइये। किसी की बात नहीं सुनी। तब अध्यापक ने अपने विद्यार्थियों से कहा, ‘मैं प्रतिदिन आप लोगों से बोलता था एक मिनिट भी कोई छात्र विलम्ब से आयगा तो उसको पूरे पीरियड में बेंच में खड़ा होकर शिक्षा ग्रहण करनी पड़ेगी। क्लास अटैण्ड करना पड़ेगा। मैं आज बीस मिनिट देर से आया हूँ, चूकि मैं आप सब लोगों को बताने बाला शिक्षक हूँ, इसलिए मेरी जिम्मेदारी आप लोगों से कई गुना ज्यादा है। इसलिए मैं आपको केवल बताने वाला नहीं हँू तो वह मेरे जीवन में भी उतरना चाहिए। इसलिए आज यह सजा मैं स्वयं भोगूँगा।ऐसा शिक्षक होगा तो उसके सामने विद्यार्थी का मस्तक झुकेगा कि नहीं झुकेगा ? हमको यदि ऐसे विद्यार्थी खड़ा करना है तो अपना उदाहरण ऐसा रखने की आवश्यकता नहीं है क्या ? स्वामी विवेकानन्द का पूरा मिशन पढ़ें और उसे एक वाक्य में कहना हो तो कहेंगे, ‘मैन मेकिंग नेशन बिल्डबी ए मैन।पहले बीखुद बनो फिर दूसरों को बनने के लिए कहो। अन्यथा हमारी बातों का काई असर नहीं पडऩे वाला है। ऐसे स्वामी जी वो सबसे अच्छे अध्यापक थे। अच्छे गुरु थे। उनके जीवन का एक प्रसंग, एक शिक्षक कैसे बने? रामकृष्ण मिशन में रहते थे, सब शिष्य दिनचर्या का पालन करते। सब शिष्य समय पर उठते थे। एक शिष्य बिल्कुल समय का पालन नहीं करता। देर से उठना, देर से सब काम करना। समय का पालन नहीं करना। स्वामी जी उसको एक बार, दो बार, तीन बार, बहुत बार समझाया, नहीं माना। स्वामी जी ने कहा, ‘अब भई, तुमको बहुत बार समझा दिया तुम मानते नहीं हो। तो आज तुम्हारी सजा यह है कि आश्रम के लिए भिक्षा माँगकर तुम लाओगे, तब इस आश्रम का भोजन बनेगा। तब तक नहीं बनेगा।चूकि आश्रम में रहना है तो भिक्षा माँगने के नियम का पालन करना पड़ेगा। गया भिक्षा माँगने के लिए। भिक्षा माँगते-माँगते आश्रम के लिए कुछ जुटा कर के लाया तो तीन-चार बज गये। सुबह से निकला था भिक्षा माँगने। बाद में भोजन बना। भोजन बना तो सब लोग बैठे। उसको लगता था कि स्वामी जी बगैरह सब लोग भोजन कर लिये होंगे। चार-चार बजे तक कहाँ रुकेंगे आश्रम में। किन्तु स्वामी जी भोजन नहीं किए थे। जब भोजन के लिए पंक्ति बैठी तो स्वामी जी ने कहा कि भई जब तुमने भोजन नहीं किया तो हम कैसे भोजन कर सकते हैं।उस शिष्य को उस दिन से ध्यान में आ गया कि ये जो स्वामी जी हैं वे केवल मेरे लिए गुरु ही नहीं हैं, मेरे मार्गदर्शक भी हैं। मेरे सब प्रकार से हितों का ध्यान रखने वाले हैं अन्यथा कोई दूसरा होता तो भोजन कर लेता। ठीक है ये जब आयेगा तो करेगा। किन्तु अपने यदि इस शिष्य को शिक्षा देनी है तो अपना उदाहरण,उसके अलावा काई दूसरा रास्ता नहीं।भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं, 

