Wednesday, 27 November 2024
राष्ट्रवाद नहीं राष्ट्रीय
एक भारत श्रेष्ठ भारत
एक भारत श्रेष्ठ भारत
जब हम पूर्वजों के भारत और ‘एक भारत श्रेष्ठ भारत’ की पहचान की बात करते हैं तो आप कह सकते हैं कि एक दुविधा पैदा हो रही है कि हमें ‘एक भारत श्रेष्ठ भारत’ बनाना है कि उसकी पुरानी पहचान ‘सोने की चिडिय़ा’ और ‘जगत् गुरु’ की लौटानी है?
तो आइये इसे समझे एक प्रसिद्ध स्विस लेखक बजोरन लेण्डस्ट्राम के माध्यम से भारत के सोने के चिडिय़ा के पक्ष को जिसने पुरातन मिस्त्रियों से लेकर अमेरिका की खोज तक तीन हजार वर्ष की साहसी यात्रायों और महान् खोजकर्ताओं की गाथा का अध्ययन कर अपनी पुस्तक ‘भारत एक खोज’ में लिखता है- ‘‘ मार्ग और साधन कई थे,परन्तु उद्देश्य सदा एक ही रहा- प्रसिद्ध भारत भूमि पर पहुँचने का जो देश सोना चाँदी, कीमती मणियों और रत्नों, मोहक खाद्यों, मसालों, कपड़ों से लबालब भरा पड़ा है।’’
इसलिए समझें ‘एक भारत श्रेष्ठ भारत’ के बारे में वर्तमान सरकार का दृष्टिकोण क्या है? वस्तुत: इस अभिनव प्रयास से हमें एक भारत और श्रेष्ठ भारत दोनों पक्षों को प्राप्त करना है। जब आइये स्मरण करते हैं इस अभियान की। 31 अक्टूबर, 2015 अवसर है, सरदार पटेल जी की 140वीं जयंती का। आइये समझें प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी का वह वक्तव्य जहाँ से प्रारंभ होती है ‘एक भारत श्रेष्ठ भारत’ के पहचान की यात्रा। ‘‘सरदार पटेल जी ने हमें एक भारत दिया। अब यह 125 करोड़ भारतीयों का सामूहिक कर्तव्य है कि सामूहिक रूप से इसे ‘श्रेष्ठ भारत (पूर्वजों का भारत) बनाना है। हम सब सरदार साहिब के जीवन और योगदान से प्रेरणा ले कर ऐसा कर सकते हैं।’ इसमें से पहला एक भारत को विभिन्न राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों की सांस्कृति धरोहरों, परंपराओं और प्रथाओं, उनकी अपनी ज्ञान परम्पराओं के बीच आपसी समझ से एकता बनेगी। जिससे भारत की एकता और अखण्डता मजबूत होगी। तो पहले भारत सरकार की एक भारत की रचना को जानते हैं-
इसमें योजना तैयार की गई कि राज्यों और केन्द्र शासित राज्यों के बीच जोड़ी बनेगी और यह जोड़ी एक वर्ष या अगली घोषणा तक बनी रहेगी। राज्य स्तर की गतिविधियों के लिए इस जोड़ी का उपयोग किया जायेगा। जिला स्तर की जोड़ी राज्य स्तर की जोड़ी से स्वतंत्र होगी। इसके माध्यम से संस्कृति, पर्यटन, भाषा, शिक्षा, व्यापार आदि के क्षत्रों में उनकी अपनी मौलिक विशेषताओं के आदान-प्रदान से नागरिकों के बीच सांस्कृतिक विविधता का परिचय होगा और वे एक दूसरे को नजदीक महसूस करेंगे। अपने अनुभवों को साझा कर सकेंगे।
इसके उद्देश्य को समझे-
एक : राष्ट्र की विविधता में एकता के गौरव को अनुभव कराना और देश के लोगों के बीच परंपरागत रूप से वर्तमान भावनात्मक बंधनों के सम्बन्धों को बनाए रखने में सम्बल प्राप्त कराना।
दो : राष्ट्रीय एकता की भावना को बढ़ावा देने के लिए एक वार्षिक योजनाबद्ध भागीदारी के माध्यम से सभी राज्यों एवं केन्द्र शासित प्रदेश के बीच एक गहन और ढाँचेगत भागीदारी का निर्माण करना।
तीन : लोगों को अलग-अलग प्रांतों की समृद्ध विरासत और संस्कृति, रीति-रिवाजों तथा परम्पराओं से अवगत कराना, जिससे वे भारत की विविधता के बारे में लोगों को समझाने और उनकी प्रशंसा करने के योग्य बनें। संयुक्त पहचान को बढ़ावा देना।
चार : दीर्घकालिक भागीदारी का निर्माण करना।
पाँच : एक ऐसा वातावरण बनाना जो राज्यों के बीच सर्वोत्तम प्रथाओं और अनुभवों को साझा करके शिक्षण को बढ़ावा देता हो।
भारत दुनिया का सबसे प्राचीन राष्ट्र तो है ही इसकी विविध भाषाई, सांस्कृतिक और पंथीय व्यवस्था एक ऐसे धागे से बँधी हैं जिसे हम ‘माता-पुत्र’ का सम्बन्ध कहते हैं। भारत को हम अपनी माता मानने के कारण इसके सारे पुत्र सहोदर होने से भाई-भाई हैं। हमारे सुदीर्घ इतिहास और उसकी सांस्कृतिक धरोहरों ने विश्व में हमारी एक विशिष्ट पहचान बनाई है। राष्ट्रीयता की यही पहचान हमारी विशिष्टता का वह सूत्र है जिसमें हम करोड़ों वर्षों से विविधता के साथ एकात्म हैं।
आज हम देखते हैं कि संचार और भौतिक समृद्धि के कारण सुदूर अंचलों से निरन्तर जुड़े हैं किन्तु यह हमारे लिए कोई नई बात नहीं है क्योंकि जब हमारे पास इस तरह के कोई संसाधन नहीं थे तब भी शंकराचार्य जैसे महानुभावों ने पैदल देश की चतुर्दिक यात्रा कर पीठों की स्थापना की। इतना ही नहीं जिन बावन शक्ति पीठियों की अवधारणा हमारे वैदिक ऋषियों ने सती-शिव के सूत्र में बाँधकर हमारे सामने रखी थी वह केवल भावनात्मक कथाओं के आधार नहीं हैं, बल्कि आज वे सब शक्ति स्थल बने हैं और वहाँ नाना प्रकार की धातुएँ, तेल आदि की खानें मिल रही हैं। यह हमारी वैज्ञानिक समझ और भावनात्मक एकात्मता की परिचायक हैं। प्राचीन काल से आज के आधुनिक काल तक भारतीय दृष्टि सदा मानवीय सरोकारों और राष्ट्रनिर्माण के लिए एक विशिष्ट दृष्टिकोण लेकर चलता आया है। आपसी समझ चाहे वह पंथीय हो या जातीय ही भारत की असली सामथ्र्य है।
स्वतंत्रता के बाद भारत की एकता को दृढ़ करने के लिए जो सांस्कृतिक व्यवहार होने चाहिए उसमें अवश्य कुछ कमी रही, जिसके कारण सुदूर पूर्वांचल का व्यक्ति आज भी दिल्ली जैसी राजधानी में अपने को अकेला समझता है। इस प्रयास में कमी के कारण शारीरिक रंग, रूप संरचना के आधार पर भी हम आपस में दुव्र्यवहार कर बैठते रहे हैं।
इसी को दूर करने के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी ने सरदार पटेल की जयन्ती पर 2015 में राष्ट्रीय एकता दिवस के दौरान विभिन्न प्रकार के भेदों, उपभेदों और दूरियों को दूर करने के लिए साम्प्रदायिक, पंथीय, जातीय, क्षेत्रीय दूरी को खत्म कर भारत की गहरी एकता कल्पना दी थी।
इसके लिए देश के विभिन्न प्रदेशों के बीच कुछ कार्यक्रम तैयार किए गये- वर्तमान में 2020 तक के लिए कुछ रचना इस प्रकार है, (यह ठीक है कि कोरोना ने अभी इसमें व्यवधान डाला है)-पंजाब-आन्ध्रप्रदेश, हिमांचल-केरल,उत्तराखण्ड -कर्नाटक, हरियाणा-तेलंगाना, राजस्थान-असम, गुजरात-छत्तीसगढ़, महारष्ट्र -उड़ीसा, गोवा-झारखण्ड, दिल्ली-
सिक्किम,मध्यप्रदेश-मणिपुर और नागालैण्ड, उत्तरप्रदेश-अरुणांचल प्रदेश और मेघालय, बिहार-त्रिपुरा और मिजोरम, चंडीगढ़-दादरा और नगर हवेली, पुद्दुचेरी-दमन और दीव,लक्ष्यदीप-अंडमान और निकोबार आदि।
तत्कालीन मानव संसाधन विभाग अब का शिक्षा विभाग भारत सरकार इसका नोडल विभाग है। इसी तरह राज्यों में उच्च शिक्षा या शिक्षा विभाग इसके नोडल हैं। बातचीत के लिए मुख्य विषय बिन्दु- भारत के विचार को एक ऐसे राष्ट्र के रूप में मनाने के लिए जिसमें विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में विभिन्न सांस्कृतिक इकाइयाँ एक दूसरे के साथ मेल खाती हैं और एक दूसरे के साथ बाातचीत करती हैं विविध व्यंजनों, संगीत, नृत्य, रंगमंच, फिल्मों, हस्तशिल्प, खेल, साहित्य, त्योहारों, चित्रकला की यह शानदार अभिव्यक्ति है। यह सब बिन्दु सभी भारतीयों को आपस में बन्धुता भाव के साथ अत्मसात करने को सक्षम बनाएगी। इससे विभिन्न संम्प्रदायों, राज्यों के बीच आपस में छोटे-छोटे मसलों के कारण दूरी पैदा होती है।
इसके लिए पच्चीस-छब्बीस प्रमुख गतिविधियाँ की रूपरेखा तैयार की गई,जिनको हम चार पाँच बिन्दुओं के माध्यम से उनको स्मरण कर लें या कहिये दुहरा लें- एक: कम से कम पाँच ऐसी पुस्तकों का जिन्हें विभिन्न स्थापित मान्य पुरस्कारों से पुरस्कृत किया गया हो, और इसी तरह दोनों राज्यों के पाँच-पाँच गीत-गानों को साझेदारी राज्य की भाषा में अनुवाद हो। साथ ही दोनों राज्यों की समान अर्थवाली कहावतों की पहचान और उनका अनुवाद कर उनके उपयोग के लिए व्यवहार में प्रयोग किया जाये।
दो: सांस्कृतिक प्रतियोगिताओं के माध्याम से गृह राज्य में पहचाने गए मंडलों की सहायता से राज्यों के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान के कार्यक्रम। साहित्योत्सव के रूप में लेखकों और कवियों आदि के लिए विनिमय कार्यक्रम हों। सहभागी राज्यों के आगंतुकों के लिए राज्य अतिथि संस्कृति को बढ़ावा दिया जाये। विद्यापीठ के छात्रों द्वारा शैक्षणिक भ्रमण में सहभागी राज्यों में उस राज्य की विशिष्ट पहचानों को सामने लाया जाये। एक राज्य के छात्रों का वर्णमाला, गीत, कहावत और सहभागी राज्य की भाषाओं में सौ वाक्यों का प्रदर्शन। युग्म राज्यों की दो भाषाओं में शपथ प्रतिज्ञाओं के प्रशासन को प्रोत्साहित करना। भागीदारी वाले राज्य की भाषा में विद्यालयों की पाठ्यक्रम पुस्तकों में कुछ पन्नों को शामिल करना। सहभागी राज्य की भाषा में छात्रों के बीच निबंध प्रतियोगिता का आयोजन। साझीदार राज्यों की भाषाओं में विद्यालय और महाविद्यालयों में वैकल्पिक कक्षाओं का अभ्यास कराना। सहभागी राज्य के शिक्षण संस्थानों में अन्य राज्य के नाटकों के प्रदर्शन का आयेजन कराना।
तीन: भागीदार राज्य की पाक प्रथाओं को सीखने के अवसर के साथ पाक त्योहार मनाना। राज्यों की भागीदारी वाले पर्यटकों के लिए राज्य दर्शन कार्यक्रमों को बढ़ावा देना। एक राज्य के टूर ऑपरेटर्स के लिए परिचितों के पर्यटन का आयोजन भागीदारी राज्य के लिए करना।
चार : राज्यों में किसानों के बीच पारंपरिक कृषि प्रथाओं और पूर्वानुमान के बारे में आदन-प्रदान की व्यवस्था करना। राज्यों की भागीदारी वाले क्षेत्रीय टीवी, रेडियों चैंनलों पर साझा राज्यों को आपसी कार्यक्रमों के प्रसारण की व्यवस्था करना।
पाँच : पन्द्रह अगस्त और 26 जनवरी के अवसर पर साझेदारी वाले राज्यों की संयुक्त झांकी का आयोजन। भागीदारी वाले राज्य के औपचारिक कार्यों में एक राज्य से परेड आदि की भागीदारी। साझेदारी राज्यों की उपशीर्षक वाली फिल्मों का प्रसारण कराना।
छह : फैशन शो को प्रोत्साहित करना और राज्य के विद्यार्थियों और लोगों द्वारा भागीदारी राज्यों की पोषाकों को पहनना।
सात : माय गवन्र्मेट पोर्टल और संचार माध्यमों का सहारा लेकर भागीदारी वाले राज्य की भाषा में राष्ट्रीय प्रश्रोत्तरी प्रतियोगिता का आयोजन तथा एक भारत श्रेष्ठ भारत पर ब्लॉग प्रतियोगिता का आयोजन करना। साथ ही आपसी राज्यों के लिए फोटोग्राफी प्रतियोगिता का आयोजन, स्थान, वस्तुओं और दृश्यों का चयन।
आठ : सहभागी राज्यों में सायकलिंग अभियान का आयोजन। एक राज्य के एन.सी.सी. और एन.एस.एस के शिविरों का आयोजन जो सहभागी राज्यों के स्थानो पर हों। तो यह है सरकारी कार्यक्रम जिनसे भारत की एकता में युवाओं की सहभागिता कर भारत परिचय कराया जाये और उनके अन्दर एक भावनात्मक एकता पैदा की जाये। अब जरा श्रेष्ठ भारत पर विचार किया जाये। ध्यान में आता है कि स्वतंत्रता के बाद सरदार पटेल को अपनी पूरी ताकत राष्ट्रीय एकता के लिए लगानी पड़ी जिसमें विभाजन की विभीषिका के बाद भारत का एक खण्डित भौगोलिक स्वरूप हमारे सामने आया। इसलिए एक प्रश्र उठना स्वाभाविक है कि क्या जिस श्रेष्ठ भारत की संकल्पना हमने 2015 में एकता दिवस के दिन की वह इस एक पक्ष के प्राप्त करने से पूर्व हो जायेगी ?
