Tuesday, 13 October 2020

कबीर की कविता का प्रदेय

  कबीर की कविता का प्रदेय

डॉ. उमेश कुमार सिंह


प्रत्येक राष्ट्र का अपना इतिहास होता है। इतिहास वर्तमान को प्रभावित करता है, कारण इतिहास पूरा का पूरा बीतता नहीं। उसकी सत्ता हमें प्रभावित करती है। इतिहास हमारा जीवन रस होता है साथ ही वर्तमान भी इतिहास को प्रभावित करता है। 

यह सत्य है कि रचनाकार एक निश्चित परिवेश में जीता है। उसके जीवन का निर्माण उसके राष्ट्र और उसकी संस्कृति, परंपरा, रीति-रिवाज आदि पर निर्भर करती हैं किन्तु यह भी सत्य है कि कबीर जैसे रचनाकार का व्यक्तित्व उसे राष्ट्र और उसकी सीमाओं, काल और उसके युग से खींचकर जहां वैश्विक बनाती है, वही उसकी रचना कालजयी बनती है,जो मानवीय संवेदनाओं को निरन्तर काल के साथ परिष्कृत और संवर्धित करती चलती है। कबीर जैसे रचनाकार की यही सार्थकता है। अत: तथ्यों के आधार पर यह देखना आवश्यक है कि कबीर और उनके काव्य का प्रदेय क्या था और आज भी कितना समीचीन है। 

कबीर के समय भारतवर्ष पर इस्लामी देशों के अनेक आक्रमण हो चुके थे, और मुहम्मद गोरी के पश्चात हिन्दू राज-सत्ता छिन्न-भिन्न हो गई थी। हिन्दू और मुसलमान एक दूसरे के सामने युद्धरत खड़े रहते थे। डॉं. पीताम्बर दास बड़थ्वाल ने लिखा है-भभ15वीं शताब्दी में भारत में आध्यात्मिकता की धारा निगुर्ण सम्प्रदाय से होकर प्रवाहित हुईं आध्यात्म चिन्तन धारा को यह गहन एवं नवीन स्वरूप प्रदान करने के मूल में राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक तथा अन्य कारण थे। इस प्रकार कबीर, नानक, दादू, प्राणनाथ, मलूकदास, पलटू, साहिब आदि सन्तों द्वारा प्रवर्तित निर्गुण सम्प्रदाय द्वारा तत्कलीन युग की आवश्यकताओं की पूर्ति हुई।्य्य 1 कहा भी गया है कि -भभक्ती द्राविड़ उपजी लाए रामानन्द। परगट किया कबीर ने, सप्त दीप-नवखण्ड।्य2

  कबीर के साथ एक विसंगति बनाई गयी। कबीर ने कहा है- भझीनी-झीनी बीनी चदरिया।्य3 आप स्वीकर करेंगे कि यह बात कबीर ही कह सकते हैं। कारण स्पष्ट है रचनाकार जब अपने कर्म के साथ एकात्म होता है तब सृजन की प्रक्रिया दिखाई देती है। कबीर प्रत्येक लौकिक और अलौकिक वस्तु को जुलाहे के साथ देखते हैं; उनके लिए ईश्वर भी एक बुनकर है। उनके अनुभवों का ताना भक्ति का बाना बन कर सामने आता है। क्या इसी कारण कबीर को रहस्यवादी बना देना उचित हैघ् क्या कबीर सचमुच रहस्यवादी थेघ् आचार्य विष्णुकांत शास्त्री कहते हैं- भभकबीर के पूरे साहित्य में कही भी रहस्यवाद शब्द नहीं है। कबीर का रहस्यवाद पश्चिम की देन है। रवीन्द्रनाथ ने कबीर की तलाश की, रवीन्द्रनाथ को कबीर का परिचय क्षितिज मोहन सेन ने कराया। रवीन्द्रनाथ ब्रहझ्म समाज से प्रभावित थे। ब्रहझ्म समाज ईसाईयत से प्रभावित था। कबीर रवीन्द्र के कारण रहस्यवादी हो गए।.....बाद में रामकुमार वर्मा के कारण भावनात्मक रहस्यवाद और साधनात्मक रहस्यवाद आया।  भअव्यक्त्य की उपासना रहस्य कवि का जन्मदाता है। ्य्य 4