             यद्यदाचरति श्रेष्टस्तत्तदेवेतरो  जना:।

             स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।   (गीता/3/21)

       इस देश का प्रबुद्ध जैसे चलेगा, शेष लोग भी उनका अनुकरण करेंगे, तो इस देश का प्रबुद्ध ठीक दिशा में चले। आज आवश्यकता इस बात की है कि इस देश का प्रबुद्ध जो ठीक दिशा में नहीं चल रहा है उसे ठीक दिशा में चलायें।

       हम उत्कृष्ट विद्यलय के प्राचार्य हैं। हर जिले में एक उत्कृष्ट विद्यालय,याने उत्कृष्ट है तो बाकी से कुछ मायने में तो अच्छा होगा? ऐसे अच्छे विद्यालयों के प्राचार्य यदि अपने जीवन के अन्दर छोटी-छोटी बातों को उतारकर के  सीख देना प्रारंभ कर दें तो पूरे प्रदेश के अन्दर एक शैक्षिक बातावरण निर्मित होगा। बाकी पूरे जिले के विद्यालय को अपना विद्यालय दर्शन कराने के लिए हम बुला सकते हैं। पर्यावरण के बारे में देखना हो तो उत्कृष्ट विद्यालय देखों। अनुशासन के मामले में देखना हो तो उत्कृष्ट विद्यालय देखो। पढ़ाई के स्तर के मामले में देखना हो तो उत्कृष्ट विद्यालय देखो। सामाजिक संवेदना के स्तर के बारे में देखना हो तो उत्कृष्ट विद्यालय देखो।पूरे जिले को दिशा देने वाला काम यह उत्कृष्ट विद्यालय कर सकता है। लेकिन उसके लिए हम सब बन्धुओं को कटिबद्ध होना पड़ेगा।

       क्या प्राचीन काल में ऐसे आध्यापक और शिक्षक हुए ? क्या आज वैसे शिक्षकों का आभाव हो गया है। ऐसा बिल्कुल नहीं है। आज के परिपेक्ष्य में सैकड़ों उदाहरण आप के सामने मैं रख सकता हँू जो शिक्षा को मिशन बनाकर काम करते हैं। प्रो राजेन्द्र सिंह, इलाहाबाद विश्वविद्यालय में भौतिकी के प्राध्यापक हुआ करते थे। उनकी कक्षा को अटेण्ड करने के लिए छात्र कितनी भी दूर हो, कितनी भी दूर हो उनका गाँव-शहर हो, तो भी उनकी क्लास को अटैण्ड करने के लिए हर छात्र लालायित रहता था। क्यों ? क्योंकि उनका जीवन ऐसा था। एक दिन की घटना, ‘एक छात्र कालेज मेें प्रवेश लेने गया, प्रवेश मिल गया। किन्तु बाहर मैदान में बहुत गुमसुम एक दीवार के किनारे खड़ा। चेहरा उतरा हुआ। राजेन्द्र सिंह ने उसे बुलाया। क्यों, तुम बड़े उदास हो? कहाँ से आये हो?’ गाँव पूछा। उसने बताया। क्यों उदास हो, क्या बात है। प्रवेश नहीं हुआ। उन्होंने कहा, ‘प्रवेश तो हुआ किन्तु मैं तो गाँव से हूँ, मुझे पता नहीं कौन सा विषय लेना चाहिए, कौन सा विषय उपयोगी हैं। मैंने विषय भर दिया, बाद में मित्रों ने बताया उस विषय से तो तुम्हारा पूरा जीवन ही खराब हो जायेगा। उस विषय का कोई मतलब ही नहीं है, मैं विषय बदलना चाहता हूँ।यहाँ के बाबू कहते हैं, तुम एक बार फार्म भर चुके, अब तुम्हारा विषय नहीं बदलेगा। तुम्हारा जो कुछ होना है, हो गया। अब तुम्हें उसी विषय में पढऩा पड़ेगा। कोई बात नहीं। चलो मेरे साथ। आओ अभी तो कक्षाएँ शुरु भी नहीं हुईं हैं।उन्होंने वहाँ के बाबू , रजिस्ट्रार को बुलाया। उनको कहा कि, ‘इसकी समस्या यह है,क्या यह नहीं बदल सकता?’ ‘बदल सकता है।प्रो. राजेन्द्र सिंह भौतिकी के विभागाध्यक्ष, वे बोलेंगे तो क्या है। उन्होंने उस विद्यार्थी को कहा, ‘देखो भइया, तुमको जब भी कठिनाई हो मेरे पास आ जाना।प्रो. राजेन्द्र सिंह उसके स्थानीय अभिभावक बने। शिक्षा ली और वह शिक्षार्थी आगे चल कर क्या बनता है? जगमोहन सिंह राजपूत। इस देश की शिक्षा को दिशा देने वाले एन.सी.आर.टी. का प्रमुख बनता है। जगमोहन सिंह राजपूत को कैसे निर्माण किया? गढऩे वाला कौन था? प्रो. राजेन्द्र सिंह। एक हमारे आप जैसे शिक्षक। गुमसुम खड़ा किनारे छात्र कागढऩे का काम किया।