इसलिए अब हमें श्रेष्ठ भारत के आवश्यक तत्वों पर भी यहाँ विचार करना होगा। कारण कि भारत मात्र भौतिकता के साथ जीने वाला राष्ट्र नहीं है। यह उसके स्वस्थ्य शरीर का परिचायक हो सकता है किन्तु उस आत्मा की खोज और बोध करना अभी निरन्तरता में है जिसे हम धर्म और अध्यात्म कहते हैं। और एक जो विशिष्ट बात ध्यान में आती है कि जब हम भौतिक रूप से सम्पन्न थे तभी हमारी अध्यात्म भूमि भी उतनी ही उर्जावान थी। स्वत्व आधारित थी। भारत ने सदा से यह विचार किया है कि हम भौतिक समृद्ध, विज्ञान और तकनीकी विकास के शिखर पर तो पहुँचे ही किन्तु वह विकास हमारी संस्कृति, प्रकृति और आत्मविकास के विपरीत न हो।
इसी के साथ दूसरा पक्ष जो भारत के जगत्गुद् गुरु की पहचान को बताता है पाश्चात्य चिंतक मार्क ट्वेन के इस वक्तव्य समझें- ‘‘भारत उपासना पंथों की भूमि, मानव जाति का पालना, भाषा की जन्म भूमि, इतिहास की माता, पुराणों की दादी एवं परंपरा की परदादी है। मनुष्य के इतिहास में जो भी मूल्यवान एवं सृजनशील सामग्री है, उसका भंडार अकेले भारत में है। यह ऐसी भूमि है जिसके दर्शन के लिए सब लालायित रहते हैं और एक बार उसकी हल्की सी झलक मिल जाए तो दुनिया के अन्य सारे दृश्यों के बदले में भी वे उसे छोडऩे के लिए तैयार नहीं होंगे।’’ अब इसी तरह के ‘एक भारत श्रेष्ठ भारत’ के बारे में दुनिया के अनेक चिंतकंो, शोधकों यथा हीगल, गैलबैनो, मार्कपोलो आदि के हैं। दूसरा कथन अर्नोल्ड टायनवी एडिनवर्ग का समझे- 21वी सदी का नेता भारत होगा, प्रत्येक क्षेत्र में भारत की महान प्रगतिहोगीक। उससे भी अधिक यह विज्ञान एवं धर्म को समन्वित करेेगा। मात्र भारत यह कर सकता है और करेगा भी। तो करना क्या है? सर्वप्रथम तो हमारे देश मे एक धारणा बनी हुई है कि पश्चिम का व्यक्ति बुद्धिवादी, तर्कशील तथा प्रयोगशील होताहै और भारत का व्यक्ति ग्रंथ को ही प्रमाण मानने वाला, अंधश्रद्धालु तथा प्रयोग से दूर भागने वाला होता है।
परन्तु वास्तविकता इसके विपरीत है।इस लिए पहले स्व का बोध। अपने पूर्वजों की खोजो पर अभिमान और उसको समाज के सामने तथ्य के साथ रखना। वे दोनेां प्रकार की हैं, वैदिक विज्ञान पर आधारित किन्तु वर्ममान में लिए पूर्णत: उपयोगी। दूसरी हमारी आध्यात्मिक परंपरा जो वैश्विक मानव बनने की क्षमता रखती है। आधुनिक विज्ञान के क्षेत्र में जाते हैं जो भारत के पास ये क्षमताएँ उस समय थी जब दुनिया ठीक से चलना भी नहीं जानती थी। पश्चिम के कई देशों का जन्म भी नहीं हुआ था। भारत के प्रथम परमाणु वैज्ञानिक महर्षि कणाद ने वैशेष्ज्ञिक दर्शन में कहा है, ‘दृष्टनां दृष्ट प्रयोजनानां दृष्टाभावे प्रयोगोऽभ्युदयाय’ अर्थात् प्रत्यक्ष देखे हुए और अन्यों को दिखाने के उद्देश्य से अथवा सव्यं और अधिक गहराई से ज्ञान प्राप्त करने हेतु रखकर किये गये प्रयोगों से अभ्युदय का मार्ग प्रशस्त होता है। इसी तरह कण से लेकर ब्रहमांड और उनका प्रयोजन जानने के लिए महर्षि गौतम न्याय दर्शन में सोलह चरण की प्रक्रिया बताते हैं। और पृथ्वी, जल, जेज, वायु, आकाश, दिक्् काल, मन ओर आत्मा को जानना चाहिए ऐसाकहा है। गीता के 7वें अध्याय में श्रीकृष्ण जी बताते हैं कि ब्रह्म के समग्र रूप को जानने के लिए ज्ञान-विज्ञान दोनेां को जानना चाहिए, क्योंकि इन्हें जानने के बाद कुछ जानना शेष नहीं रहता।
भृगु संहिता में शिल्प की परिभाषा करते हुए कहते हैं-
नानाविधानां वस्तूनां यंत्रणाँ कल्पसंपदा
धातूनां साध्रानां च वस्तूनां शिल्पसंज्ञितम्।
कृषिर्जलं खनिश्चेति धातुखंड त्रिधाभिधम्।।
नौका-रथाग्रिनानां, कृतिसाधनमुच्यते।
वेश्म, प्राकार नगररचना वास्तु संज्ञितम्।।
इन्होंने दस शास्त्रों का उल्लेख किया किन्तु बात यहीं पूर्ण नहीं होती तो पूरे विज्ञान सम्पदा और उसकी भारतीय खोज को देखे तो - विद्युत शास्त्र,यंत्र विज्ञान, धातुशास्त्र, विमान विद्या, नौका शास्त्र, वस्त्रुशास्त्र,गणित शास्त्र, काल गणना, खगोल सिद्धांत, स्थापत्य शास्त्र, रसायन शास्त्र, वनस्पतिशास्त्र, कृषि विज्ञान, प्राणि विज्ञान, स्वास्थ्य विज्ञान, घ्वनि विज्ञान, लिपि विज्ञान, यह हमारी वो उपलब्धियाँ है जो श्रेष्ठ भारत की परिचायक हैं। आवश्यकता है इन्हें आधुनिक सन्दर्भ और काल के साथ ठीक से संगति बैठाकर समाज के सामने लाना और उनका खोया स्वाभिमान जाग्रत करना और डीकोलनाइजेशन की ओर ले जाना। यही श्रेष्ठ भारत की निशानी है। इसे ही हमें स्वयं बोध कर दुनिया को बोध कराना है। जिसे भारत के महान वैज्ञानिक जगदीश चन्द्र वशु कुछ इस प्रकार कहते हैं-
To my country men
Who will yet claim
The intellectual heritage
Of their ancestors
मेरे देश वासियो को जो उनके पूर्वजों की, बौद्धिक विरासत के अभी भी अधिकारी हैं। अपने पुरुषार्थ को जगाना होगा तभी हम अभ्युदय और नि:श्रेयस की प्राप्ति कर एक भारत श्रेष्ठ भारत के सपने को पुन: पूरा कर सकते हैं। आप ने हमें सुना आभार।
Friday, 22 November 2024
योग (भाग दो )
योग (भाग दो )
योग
‘योग’ शब्द ‘युज समाधौ’ आत्मनेपदी दिवादिगणीय धातु में ‘घञ्’ प्रत्यय लगाने से निष्पन्न होता है । 'घञ्' प्रत्यय का 'अ' शेष रहता है। इसके रूप पुलिंग होते हैं। धातु को गुण या वृद्धि होती है।ण्यत,घञ्'प्रत्यय होने की स्थिति में धातु के च को क तथा ज को ग हो जाता है।
यथा युज -योग:।
इस प्रकार ‘योग’ शब्द का अर्थ हुआ समाधि अर्थात् चित्त वृत्तियों का निरोध ।
वैसे ‘योग’ शब्द ‘युजिर योग’ तथा ‘युज संयमने’ धातु से भी निष्पन्न होता है, किन्तु तब इस स्थिति में योग शब्द का अर्थ क्रमशः योगफल, जोड़ तथा नियमन होगा ।
योग में आत्मा और परमात्मा के विषय में भी कहा गया है । भगवद्गीता में योग शब्द का कई बार प्रयोग हुआ है, कभी अकेले और कभी सविशेषण, जैसे- बुद्धियोग, ज्ञान योग, भक्ति योग, संन्यासयोग, कर्मयोग आदि ।
वेदोत्तर काल में भक्तियोग और हठयोग नाम भी प्रचलित हो गए हैं ।
पतंजलि योगदर्शन में क्रियायोग शब्द देखने में आता है । पाशुपत योग और माहेश्वर योग जैसे शब्दों के भी प्रसंग मिलते हैं ।
तात्पर्य यह कि योग के शास्त्रीय स्वरूप, उसके दार्शनिक आधार को सम्यक् रूप से समझना सरल नहीं है ।
संसार को मिथ्या माननेवाला अद्वैतवादी भी निदिध्याह्न के नाम से उसका समर्थन करता है । अनीश्वरवादी सांख्य विद्वान भी उसका अनुमोदन करता है ।
बौद्ध ही नहीं, मुस्लिम सूफी और ईसाई भी किसी न किसी प्रकार अपने संप्रदाय की मान्यताओं और दार्शनिक सिद्धांतों के साथ उसका सामंजस्य स्थापित कर लेते हैं ।
विभिन्न परिभाषाएँ
- पातंजल योगदर्शन के अनुसार - 'योगश्चित्तवृत्त निरोधः' अर्थात् 'चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है।'
- सांख्य दर्शन के अनुसार - 'पुरुषप्रकृत्योर्वियोगेपि योगइत्यमिधीयते।' अर्थात् 'पुरुष एवं प्रकृति के पार्थक्य को स्थापित कर पुरुष का 'स्व' स्वरूप में अवस्थित होना ही योग है।'
- विष्णु पुराण अनुसार - 'योगः संयोग इत्युक्तः जीवात्म परमात्मने।' अर्थात् 'जीवात्मा तथा परमात्मा का पूर्णत: मिलन ही योग है।'
- भगवद्गीता के अनुसार - 'सिद्दध्यसिद्दध्यो समोभूत्वा समत्वंयोग उच्चते।' अर्थात् 'दुःख-सुख, लाभ-अलाभ, शत्रु-मित्र, शीत और उष्ण आदि द्वन्दों में सर्वत्र समभाव रखना योग है।'
- भगवद्गीता के अनुसार - 'तस्माद्दयोगाययुज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्।' अर्थात् 'कर्त्तव्य कर्म बन्धक न हो, इसलिए निष्काम भावना से अनुप्रेरित होकर कर्त्तव्य करने का कौशल योग है
- आचार्य हरिभद्र के अनुसार - 'मोक्खेण जोयणाओ सव्वो वि धम्म ववहारो जोगो।' अर्थात 'मोक्ष से जोड़ने वाले सभी व्यवहार योग हैं।'
- बौद्ध धर्म के अनुसार - 'कुशल चितैकग्गता योगः।' अर्थात् 'कुशल चित्त की एकाग्रता योग है।
योग के प्रकार
योग की उच्चावस्था समाधि, मोक्ष, कैवल्य आदि तक पहुँचने के लिए अनेकों साधकों ने जो साधन अपनाये, उन्हीं साधनों का वर्णन योग ग्रन्थों में समय-समय पर मिलता रहा। उसी को योग के प्रकार से जाना जाने लगा।
योग की प्रमाणिक पुस्तकों में 'शिवसंहिता' तथा 'गोरक्षशतक' में योग के चार प्रकारों का वर्णन मिलता है-
'मंत्रयोगो हठष्चैव लययोगस्तृतीयकः।
चतुर्थो राजयोगः'।'
'मंत्रो लयो हठो राजयोगन्तर्भूमिका क्रमात्
एक एव चतुर्धाऽयं महायोगोभियते॥'
उपर्युक्त दोनों श्लोकों के आधार पर योग के चार प्रकार हुए- 'मंत्रयोग', 'हठयोग' 'लययोग' व 'राजयोग'।
मंत्रयोग : 'मंत्र' का सामान्य अर्थ है- 'मननात् त्रायते इति मंत्रः'। मन का त्राय मंत्र है। मंत्र योग का सम्बन्ध मन से है, मन को इस प्रकार परिभाषित किया है- 'मनन इति मनः'। जो मनन, चिन्तन करता है, वही मन है। मन की चंचलता का निरोध मंत्र के द्वारा करना मंत्र योग है।
मंत्र योग के बारे में 'योगतत्वोपनिषद' में वर्णन इस प्रकार है-' योग सेवन्ते साधकाधमाः।' (अल्पबुद्धि साधक मंत्रयोग से सेवा करता है, अर्थात मंत्रयोग अनसाधकों के लिए है, जो अल्पबुद्धि है।')
मंत्र शरीर और मन दोनों पर प्रभाव डालता है। मंत्र जप मुख्य रूप से चार प्रकार से किया जाता है- (1) वाचिक (2) मानसिक (3) उपांशु (4) अणपा।
हठयोग :
लययोग :
राजयोग : राजयोग सभी योगों का राजा कहलाता है। क्योंकि इसमें प्रत्येक प्रकार के योग की कुछ न कुछ सामग्री अवश्य मिल जाती है। राजयोग में महर्षि पतंजलि द्वारा रचित अष्टांग योग का वर्णन आता है।राजयोग का विषय चित्तवृत्तियों का निरोध करना है।
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योग के अन्तरंग पक्ष
महर्षि पतंजलि ने अष्टांग को इस प्रकार बताया है-'यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टांगानि।'
योग के आठ अंगों में प्रथम पाँच बहिरंग तथा अन्य तीन अन्तरंग में आते हैं ।
पाँच वहिरंग हैं जो इस प्रकार हैं-(1)यम-‘अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमा:’ (अ) अहिंसा- मन, वाणी और शरीर से किसी प्राणी को कभी किसी प्रकार किचिंत मात्र भी दु:ख न देना ‘अहिंसा’ है ।परदोष दर्शन का सर्वथा त्याग भी इसी के अन्तर्गत है । ‘अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्याग:।’ जब योगी का अहिंसा भाव पूर्णतया दृढ़ स्थिर हो जाता है, तब उसके निकटवर्ती हिंसक जीव भी वैर भाव से रहित हो जाते हैं ।
इतिहास ग्रन्थों में जहाँ मुनियों के आश्रमों की शोभा का वर्णन आता है, वहाँ वन जीवों में स्वाभाविक बैर का अभाव दिखलाया गया है । यह उन ऋषियों के अहिंसा भाव की प्रतिष्ठा का द्योतक है।
(ब) सत्य-
सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम’ । जो योगी सत्य का पालन करने में पूर्णतया परिपक्व हो जाता है, उसमें किसी प्रकार की कमी नहीं रहती, उस समय वह स्वयं कर्तव्य पालन रूपी क्रियाओं के फल का आश्रय बन जाता है । जो कर्म किसी ने नहीं किया है, उसका भी फल उसे प्रदान कर देने की शक्ति उस यागी में आ जाती है, अर्थात जिसको जो वरदान, शाप या आशीर्वाद देता है, वह सत्य हो जाता है । इन्द्रिय और मन से प्रत्यक्ष देखकर, सुनकर या अनुमान करके जैसा अनुभव किया हो, ठीक वैसा ही भाव प्रकट करने के लिये प्रिय और हितकर तथा दूसरे को उद्वेग उत्पन्न करने वाले जो वचन बोले जाते हैं उनका नाम सत्य है । (स) अस्तेय-
‘अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम’’। जब साधक में चोरी का अभाव पूर्णतया प्रतिष्ठित हो जाता है, तब पृथ्वी में जहाँ कहीं भी गुप्त स्थान में पड़े हुए समस्त रत्न उसके सामने प्रकट हो जाते है। अर्थात उसकी जानकारी में आ जाते हैं। दूसरे के स्वत्व का अपहरण करना, छल से या अन्य किसी उपाय से अन्याय पूर्वक अपना बना लेना ‘स्तेय’ चोरी है, इसमें सरकार की टैक्स की चोरी घूसखोरी भी सम्मिलित है। इन सब प्रकार की चोरियों का अभाव ‘अस्तेय’ है। (द) ब्रह्मचर्य-