कबीरदास हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ कवियों में हैं, वह तत्व की बात कहने वाले कवि माने जाते हैं। कबीर का काव्य हिन्दी साहित्य की अनुपम निधि है। कबीर कहते हैं- भतू बाम्हन मैं कासी का जुलाहा, बुझउ मोर गियाना।्य5 इसी तरह अन्य स्थान पर कहा- भकहत कबीर कर गह तोरी, सूतहि सूत मिलाए कोरी। अथवा जाति जुलाहा नाम कबीरा, बन बन फिरौं उदासी।।्य 6 कबीर ने छुआछूत, जाति-पांति आदि को कहा किंतु यह आज बहुत उछालकर कहा जा रहा है, यह स्वीकार योग्य है किन्तु यह कबीर का प्रदाय नहीं।

चरखा कबीर का जीवनयापन का साधन है और पूजा की वस्तु भी। उनकी दृष्टि में जीवन के कर्म से धर्म अलग नहीं है। उनके कवि-कर्म और जीवन-धर्म में अदझ्भुत साम्य है। कारीगर कबीर के जीवन की कला ही उनकी कविता बन गई। स्पष्ट है कि रचनाकार समाज में रहता हुआ युग की धारा को उसी तरह अनुभव करता है जिस तरह अन्य लोग। जितना बड़ा रचनाकार होगा उसका अपने रचना पर उतना ही प्रभाव और अधिकार दिखाई देता है। वह समाज का प्रतिनिधित्व करने के साथ-साथ समाज को दिशा-निर्देश करते हुए अपने सामाजिक उत्तरदायित्व का निर्वाह करता है। साहित्यकार की रचना में उसके समय की आत्मा बोलती है, उसकी आस्था व उसके विश्वास परिलक्षित होते हैं। और वह रचना उस काल का सच्चा दर्पण होती है और यही दर्पण आज का समय बन कर देखने वाले को अपना चेहरा दिखाता है। देखने वाला व्यक्ति हो, राष्ट्र हो या विश्व। कबीर के अनुसार समाज में व्यक्ति का स्वरूप वीभत्स हो गया था। घमण्ड, मिथ्याभिमान, दुराचार, पाखण्ड, पारस्परिक अविश्वास, विषय-वासना आदि के कारण सब दु:खी थे। निर्धन वर्ग सर्वथा उपेक्षित था- भनिर्धन आदर कोई न देई। लाख जतन करै ओहिचित न घरेई।। जो निरधन सरधन कै जाई।  आगे बैठा पीठ फिराई।।्य गरीबों का जीवन दूभर हो गया था- भनित उठि कोरि गागरिया लै लीपत जनम गयो।्य 7

डॉ. रामविलास शर्मा ने लिखा है- भभसामन्ती व्यवस्था में धरती पर सामन्तों का अधिकार था तो धर्म पर उन्हीं के समर्थक पुरोहितों का। संतों ने धर्म पर से पुरोहितों का इजारा तोड़ा। खास तौर से जुलाहों, कारीगरों, गरीब किसानों और अछूतों को सांस लेने का मौका मिला, यह विश्वास मिला कि पुरोहितों और शास्त्रों के बिना भी उनका काम चल सकता है।्य्य 8