       एक बहुत प्रसिद्ध सैन्य अधिकारी। सैन्य अधिकारियों का इन्टव्यू करनका प्रमुख रूप से उत्तरदायित्व निर्वहन करने का काम जिसके पास ऐसे, एस.के.जोशी। कैसे बने? दो मित्र बगीचे के प्रकाश से पढ़ते थे। एक दिन प्रो. राजेन्द्र सिंह उस बगीचे में घूम रहे थे उनको बगीचे में लाइट में पढ़ते देख पूछा, ‘क्यों तुम्हारे घर में बिजली नहीं है ?’, ‘नहीं, ‘काहे से पढ़ते हो।’, ‘लालटेन से।’, ‘तो? घर में क्यों नहीं पढ़ते?’, ‘मिट्टी का तेल खत्म हो गया। हम किराये के मकान में रहते हैं। उसके लिए पैसा नहीं, इसलिये हम बगीचे की स्ट्रीट लाईट में पढ़ते हैं।  प्रो. राजेन्द्र सिंह ने कहा, ‘मेरे घर में चलो।राजेन्द्र सिंह कौन थे? स्वतंत्र भारत के उत्तरप्रदेश के पहले चीफ इंजीनियर के बेटे। कितना बड़ा स्थान था, उनका। किन्तु फिर भी उनकी विद्यार्थियों के बारे में संवेदना कैसी थी? यह बताने का हेतु है।  उन्होंने उनको कहा, ‘चिन्ता की कोई बात नहीं। तुम लोग हमारे घर में रहो। एक कमरे में दोनों विद्यार्थी रहो। सब प्रकार की देखरेख होगी।घर ले जाकर उनकी सब प्रकार की व्यवस्था की और उनको पढ़ाया। आगे चल कर वही एस. के. जोशी बड़े सैन्य आधिकारी बने।

       एक-एक छात्रों को निर्माण करने का काम, यह संवेदना जागृत होनी चाहिए। बनारस हिन्दू विश्व विद्यालय के पीरियोडिक सर्जन बृजेन्द्र जी। अच्छे सिद्धहस्त डाक्टर। विदेशों से बहुत आफर आया। लाखों रूपये का पैकेज आया। वे क्या कहते हैं, ‘‘बाहर जा कर मुझे पैसे तो बहुत मिल जायेंगे। लाखों रूपये मिल जायगे। किन्तु ये बच्चे मुझे कहीं नहीं मिलेंगे। ये बच्चे मेरी पूँजी हैं। इन बच्चों का सुख ही मेरा सुख है। मैं इसी में सुखी हूँ।’’ एक पीरियाडिक सर्जन अपने बच्चों के लिए उसके निर्माण के लिए वह अपना जीवन खपा जाते हैं। लाखों रूपये का पैकेज ठुकरा देते हैं।