‘ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां वीर्यालाभ:’। जब साधक में ब्रह्मचर्य की पूर्णतया दृढ़ स्थिति हो जाती है तब उसके मन, बुद्धि, इन्द्रिय और शरीर में अपूर्व शक्ति का प्रादुर्भाव हो जाता है।
साधारण मनुष्य उनकी बराबरी नही कर पाते। मन, वाणी और शरीर से होनवाले सब प्रकार के मैथुनों की सब अवस्थाओं में सदा त्याग करके सब प्रकार से वीर्य की रक्षा करना ‘ब्रह्मचर्य’ हैं । ‘‘कर्मणा मनसा वाचा सर्वावस्थासु सर्वदा। सर्वत्र मैथुनत्यागी ब्रह्मचर्य प्रचक्षते’’।। (गरुण.पूर्व.आचार 238.6) अत: साधक को चाहिये कि न तो कामदीपन करनेवाले पदार्थों का सेवन करे, न ऐसे दृष्यों को ही मन में लावे तथा स्त्रियों का और स्त्री साहित्य को पढ़े और न ही ऐसे पुरुषों का संग करे जो स्त्री पर आसक्त हों।
(ई) अपरिग्रह-
अपरिग्रहस्थैर्ये जन्मकथन्तासंबोध:। जब योगी में अपरिग्रह का भाव पूर्णतया स्थिर हो जाता है, तब उसे अपना पूर्व और वर्तमान जन्म की सब बातें मालूम हो जाती हैं । यह ज्ञान भी संसार में वैराग्य उत्पन्न करनेवाला और जन्म-मरण से छुटकारा पाने के लिए योगसाधना में प्रवृत करने वाला है। अपने स्वार्थ के लिये ममता पूर्वक धन, सम्पति और भोग-सामग्री का संचय करना ‘परिग्रह’ है, इसके अभाव का नाम अपरिग्रह है।
(2) नियम- ‘‘शौचसंतोषतप:स्वाध्यायेश्वरप्राणिधानानि नियमा:’’।
(क) शौच- जल, मृतिकादि के द्वारा शरीर, वस्त्र और मकान आदि के मल को दूर करना बाहर की शुद्वि है, इसके सिवा अपने वर्णाश्रम और योग्यता के अनुसार न्यायपूर्वक धन को और शरीर निर्वाह के लिये आवश्यक अन्न आदि पवित्र वस्तुओं को प्राप्त करके उनके द्वारा शास्त्रानुकूल शुद्ध भोजनादि करना तथा सबके साथ यथा योग्य पवित्र बर्ताव करना यह भी बाहरी शुद्धि के ही अन्तर्गत है। जप, तप और शुद्ध विचारों के द्वारा एवं मैत्री आदि की भावना से अन्त:करण के राग-द्वेषादि मलों का नाश करना भीतर की पवित्रता है।
(ख)संतोष- कर्तव्य कर्म का पालन करते हुए उसका जो कुछ परिणाम हो तथा प्रारब्ध के अनुसार अपने-आप जो कुछ भी प्राप्त हो एवं जिस अवस्था और परिस्थिति में रहने का संयोग प्राप्त हो जाय, उसी में संतुष्ट रहना और किसी प्रकार की भी कामना या तृष्णा न करना संतोष है ।
(ग) तप- वर्ण, आश्रम, परिस्थिति और योग्यता के अनुसार स्वधर्म का पालन करना और उसके करने में शारीरिक, मानसिक कष्ट सहने की सामर्थ्य ‘तप’ है ।
(घ) स्वाध्याय- अध्ययन (वेद, शास्त्र, महापुरूषों के जीवन चरित्र) तथा ऊँकार आदि किसी नाम का जप ‘स्वाध्याय’ है । (ड) ईश्वर प्राणिधान - ईश्वर के नाम, गुण, लीला, ध्यान, प्रभाव में अपने को पूर्णत: समर्पित कर देना ईश्वर प्राणिधान है। तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्राणिधान के माध्यम से अर्थात नियमों के पालन अथवा क्रियायोग से हम अपने क्लेशों को नष्ट करते हैं या क्लेशों से मुक्त होते हैं।
(3) आसन:
यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, पाँच वहिरंग हैं । आसन का स्थान तृतीय है। इसके अंतर्गत-बैठना, बैठने का आधार, बैठने की विशेष प्रक्रिया, बैठ जाना इत्यादि आता है । जबकि गोरक्षपीठ द्वारा प्रवर्तित षडंगयोग (छः अंगों वाला योग) में आसन का स्थान प्रथम है । चित्त की स्थिरता, शरीर एवं उसके अंगों की दृढ़ता और कायिक सुख के लिए इस क्रिया का विधान मिलता है ।
विभिन्न ग्रन्थों में दिए आसन के लाभ - उच्च स्वास्थ्य की प्राप्ति, शरीर के अंगों की दृढ़ता, प्राणायाम आदि उत्तरवर्ती साधन क्रमों में सहायता, चित्त स्थिरता, शारीरिक एवं मानसिक सुखदायी आदि । पंतजलि ने मन की स्थिरता और सुख को लक्षणों के रूप में माना है । प्रयत्न शैथिल्य और परमात्मा में मन लगाने से इसकी सिद्धि बतलाई गई है । इसके सिद्ध होने पर द्वंद्वों का प्रभाव शरीर पर नहीं पड़ता। किन्तु पतंजलि ने आसन के भेदों का उल्लेख नहीं किया । उनके व्याख्याताओं ने अनेक भेदों का उल्लेख (जैसे-पद्मासन, भद्रासन आदि) किया है । इन आसनों का वर्णन लगभग सभी भारतीय साधनात्मक साहित्य में मिलता है ।
शरीर को पुष्ट करने वाले मुख्य यौगिक व्यायाम या मुद्राएं- त्रिकोणासन, वीरभद्रासन, गोमुखासन, नटराजासन , एकपादासन, वृक्षासन, ताड़ासन, उत्कटासन आदि हैं, जिन्हें तीन प्रकार से समझा जा सकता है-
बैठकर : पद्मासन, वज्रासन, सिद्धासन, मत्स्यासन, वक्रासन, अर्धमत्स्येन्द्रासन, गोमुखासन, पश्चिमोत्तनासन, ब्राह्म मुद्रा, उष्ट्रासन, गोमुखासन ।
पीठ के बल लेटकर : अर्धहलासन, हलासन, सर्वांगासन, विपरीतकर्णी आसन, पवनमुक्तासन, नौकासन, शवासन आदि ।
पेट के बल लेटकर : मकरासन, धनुरासन, भुजंगासन, शलभासन, विपरीत नौकासन आदि ।
पतञ्जलि के योगसूत्र के अनुसार - ‘स्थिरसुखमासनम्’ अर्थात् सुखपूर्वक स्थिरता से बैठने का नाम आसन है या जो स्थिर भी हो और सुखदायक अर्थात आरामदायक भी हो, वह आसन है । इस प्रकार हम निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि आसन वह है जो आसानी से किए जा सकें तथा हमारे जीवन शैली में विशेष लाभदायक प्रभाव डाले ।
(4) प्राणायाम (अनुलोम-विलोम) :योग के माध्यम से योगी प्राणवायु को अपान वायु में और अपान वायु को प्राण वायु में हवन करते हैं । अन्य लोग परिमित भोजन सेवी होकर प्राण और अपान की गति को रोक कर प्राणायाम करते हुए इन्द्रियों को प्राणों में हवन करते हैं ।
प्राणायाम अर्थात प्राणवायु का विस्तार तीन प्रकार से होता है- पूरक, कुम्भक, और रेचक । जब वायु नाक और मुख से आती जाती रहती है तब उसे प्राण कहते हैं और जो वायु मल मूत्र को बाहर निकाल देती है , वह अपान है । प्राण गति को रोकना ही कुम्भक है । पूरक, कुम्भक और रेचक ये तीन प्राणायाम के अंग हैं ।
अनुलोम का अर्थ सीधा और विलोम का अर्थ उल्टा होता है । यहां पर सीधा का अर्थ है नासिका या नाक का दाहिना छिद्र और उल्टा का अर्थ नाक का बायां छिद्र है । अर्थात् अनुलोम-विलोम प्राणायाम में नाक के दाएं छिद्र से सांस खींचते हैं, तो बायीं नाक के छिद्र से सांस बाहर निकालते है । इसी तरह यदि नाक के बाएं छिद्र से सांस खींचते हैं, तो नाक के दाहिने छिद्र से सांस को बाहर निकालते हैं ।अनुलोम-विलोम प्राणायाम को कुछ योगीगण 'नाड़ी शोधक प्राणायाम' भी कहते हैं । (i) विधि: अपनी सुविधानुसार पद्मासन, सिद्धासन, स्वस्तिकासन अथवा सुखासन में बैठ जाएं । दाहिने हाथ के अंगूठे से नासिका के दाएं छिद्र को बंद कर लें और नासिका के बाएं छिद्र से 4 तक की गिनती में सांस को भरे और फिर बायीं नासिका को अंगूठे के बगल वाली दो अंगुलियों से बंद कर दें । तत्पश्चात दाहिनी नासिका से अंगूठे को हटा दें और दायीं नासिका से सांस को बाहर निकालें । अब दायीं नासिका से ही सांस को 4 की गिनती तक भरे और दायीं नाक को बंद करके बायीं नासिका खोलकर सांस को 8 की गिनती में बाहर निकालें । इस प्राणायाम को 5 से 15 मिनट तक कर सकते हैं । (ii) लाभ : फेफड़े शक्तिशाली होते हैं । सर्दी, जुकाम व दमा की शिकायतों से काफी हद तक बचाव होता है । हृदय बलवान होता है । गठिया के लिए फायदेमंद है । मांसपेशियों की प्रणाली में सुधार करता है । पाचन तंत्र को दुरुस्त करता है । तनाव और चिंता को कम करता है । पूरे शरीर में शुद्ध ऑक्सीजन की आपूर्ति बढ़ाता है । (iii) सावधानियां: कमजोर और एनीमिया से पीड़ित रोगी इस प्राणायाम के दौरान सांस भरने और सांस निकालने (रेचक) की गिनती को क्रमश: चार-चार ही रखें । अर्थात चार गिनती में सांस का भरना तो चार गिनती में ही सांस को बाहर निकालना है । स्वस्थ रोगी धीरे-धीरे यथाशक्ति पूरक-रेचक की संख्या बढ़ा सकते है । कुछ लोग समयाभाव के कारण सांस भरने और सांस निकालने का अनुपात 1:2 नहीं रखते । वे बहुत तेजी से और जल्दी-जल्दी सांस भरते और निकालते हैं । इससे वातावरण में व्याप्त धूल, धुआं, जीवाणु और वायरस, सांस नली में पहुंचकर अनेक प्रकार के संक्रमण को पैदा कर सकते हैं । अनुलोम-विलोम प्राणायाम करते समय यदि नासिका के सामने आटे जैसी महीन वस्तु रख दी जाए, तो पूरक व रेचक करते समय वह न अंदर जाए और न अपने स्थान से उड़े। अर्थात सांस की गति इतनी सहज होनी चाहिए कि इस प्राणायाम को करते समय स्वयं को भी आवाज न सुनायी पड़े ।
(5) प्रत्याहार : प्रत्याहार का मतलब है असंगता ।इन्द्रियों को अंतर्मुखी करना महर्षि पतंजलि के अनुसार जो इन्द्रियां चित्त को चंचल कर रही हैं, उन इन्द्रियों का विषयों से हट कर एकाग्र हुए चित्त के स्वरूप का अनुकरण करना प्रत्याहार है । प्रत्याहार से इन्द्रियां वश में रहती हैं और उन पर पूर्ण विजय प्राप्त हो जाती है । अतः चित्त के निरुद्ध हो जाने पर इन्द्रियां भी उसी प्रकार निरुद्ध हो जाती हैं, जिस प्रकार रानी मधुमक्खी के एक स्थान पर रुक जाने पर अन्य मधुमक्खियां भी उसी स्थान पर रुक जाती हैं । सोते समय अदि तुम चिंता चिंताओं से घिर जाओ तो तुम्हें नीद नहीं आएगी , ऐसे में मन से आते विचारों को अलग करना प्रत्याहार है।
योग के उक्त आठ अंगों में अंतिम तीन - धारणा, ध्यान और समाधि इसकी अन्तरंग उच्चावस्था है ।
(1) धारणा ("एकाग्रता"): एक ही लक्ष्य पर ध्यान लगाना । किसी भी भगवत-प्रसंग में मन को लगा देना धारणा कहलाता है । मन को किसी मन्त्र अथवा दिव्य रूप पर स्थापित करो । यह ध्यान में पहुँचने की सीढ़ी है ।
(2) ध्यान : ध्यान सर्वव्यापक और सर्वानन्दमय परमात्मा को प्रणाम है । सत, चित, आनंद स्वरुप का गहन चिंतन है । ध्यान की अवस्था में साधक ईश्वरीय चेतना में डूब जाता है और इससे वह उच्चतर अतीन्द्रिय अवस्था को प्राप्त करता है । ध्यान एक ऊंचाई मापक यंत्र के सामान है जो हमें बताता है कि हम अध्यात्मिक उन्नति कर रहे हैं या अवनति की ओर जा रहे हैं ।
वास्तविक ध्यान एक अविच्छिन्न तेल धारा के सामान है । जब मन विचार शून्य हो जाता, विचार एक विषय की ओर बिना किसी चंचलता अथवा व्यवधान के प्रवाहित होते रहते हैं । ध्यान की तीन अवस्थाए हैं - (i) अनेक विचारों को एक विचार के साथ जोड़ना । हम अपने भीतर को पावित्र्य से भर लें । ये स्पन्दन हमारी सारी दुर्बलताएं नष्ट कर देता है (ii) उस एक ही विचार का चिंतन करना । हम अपने मन को शांत बनाए रखें और समग्र विश्व से शान्ति बनाए रखें । हम साक्षी या द्रष्टा की भूमिका ग्रहण कर लें और अपने मन को समस्त बहिर्मुखी विचारों, ध्वनियों और अन्य संवेदनाओं से खींच लें ।
ध्यान रखना होगा कि केवल बाह्य निर्जनता का आश्रय लेने मात्र से संसार विस्मृत नहीं हो जाता । सच्ची निर्जनता तो वह है , जिसमें साथक स्वयं को ब्रह्म के ध्यान में विलीन कर देता है ।(iii) परमात्मा के संस्पर्श की अनुभूति करना और साथ ही साथ चिंतन के प्रवाह को भी बनाए रखना। और इन सब के अंत में है उच्चतम अवस्था, जिसमें परमात्मा की अवस्थिति की अनुभूति चिंतन के अभाव में होती हैं ।
(3) समाधि :उपनिषदों ने अस्तित्व के विभिन्न धरातलों को तीन भागों में बांटा गया है - (अ) शुद्ध सार्वभौम चेतना (ब) एकता व अनेकता की मिश्रित चेतना (स) अनेकता से युक्त अशुद्ध चेतना । ध्यान के वस्तु को चैतन्य के साथ विलय करना। यह योग पद्धति की चरम अवस्था है। समाधि की अवस्था के गहन एकांत का गहरा प्रभाव पड़ता है । इस अवस्था में मन सत्य के प्रकाश को प्राप्त करता है , अत : नकारात्मक भावों का प्रभाव और भी क्षीण हो जाता है । अंततः प्रकाश की छाप मन में इस तरह पड़ती है कि बाहरी प्रभाव अवास्तविक, क्षणिक और नाशवान प्रतीत होने लगते हैं, उनकी क्षमता कम होती जाती है और मन पर उनका प्रभाव समाप्त हो जाता है । सत्य का साक्षात्कार मन में स्थाई आनंद में परिणत हो जाता है । इस तरह प्रेम और घृणा से मुक्त, सांसारिक राग और विराग, उत्थान और पतन से अप्रभावित, असरल किन्तु उच्च लक्ष्य की ओर उन्मुख मन वीरता एवं निरद्वंद्वता पूर्वक अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता है तथा जीवन -सागर की दारुण लहरों के बीच ठोस चट्टान की भांति स्थिर रहता है । उसका चरित्र इतना दृढ़ और वीरतापूर्ण होता है कि वह समाज से प्रभावित न होकर समाज को अपने ढंग से प्रभावित करता है ।
