Wednesday, 19 February 2020

कबीर और गांधी

आज फेसबुक में एक किताब देखी । "उत्तर कबीर नंगा फकीर"।

मेरा मानना है कि न तो कबीर उत्तर थे न ही गांधी नंगा थे। 
कबीर तो चौराहे पर खड़े सब की खैर मांग रहे थे और गांधी सब को कपडे़ की अहमियत बता रहे थे !!
 अपरिग्रह और सहानुभूति ही गांधी की लंगोटी है ,नंगा नहीं।

वैसे भी फगीर नंगा नहीं होता ।वह दुनिया को अपने मुठ्ठी में रखता है। जब-जब मुठ्ठी खोलता है कबीर की खैरात बटती है।

नंगा होने का गीता का निहतार्थ है कि "यह शरीर ही आत्मा का वस्त्र है जिसे अनासक्त भाव से पहना है ,जो जलेगा किन्तु उस कपड़े को पहननेवाला नहीं जलेगा।

कबीर तो उस चादर को 'जस की तस रख देने की बात करता है।' वह चतुर्दिग सजग है। वह काल और दिशा बोध को समझता भी है और उससे परे चौराहे पर खड़ा हो कर हर आने जानेवाले को सजग करता है 'हम न मरिहैं मरिहैं संसारा।' कबीर की नजर में यसी कपड़ा है।

 विचार करें कबीर को आप काल के खंड और दिशा में कैसे बांध सकते है ?

जहां तक गांधी की बात है गांधी तो विचारों के ही राजा थे।वे ऐसे धनी फकीर थे जिनकी पूंजी को भारत और उसकी आती जाती सत्ताएं तो खा ही रहे हैं दुनिया भी उसे प्रसाद के रूप में प्राप्त करने लालायित है।

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