       नीलतम धर। श्रीमती इन्दिरा गांधी के वैज्ञानिक सलाहकार। कैसा था उनका जीवन। वे भी प्राध्यापक थे। जब इन्टरव्यू लेने के लिए जाते थे, तो लोग पूछते थे, ‘सर, आपकी अटैची कहाँ है?’ अटैची? कुछ नहीं, ‘एक कपड़े की पोटली रहती थी।धनिया-मिर्ची में भी पैसा बचाते थे। बहुत साधारण था उनका जीवन। ऐसे नीलतम धर गरीब बच्चों के लिए हर समय जान हाजिर। वे पैसा बचाकर करते क्या थे? बाद में उनका जीवन समाप्त हुआ तो उनकी वसीयत थी, जिसमें उन्होंने अपनी कोठी विश्ववि. को दान कर दिया। और जीवन समाप्त होने के पहले ही रसायन की प्रयोगशाला बनाने के लिए एक-एक लाख रूपया अपने मित्रों को दिया। नीलतम धर, प्रो राजेन्द्र सिंह यह हम भी हो सकते हैं, पीरियाडिक सर्जन ब्रिजेन्द्र यह हम भी हो सकते हैं। एक छात्र का प्राध्यापक हम भी बन सकते हैं।

       बन्धुओ और भगिनियो, आज सारा विश्व भारत की ओर आशा भरी दृष्टि से देख रहा है। भारत की तरफ क्यों आशा भरी दृष्टि से देख रहा है?  क्योंकि भारत का चिन्तन ही वसुधैव कुटुम्बकम्का चिन्तन है। भारत का चिन्तन ही सर्वेभवन्तु सुखिन:का चिन्तन है। और वह इसलिए है क्योंकि भारत दुनिया के अन्दर एक मात्र आध्यात्मिक देश है। हम सब लोगों को छात्रों के अन्दर, युवाओं के अन्दर उस आध्यात्मिकता का बीजारोपण करना पड़ेगा। आध्यात्मिक क्षेत्र बालक के अन्दर अंकुरित हुआ तो हम समझेंगे कि हमारा जीवन सफल हो गया। आज सारी दुनिया सुख की तलाश में भारत की ओर दौड़ रही है। अपने देश के अन्दर सारी दुनिया के लोग आशाभरी दृष्टि से देख रहे हैं। इसी अध्यात्म को प्राप्त करने। इसी आध्यात्मिक शान्ति के लिए। कुछ वर्ष हो गये रूस के तानाशाह थे स्टालिन। उनकी बेटी का नाम श्वेतलाना। भारतवर्ष में आई थी। प्रयाग में गंगा के किनारे छोटी सी कुटिया बनाकर रह रही थी, जब लोगों को पता चला कि स्टालिन की लडक़ी श्वेतलाना प्रयाग में गंगा किनारे झोपड़ी में रहती है,चलो जरा मिला जाय। बहुत से लोग मिलने गये। श्वेतलाना को कहा, ‘श्वेतलाना जी आप तो बहुत बड़े तानाशाह की बेटी हैं, आपके पास क्या कमी है? कार है, मोटर है, बॅगला है, नौकर हैं, चाकर हैं, सब कुछ तो हैं फिर भी आप इस छोटी सी कुटिया में !श्वेतलाना जी का उत्तर था, ‘मेरे पास सब कुछ है-कार है, मोटर है, बॅगला है, नौकर हैं, चाकर हैं किन्तु मेरे पास आत्मिक सुख नहीं, आत्मिक शांति नहीं है।मुझे छोटी-सी कुटिया में, झोपड़ी में आत्मिक सुख है। श्वेतलाना शान्ति की खेाज में भारत गंगा के किनारे आई।