ऐसे व्यक्तिओं को जीवन मुक्त कहा जता है । वे संसार में रहते हुए भी सांसारिक बन्धनों से इसी जीवन में मुक्त हो जाते हैं ।
योगश्चित्तिवृत्तिनिरोध:-चित्त की वृत्तियों का निरोध योग है । अर्थात चित्त की वृत्तियों का सर्वथा रुक जाना योग है। यह स्थिति कब आती है ? ‘‘तदाद्रष्टु:स्वरूपेऽवस्थानम।’’ जब चित्त की वृत्तियों का पूर्ण निरोध हो जाता है, उस समय द्रष्टा (आत्मा) अपने स्वरूप में स्थिति हो जाती है; अर्थात केवल्य अवस्था को प्राप्त हो जाता है। यदि चित्त वृत्तियों का अंश मात्र भी निरोध शेष रह जाता है तब तक द्रष्टा अपने चित्त की वृत्ति के अनुरूप अपना स्वरूप समझता रहता है, उसे अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान नहीं होता है। फिर प्रश्न उठता है, यह होता कैसे है? ये वृत्तियाँ कितने प्रकार की होती हैं। चित्त की वृत्तियाँ क्या हैं, आदि-आदि अनेक प्रश्न उठना जिज्ञासु के लिये स्वाभाविक है।
चित्त वृत्तियाँ-वैसे तो चित्त वृत्तियाँ असंख्य हैं किन्तु मोटे तोर पर उन्हें पाँच प्रकार से बाँटा जा सकता है। चित्त वृत्तियाँ पाँच हैं- ‘‘प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतय:’’ (1) प्रमाण (2) विपर्यय (3) विकल्प, (4)निद्रा- स्वप्न (5) स्मृति।
यह सभी वृत्तियाँ दो प्रकार की होती हैं- ‘‘वृत्तय:पंचतय: क्लिष्टाक्लिष्टा ’’। क्लिष्ट अर्थात अविद्या आदि क्लेषों को पुष्ट करने वाली और योग साधना में विघ्न रूप होती हैं । अक्लिष्ट-क्लेशों को क्षय करने वाली और योगसाधन में सहायक होती हैं।
(1) प्रमाण के तीन प्रकार हैं- (i) प्रत्यक्ष प्रमाण वृत्तियाँ- मन और इद्रियों के जानने में आने वाले जितने भी पदार्थ हैं, जो वैराग्य के विरोधी भावों को बढ़ानेवाले हैं । उनसे होने वाला प्रमाण वृति क्लिष्ट है । (ii) अनुमान प्रमाण- किसी प्रत्यक्ष दर्शन के सहारे युक्तियों द्वारा जो अप्रत्यक्ष पदार्थ के स्वरूप का ज्ञान होता है, वह अनुमान से होने वाली प्रमाण वृत्ति है। (iii) आगम प्रमाण- वेद, शास्त्र और आप्त पुरुषों के वचन को आगम कहते है।
(2) विपर्यय-‘विपर्ययोंमिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम’।। जो उस वस्तु के स्वरूप में प्रतिष्ठित नहीं है, उसे उसमें मानना ऐसा मिथ्या ज्ञान विपर्यय है । अर्थात विपरीत ज्ञान विपर्यय है। विपर्यय और अविद्या में कभी-कभी एकता ज्ञात होती है किन्तु ऐसा नही है । विपर्यय वृत्ति का नाश तो प्रमाण वृत्ति से हो जाता है किन्तु अविद्या चित्तवृत्ति नहीं मानी जाती। अविद्या तो केवल्य अवस्था तक निरनतर विद्यमान रहती है । अत: यही मानना ठीक है कि चित्त का धर्मरूप विपर्यय अन्य पदार्थ है तथा पुरुष और प्रकृति के संयोग के कारण रूप अविद्या उससे सर्वथा भिन्न है ।
अविद्या का नाश असम्प्रज्ञात योग से होता है (जब विवेक ज्ञान उदित होता है तो योगी ऋतम्भरा हो जाता है, उक्त प्रकार से उस योगी के अविद्या के पाँचों क्लेश- (अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश) तथा शुक्ल, कृष्ण और मिश्रित तीनों प्रकार के कर्म संस्कार समूल नष्ट हो जाते हैं । ‘तत:क्लेशकर्मनिवृति’। अत: यह मानना उचित है कि चित्त का धर्मरूप विपर्यय वृत्ति अन्य पदार्थ है तथा पुरुष और प्रकृति के संयोग की कारण रूपा अविद्या उससे सर्वथा भिन्न है ।
(3) विकल्प- ‘शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यों विकल्प’। अर्थात् जैसे कोई मनुष्य भगवान के रूप का ध्यान करता है पर जिस रूप का ध्यान करता है उसे न तो उसने देखा है, न वेद-शास्त्र सम्मत है, और न ही वह भगवान का वास्तविक स्वरुप है केवल कल्पना मात्र है विकल्प है। किन्तु भगवान के ध्यान, चिन्तन में सहायक होने से अक्लिष्ट है।
(4) निद्रा- ‘अभावप्रत्ययालम्बना वृत्तिर्निद्रा’- ज्ञान के अभाव का ज्ञान जिस चित्तवृति के आश्रित रहता है, वह निद्रावृत्ति है।’’ निद्रा भी चित्त की वृत्ति विशेष है। कई दर्शनकार निद्रा को वृत्ति नहीं मानते, इसे सुषुप्ति अन्तर्गत मानते हैं। गीता में आया है- युक्ताहार विहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु। युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दु:खहा।।
(5) स्मृति- अनुभूतिविषयासम्प्रमोष: स्मृति:- उपर्युक्त प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, और निद्रा या स्वप्न इन चार प्रकार की वृत्तियों द्वारा अनुभव में आये हुए विषयों से जो संस्कार चित्त में पड़े हैं, उनका पुन: किसी निमित्त को पाकर स्फुरित हो जाना ही स्मृति है।
चितवृत्तियों का निरोध-अब इन चित्तवृत्तियों का निरोध कैसे करें ? योगी कहता है ‘अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोध:’। गीता कहती है- ‘अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृहयते। चित्तवृत्तियों के निरोध के दो प्रकार हैं-(i)अभ्यास और(ii) वैराग्य।
सामान्यत: चित्तवृत्तियों का प्रवाह परम्परागत संस्कारों के बल से सांसारिक भोगों की ओर बहता चलता है, उस प्रवाह को रोकने का उपाय ‘वैराग्य’ तथा उसे ‘कल्याण’ मार्ग में ले जाने का उपाय ‘अभ्यास’ है ।
(i) अभ्यास- अभ्यास क्या है ? ‘तत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यास’ अर्थात् जो स्वभाव से चंचल है ऐेसे मन को किसी एक ध्येय में स्थिर करने के लिये बारम्बार चेष्टा करते रहने का नाम अभ्यास है । योग का अभ्यास बिना उकताये बिना समय सीमा के निश्चित किये निष्ठापूर्वक करते रहना है।
(ii) वैराग्य- वैराग्य क्या है ? ‘दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकार संज्ञा वैराग्यम’। यहाँ दो शब्द हैं,(i) दृष्टा और (ii) अनुश्रविक ।
(i) दृष्टा - अन्त:करण और इन्द्रियों के द्वारा प्रत्यक्ष अनुभव में आनेवाले इस लोक के समस्त भोगों का समाहार यहाँ दृष्ट शब्द में आया है। शुद्ध निर्विकार, कूटस्थ एवं असंग है। केवल चेतनामात्र ही जिसका स्वरूप है तो भी बुद्धि के सम्बध से बुद्धि तत्व के अनुरूप देखने वाला होने से दृष्टा कहलाता है। बुद्धिवृत्ति में रहकर जब तक आत्मतत्व दृष्ट बना रहता है तभी तक वह दृष्टा है, सज्ञा है। दृष्य से सम्बन्ध होते ही वह चेतन मात्र, सर्वथा शुद्व और निर्विकार हो जाता है।
(ii) अनुश्रविक- जो प्रत्यक्ष उपलब्ध नहीं है, जिनकी बड़ाई वेद, शास्त्र उपनिषद और भोगों का अनुभव करने वाले पुरुषों से सुनी गयी है, ऐसे भोग्य विषयों का समाहार अनुश्रविक है।
अत: यहाँ कहा जा सकता है कि देखे सुने हुए विषयों में सर्वथा तृष्णारहित चित की जो वशीकार नामक अवस्था है, वह वैराग्य (तत्परमं पुरुषख्यातेर्गुणवैतृष्ण्यम) है।
चित्त के वशीकार संज्ञा- अन्त:करण और इन्द्रियों के द्वारा प्रत्यक्ष में आने वाले इस लोक के समस्त भोगों का समाहार यहाँ दृष्ट शब्द में किया गया है । कामना रहित चित्त की जो वशीकार नामक अवस्था है, वह अपर वैराग्य है। संज्ञारूप वैराग्य से जब साधक की विषय कामना का आभाव हो जाता है और उसके चित्त का प्रवाह समान भाव से अपने ध्येय के अनुभव में एकाग्र हो जाता है उसके बाद समाधि परिपक्व होने पर प्रकृति और पुरुष विषयक विवेक ज्ञान प्रकट होता है, उसके होने से जब साधक की तीनों गुणों (सत, रज, तम) और उनके कार्य में किसी प्रकार की किंचिन्मात्र भी तृष्णा नहीं रहती, जब वह सर्वथा आप्तकाम निष्काम हो जाता है ऐसी सर्वथा रागरहित अवस्था को अपर-वैराग्य कहते हैं ।
गीता कहती है जब योगी न तो इन्द्रियों के विषयों में और न कर्मों में ही आसक्त होता है तथा सब प्रकार के संकल्पों का भलीभांति त्याग कर देता है तब वह योगारूढ़ कहलाता है।
सम्प्राप्त योग-विचार, विर्तक, आनन्द और अस्मिता इन चारों के सम्बन्ध से युक्त (चित्तवृति समाधान) ‘सम्प्रज्ञात:’, सम्प्रज्ञात योग है ।
सम्प्रज्ञात योग के ध्येय तीन पदार्थ माने गये हैं, ग्राह्य (इन्द्रियों के स्थूल एवं सूक्ष्म विषय), ग्रहण (इन्द्रियों और अन्त:करण), ग्रहीता (बुद्धि के साथ एकरूप पुरुष) । जब तक शब्द, अर्थ और ज्ञान का विकल्प वर्तमान है, तब तक सवितर्क समाधि है जब विकल्प समाप्त हो जाता है तब निर्वितर्क समाधि हैं ।
इसी को सविचार और निर्विचार कहा जाता है। कभी-कभी निर्विचार समाधि में आनन्द का अनुभव और अहंकार का सम्बन्ध रहता है तब वह आनन्दानुगता समाधि है।
निर्वीज समाधि या कैवल्य अवस्था-प्रकृति के संयोग का अभाव हो जाने पर जब द्रष्टा की अपने स्वरूप में स्थिति हो जाती है, उसे कैवल्य अवस्था कहते हैं।
(i) योगभ्रष्ट साधक- कैवल्य पद की प्राप्ति होने के पहले जिनकी मृत्यु हो गयी, वे योग कुल में जन्म ग्रहण करते है; तब उनको पूर्वजन्म के योगाभ्यास विषयक संस्कारों के प्रभाव से अपने स्वरूप या स्थिति का तत्काल ज्ञान हो जाता है। ऐसे साधक योगभ्रष्ट कहलाते है।
(ii) सिद्धि क्या है - किसी भी साधन में प्रवृत्त होने का और अविचल भाव से उसमें लगे रहने का मूल कारण श्रद्धा (भक्तिपूर्वक विश्वास) ही है । ‘‘श्रद्धावीर्यस्मृतिसमाधिप्रज्ञापूर्वक:’। श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि और प्रज्ञापूर्वक, (क्रम) से सिद्धि प्राप्त होती है।’
(iii) श्रद्धा एवं वीर्य- इन दोनों का संयोग मिलने पर साधक की स्मरण शक्ति बलवली हो जाती है । उसमें योग साधन के संस्कारों का ही बारम्बार प्राकट्य होता रहता है । अत: उसका मन विषयों से विरक्त होकर समाहित हो जाता है; इसी को समाधि कहते हैं । इसमें अन्तकरण के स्वच्छ हो जाने पर साधक की बुद्वि ‘ऋतम्भरा’ सत्य को धारण करने वाली हो जाती है ।
‘श्रद्धावान लभते ज्ञानं तत्पर: संयतेन्द्रिय:।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्ति भचिरेणधिगच्छति’।।
सिद्धि प्राप्त करने हेतु योगी को अभ्यास और वैराग्य में तीव्रता लानी होती है ।
अभ्यास और वैराग्य का जो क्रियात्मक बाह्य स्वरूप है, वह ‘वेग’ नाम से जाना जाता है। ‘ईश्वर प्राणिधनाद्धा’। ईश्वर प्राणिधान में भी निर्वीज समाधि की सिद्धिशीघ्रप्राप्ति होती है ।
योगमार्ग में नौ प्रकार के विघ्न :इस भक्ति, नाम जप से विघ्नों का अभाव (अन्तरायाभाव:) होता है तथा अन्तरात्मा के स्वरूप का ज्ञान (प्रत्यच्केतनाधिगम) होता है ।
योग साधना में लगे हुए साधक के चित्त में विक्षेप उत्पन्न करने के लिये उसे साधना से विचलित करने के लिये योगमार्ग में नौ प्रकार के बिघ्न आते हैं-
(1) व्यधि- शरीर, इन्द्रियों और चित्त में विकार (रोग) पैदा करना या हो जाना,
(2) स्त्यान- अकर्मण्यता, साधन में प्रवृति न होना,
(3) संशय- फल में सन्देह,
(4) प्रमाद- योग साधना में (बे-परवाह),
(5) आलस्य- चित्त और शरीर में भारीपन,
(6) अविरति- इन्दियों में आसक्ति एवं वैराग्य का अभाव,
(7) अलब्धभूमिकत्व-साधना करने पर भी योगभूमि की अप्राप्ति,
(8 ) भ्रान्तिदर्शन- मिथ्याज्ञान हो जाना,
(9) अनवस्थितत्व- चित की एकाग्रता न होना।
योगमार्ग में अन्य पाँच विघ्न भी हैं-दु:ख, दौर्मनस्य, अंगमेजयत्व, श्वांस और प्रश्वांस ।
(अ) दु:ख- आध्यात्मिक, आधिभौतिक, आधिदैविक।आध्यात्मिक - काम, क्रोधादि के कारण व्याधि अथवा इन्द्रियों के कारण जो शरीर में ताप या पीड़ा होती है ,उसे आध्यात्मिक दु:ख कहते हक-मनुष्य, पशु, पक्षी, सिंह, व्याघ्र, मच्छर और अन्यान्य जीवों के कारण होने वाली पीड़ा का नाम ‘अधिभौतिक दु:ख’ है।
आधिदैविक- सर्दी, गर्मी, वर्षा, भूकम्प आदि दैवी घटना से होनेवाली पीड़ा का नाम ‘आधिदैविक’ दु:ख है।
(ब) दौर्मनस्य- इच्छा की पूर्ति न होने के कारण मन में क्षेाभ होता है, उसे ‘दौर्मनस्य’ कहते हैं।
(स) अंगमेजयत्व- शरीर के अंगों में कम्प होना ‘अंगमेजयत्व’ है।
(द) श्वांस- बिना इच्छा के बाहर की वायु का शरीर के भीतर प्रवेश करना ।
(इ) प्रश्वांस- बिना इच्छा के भीतर की वायु का बाहर निकलना।