मनुष्य आज सब प्रकार के भौतिक सुख साधनों से सम्पन्न है, फिर भी वह दु:खी दिखता है, आखिर क्योंघ् पुरातन काल के मानवों की घटना पढऩे-सुनने पर लगता है कि वे जंगलों में रहकर कंदमूल खाकर जिन्दगी भर, अभावग्रस्तता की जिन्दगी बिताकर भी संतुष्ट और सुखी रहते थे। इस रहस्य को समझना हो तो उस तह तक जाना होगा जहां मनुष्य की विचार-शक्ति और उसके चिन्तन वैभव का वास होता है। हम जिस युग में जी रहे हैं वह वैज्ञानिक प्रगति के अंतिम सोपान का युग है। किंतु मनुष्य बावजूद इसके सब प्रकार से क्लांत, अशांति, दु:ख, उदिझ्ग्न्ता से भरा है। यह स्थिति कोई कबीर के जमाने तक अथवा भारत तक ही सीमित नहीं थी बल्कि यह स्थिति पश्चिम में भी थी तभी तो आज के मनुष्य की दशा का चित्रण इलियट के इस कथन से होता है। ऐसा माना जाता है कि अंग्रेजी कवि इलियट अपने प्रत्येक जन्म दिन पर काले व भददे कपड़े पहनकर शोक मनाया करते थे और कहते थे- भभअच्छा होता यह जीवन मुझे न मिलता, मैं दुनिया में न आता।्य्य9 किन्तु इसके विपरीत कबीर के समर्थक हैं, अन्धें कवि मिल्टन वे कहते है-भभभगवान का लाख-लाख शुक्र है कि उसने मुझे जीने का अमूल्य वरदान दिया।्य्य10 जीवन को समझना और उसे गौरव के साथ जीना, जन इस भाव और भाषा को समझे यही कबीर का प्रदेय है।


भक्ति काव्य हिन्दी भाषा के काव्यत्व का उत्कर्ष है। कुछ लोगों का मानना है कि आज कि समकालीन हिन्दी आलोचना ने कबीर को अध्यात्म प्रेमी विदेशियों तथा उनके देशी सहयोगियों को सौंप दिया है। किन्तु क्या यह सत्य हैघ् क्या भारतीय जीवन दर्शन को अध्यात्म से अलग कर देखा जा सकता है। जन कवि के अन्दर भी तो वही भारतीय आत्मा है जो अध्यात्म के बिना जिंदा नहीं रह सकती। वर्तमान में जब हम कबीर की उपादेयता पर विचार करते हैं तो हमारे सामने उनके काव्य की उत्कृष्ट उपादेयता अध्यात्म ही सामने आती है। वे बाहझ्याडम्बर के विरोधी थे न कि धर्म के। वस्तुत: नसमझी के कारण धर्म आज झगड़े का, हिंसा का कारण बन गया है। युग ने न तो कबीर की भाषा का, न धर्म का और न ही अध्यात्म का सही अर्थ समझा। परिणामत: हम आज कबीर को यह कह कर नकारने का प्रयत्न करते हैं कि कबीर अध्यात्म तक सीमित हैं। क्या बिना अध्यात्म के हम जीवन का विचार कर सकते हैंघ् ध्यान रहे यह बात उन पर लागू नहीं होती जो पूरी तरह भौतिकता से ग्रस्त हैं जिन्हें या तो लौकिकता या पारलौकिकता ;अभ्युदय और नि:श्रेयसद्ध का धर्म और अध्यात्म का या तो बोध ही नहीं है या तथाकथित सेक्युलर हैं। धर्म का अर्थ भौतिक कर्मकाण्ड नहीं। हम जिसे धर्म समझते हैं वास्तव में तो वह संप्रदाय की आचार-संहिता है। आचार-संहिता जब आचरण को प्रभावित करने लगे तो वह निरर्थक हो जाती है और क्लेष का कारण बनती है। धर्म ज्ञानेन्द्रियों का विषय नहीं चिति का विषय है। इसीलिए जब हम मनुष्यता की बात करते हैं तो वह धर्म की बात होती है। धर्म संस्कारों का नियामक होता है। जब हम विश्व के प्राणी मात्र की, चर-अचर के एकात्मकता की बात करते हैं तो वह अध्यात्म होता है। अध्यात्म आत्मा की खुराक है। योग का मार्ग है। सम्प्रदायों का अंतिम छोर यदि धर्म है तो धर्म का अंतिम छोर अध्यातम है। जहां से धर्म समाप्त होता है वहां से अध्यात्म प्रारंभ होता है। कबीर का बाहझ्याडम्बर का विरोध भी धर्म का विरोध नहीं संप्रदायिकता आधारित कर्मकाण्ड का विरोध है। इसीलिए सही मायने में जब कबीर को हम देखते हैं तो वह प्राणीमात्र की चिंता करने के कारण धर्माचरण की बात करते हैं और अध्यात्म में जीते हैं। धर्म मानव से मानव को नहीं बांटता बल्कि मानव को प्राणिमात्र से जोड़ता है अन्यथा वे हिन्दुओं और मुसलमानों के कर्मकाण्ड को क्यों नकारते। वस्तुत: कबीर लोक अर्थात जन के धर्म की चिन्ता करते हैं। सही मायने में लोकद्र्रष्टा बनकर। राम ही कबीर के अध्यात्म हैं। 