       अमेरिका के उस समय के पहले और शिखर पूँजीपति थे- हेनरी फोर्ड। फोर्ड परिवार अभी भी वहाँ का पूजीपति घराना माना जाता है। उनके उत्तराधिकारी (परपोते) थे-अल्फे्रड फोर्ड। वे भगवान कृष्ण के भक्त बन गये। वे हिन्दुस्थान में आये थे। यहाँ कुछ पत्रकारों ने उनकों घेर लिया। यहाँ के प्रगतिशील लोगों को इस बात का बड़ा दु:ख था कि इतना बड़ा अमेरिकन पूँजीपति भगवान श्रीकृष्ण का भक्त कैसे हो सकता है। यह कैसे दकियानूसी और प्रतिगामी विचार का शिकार हो गया। यह दकियानूसीपन, प्रतिगामीपन देखकर यहाँ के प्रगतिशील पत्रकार उन पर दयाभाव से प्रश्र किए कि- ‘‘आप यदि कृष्ण की भक्ति में लग गये तो आपकी सम्पति का क्या होगा?’’ फोर्ड ने उत्तर दिया, “wealth? Whose wealth ? All wealth belongs to lord Krishna” यह सुनकर कलकत्ता के प्रगतिशीलों को बड़ा दु:ख हुआ।

       इसलिए इस देश की तरुड़ाई के अन्दर कहीं न कहीं आध्यात्मिकता काअंकुर स्थापित करना पड़ेगा। मैं समझता हँू एक शिक्षक के नाते राष्ट्र निर्माण की एक गंभीर जिम्मेदारी है, यह केवल मैं आप लोगों को नहीं कह रहा हूँ, यह हम सब की सामूहिक जिम्मेदारी है। नई पीढ़ी को ठीक दिशा देने को, नई पीढ़ी को खड़ा करने को। भारत सबल राष्ट्र बनने की दिशा में अग्रसर है। चर्चिलइग्लैण्ड की संसद में भारत की स्वाधीनता के पूर्व अपने भाषण में उन्होंने कहा था, ‘कि जिस भारत को आजादी देने की तरफ हम अग्रसर हैं, वहाँ इतनी ला लेशनेश की स्थिति है, मोस्ट इन्डीसिपिलिन्ड सोसाइयटी ऑफ दि वर्ड, यह भारत है। क्या भारत में ला लेशनेश की स्थिति के जिम्मेदार हम नहीं बनेंगे? भारत को आजादी देकर हम गलत रास्ते पर नहीं चल रहें ? भारत बिखर जायेगा टुकड़ों में।उसी इंग्लैण्ड का वित्त मंत्री अभी एक साल पहले भारतवर्ष में आकर, कह कर गया, ‘भारत अद्भुत देश है, यह कभी बिखरता नहीं है। यह कभी खण्ड नहीं होता है। जब भी इस पर संकट आता है, सारा भारत एक हो जाता है। अद्भुत प्रकार का देश है भारत।अमेरिका कहता था, ‘यहाँ करोड़ों लोग भूखे रहते हैं, भारत भूखों मर जायेगा।वही भारत आज छब्बीस करोड़ टन केवल चावल का उत्पादन कर चावल उत्पादन का नम्बर एक का देश बन गया है, दूसरे नम्बर में गेहू उत्पादन आता है। भारत केवल भारत के लोगों को खिलाता नहीं बल्कि दुनिया के अन्य देश के लोगों को भी चावल खिलाने वाला देश बन गया है।