चित्त शुद्ध के दो उपाय हैं -
(1) एकातव्ताभ्यास- इसके अन्तर्गत सुख, दुख, पुण्य-पाप, जिनके विषय है, उन्हें चित्त के राग, द्वेष, घृणा, ईष्या, क्रोध और मलों का नाशकर चित्त को शुद्ध करना चाहिए । यह अभ्यास से होता है ।
(2) प्राणायाम -प्राणवायु को शरीर से बाहर निकालना तथा रोकना । रेचक, पूरक, कुम्भक का यथा साध्य नियमानुसार अभ्यास करना ।
इससे साधक को विषयों का अनुभव कराने वाली विषयवती प्रवृति (योग-3-36) जगती है और योगमार्ग में उत्साह बढ़ जाता है ।
अभ्यास के साधक की स्थिति ‘विशोका’ वा ‘ज्योतिश्मती’ की बन जाती है।
जिस व्यक्ति के राग-द्वेष सर्वथा नष्ट हो जाते हैं, वह विरक्त होता जाता है।
कभी-कभी स्वप्न और निद्रा के ज्ञान भी इसमें सहायक होते हैं क्योंकि चित्त से यदि राग-द्वेष हट गया है तो चित्त और इन्द्रियों में सत्वगुणों की वृद्धि होती है।
इसके लिये जिसका जिसमें मन लगे, चित स्थिर हो उसी को ध्यान में लाकर अभ्यास करना चाहिए।
वशीकार- साधक को अभ्यास से प्राप्ति ऐसी स्थिति जिसमें साधक अपने चित्त को सूक्ष्म से सूक्ष्म और बड़े से बड़े पदार्थ पर स्थित कर लेता है । इसे ही सम्प्रज्ञात समाधि कहते हैं ।
सम्प्राज्ञात समाधि दो प्रकार की होती है-
(1) सवितर्का (2) निविर्तका।
तीसरी समाधि की अवस्था है - निर्विचार समाधि ।
(i) सवितर्का- पदार्थ दो प्रकार के होते हैं - सूक्ष्म और स्थूल। इनमें से स्थूल को भी लक्ष्य बनाकर साधक उसके स्वरूप को जानने को चित्त में धारणा करता है तो पहले अनुभव में नाम, रूप और ज्ञान आता है जो विकल्पों का मिश्रण होता है। इस समाधि को सवितर्क समाधि कहते है।
(ii)निविर्तका - स्मृति के भलीभांति लुप्त हो जाने पर रूप, नाम, ज्ञान शून्य हो जाता है, केवल ध्येय मात्र के स्वरूप को प्रत्यक्ष करने की चित्त की स्थिति निर्वितर्का समाधि है।
इसमें शब्द और प्रतीत का कोई विकल्प नहीं रहता। अत: इसे ‘निर्विकल्प’ समाधि भी कहते हैं।
इसी प्रकार सूक्ष्म ध्येय पदार्थों से सम्बन्ध रखने वाली समाधि के भी दो भेद हैं-
(i) सविचार समाधि- नाम, रूप, ज्ञान के विकल्पों से मिला हुआ जो अनुभव होता है, वह स्थिति सविचार समाधि है।
(ii) निर्विचार समाधि- जब चित्त के जिन स्वरूप का भी विस्मरण हो जाय तथा मात्र ध्येय का अनुभव हो निर्विकार समाधि कहलाती है।
अथ योगानुशासनम्
भारतीय ज्ञान परंपरा में योग का ध्येय मुक्ति अथवा ब्रह्म का साक्षात्कार बताया गया है । इस ब्रह्म को साधक अपनी साधना के आधार पर प्राप्त करता है । इसलिए कुछ के लिए यह देवता है तो कुछ के लिए ईश्वर और कुछ श्रेष्ठ साधकों के लिए यह ब्रह्म है ।
माना जा सकता है की साक्षत्कार की अवस्था के आधार पर इसे अनुभूत किया जा सकता है । योगानुशासन ही इसका पाथेय है । सामान्य भाषा में इसे ईश्वर कहते हैं ।
ईश्वर कौन है - ‘क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्ट: पुरुषविशेष ईश्वर:’। क्लेश, कर्म, विपाक और आशय से जो (अपरामृष्ठ) असम्बद्व है, वह ईश्वर है। ईश्वर ज्ञान,बैर, यश, ऐश्वर्य की पराकाष्ठा है।
क्या ईश्वर ज्ञान-प्रवचन ,मेधा -बुद्धि , यश-ऐश्वर्य से मिलता है ? ‘नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुनाश्रुतेन।'
मुन्डकोपनिषद कहता है, नहीं । ईश्वर स्वयं अनादि है, क्योंकि वह सब के आदि हैं (योग,10-2-3) वह कालातीत है।
उसका वाचक ‘प्रणव’ है। ‘तस्य वाचक: प्रणव:’ (प्रणव ऊँकार है) (प्रश्नोपनिषद में पाँचवे प्रश्नोत्तर में और माण्डूक्योपनिषद में ऊँकार की उपासना का विषय विस्तार से है) ऊँ, परमेश्वर का वेदोक्त नाम है ।
(गीता-17-23, कठो.1/2/15-17) साधक को ईश्वर के नाम का जप और उसके स्वरूप का स्मरण चिन्तन करना चाहिए।
महर्षि शाण्डिल्य ने कहा है- ‘‘सा परानुरक्त्रिीश्वरे’’।
देवर्षि नारद ने भक्तिसूत्र में कहा है- ‘सात्वस्मिन परमप्रेमरूपा च’। अर्थात उस परमेश्वर में अतिशय प्रेमरूपता ही भक्ति है।
यह अमृत स्वरूपा है-‘अमृतस्वरूपा च’। ईश्वर की भक्ति में आयु, रूप आदि का कोई अर्थ नही होता है-
‘‘व्याधस्याचरणं धुवस्य च वयो विद्या गजेन्दस्य का, का जातिर्विदुरस्य यादवपतेरुप्रस्य किं पौरषम्।
कुव्जाया: कामनीरूपमधिकं किं तत्सुदाम्नो धनं, भक्त्या तुश्यति केवलं न च गुणैर्भक्ति प्रियो माधव:।।
श्रीमद्भागवत में प्रहलाद ने कहा है-
‘श्रवणं कीर्तनं विष्णों: स्मरणं पादसेवनम।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम’।।(7/5/23
सूक्ष्म ध्येय पदार्थ क्या हैं-योग में प्रत्याहार महत्व पूर्ण अंग है । सभी इन्द्रिया जब अपने-अपने मध्यम से रसों का पान कराती है, तो उसे प्रत्याहार के माध्यम से ही नियंत्रित किया जाता है ।
इसके लिय सूक्ष्मध्येय पदार्थ को समझना आवश्यक है । पृथ्वी का सूक्ष्म विषय गंध तन्मात्रा, जल का रस तन्मात्रा, तेज का रूप, वायु का स्पर्श, आकाश का शब्द।
इनके सूक्ष्म विषय और मन सहित इन्द्रियों का सूक्ष्म विषय अहंकार, अहंकार का महतत्व, और महतत्व का सूक्ष्म विषय कारण प्रकृति है। ‘‘ता एव सबीज: समाधि:’’।
निर्वितर्क और निर्विचार समाधियाँ निर्विकल्प होने पर भी निर्बीज नहीं हैं । ये सब सबीज समाधि हैं। अत: कैवल्य अवस्था नहीं है। निर्विचार समाधि में ऋतम्भरा की स्थिति हो जाती है।
योग और बुद्धि -
(i)श्रुतिबुद्धि- वेद-शास्त्रों में किसी वस्तु के स्वरूप का वर्णन सुनने से जो तद्विषयक निश्चित होता है, उसे श्रुतिबुद्धि कहते है
(ii)अनुभव बुद्वि- जो अनुमान / प्रभाव से जिस स्वरूप का अनुभव होता है।
(iii)ऋतम्भरा- श्रुति और अनुभव दोनों के शून्य होने पर बुद्वि ऋतम्भरा होती है।
(iv)कर्माषय- मनुष्य जिस किसी वस्तु को अनुभव करता है, जो भी क्रिया करता है, उन सब के संस्कार अन्त:करण में संग्रह होते हैं, ये ही मनुष्य को संस्कार चक्र में भटकाते हैं।इसके नाश से ही मनुष्य मुक्ति लाभ कर सकता है। ऋतम्भरा बुद्वि के प्रकट होने पर साधक को प्रकृति के यथार्थ रूप का भान हो जाता है तब उसे वैराग्य होता है।‘‘तस्यापि निरोधे सर्वनिरोधान्निर्बीज: समाधि:।’’
कैवल्य अवस्था-जब ऋतम्भरा (सत्य) के प्रज्ञाजनित संस्कार से अभाव होता है तथा समस्त आसक्ति समाप्त हो जाती है, तब संस्कार के बीज का अभाव हो जाता है। इस अवस्था को कैवल्य-अवस्था कहते हैं। जब तक दर्शन (ज्ञान) शक्ति से मनुष्य इस प्रकृति के नाना रूपों को देखता रहता है, तब तक तो भोगों को भोगता रहता है। जब इनके दर्शन से विरक्त होकर अपने स्वरूप को झाँकता है तब स्वरूप दर्शन हो जाता है (योग 3.35) फिर संयोग की आवश्यकता न रहने से उसका अभाव हो जाता है। यही पुरुष की कैवल्य अवस्था है। (3.34)
विवेक ज्ञान- प्रकृति तथा उसके कार्य- बुद्धि, अहंकार, इन्द्रियाँ और शरीर इन सब के यथार्थ स्वरूप् का ज्ञान हो जाने से तथा आत्मा इनसे सर्वथा भिन्न और असंग है, आत्मा का इनके साथ कोई सम्बध नहीं है, इस प्रकार पुरुष के स्वरूप का जब अलग-अलग यथार्थ ज्ञान होता है, इसी का नाम विवेकज्ञान है । (योग 3.34)उस समय चित्त विवेकज्ञान में निमग्न और केवल्य के अभिमुख रहता है। यह ज्ञान जब समाधि की निर्मज्जता-स्वच्छता होने पर पूर्ण और निश्चल हो जाता है, तब वह अविप्लव विवेक ज्ञान कहलाता है। यही मुक्ति का उपाय है। उसके बाद चित्त अपने आश्रय रूप महत्व आदि के सहित अपने कारण में विलीन हो जाता है तथा प्रकृति का जो स्वाभाविक परिणाम क्रम है, वह उसके लिये बंद हो जाता है। (योग3.34)
प्रज्ञा क्या है- जब निर्मल और अचल विवेक ख्याति के द्वारा योगी के चित्त का आवरण और मल सर्वथा नष्ट हो जाता है (योग 4.31) तब सात प्रकार की उत्कर्ष अवस्था वाली प्रज्ञा (बुद्धि) उत्पन्न होती है । यह दो प्रकार की होती है - पहली चार प्रकार की कार्य विमुक्ति प्रज्ञा और अन्त की तीन चित्त मुक्ति की द्योतक है।
(1)कार्य विमुक्ति प्रज्ञा:यानी कर्तव्य शून्य अवस्था। इसके चार भेद इस प्रकार हैं- (i) ज्ञेयशून्य अवस्था- जो कुछ गुणमय दृश्य है, वह सब अनित्य और परिणामी है, यह पूर्णतया जान लिया । (ii) हेयशून्य अवस्था -जिसका अभाव करना था कर दिया । (iii) प्राप्य प्राप्त अवस्था- जो कुछ प्राप्त करना था, प्राप्त कर लिया। (iv) चिकीर्षाशून्य अवस्था- जो कुछ करना था, कर लिया ,अब कुछ करना शेष नही। (2)चित्त विमुक्ति प्रज्ञा: इसके तीन भेद हैं- (i)चित्त की कृतार्थता- चित्तने अपना अधिकार भाग और अपवर्ग देना पूरा कर दिया, अब उसका कोई प्रयोजन शेष नहीं रहा । (ii) गुणलीनता-चित्त अपने कारण रूप गुणों में लीन हो रहा है, क्योंकि अब उसका कोई कार्य शेष नहीं रहा । (iii) आत्मस्थिति- पुरुष सर्वथा गुणों से अतीत होकर अपने स्वरूप में अचल भाव से स्थित हो गया।
उक्त सात प्रकार की प्रान्त भूमि प्रज्ञा को अनुभव करने वाला योगी कुशल (जीवनमुक्त) कहलाता है और चित्त जब अपने कारण में लीन हो जाता है, तब भी कुशल (विदेह मुक्त) कहलाता है ।
निर्बीज समाधि प्राप्ति करने के उपाय-(1)क्रियायोग-
‘‘तप:स्वाध्यायेश्वर प्रणिधानानि क्रियायोग:। तप, स्वाध्याय एवं ईश्वर शरणागति ये तीनों क्रियायोग हैं । ये तीनों ही आदि योग के नियम के अंतर्गत आते हैं ।
(i) तप- वर्ण, आश्रम, परिस्थिति और योग्यता के अनुसार स्वधर्म का पालन करना और उसके करने में शारीरिक, मानसिक कष्ट सहने की सामर्थ्य ‘तप’ है। गीता में तप तीन प्रकार के बताये गए हैं-
(i)देव, ब्राह्मण,गुरु, माता -पिता के प्रति पूज्य भाव रखना तथा पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्यं और अहिंसा शारीरिक तप माना गया है । (ii) उत्तेजित न करनेवाले , दूसरों को प्रिय लगाने वाले ,तथा स्वाध्याय करना वाणी का तप कहलाता है ।
(iii) संतोष , सरलता , गंभीरता, आत्म-संयम एवं जीवन की शुद्धि ये मन की तपस्या हैं ।
(2) स्वाध्याय- यह वाणी का तप है ।अध्ययन (वेद, शास्त्र, महापुरूषों के जीवन चरित्र) तथा ऊँकार आदि किसी नाम का जप ‘स्वाध्याय’ है।
(3) ईश्वर प्रणिधान- ईश्वर के नाम, गुण, लीला, ध्यान, प्रभाव में अपने को पूर्णत: समर्पित कर देना ईश्वर प्रणिधान है। तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान के माध्यम से अर्थात नियमों के पालन अथवा क्रियायोग से हम अपने क्लेशों को नष्ट करते हैं और क्लेशों से मुक्त होते हैं।
क्लेश क्या है- ‘अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेषा: क्लेषा:’’। योग और अध्यात्म में अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश ये पाँच क्लेश कहलाते हैं।
(1)अविद्या क्या है- ‘‘अनित्याशुचिदु:खानात्मसु नित्यशुचि सुखात्मख्यातिरविद्या’। अनित्य, अपवित्र, दु:ख और अनात्मा में नित्य, पवित्र, सुख और आत्मा का आत्मभाव की अनुभूति ‘अविद्या’ है।
अविद्या जिनका कारण हैं- ‘‘अविद्या क्षेत्रमुत्तरेशां प्रसुप्ततनुविच्छिन्नोद्वाराणाम’।
(i)प्रसुप्त- चित्त में विद्यमान रहते हुए जो क्लेश अपना कार्य नहीं करता, वह प्रसुप्त है, ऐसा कहा जाता है। प्रलय काल और सुषुप्ति अवस्था में चारों क्लेश प्रसुप्त अवस्था में रहते है। (ii) तनु- क्लेशों में जो कार्य करने की शक्ति है जब उसका योग के साधनों से ह्रास कर दिया जाता है तब वे शक्तिहीन होकर ‘तनु’ अवस्था में रहते हैं । (iii) विच्छिन- जब कोई क्लेश उदार होता है उस समय दूसरा क्लेश दब जाता है, उसे ‘विच्छिन्न’ कहते हैं । (iv) उदार- जिस समय जो क्लेश अपना कार्य कर रहा हो उस समय उसे उदार कहते हैं।(2)अस्मिता क्या है- ‘‘दृगदर्शन शक्त्योरेकात्मतेवास्मिता’’। अविद्या के नाश होने से ‘अस्मिता’ का नाश होता है। दृकशक्ति अर्थात दृष्टा ‘पुरुष’ और दर्शन शक्ति अर्थात बुद्धि दोनों की एकता का प्रतीत होना अस्मिता है, जबकि यह सम्भव नहीं । पुरुष चेतन है, बुद्धि जड़ है अत: दोनों की एकता भ्रम है, अविद्या है। इस अविद्या का नाश कर ‘कैवल्य’ की स्थिति’ प्राप्त की जा सकती है।(3)राग क्या है- ‘सुखानुशयी राग:’। सुख की प्रतीत के पीछे रहने वाला क्लेष ‘राग’ है।(4)द्वेष क्या है- ‘दु:खानुशयी द्वेष’। दु:ख की प्रतीत के पीछे रहने वाला क्लेश ‘द्वेष’ है।(5)अभिनिवेश क्या है- जो मूढ़ एवं विद्वान दोनों में समान भाव से रहता है ‘अभिनिवेश’ कहलाता है । जैसे -मृत्युभय। इन सभी क्लेशों को क्रियायोग के (तप:, स्वाध्याय, शरणागति) के अलावा ध्यान योग से भी दूर किया जाता है।