कबीर शास्त्रीय धर्म की बार-बार आलोचना करते हैं, वह चाहे वेद-पुराण के सहारे चलने वाला हो या कुरान के सहारे। किन्तु इसका अभिप्राय यह कतई नहीं कि कबीर वेद का खण्डन करते हैं। ध्यान रखना चाहिए वेद के चार भाग हैं- संहिता, आरण्यक, मीमांसा और उपनिषद। पहले तीन कर्मकाण्ड आधारित हैं जबकि चौथा कबीर का अभीष्ट है। कबीर लोक-वेद के साथ थे अर्थात वेद के तीन हिस्सों की परवाह कर रहे थे या यू भी कह सकते हैं कि तब तक प्रथम तीन के बाहझ्याडम्बर बन चुके विकृत कर्मकाण्ड को नकार नहीं रहे थे। लेकिन जब गुरु ने उन्हें अद्वैत का उपदेश दिया कबीर वेद के चौथे पायदान पर पहुंच जाते हैं। भ कबीर पीछे जाय था, लोक-वेद के साथ। आगे था गुरू मिला, दीपक दीया हाथ।्य 11 तभी तो कहा- भलोक जानि न भूलो भाई।्य 12 चाहे उस पर पंण्डितों-पुरोहितों का प्रभुत्व हो या मुल्लाओं का कब्जा। कबीर मन के निर्मलता की बात करते हैं- भमन ऐसा निर्मल भया, जैसे गंगा नीर। पीछे पीछे हरि हरि फिरे कहत कबीर कबीर।ं्य 13  कबीर के प्रदेय को समझने के लिए कबीर की शब्दावली को समझना ठीक होगा। हजारी प्रसाद द्विवेदी उन्हें जब वाणी का डिक्टेटर कहते हैं तो वैसे थोड़े ही कहते हैं। उसके पीछे कबीर के द्वारा प्रयुक्त शब्दों की शक्ति है। कुछ शब्दों को यहां अगर देखें तो उनके सच्चे लोकसुधारक, लोक जागरणकर्ता कवि की भावना उजागर होती है। साधो, संत, अवधू, पांडे, पंण्डित, मुल्ला, काजी, जोगी, जैसे सम्बोधन केवल शब्द नहीं है, इसमें कबीर की पूरी प्रोक्ति निर्भर करती है। भाईत्रसामान्य जन का सम्बोधन है। साधक त्रजो जग गया।, साधो त्रजो बीच यात्रा में है।, अवधूत्रजो सब कुछ छोड़ा हुआ है जिसे गुरु की भी चाह नहीं।, संत त्रजो पूर्णता को पहुंचा हुआ है। जोगी त्र उपहास हेतु।, पांडे, पण्डित, मुल्ला, काजी त्र यहां कबीर का आक्रोश है। ब्रहझ्म त्र जो सम्पूर्ण, सर्वज्ञ, सर्वस्व है। साधो त्र नि:शब्दता की साधना है, नाद है। वस्तुत: यह कुछ ऐसे उदाहरण है जो कबीर को समझने में सहायक हैं। हम आप इसे खारिज नहीं कर सकते। कबीर स्वयं भाषा के प्रति कितने सजग थे, वे कहते हैं- भसंस्कीरत है कूप-जल भाषा बहता नीर।्य 14