       भारत ने पोखरन परमाणु परीक्षण किया, अमेरिका ने आर्थिक प्रतिबन्ध लगाया किन्तु भारत उसमें से उबर सका। इतना ही नहीं देश के सामने कई प्रकार की चुनौतियाँ उनमें से भी भारत निकल सका। सारी दुनिया की आशा आकांक्षा का केन्द्र भारत बना है। मुझे लगता है सारे आशा आकांक्षा का कारण तरुण है। उसमें तरुणों की भूमिका बहुत बड़ी होने वाली है। ऐसे आगे चलकर तरुणों को दिशा देने का काम, उनको संस्कार देने का काम हम सब लोगों को करना होगा। यह संकल्प लेकर यदि हम सब आगे बढ़ेगें तो हम दुनिया का मार्गदर्शन कर सकेंगे।

       इस देश के सुप्रसिद्ध कवि रसखान कहते हैं, ‘हे प्रभु, यह मनुष्य का जीवन बहुत सार्थक था और फिर से दुबारा जीवन देना हो तो कहाँ का मनुष्य बनाना। वे कहते हैं, ब्रजभूमि में मुझे जन्म देना। मानुस हौं तो वही रसखान, बसौं मिलि गोकुल गाँव के ग्वारन।उस ब्रजभूमि में मेरा निवास बनाना जहाँ ब्रजभूमि में भगवान श्रीकृष्ण घुटनों के बल चला करते थे, उनकी धूलि का कण मैं भी प्राप्त कर सकूँ। फिर भी यदि आपको लगता है, यह मनुष्य का जीवन सार्थक नहीं था, गलत था, इसको तो पशु ही बनाना है तो कहाँ का पशु बनाना है, ‘जो पसु हौं तो कहा बस मेरो, चरौं नित नंद की धेनु मँझारन॥। उस नन्दबाबा की गायों के बीच में मुझे बनाना ताकि भगवान श्रीकृष्ण मुझे जंगल में ले जायेगे तो उनके साथ उनका स्पर्श, सानिध्य मिलेगा। फिर आगे कहते हैं, यदि आप को लगता है मनुष्य बनाने के लायक नहीं, पशु बनाने के लायक नहीं, इसका तो कर्म बड़ा ही निकृष्ट था इसको तो पक्षी ही बना देना चाहिए तो कहाँ का पक्षी बनाना ? ‘जो खग हौं तो बसेरो करौं मिलि कालिंदीकूल कदम्ब की डारन॥। उस यमुना के किनारे कदम्ब की झाड़ में मेरा घोषला बनाना। कभी भगवान श्रीकृष्ण यमुना के किनारे कदम्ब की झाड़ में डाल पर बैठकर बाँसुरी बजायेंगे तो उनको सुन कर अपने आपको धन्य मानूँगा। फिर यदि आपको लगता है मनुष्य नहीं, पशु नहीं, पक्षी भी बनाने के लायक नहीं। इसका जीवन निकृष्ट कर्मों में संलग्र, पाप कर्मों में संलग्र है तो इसको पत्थर बना देना। पर कहाँ का पत्थर बनाना ? तो कहते हैं, ‘पाहन हौं तो वही गिरि को, जो धर्यो कर छत्र पुरंदर कारन।उस पर्वत गोर्वधन का ही पत्थर बनाना जिसको भगवान श्रीकृष्ण ने ग्वालवालों के साथ मिल के धारण किया।  इस देश का पत्थर भी होना सौभाग्य की बात है। हम सब तो मुनष्य हैं, श्रेष्ठ मनुष्य हैं। एक शिक्षा जैसे दान को देने वाले, युवकों के अन्दर संस्कार देने वाले हम सब हैं, हम सब का भाग्य कितना श्रेष्ठ है इसको ध्यान में रखकर हमारे द्वारा कुछ अच्छा होगा नियति के द्वारा निश्चित है। उस दिशा में हम सब लोग आगे बढ़े, इतना ही निवेदन करते हुए अपनी बात समाप्त करता हूँ।

3 comments:

  1. अत्यन्त प्रभावी । बांध लेने वाला आलेख ।

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  2. बहुत प्रेरक। प्रबुद्ध वक्ता और प्रखर चिंतक आदरणीय रामदत्त जी को प्रणाम। - चौबे।

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