क्लेश की वृतियाँ:क्लेश दो वृतियाँ होती हैं-(1) स्थूल और(2) सूक्ष्म । क्रिया योग द्वारा स्थूल वृत्तियों को समाप्त किया जाता है। ध्यान योग द्वारा इन्हीं शेष स्थूल वृत्तियों को सूक्ष्म बनाया जाता है। तब निर्बीज समाधि की प्राप्ति होती है। चूकि कर्मों की जड़ पाँच क्लेशों (अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, अभिनिवेश) में है, अत: इनके संचित रहने पर ( कर्माशय में ) बार-बार जन्म होता है । अविद्या आदि के नष्ट होने पर कर्माशय का भी नाश हो जाता है। कर्माशय के संस्कारों को दृश्य और अदृश्य (वर्तमान और भावी) दोनों रूपों में भोगा जाता है। किन्तु इसे अर्थात क्लेशों की स्थूल वृत्तियों को ‘ध्यानहेयास्तदृवत्तय:’ द्वारा सूक्ष्म बना दिया जाता है।
दु:ख के रूप- परिणाम दु:ख, ताप दु:ख, संस्कार दु:ख, गुणवृत्ति विरोध सब में विद्यमान रहते हैं ।
दर्शन के चार प्रतिपाद्य विषय हैं-(1) हेय- दु:ख का वास्तविक स्वरूप क्या है, जो हेय अर्थात त्याज्य है। (2) हेय हेतु- दु:ख कहाँ से उत्पन्न होता है, इसका वास्तविक कारण क्या है, जो हेय अर्थात त्याज्य दु:ख का वास्तविक हेतु है। (3) हान- दु:ख का नितान्त अभाव क्या है, अर्थात ‘हान’ किस अवस्था का नाम है। हानम, हान पुनर्जन्मादि भावी दुखों का अत्यन्त अभाव। (4) हानोपाय- हानोपाय अर्थात नितान्त दु:खनिवृताक साधन क्या है।
कर्म क्या है- कर्म चार प्रकार के माने जाते हैं- पापकर्म, पुण्यकर्म, पाप-पुण्यकर्म युक्त कर्म, पाप-पुण्य रहित कर्म। (योग,4-7)
इसी तरह कर्म के फल और आशय होते हैं ।
कर्म फल का नाम क्या है ? कर्म के फल का नाम ‘विपाक’ कहलाता है। (योग, 2-13)
आशय ,सातिशय और निरतिशय क्या है-कर्म संस्कार के समुदाय का नाम ‘आशय’ है।सातिशय- जिससे बढक़र कोई दूसरी वस्तु हो, वह सातिशय है।निरतिशय- जिससे बढक़र कोई न हो, वह निरतिशय है।
सात्विक गुणों के भेद- ये चार हैं- विशेष, अविशेष, लिंगमात्र और अलिंग ।
(1) विशेष- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश (पांच स्थूल, पांच ज्ञानेन्द्रिय, पांच कर्मेन्द्रिय और मन ये सोलह विशेष) ।
(2) अविशेष- शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध ये पाँच तन्मात्राएं हैं । इन्हें सूक्ष्म महाभूत भी कहते हैं । अहंकार (जो मन और इन्द्रियों का कारण है) जो इन्द्रिय गोचर नही अविशेष है ।
(3) लिंगमात्र- उपर्युक्त बाइस तत्वों के कारणभूत जो महतत्व है, उसका नाम बुद्धि है। उसी को लिंगमात्र नाम से जाना जाता है । (कठ.1.3.10, गीता 13.5)(4)
(4) अलिंग- मूल प्रकृति के तीनों गुणों (सत, रज, तम) की साम्यावस्था तथा महतत्व जिसका पहला परिणाम (कार्य) है, उपनिषद, गीता जिसे अलिंग कहते हैं । (कठ.1.3.11, गीता 13.5)
उपर्युक्त चारों सात्वादि गुण हैं । साम्यावस्था को प्राप्त गुणों के स्वरूप की अभिव्यक्ति नहीं होती, इसलिए इस प्रकृति को चिन्ह रहित (अव्यक्त) कहते हैं ।
जीवनमुक्त योगी के लक्षण- विदेह, मुक्त / कर्तव्यशून्य अवस्था। इसके चार भेद इस प्रकार हैं- (i)ज्ञेयशून्य अवस्था (ii )हेयशून्य अवस्था (iii)प्राप्य प्राप्त अवस्था (iv)चिकीर्षा शून्य अवस्था ।
मुक्त जीव और ईश्वर में क्या अंतर है- मुक्त जीव का कर्म से पीछे सम्बध था, भले ही वह वर्तमान में कर्मशून्य हो गया हो किन्तु ईश्वर का कभी कर्म से सम्बन्ध नहीं रहता है। इसीलिए मुक्त जीव ‘पुरुष विशेष’ कहलाता है।
चित्तमुक्त - विमुक्त प्रज्ञा के तीन भेद हैं- (i) चित्त की कृतार्थता (ii) गुणलीनता (iii) आत्मस्थिति ।
ब्रह्म क्या गुरु है- सर्ग के आदि में उत्पन्न होने के कारण सब का गुरु ब्रह्म को माना गया है किन्तु वह काल से अवच्छेद है । (योग, 8-17)
संयोग- स्वशक्ति (प्रकृति) और स्वामिशक्ति (पुरुष) इन दोनों के स्वरूप के प्राप्ति का जो कारण है, वह संयोग है।
सार :भारतीय आस्तिक षड्दर्शनों में से एक का नाम योग है । योग दार्शनिक प्रणाली, सांख्य स्कूल के साथ निकटता से संबन्धित है । ऋषि पतंजलि द्वारा व्याख्यायित योग संप्रदाय, सांख्य मनोविज्ञान और तत्वमीमांसा को स्वीकार करता है। योग और सांख्य एक दूसरे से मिलते-जुलते है ।
उपनिषदों में ब्रह्माण्ड सम्बन्धी बयानों के वैश्विक कथनों में किसी ध्यान की रीति की सम्भावना के प्रति तर्क देते हुए कहते हैं कि नासदीय सूक्त किसी ध्यान की पद्धति की ओर ऋग्वेद से पूर्व भी इशारा करते हैं ।
सनातन वाङ्मय में,"योग" शब्द पहले कथा उपनिषद में प्रस्तुत हुआ ,जहाँ योग ज्ञानेन्द्रियों का नियंत्रण और मानसिक गतिविधि के निवारण के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है जो उच्चतम स्थिति प्रदान करने वाला माना गया है ।महत्वपूर्ण ग्रन्थ जो योग की अवधारणा से सम्बंधित है वे मध्य कालीन उपनिषद ,महाभारत , भगवद्गीता एवं पातंजलि योग सूत्र हैं ।
पतंजलि, व्यापक रूप से औपचारिक योग दर्शन के संस्थापक माने जाते हैं । पतंजलि उनके दूसरे सूत्र में "योग" शब्द को परिभाषित करते हैं, जो उनके पूरे काम के लिए व्याख्या सूत्र माना जाता है ।
भगवदगीता बड़े पैमाने पर विभिन्न तरीकों से योग शब्द का उपयोग करता है, यथा -
कर्म योग : इसमें व्यक्ति अपनी स्थिति के उचित और कर्तव्यों के अनुसार कर्मों का श्रद्धापूर्वक निर्वाह करता है । भक्ति योग: भगवत कीर्तन, इसे भावनात्मक आचरण वाले लोगों को सुझाया जाता है । ज्ञान योग:ज्ञान का योग अर्थात् ज्ञानार्जन करना ।
योग (भाग-चार)
अन्य परंपराओं में योग:(1) तंत्र: तांत्रिक अभ्यास व्यक्ति को सनातन परम्परा में योग, ध्यान, और संन्यास से जोड़ता है । तांत्रिक परंपरा में चक्र ध्यान पर ज्यादा जोर दिया जाता है । इसे एक प्रकार का कुण्डलिनी योग माना जाता है, जिसके माध्यम से ध्यान और पूजा के लिए "हृदय" में स्थित चक्र में देवी को स्थापित करते हैं ।
(2) जैन धर्म: दूसरी शताब्दी के जैन ग्रन्थ तत्वार्थ सूत्र के अनुसार मन, वाणी और शरीर सभी गतिविधियों का कुल 'योग' है । पतंजलि योगसूत्र के पांच यम या बाधाओं और जैन धर्म के पाँच प्रमुख प्रतिज्ञाओं में अलौकिक सादृश्य है, ।
(3) बौद्ध-धर्म में योग : प्राचीन बौद्ध धर्म में बुद्ध के प्रारंभिक उपदेशों में योग विचारों की सबसे प्राचीन निरंतर अभिव्यक्ति पायी जाती है ।
(4) हठयोग योग :हठयोग, योग की एक विशेष प्रणाली है। हठकाशाब्दिकअर्थहठपूर्वककिसीकार्यकोकरनेसेलियाजाताहै।हठ में ‘ह’काअर्थ‘सूर्य’ तथा ‘ठ’काअर्थ ‘चन्द्र’बतायागयाहै। ‘सूर्य’और ‘चन्द्र’कीसमानअवस्थाहठयोगहै।शरीरमेंकईहजारनाड़ियाँहै, उनमेंतीनप्रमुखनाड़ियोंकावर्णनहै।सूर्यनाड़ीअर्थात् पिंगलाजोदाहिनेस्वरकाप्रतीकहै।चन्द्रनाड़ीअर्थातइड़ाजोबायेंस्वरकाप्रतीकहै।इनदोनोंकेबीचतीसरीनाड़ीसुषुम्नाहै।इसप्रकारहठयोगवहक्रियाहैजिसमेंपिंगलाऔरइड़ानाड़ीकेसहारेप्राणकोसुषुम्नानाड़ीमेंप्रवेशकराकरब्रहमरन्ध्रमेंसमाधिस्थकियाजाताहै।
(6)ज्ञानयोग :सांख्ययोगसेसम्बन्धरखताहै।पुरुषप्रकृतिकेबन्धनोंसेमुक्तहोनाहीज्ञानयोगहै।
(7)कुंडलिनीयोग : (लययोग) चित्तकाअपनेस्वरूप मेंविलीनहोनायाचित्तकीनिरुद्धअवस्थालययोगकेअन्तर्गतआताहै।साधककेचित्त्मेंजबचलते, बैठते, सोतेऔरभोजनकरतेसमयहरसमयब्रह्मकाध्यानरहेइसीकोलययोगकहतेहैं।
।
भारत के प्रमुख दर्शन:भारतीय ज्ञान परम्परा में वेद को प्रामाणिक मानने वाले दर्शन को 'आस्तिक' तथा वेद को अप्रमाणिक मानने वाले दर्शन को 'नास्तिक' कहा जाता है । आस्तिक दर्शन छ: हैं- न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा और वेदान्त वेदबाह्यदर्शनछ: हैं- चार्वाक, आजीवकया आजीविक, बृहस्पति, बौद्ध- सौत्रान्तिक, वैभाषिक, औरजैन ।
'आस्तिक' दर्शन
(1) न्याय दर्शन - दृष्ट्रा ऋषि गौतम । चार प्रमाण हैं- प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान एवं शब्द । ‘न्याय सूत्र’ । न्याय दर्शन में शरीर, इन्दियाँ, चित्त, प्रवृत्ति, बुद्धि, दोष, दु:ख, फल आदि शामिल हैं । कणाद ऋषि द्वारा प्रवर्तित वैशेषिक दर्शन और गौतम मुनि प्रवर्तित न्याय दर्शन के सिद्धान्त एक जैसे हैं । न्याय दर्शन एक प्रकार से वैशेषिक सिद्धान्त की ही विस्तृत व्याख्या है या माना जाना चाहिए कि इन दोनों दर्शनों में एक ही दर्शन-दृष्टि है, जिसका पूर्वांग वैशेषिक है और उत्तरांग न्याय ।
(2) सांख्य दर्शन- दृष्ट्रा कपिल मुनि ।'सांख्य' काशाब्दिकअर्थहै - 'संख्या' याविश्लेषण।इसकीसबसेप्रमुखधारणासृष्टिकेप्रकृति-पुरुषसेबनीहोनेकीहै, यहाँप्रकृति (यानिपंचमहाभूतोंसेबनी) जड़हैऔरपुरुष (यानिजीवात्मा) चेतन।योगशास्त्रोंकेऊर्जास्रोत (ईडा-पिंगला), शाक्तोंकेशिव-शक्तिकेसिद्धांतइसकेसमानान्तरदीखतेहैं। पुरुष चेतन है, वह शरीर, मन व इन्द्रिय से भिन्न है । पुरुष प्रकृति के परिणामों का उपभोग करता है ।
(3) योग दर्शन- दृष्ट्रा महर्षि पतंजलि । ध्यान और समाधि मुक्ति के साधन । अष्टांग योग-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि । आत्मा, शरीर, मन, बुद्धि आदि से ऊपर है, जिसके कारण वह पाप-पुण्य,सुख-दुख आदि से भी ऊपर है।
(4) वैशेषिक दर्शन- वैशेषिक दर्शन के प्रर्वतक कणाद ऋषि हैं । कणाद का पहला नाम क्रांतिभान था जो बाद में काश्यप तथा कणाद के नाम से प्रसिद्ध हुआ । परमाणुवाद इनकी सबसे बड़ी देन । इनका मत है कि धर्म के दो प्रकार - सामान्य धर्म और विशेष धर्म हैं । सामान्य धर्म में, अहिंसा, सत्यवचन, ब्रह्मचर्य, पवित्र दव्य सेवन, भाव शुद्धि, प्राणहित साधन, विशेष देवता की सिद्धि आदि आते हैं । विशेष धर्म में - चार वर्ण और चार आश्रमों का पालन । उनका प्रमुख दर्शन ग्रंथ ‘वैशेषिक’ है। किन्तु जहाँ अन्य दर्शनों में मूल तत्वों की संख्या चौबीस मानते हैं वहीं कणाद इन्हें पच्चीस मानते हैं ।
(5) मीमांसा दर्शन- इस दर्शन के ऋषि जैमिनी हैं । इसमें कर्म की प्रधानता और वेदों के प्रति अटूट श्रद्धा बताई गई है । संसार में जितने जीव उतनी ही आत्माएँ हैं । आत्मा अविनाशी है । सृष्टि अनादि और अनंत है।
(6) वेदांत दर्शन- प्रवर्तक वादरायण व्यास हैं । आत्मा परमात्मा का अंश है । सब कुछ ब्रह्म ही ब्रह्म है । गौड़पाद ने अद्वैत वेदांत की प्रतिष्ठा की । शंकराचार्य ने वेदान्त का विशद विवेचन किया।
वेदबाह्यदर्शन
(1) चार्वाक:चार्वाकदर्शनएकप्राचीनभारतीयभौतिकवादीदर्शनहै ।यहमात्रप्रत्यक्षप्रमाणकोमानताहैतथापारलौकिकसत्ताओंकोयहसिद्धांतस्वीकारनहींकरताहै ।यहदर्शनवेदबाह्यभीकहाजाताहै ।चार्वाकप्राचीनभारतकेएकअनीश्वरवादीऔरनास्तिकतार्किकथे ।
(2)आजीवकया आजीविक:आजीविकया ‘आजीवक’, दुनियाकीप्राचीनदर्शनपरंपरामेंभारतीयजमीनपरविकसितहुआपहलानास्तिकवादीयाभौतिकवादीसम्प्रदायथा ।भारतीयदर्शनऔरइतिहासकेअध्येताओंकेअनुसारआजीवकसंप्रदायकीस्थापनामक्खलिगोसाल (गोशालक) नेकीथी ।
(3)बृहस्पति:बृहस्पतिकोआमतौरपरचार्वाकयालोकायतदर्शनकेसंस्थापककेरूपमेंजानाजाताहै ।बृहस्पतिकोचाणक्यनेअपनेअर्थशास्त्रग्रन्थमेंअर्थशास्त्रकाएकप्रधानआचार्यमानाहै।
(4) जैन दर्शन:जैन दर्शनएकप्राचीनभारतीयदर्शनहै।इसमेंअहिंसाकोसर्वोच्चस्थानदियागयाहै ।जैनधर्मकीमान्यताअनुसार 24 तीर्थंकरहैं । जैनदर्शनकेअनुसारजीवऔरकर्मोकासम्बन्धअनादिकालसेहै ।जैनधर्ममेंचौबीसतीर्थंकरहुएजिनमेंप्रथमऋषभदेवतथाअन्तिममहावीरहैं ।
(5) बौद्धदर्शन:'दुःखसेमुक्ति' बौद्धधर्मकासदासेमुख्यध्येयरहाहै।कर्म, ध्यानएवंप्रज्ञाइसकेसाधनरहेहैं।बौद्धमतमेंउपनिषदोंकेआत्मवादकाखंडनकरके "अनात्मवाद" कीस्थापनाकीगईहै।फिरभीबौद्धमतमेंकर्मऔरपुनर्जन्ममान्यहैं ।सिद्धांतभेदकेअनुसारबौद्धपरंपरामेंचारदर्शनप्रसिद्धहैं।इनमेंवैभाषिकऔरसौत्रांतिकमतहीनयानपरंपरामेंहैं।योगाचारऔरमाध्यमिकमतमहायानपरंपरामेंहैं ।