  लेकिन कबीर यह भी जानते हैं कि समाज में लोकधर्म के नाम पर वह भ्रमजाल भी फैला होता है जिसे लोकाचार कहा जाता है। वह कई बार शास्त्रोक्त व्यवहार  होता है। इसीलिए कबीर लोकाचार की भी आलोचना करते हैं- भताथैं कहिये लोकोचार, वेद कतेब कधैं व्यौहार।्य 15 वे आंख मूंदकर सामान्यजन में प्रचलित विश्वासों को स्वीकर नहीं करते, उन्हें सजग आलोचनात्मक दृष्टि से देखते हैं। कबीर के सामने यह लोकविश्वास था कि जो काशी में मरेगा वह मोक्ष पायेगा और मगहर में मरने वाला अगले जन्म में गदहा होगा। इस लोकविश्वास को मानने का अर्थ था भक्ति का निरादर। भलोकामति का भोरा रे। जो कासी तन तजै कबीरा, तो रामहि कहा निहोरा रे।।्य 16

कबीर यह नहीं मानते कि जो लोकधर्म के नाम पर चल रहा है वह सब सत्य है, इसीलिए कहते हैं- भलोक जानि न भूलो भाई।्य कबीर शास्त्रीय ज्ञान के बोझ से मुक्त हैं। कबीर जिस लोकधर्म का विकास कर रहे थे उसका मुख्य लक्ष्य था मनुष्य सत्य या मनुष्यत्व का विकास। कबीर कहते हैं- भपुष्पे ब्रहमा पाती विष्णु, फूले महादेवा। भूली मालिन पाती तोड़े करती किसकी सेवा।।्य 17 यह सच्चा धर्म और अध्यात्म की प्रथम सीढ़ी है तथा आज के पर्यावरण का औचित्य। धर्म इसलिए की पर्यावरण का संरक्षण है और अध्यात्म इसलिए कि जीव मात्र की एकात्मता है। तभी तो आचार्य शुक्ल जी ने कहा कि- भकबीर ने मनुष्यत्व की सामान्य भावना को आगे करके निम्न श्रेणी की जनता में आत्मगौरव का भाव जगाया।्य 17 

कबीर की शैली प्रश्नावली की शैली है। कबीर की प्रश्न करने की प्रवृत्ति अपने काल के कवियों में सर्वश्रेष्ठ थी। कबीर के प्रश्न जितने सरल और बेलाग हैं उतने ही तीखे और तिलमिला देने वाले। वे कभी-कभी सुकरात की तरह अज्ञानी बनकर प्रश्न करते हैं और ज्ञानियों की पोल खोल देते हैं। प्रश्न की प्रवृत्ति ही कबीर की कविता में व्यंग्य को विशिष्ट सामाजिक कला बनाती है। वही प्रवृत्ति पाठकों को प्रश्न पूछने की प्रेरणा और निर्भीक दृष्टि भी देती है। कबीर केवल प्रश्न नहीं करते। यदि वे ऐसा करते तो आज के कवियों की भांति विरोध और असहमति के कवि रह जाते। यही कारण है कि कबीर आज भी प्रासंगिक हैं। कबीर की सामाजिक सजगता असहमति और विरोध से आगे बढक़र समाज में मनुष्यत्व की भावना को विकसित करने और मनुष्य सत्य की प्रतिष्ठा करने के लक्ष्य को सामने रखती है। समाज में मानवीय भावों और मानवोचित गुणों के प्रसार के लिए मनुष्य विरोधी भावों को हटाना आवश्यक होता है इसीलिए कबीर ईष्या, क्रूरता, कामुकता, कपट, अहंकार, पाखण्ड आदि की आलोचना करते हैं और प्रेम करुणा, दया, उदारता, अहिंसा, समता आदि मानवीय मूल्यों और गुणों को लोकधर्म बनाने पर जोर देते हैं। वे बुद्ध की भांति भअप्प दीपो भव्य की बात करते हैं। जब चारों ओर पाखण्ड का राज्य विस्तार पा रहा हों तब आज भअप्प दीपो भव्य की  कितनी आवश्यकता है, इसे आप स्वयं बोध कर सकते हैं। वस्तुत: कबीर के लोकजागरण का यही अभीष्ट है।

