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ठीक है, पर विचारणीय यह है कि माता-पिता जब तक बच्चों पर अपनी कुंठित इच्छा थोपते रहेंगे तब तक इस भयावह स्थिति से निपटना कठिन है।
कान्वेंट शिक्षा, तकनीकी और चिकित्सा शिक्षा का लोभ, क्षमता न रखने वाले छात्रों का प्रवेश, ट्यूशन का विज्ञापन ,प्रवेश से पदोन्नति तक आरक्षण , मुफ्तखोरी की सुरसा मुखी आदत अनेक ऐसे कारण हैं जो समाज को डिप्रेशन की ओर ले जाते हैं।
आप जरा इस ओर भी ध्यान दें कि आज माता-पिता कुछ नैसर्गिक क्षमतावान बच्चों की नकल कर अपने सामान्य बालक को भी कैसे बाजारवादी प्रतियोगिता में उतार रहे हैं। क्या यह मानसिक दबाव शिशु झेल पा रहा है ?
शारीरिक विकास का अवसर नहीं। मानसिक विकास हुआ नहीं और उसे हमने सीधे बौद्धिक प्रतिस्पर्धा में झोंक दिया। भला हो माता-पिता को आध्यात्मिक शिक्षा से कुछ यश,धन,मान नहीं दिख रहा अन्यथा वे उसे सीधे वानप्रस्थाश्रम में भेज देते।
उच्च शिक्षा का अर्थ मात्र रोजगार की शिक्षा रह गया है। पूरी उच्च शिक्षा जो पहला काम करती है वह है , मातृभाषा से पृथक कर देना। चिकित्सक अंग्रेजी में दबाई का पर्चा लिखता है तो हम आज मांग कर रहे हैं कि हिंदी या उसकी मातृभाषा में पर्चा लिखें जायें। अंग्रेजी की ड्राइंग और कानूनी निर्णय भी गैर-अंग्रेजी में हों मांग है।
वैसे भी जिस देश में शिक्षा समाज के सहयोग से चलती थी वहां अब विश्व बैंक से ऋण लेकर घी पीने की आदत जो पड़ चुकी है।
समझेगा कौन?हमारा कान्वेंट का बेटा, मेडिकल स्टोरवाला, सब इंजीनियर,कमीशन के ठेकेदार ? ब्यूरोक्रेट्स, जिनके मानस में अंग्रेजी के अलावा सभी हीनता-ग्रंथि पैदा करते हैं। क्या देशभर के इंजीनियरिंग, और चिकित्सा शिक्षा में मातृभाषा भी पाठ्यक्रम की सामग्री है ?
सुधार की कोशिश होनी चाहिए पर कहां से? घर से ? दुकान से?मिल- फैक्ट्री के सी ई ओ से? ब्यूरोक्रेट्स से ?
अभी कुछ दिन पहले सेकेट्रिएट में बैठा था। एक कुर्ताधारी सज्जन मुख्यमंत्री जी का हवाला देकर अधिकारी को अपना विषय हिंदी में रख रहे थे,तो अधिकारी दनादन अंग्रेजी में।
साफ था कुर्ताधारी का चेहरा जेठालाल (तारक मेहता..) की याद दिला रहा था और अधिकारी उसे नानसेंस समझ गर्व का अनुभव कर रहे थे।
जब सज्जन चले गये तो मैंने पूरे वार्ता के दृश्य पर अधिकारी महोदय की प्रतिक्रिया चाही । उत्तर अपेक्षित था ,गंवारों से रोज पाला पड़ता है, इन्हें चार अक्षर अंग्रेजी नहीं आती ? कौन पूछेगा कि, अंग्रेज के पुछल्ले तुम तो उस भले मानुष से उसकी भाषा में बात रख कर पशुता का परिचय देते । पशु और खग समूह और व्यक्तिगत स्तर पर भी एक ही भाषा का प्रयोग करते हैं। किंतु हम जो सभ्य ठहरे??
किंतु गला काट सफलता के इस दौर में चरितार्थता की बात ही कौन सुनता ? गांधी जी हर चौराहे, शिक्षा के प्रांगण में, कार्यालयों में बैठ कर अस्तेय का अभ्यास देख रहे हैं , तो सरदार देश की सबसे ऊंची जगह से बिखंडन पर तुले टुकड़े-टुकड़े गैंग को । अन्य महान आत्माओं ने तो शक्ति का रूप धारण कर सत्य का रास्ता छोड़ असत्य की सड़क ही बना ली ??
मुझे कलाम साहब का 2020 स्मरण हो आया। कभी देश में पंचवर्षीय योजना विकास का आधार थी। बाद में अब 30 से 50 वर्ष आगे की योजना बन रही है। कमीशन में शाग-भाजी की उपज चाहिए , परिणाम में इमली का फल!!
दुश्यंत कुमार की ग़ज़ल सुनकर अच्छा लगता है ,पर संग्रहालय ?? देश में भावनात्मक नारे अच्छे लगते हैं ,पर व्यवहार में !! हमारा अल्लाह,ईसा, महावीर, बुद्धा, रावण,रहीम। अच्छा होता यह सब मिलकर देश को एक रख सकते?
कल एक चैनल पर बहस चल रही थी। एक पक्ष कह रहा था ,हिन्द से भारत में सब हिन्दू तो दूसरा कह रहा था हम हिन्दू नहीं कट्टर मुसलमान हैं। जब पूछा गया कि आपकी सांतवीं पीढ़ी कौन थी ? तो बहस छोड़कर चले गए।
उदारता एक पक्ष से नहीं चलती । दोनों पक्ष समभावी चाहिए। प्रश्न है ,यह वातावरण कौन तैयार करेगा ? विद्यालयीन सरकारी रोजगारी शिक्षा, कान्वेंट शिक्षा, मदरसे की शिक्षा ,जुम्में की नवाज, रविवार की प्रार्थना या यज्ञ परम्परा !!
चलो अपने से बाहर सोचने की फुर्सत मिलेगी तो इस पर भी गौर करेंगे।
वैसे देश चलाने वाले ठेकेदार हैं,ब्यूरोक्रेट्स हैं, उद्योगपति हैं, दलाल हैं तो फिर आम जन की आवश्यकता क्या है ? फिर भी बीच-बीच में 'हम सुधरेंगे तो जग सुधरेगा', का नारा लगाने में कोई हर्ज नहीं। 'निरर्थक बहस भी तो' बिना फल की इच्छा का महत कार्य है। आखिर साहित्यकार कर ही क्या सकता है !! और करे भी क्यों जब घर बैठे पुरस्कार और राशि प्राप्त हो जाये?? फिर हम पुरस्कार वापस भी तो नहीं कर सकते । न जाने कौन नाराज हो जाये। आखिर हमें समय के साथ जो चलना है। क्योंकि मुर्दों का भी तो यहां तर्पण होता है।