(6) सौत्रान्तिक एवं वैभाषिक: सौत्रांतिकमतहीनयानपरंपराकाबौद्धदर्शनहै ।इसमतकेअनुसारपदार्थोंकाप्रत्यक्षनहीं, अनुमानहोताहै ।अत: उसेबाह्यानुमेयवादकहतेहैं ।सौत्रान्तिकमतमेंसत्ताकीस्थितिबाह्यसेअन्तर्मुखीहै ।
(7)वैभाषिक:वैभाषिकमत, हीनयानपरम्पराकाबौद्धदर्शनहै।इसकाप्रचारभीलंकामेंहै।यहमतबाह्यवस्तुओंकीसत्तातथास्वलक्षणोंकेरूपमेंउनकाप्रत्यक्षमानताहै।अत: उसेबाह्यप्रत्यक्षवादअथवा "सर्वास्तित्ववाद" कहतेहैं।
(8) योगिक सिद्धियाँ :आठ ऐश्वर्य या सिद्धियाँ इस प्रकार हैं-‘‘अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा,ईषित्वं,प्राप्ति, प्रकाम्य।” अर्थात शूक्ष्म हो जाना, विषाल हो जाना, भारी हो जाना, हल्का हो जाना, शासक बन जाना, वश में कर लेना, इच्छानुसार वस्तु की प्राप्ति और जैसा चाहे वैसा रूप बना लेना।
(9) योग की व्याहृतियाँ- भू:, भुव: तथा स्व:- ये तीन व्याहृतियाँ हैं। इनमें से ‘भू:’ अर्थात पृथ्वी का सिर है, ‘भुव:’ अर्थात आकाश उसकी दो भुजाएं हैं और ‘स्व:’ अर्थात स्वर्ग उसके दो चरण हैं।ॐ योग का अंतिम बोध हैं ।
(10) पंचकोश:मानवी चेतना को पाँच भागों में विभक्त किया गया है। इस विभाजन को पाँच कोश कहा जाता है। प्राणियों का स्तर इन चेतनात्मक परतों के अनुरूप ही विकसित होता है। कृमि कीटकों की चेतना इन्द्रियों की प्रेरणा के इर्द गिर्द की घूमती रहती है। शरीर ही उनका सर्वस्व होता है। उनका ‘स्व’ काया की परिधि में ही सीमित रहता है। इससे आगे की न उनकी इच्छा होती है, न विचारणा न क्रिया। प्रत्येककोशकाएकदूसरेसेघनिष्ठसम्बन्धहोताहै।वेएकदूसरेकोप्रभावितकरते हैं ।काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य यह छः शत्रु और ममता, तृष्णा आदि दुष्प्रवृत्तियाँ मनोमय कोश में छिपी रहती है। कोश साधना से उन सब का निराकरण होता है। येपाँचकोश इस प्रकारहैं -
(1) अन्नमयकोश -अन्नमय कोश का अर्थ है, इन्द्रिय चेतना ।अन्नसेशरीरऔरमस्तिष्कनिर्मित होता है ।सम्पूर्णदृश्यमानजगत,ग्रह-नक्षत्र, तारेऔरपृथ्वी, आत्माकीपरम सत्ता की अभिव्यक्तिहै।वैदिकऋषियोंनेअन्नकोब्रह्मकहाहै।यहप्रथमकोशहै, जहाँआत्मास्वयंकोअभिव्यक्तकरतीरहतीहै।इसजड़-प्रकृतिजगतसेबढ़करभीकुछहै।जड़काअस्तित्वमानव और प्राणियों सेपहलेकाहै।पहलेपाँचतत्वों (अग्नि, जल, वायु, पृथवि, आकाश) कीसत्ताहीविद्यमानथी।
(2) प्राणमयकोश -प्राणमय कोश अर्थात् जीवनी शक्ति। प्राण पांच प्रकार के होते हैं- प्राण, समान,उदान, व्यान,अपान । उपनिषद का ऋषि कहता है - तुम (शरीर ) और आत्मा (हृदय) प्राण में प्रतिष्ठित है । प्राण अपान मेंप्रतिष्ठित है । अपान व्यान में प्रतिष्ठित है । व्यान उदान में प्रतिष्ठित है । उदान सामान मेंप्रतिष्ठित है , जिसको नेति -नेति कहकर वर्णन किया गया है । यह प्राणमय कोश सभी वनस्पतियों, पशु और मानव दो भागों को मिलाकर भौतिक और आध्यात्मिक स्वरूप प्राणों से जुड़े हुए हैं । उसी प्रकार वाणी का मन से, मन काअपान से, प्राण का अपान से, मृत्यु का अपान से, पांच तत्वों का तीन गुणों( सत, रज , तम) से, गुणों का महतत्व से, महतत्व का आत्मा से और अनंत आत्मा का परमात्मा से समलय होता है । प्राणमय कोश की क्षमता जीवनी शक्ति के रूप में प्रकट होती है।
(3) मनोमयकोश–विचार बुद्धि।मनोमय कोष आत्मा को साधारणतया मन और बुद्धिः के संयोग को माना जाता है । मन का अर्थ है संकल्प और विकल्प ।हमजोदेखते, सुनतेहैंअर्थातहमारीइन्द्रियोंद्वाराजबकोईसन्देशहमारेमस्तिष्कमेंजाताहैतोउसकेअनुसारवहाँसूचनाएकत्रितहोजातीहै, औरमस्तिष्कसेहमारीभावनाओंकेअनुसाररसायनोंकाश्रावहोताहैजिससेहमारेविचारबनतेहैं, जैसेविचारहोंतेहैंउसीतरहसेहमारामनस्पंदनकरनेलगताहैऔरइसप्रकारप्राणमयकोशकेबाहरएकआवरणबनजाताहैयहीहमारामनोमयकोशहोताहै। मनोमय स्थिति विचारशील प्राणियों की होती है। यह और भी ऊँची स्थिति है। मननात्-मनुश्यः । मनुष्य नाम इसलिए पड़ा कि वह मनन कर सकता है। मनन अर्थात् चिन्तन।
(4) विज्ञानमयकोश -इसमें अचेतन सत्ता का भाव प्रवाह होता है ।इसका निर्माण अन्तर्ज्ञानयासहजज्ञानसेहोता है ।इसे भाव-संवेदना का स्तर कह सकते हैं । दूसरों के सुख-दुख में भागीदार बनने की सहानुभूति के आधार पर इसका परिचय प्राप्त किया जा सकता है। आत्मभाव का आत्मीयता का विस्तार इसी स्थिति में होता है। अन्तःकरण विज्ञानमय कोश का ही नाम है। दयालु, उदार, सज्जन, सहृदय, संयमी, शालीन और परोपकार परायण व्यक्तियों का अन्तराल ही विकसित होता है। उत्कृष्ट दृष्टिकोण और आदर्श क्रियाकलाप अपनाने की महानता इसी क्षेत्र में विकसित होती है। महामानवों का यही स्तर समुन्नत रहता है।
(5) आनंदमयकोश -आत्म बोध-आत्म जागृति।आनंदमय कोश आत्मा की उस मूलभूत स्थिति की अनुभूति है जिसे आत्मा का वास्तविक स्वरूप कह सकते हैं। आनंदमय कोश जागृत होने पर जीव अपने को अविनाशी ईश्वर अंग, सत्य, शिव, सुन्दर, मानता है। शरीर, मन और साधन एवं सम्पर्क परिकर को मात्र जीवनोद्देश्य के उपकरण मानता है। यह स्थिति ही आत्मज्ञान कहलाती है। यह उपलब्ध होने पर मनुष्य हर घड़ी सन्तुष्ट एवं उल्लसित पाया जाता है।
नाभिकुंड पियूष बस याकें। नाथ जिअत रावनु बल ताकें॥
सुनत बिभीषन बचन कृपाला। हरषि गहे कर बान कराला॥
इसके नाभिकुंड में अमृत का निवास है । हे नाथ! रावण उसी के बल पर जीता है । विभीषण के वचन सुनते ही कृपालु श्री रघुनाथजी ने हर्षित होकर हाथ में विकराल बाण लिए ॥
सायक एक नाभि सर सोषा। अपर लगे भुज सिर करि रोषा ॥
लै सिर बाहु चले नाराचा। सिर भुज हीन रुंड महि नाचा ॥
एक बाण ने नाभि के अमृत कुंड को सोख लिया । दूसरे तीस बाण कोप करके उसके सिरों और भुजाओं में लगे । बाण सिरों और भुजाओं को लेकर चले। सिरों और भुजाओं से रहित रुण्ड (धड़) पृथ्वी पर नाचने लगा ॥
योग – भाग पांच
प्रस्थान त्रयी: उपनिषद, गीता तथा ब्रह्म-सूत्र को मिलाकर प्रस्थान त्रयी कहा जाता है।जिनमें प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों मार्गों का तात्त्विक विवेचन है। ये वेदान्त के तीन मुख्य स्तम्भ माने जाते हैं। इनमें उपनिषदों को श्रुति प्रस्थान, भगवद्गीता को स्मृति प्रस्थान और ब्रह्मसूत्रों को न्याय प्रस्थान कहते हैं।ब्रह्मसूत्र के रचयिता बादरायण हैं । इसे वेदान्त सूत्र, उत्तर-मीमांसा सूत्र, शारीरिक सूत्र और भिक्षु सूत्र आदि के नाम से भी जाना जाता है । प्राचीन काल में भारतवर्ष में जब कोई गुरु अथवा आचार्य अपने मत का प्रतिपादन एवं उसकी प्रतिष्ठा करना चाहता था तो उसके लिये सर्वप्रथम वह इन तीनों पर भाष्य लिखता था। आदि शंकराचार्य, रामानुजाचार्य,माधवाचार्य और निम्बकाचार्य आदि बड़े-बड़े आचार्यों ने ऐसा कर के ही अपने मत का प्रतिपादन किया।
उपनिषद:सनातन वैदिक धर्म के ज्ञानकाण्ड को उपनिषद् कहते हैं । सहस्त्रों वर्ष पूर्व भारतवर्ष में जीव-जगत तथा तत्सम्बन्धी अन्य विषयों पर गम्भीर चिन्तन के माध्यम से उनकी जो मीमांसा की गयी थी, उपनिषदों में उन्हीं का संकलन है। उपनिषद् हिन्दू धर्म के महत्त्वपूर्ण श्रुति धर्मग्रन्थ हैं । ये वैदिक वाङ्मय के अभिन्न भाग हैं । इनमें परमात्मा-ब्रह्म और आत्मा के स्वभाव और सम्बन्ध का बहुत ही दार्शनिक और ज्ञानपूर्वक विवेचन किया गया है । उपनिषदों में कर्मकांड को 'अवर' कहकर ज्ञान को इसलिए महत्व दिया गया कि ज्ञान स्थूल से सूक्ष्म की ओर ले जाता है । ब्रह्म, जीव और जगत् का ज्ञान पाना उपनिषदों की मूल शिक्षा है । उपनिषद ही समस्त भारतीय दर्शनों के मूल स्रोत हैं, चाहे वो वेदान्त हो या सांख्य या जैन धर्म या बौद्ध धर्म । उपनिषदों को स्वयं भी वेदान्त कहा गया है । दुनिया के कई दार्शनिक उपनिषदों को सबसे बेहतरीन ज्ञानकोश मानते हैं । उपनिषद् भारतीय सभ्यता की विश्व को अमूल्य धरोहर है । मुख्य उपनिषद 13 हैं । हरेक किसी न किसी वेद से जुड़ा हुआ है । ये संस्कृत में लिखे गये हैं । १७वी सदी में दारा शिकोह ने अनेक उपनिषदों का फारसी में अनुवाद कराया ।
पाश्चात्य विद्वान और उपनिषद: सन् 1775 ई. के पहले तक किसी भी पाश्चात्य विद्वान की दृष्टि उपनिषदों पर नहीं पड़ी थी । अयोध्या के नवाब सुराजुद्दौला की राजसभा के फारसी रेजिडेंट श्री एम. गेंटिल ने सन् 1775 ई. प्रसिद्ध यात्री और जिन्दावस्ता के प्रसिद्ध आविष्कारक एंक्वेटिल डुपेर्रन को दारा शिकोह के द्वारा सम्पादित उक्त फारसी अनुवाद की एक पाण्डुलिपि भेजी । एंक्वेटिल डुपेर्रन ने कहीं से एक दुसरी पाण्डुलिपि प्राप्त की और दोनों को मिलाकर फ्रेंच तथा लैटिन भाषा में उस फारसी अनुवाद का पुन: अनुवाद किया । लैटिन अनुवाद सन् 1801-2 में ‘ओपनखत’ नाम से प्रकाशित हुआ । फ्रेंच अनुवाद नहीं छपा । बाद में प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक शेपेनहावर- सन् 1788-1860) ने गम्भीर अध्ययन पश्चात लिखा- ‘मैं समझता हूँ कि उपनिषद् के द्वारा वैदिक साहित्य के साथ परिचय लाभ होना वर्तमान शताब्दी (सन् 1818) का सबसे अधिक परम लाभ है जो इसके पहले किन्हीं भी शताब्दियों को नहीं मिला । चौदहवीं शताब्दी के ग्रीक साहित्य के अभ्युदय में ग्रीक-साहित्य के पुनरभ्युदय से यूरोपीय साहित्य की जो उन्नति हुई थी, संस्कृत- साहित्य का प्रभाव उसकी अपेक्षा कम फल उत्पन्न करने वाला नहीं होगा।’ वे उपनिषदों के बारे में आगे लिखते हैं- ‘जिस देश में उपनिषदों के सत्य समूह का प्रचार था, उस देश में ईसाई-धर्म का प्रचार व्यर्थ है।’ शेपेनहावर की भाविष्यवाणी सिद्ध हुई और स्वामी विवेकानन्द की शिष्या ‘सारा बुल’ ने अपने एक पत्र में लिखा कि “जर्मन का दार्शनिक सम्प्रदाय, इग्लैण्ड के प्राच्य पण्डित और हमारे अपने देश के एरसन आदि साक्षी दे रहे हैं कि पाश्चात्य विचार आजकल सचमुच ही वेदान्त के द्वारा अनुप्राणित हैं ।” सन् 1844 में बर्लिन में श्रीशेलिंग महोदय की उपनिषद सम्बन्धी व्याख्यानोंव्याखान को सुनकर मैक्समूलर का ध्यान सबसे पहले संस्कृत की ओर आकृष्ट हुआ । शोपेनहार लिखता है- “सम्पूर्ण विश्व में उपनिषदों के समान जीवन को उँचा उठाने वाला कोई दूसरा अध्ययन का विषय नहीं है। उससे मेरे जीवन को शान्ति मिली है, उन्हीं से मुझे मृत्यु में भी शान्ति मिलेगी।” शोपेनहार आगे लिखता है- ‘ये सिद्धान्त ऐसे हैं, जो एक प्रकार से अपौरषेय ही हैं । ये जिनके मस्तिष्क की उपज हैं, उन्हें निरे मनुष्य कहना कठिन है । शोपेनहार के इन्हीं शब्दों के समर्थन में प्रसिद्ध पश्चिमी विद्धान मैक्स मूलर लिखता है-‘शोपेनहार के इन शब्दों के लिये यदि किसी समर्थन की आवश्यकता हो तो अपने जीवन भर के अध्ययन के आधार पर मैं उनका प्रसन्नतापूर्वक समर्थन करूँगा’
जर्मनी के प्रसिद्ध विद्वान पाल डायसन ने उपनिषदों को मूल संस्कृत में अध्ययन कर अपनी टीप देते हुए अपनी पुस्तक (philosophy of the Upanisads) में लिखा-‘उपनिषद के भीतर, जो दार्शनिक कल्पना है, वह भारत में तो अद्वितीय है ही, सम्भवत: सम्पूर्ण विश्व में अतुलनीय है’ मैक्डानल कहता है,‘मानवीय चिन्तना के इतिहास में पहले पहल वृहदारण्यक उपनिषद में ही ब्रह्म अथवा पूर्ण तत्व को प्राप्त करके उसकी यर्थाथ व्यंजना हुई है।’ फ्रांसीसी विद्वान दार्शनिक विक्टर कजिन्स् लिखते हैं,-‘जब हम पूर्व की और उनमें भी शिरोमणि स्वरूपा भारतीय साहित्यिक एवं दार्शनिक महान् कृतियों का अवलोकन करते हैं, तब हमें ऐसे अनेक गम्भीर सत्यों का पता चलता है, जिनकी उन निष्कर्षों से तुलना करने पर जहाँ पहुँचकर यूरोपीय प्रतिभा कभी-कभी रुक गयी है, हमें पूर्व के तत्वज्ञान के आगे घुटना टेक देना चाहिए । जर्मनी के एक दूसरे प्रसिद्ध दार्शनिक फ्रेडरिक श्लेगेल लिखते हैं- ‘ पूर्वीय आदर्शवाद के प्रचुर प्रकाश पुंज की तुलना में यूरोपवासियों का उच्चतम तत्वज्ञान ऐसा ही लगता है, जैसे मध्याह्न सूर्य के व्योमव्यापी प्रताप की पूर्ण प्रखरता में टिमटिमाती और अनल शिखा की कोई आदि किरण, जिसकी अस्थि और निस्तेज ज्योति ऐसी हो रही हो मानो अब बुझी कि तब ।’