मैं यहां पुन: कहना चाहंूगा कि कबीर के लोकधर्म में व्यक्ति के आध्यात्मिक उत्कर्ष को अधिक महत्व मिलता है क्योंकि कबीर जानते हैं कि सच्ची मनुष्यता का उदभव केन्द्र आध्यात्मिकता है। वे जब अपने लिए- धूत, अवधूत, रजपूत और जुलाहा की बात करते हैं तब उनका लोक और धर्म दूसरे कवियों की तुलना में भिन्न है और वह आध्यात्म के रूप में प्रकट होता है। कबीर के आदर्श- सनक, सनन्दन, शुकदेव, व्यास, जयदेव, नामदेव थे। कबीर का मूल प्रदेय राम से जुडक़र है, राम से जुड़े होने के कारण सब समान हैं; पण्डित को फटकार वेद के कारण हैं। वेद का विरोध कबीर में नहीं  हैं। कबीर जिस ब्रहम की उपासना करते हैं, वेद उस परमपुरुष का नि:स्वास है। कबीर ऋषि है। ऋषि मंत्रद्रष्टा हैं, पुरोहित नहीं। कबीर का साखी शब्द संस्कृत के साक्षी शब्द से आया है। जिसका अर्थ है गवाही। आंखों से देखी। भमैं कहता आंखनि की देखी, तू कहता कागज की लेखी।्य18 कबीर की साधना अनुभवगत है जो निर्भय और निडर बनाती है, जो हमें उपनिषद से जोड़ती है। भक्ति पंचायती नहीं होती, वह एकान्तिक होती है। भराम मोरा पीय मोरा राम की बहुरिया्य अथवा भन मै देखूं और को न तोहि देखन देउं।्य19 कबीर ने अपने इष्ट पर सारे गुणों का आरोपण किया। पति-पत्नी का सम्बन्ध सभी सम्बन्धों का समाहार है। कबीर सत, रज, तम को अस्वीकार करते हुए ऋषि के सामान दिव्यगुणों को ग्रहण करते हैं। इसीलिए जैसा मैंने ऊपर कहा है- कबीर के राम का सौन्दर्य भअव्यक्त्य का सौन्दर्य है। कबीर का मार्ग ऋषि परंपरा का है न कि पुरोहित परम्परा का कारण पुरोहित की मर्यादा कर्म-काण्डों से बंधी है। पुरोहित स्वार्थी होता है।

संक्षेप में कुछ तथ्यों को अपने आचार्यों के मत से कबीर की कथनी के साथ पुष्ट करें-आचार्य रामचन्द्र शुक्ल मानते हैं कि-भकबीर की साधना भक्ति की साधना है। कबीर ज्ञानी भक्त हैं। उनका सहजयोग और कुछ नहीं राम नाम की ही साधना है।्य 20 कबीर सभी मतों के सार तत्व को ग्रहण करते हैं। वे जीवन को निरर्थक नहीं होने देना चाहते। वे कहते हैं- भसाधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय। सार सार को गहि रहे थोथा देय उड़ाय।्य 21 कबीर हिन्दू और मुसलमान दोनों के बीच भेदभाव नहीं मानते। इसलिए दोनों के बीच फैले बाहझ्याडम्बर का उन्होंने विरोध किया- भजो तू बाहमन बहमनि जाया। आन द्वार से काहे नहि आया।्य आगे कहते हैं- भएक जोति से सब उतपना, का बामन का सूद्रा।्य22 मुसलमानों पर कटाक्ष-भदिन में रोजा रहत है रात हनत है गाय। यह तो खून वह बंदगी कैसे खुदा रिझाय।्य23 अथवा अजान और हज, काबा, रोजा, नमाज, अजान, सुनीति, मसीति आदि की ओर तर्क पूर्ण व्यवहार करने की बात कही।भकंकड़ पत्थर जोरि कर मस्जिद लई बनाय। ता चढि़ मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय।्य24 कबीर की भक्ति निगुर्ण की भक्ति है-भदसरथ सुत तिहु लोक बखाना।राम नाम को मरम है आना।्य25

कबीरदास आडम्बरी योगियों का ही विरोध करते हैं गोरख नाथ जैसे योगियों का नहीं। वे गोरखनाथ को आदर के साथ याद करते हैं- भसाधों गोरखनाथ ज्यां अमर भये कलिमांहि।्य 26 आचार्य रामचन्द्र शुक्ल भक्तिकाव्य को लोकधर्म की अभिव्यक्ति मानते हैं और रामविलास शर्मा उसे लोकजागरण का काव्य कहते हैं। हजारी प्रसाद जी लोकधर्म को भक्ति आंदोलन की जन्मभूमि मानते हैं, लेकिन उनकी लोकधर्म की धारणा शुक्ल जी से भिन्न है। आचार्य द्विवेदी लोकधर्म के मूल में कबीरदास की सामाजिक-सांस्कृति दृष्टि मानते हैं। 

वस्तुत: कबीर का सम्पूर्ण काव्य लोक से कुछ परिवर्तन की अपेक्षा रखता है। वह उसमे एक विशेष प्रकार का जीवन-धर्म जीने की दृष्टि देना चाहता है। सार रूप में कहें तो वे इस प्रकार हैं- करणी कथनी में एकता, चित और मन की शुद्धता, साधकों की सारग्राहिता, मध्यमार्ग की प्रतिष्ठा, अद्वैत, लोकमार्ग और पण्डित मार्ग का संज्ञान, हिन्दू और मुसलमान, सुख और दु:ख के बीच सामंजस्य, समस्त बाहझ्याचार व्यर्थ है अत: आंतरिक साधना, ईश्वर के प्रति पूरा समर्पण, कामिनी कंचन का त्याग, ईश्वरीय समन्वय, मतवादों से शुद्ध स्नेह की प्राप्ति, अवतार नहीं नाम महिमा, गुरु का महत्व इत्यादि। उन्होंने कहा- भजाके मन विश्वास है, सदा गुरु है संग। कोटि काल झकझोरहीं, तउ न हो चित भंग।्य 27 वस्तुत: यही कबीर का प्रदेय है।

संदर्भ: 1. हिन्दी साहित्य का इतिहास-रामचन्द्र शुक्ल, 2.कबीर-हजारीप्रसाद, 3.कबीर-पीताम्बरदास, 4. कबीर ग्रंथावली-श्यामसुन्दर दास, 5. कबीर आलोचनात्मक अध्ययन: डॉ.राजेश्वर चतुर्वेदी, 6. कबीर की विचारधारा: गोविन्द त्रिगुणायत, 7. कबीर का रहस्यवाद: डॉ. रामकुमार वर्मा, 8. कबीर के पद: क्षितिज मोहन सेन

  


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