उपनिषदों सार - उपनिषदों की संख्या लगभग 108 है, जिनमें से प्रायः 11 उपनिषदों को मुख्य उपनिषद् कहा जाता है । मुख्य उपनिषद, वे उपनिषद हैं, जो प्राचीनतम हैं और जिनका आदि शंकराचार्य से लेकर अन्य आचार्यों ने भाष्य किए हैं - (1) ईशावास्योपनिषद्, (2) केनोपनिषद् (3) कठोपनिषद् (4) प्रश्नोपनिषद् (5) मुण्डकोपनिषद् (6) माण्डूक्योपनिषद् (7) तैत्तरीयोपनिषद् (8) ऐतरेयोपनिषद् (9) छान्दोग्योपनिषद् (10) बृहदारण्यकोपनिषद् (11) श्वेताश्वतरोपनिषद् ।आदि शंकराचार्य ने इनमें से १० उपनिषदों पर टीका लिखी थी। इनमें माण्डूक्योपनिषद सबसे छोटा और बृहदारण्यक सबसे बड़ा उपनिषद।
(1) ईशोपनिषद: यह उपनिषद् कलेवर में छोटा है किन्तु विषय के कारण अन्य उपनिषदों के बीच महत्त्वपूर्ण है। इस उपनिषद् के पहले मंत्र ‘‘ईशावास्यमिदंसर्वंयत्किंच जगत्यां-जगत…’’से लेकर अठारहवें मंत्र ‘‘अग्ने नय सुपथा राये अस्मान् विध्वानि देववयुनानि विद्वान्…’’ तक में ईश्वर, ब्रह्मांड और सात्विक जीवन शैली को बताया गया है। इसमें ‘असुर्या’ वह लोक जहाँ सूर्य नहीं पहुँच पाता में कहा गया है कि जो लोग आत्म को, ‘स्व’ को नहीं पहचानते हैं, उन्हें मृत्यु के पश्चात् उसी असुर्या नामक लोक में जाना पड़ता है । ‘आत्म’ में ब्रह्म को एकाकार करते हुए बताया है की वह एक साथ, एक ही समय में भ्रमणशील है, साथ ही अभ्रमणशील भी । वह पास है और दूर भी। वह सर्वव्यापी, अशरीरी, सर्वज्ञ, स्वजन्मा और मन का शासक है। इस उपनिषद् में विद्या एवं अविद्या दोनों की बात की गई है कि विद्या एवं अविद्या दोनों की उपासना करने वाले घने अंधकार में जाकर गिरते हैं, हाँ विद्या एवं अविद्या को एक साथ जान लेने वाला, अविद्या को समझकर विद्या द्वारा अनुष्ठानित होकर अमरत्व को समझ लेता है। इसमें ब्रह्म के मुख को सुवर्ण पात्र से टंके होने की बात साथ ही सूर्य से पोषण करने वाले से प्रार्थना की। अंतिम श्लोकों में किए गए सभी कर्मों को मन के द्वारा याद किए जाने की बात आती है और अग्नि से प्रार्थना कि पंञचभौतिक शरीर के राख में परिवर्तित हो जाने पर वह उसे दिव्य पथ से चरम गंतव्य की ओर उन्मुख कर दे।
(2) केनोपनिषद :इसमें 'केन' (किसके द्वारा) का विवेचन होने से इसे 'केनोपनिषद' कहा गया है । इसके चार खण्ड हैं। प्रथम और द्वितीय खण्ड में गुरु-शिष्य की संवाद-परम्परा द्वारा उस (केन) प्रेरक सत्ता की विशेषताओं, उसकी गूढ़ अनुभूतियों आदि पर प्रकाश डाला गया है। तीसरे और चौथे खण्ड में देवताओं में अभिमान तथा उसके मान-मर्दन के लिए 'यज्ञ-रूप' में ब्राह्मी-चेतना के प्रकट होने का उपाख्यान है। अन्त में उमा देवी द्वारा प्रकट होकर देवों के लिए 'ब्रह्मतत्त्व' का उल्लेख किया गया है तथा ब्रह्म की उपासना का ढंग समझाया गया है। मनुष्य को 'श्रेय' मार्ग की ओर प्रेरित करना, इस उपनिषद का लक्ष्य हैं।
(3) कठोपनिषद: सामवेदीय शाखा का उपनिषद है । “ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै । तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥” यह उपनिषद आत्म-विषयक आख्यायिका से आरम्भ होता है । प्रमुख रूप से यम नचिकेता के प्रश्न प्रतिप्रश्न के रुप में है । नचिकेता के पिता , ऋषि अरुण के पुत्र उद्दालक लौकिक कीर्ति की इच्छा से विश्वजित (अर्थात विश्व को जीतने का) याग का अनुष्ठान करते हैं । याजक अपनी समग्र सम्पत्ति का दान कर दे यह इस यज्ञ की प्रमुख विधि है । इस विधि का अनुसरण करते हुए उसने अपनी सारी सम्पत्ति दान कर दी । उसके पास कुछ पीतोदक, जग्धतृण, दुग्धदोहा, निरिन्द्रिय और दुर्बल गाएँ थीं । नचिकेता ने पिता से कहा, इस प्रकार के दान से तो आपका याग सफल न होगा न आपकी आत्मा का अभ्युदय होगा । संवाद में वह कहता है की आपमें सचमुच दान की भावना है तो मुझे दान कीजिये, "कहिये मुझे किसको दान में देने को तैयार हैं" - कस्मै मा दास्यसि ? पिता ने पुत्र की बात अनसुनी कर दी ; समझा नादान बालक है। जब नचिकेता ने देखा की उसका पिता उद्दालक उसकी बात पर ध्यान नहीं दे रहा है तो उसी प्रश्न को कई बार दोहराया - "मुझे किसे दोगे" ? तब क्रोधित होकर पिता ने कहा - तुझे मृत्यु को दान में देता हूँ (मृत्यवे त्वा ददामि)। यह सुन नचिकेता मृत्यु अर्थात यमाचार्य के पास गया और उनसे तीन वर मांगें - पहला वर पिता का स्नेह मांगा। दूसरा अग्नि विद्या जानने के बारे में था। तीसरा वर मृत्यु रहस्य और आत्मज्ञान को लेकर था। इसी सवाद को लेकर यह उपनिषद सामने आता है ।
(4) प्रश्नोपनिषद: इस उपनिषद् के प्रवक्ता आचार्यपिप्पलाद थे जो कदाचित् पीपल के गोदे खाकर जीते थे। सुकेशा, सत्यकाम, सौर्यायणि गार्ग्य, कौसल्य, भार्गव और कबंधी, इन छह ब्रह्मजिज्ञासुओं ने इनसे ब्रह्मनिरूपण की अभ्यर्थना करने के उपरांत उसे हृदयंगम करने की पात्रता के लिये आचार्य के आदेश पर वर्ष पर्यंत ब्रह्मचर्य पूर्वक तपस्या करके पृथक्-पृथक् एक एक प्रश्न किया । इसके प्रथम तीन प्रश्न अपरा विद्या विषयक तथा शेष परा विद्या संबंधी हैं। प्रथम प्रश्न में प्रजापति सेसृष्टि की उत्पत्ति, द्वितीय प्रश्न में प्राण के स्वरूप , तीसरे प्रश्न में प्राण की उत्पत्ति तथा स्थिति का निरूपण किया गया है । पिप्पलाद ने चौथे प्रश्न में बताया की स्वप्नावस्था में श्रोत्रादि इंद्रियों के मन मे लय हो जाने पर प्राण जाग्रत रहता है तथा सुषुप्ति अवस्था में मन का आत्मा में लय हो जाता है । वही द्रष्टा, श्रोता, मंता, विज्ञाता इत्यादि है जो अक्षर ब्रह्म का सोपाधिक स्वरूप है। इसका ज्ञान होने पर मनुष्य स्वयं सर्वज्ञ, सर्वस्वरूप, परम अक्षर हो जाता है । पाँचवे प्रश्न में बताया कि ओंकार में ब्रह्म की एकनिष्ठ उपासना एवं ॐ का एकनिष्ठ उपासक परात्पर पुरुष का साक्षात्कार करता है । अंतिम छठे प्रश्न में आचार्य पिप्पलाद ने दिखाया है कि इसी शरीर के हृदय पुंडरीकांक्ष में सोलहकलात्मक पुरुष का वास है । ब्रह्म की इच्छा, एवं उसी से प्राण, उससे श्रद्धा, आकाश, वाय, तेज, जल, पृथिवी, इंद्रियाँ, मन और अन्न, अन्न से वीर्य, तप, मंत्र, कर्म, लोक और नाम उत्पन्न हुए हैं जो उसकी सोलह कलाएँ और सोपाधिक स्वरूप हैं।
(5) मुण्डकोपनिषद् : मुंडकोपनिषद् दो-दो खंडों के तीन मुंडकों में, अथर्ववेद के मंत्रभाग के अंतर्गत आता है। इसमें पदार्थ और ब्रह्म-विद्या का विवेचन है, आत्मा-परमात्मा की तुलना और समता का भी वर्णन है। इसके मंत्र सत्यमेव जयते ना अनृतम का प्रथम भाग, यानि सत्ममेव जयते भारत के राष्ट्रचिह्न का भाग है । इस उपनिषत् में ऋषि अंगिरा और शिष्य शौनक के संवाद हैं । इसमें 21, 21 और 22 के तीन मुंडकों में 64 मंत्र हैं ।
(6) माण्डूक्योपनिषद्: इस उपनिषद में कहा गया है कि विश्व में, भूत-भविष्यत् - वर्तमान कालों में तथा इनके परे भी जो नित्य तत्त्व सर्वत्र व्याप्त है वह ॐ है । यह सब ब्रह्म है और यह आत्मा भी ब्रह्म है। इसमें आत्मा कि अभिव्यक्ति की - जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय चार अवस्थाएँ बताई गई हैं । (ब्रह्म) के भेद का प्रपंच नहीं है और केवल अद्वैत शिव ही शिव रह जाता है ।
(7) तैत्तरीयोपनिषद्: तैत्तिरीयोपनिषद कृष्ण यजुर्वेदीय शाखा के अन्तर्गत एक उपनिषद है। यह शिक्षावल्ली, ब्रह्मानन्दवल्ली और भृगुवल्ली इन तीन खंडों में विभक्त है - कुल ५३ मंत्र हैं, जो ४० अनुवाकों में व्यवस्थित है । उपनिषद का आरंभ ब्रह्मविद्या के सारभूत 'ब्रह्मविदाप्नोति परम्' मंत्र से होता है । ब्रह्म का लक्षण सत्य, ज्ञान और अनंत स्वरूप बतलाकर उसे मन और वाणी से परे अचिंत्य कहा गया है । इस उपनिषद् के मत से ब्रह्म से ही नामरूपात्मक सृष्टि की उत्पत्ति हुई है और उसी के आधार से उसकी स्थिति है तथा उसी में वह अंत में विलीन हो जाती है।
(8) ऐतरेयोपनिषद्: इस उपनिषद् में तीन अध्याय हैं । उनमें से पहले अध्याय में तीन खण्ड हैं तथा दूसरे और तीसरे अध्यायोंमें केवल एक-एक खण्ड हैं । प्रथम अध्याय में बतालाया है कि सृष्टि के आरम्भ में केवल एक आत्मा ही था, उसने लोक-रचना के लिये ईक्षण (विचार) किया और केवल सकल्प से अम्भ, मरीचि और मर तीन लोकोंकी रचना की । उनके लिये लोकपालो की रचना किया । परमात्मा की आज्ञा से उसके भिन्न-भिन्न अवयवों में वाक्, प्राण, चक्षु आदि स्थति हो गये। फिर अन्नकी रचना की गयी। देवताओं ने उसे वाणी प्राण चक्षु एवं श्रोत्रादि भिन्न-भिन्न कारणों से ग्रहण करना चाहा; परन्तु वे इसमें सफल न हुए । अन्त में उन्होंने उसे अपान द्वार ग्रहण कर लिया। इस प्रकार यह सारी सृष्टि हो जानेपर परमात्मा ने विचार किया कि अब मुझे भी इसमें प्रवेश करना चाहिये; क्योंकि मेरे बिना यह सारा प्रपंच अकिंचित्कर ही है। अतः वह उस पुरुष की मूर्द्धसीमा को विदीर्णकर उसके द्वारा उसमें प्रवेश किया कर गया । इस प्रकार ईक्षण से लेकर परमात्मा के प्रवेशपर्यन्त जो सृष्टिक्रम बतलाया गया है ।
(9) छान्दोग्योपनिषद् : इसके आठ प्रपाठकों में प्रत्येक में अनेक खण्ड हैं । यह उपनिषद ब्रह्मज्ञान के लिये प्रसिद्ध है । संन्यासप्र धान इस उपनिषद् का विषय अपाप, जरा-मृत्यु-शोक रहित, विजिधित्स, पिपासा रहित, सत्यकाम, सत्यसंकल्प आत्मा की खोज तथा सम्यक् ज्ञान है । प्रपाठक आठ के खण्ड १५ के अनुसार इसका प्रवचन ब्रह्मा ने प्रजापति को, प्रजापति ने मनु को और मनु ने अपने पुत्रों को किया जिनसे इसका जगत् में विस्तार हुआ। यह निरूपण बहुधा ब्रह्मविदों ने संवादात्मक रूप में किया। श्वेतकेतु और उद्दालक, श्वेतकेतु और प्रवाहण जैबलि,सत्यकाम जाबाल और हारिद्रुमत गौतम, कामलायन उपकोसल और सत्यकाम जाबाल, औपमन्यवादि और अश्वपति कैकेय, नारद और सनत्कुमार, इंद्र और प्रजापति के संवादात्मक निरूपण उदाहरण सूचक हैं।
(10) बृहदारण्यकोपनिषद्: बृहदारण्यक अद्वैत वेदान्त और संन्यासनिष्ठा का प्रतिपादक है । यह उपनिषदों में सर्वाधिक बृहदाकार है तथा मुख्य दस उपनिषदों के श्रेणी में सबसे अंतिम उपनिषद् माना जाता है । इसमें जीव, ब्रह्माण्ड और ब्रह्म (ईश्वर) के बारे में कई बाते कहीं गईं है । यजुर्वेद के प्रसिद्ध पुरुष सूक्त के अतिरिक्त इसमें अश्वमेध, असतो मा सद्गमय, नेति नेति जैसे विषय हैं। इसमें ऋषि याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी का संवाद है, जो अत्यन्त क्रमबद्ध और युक्तिपूर्ण है। इसके नाम (बृहदारण्यक = बृहद् + आरण्यक) का अर्थ 'बृहद ज्ञान वाला' या 'घने जंगलों में लिखा गया' उपनिषद है । इस उपनिषद् का ब्रह्मनिरूपणात्मक अधिकांश उन व्याख्याओं का समुचच्य है जिनसे अजातशत्रु ने गार्ग्य बालाकि की, जैवलि प्रवाहण ने श्वेतकेतु की, याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी और जनक की तथा जनक के यज्ञ में समवेत गार्गी और जारत्कारव आर्तभाग इत्यादि आठ मनीषियों की ब्रह्मजिज्ञासा निवृत्त की थी।
(11) श्वेताश्वतरोपनिषद् : श्वेताश्वतर उपनिषद् में छह अध्याय और 113 मंत्र हैं । उपनिषद् का यह नाम श्वेताश्वतर ऋषि के कारण प्राप्त है । मुमुक्षु संन्यासियों के कारण ब्रह्म क्या है अथवा इस सृष्टि का कारण ब्रह्म है अथवा अन्य कुछ हम कहाँ से आए, किस आधार पर ठहरे हैं, हमारी अंतिम स्थिति क्या होगी, हमारे सुख दु:ख का हेतु क्या है, इत्यादि प्रश्नों के समाधान में ऋषि ने जीव, जगत् और ब्रह्म के स्वरूप तथा ब्रह्मप्राप्ति के साधन बतलाए हैं और यह उपनिषद सीधे योगिक अवधारणाओं की व्याख्या करता है। इसमें बताया गया है की ध्यान (योग) की स्वानुभूति से प्रत्यक्ष देखा गया है कि सब का कारण ब्रह्म की शक्ति है और वही इन कथित कारणों की अधिष्ठात्री है । इस शक्ति को ही प्रकृति, प्रधान अथवा माया की अभिधा प्राप्त है । यह अज और अनादि है, परंतु परमात्मा के अधीन और उससे अस्वतंत्र है । वस्तुत: जगत् माया का प्रपंच है । वह क्षर और अनित्य स्थूल देह में, सूक्ष्म अथवा लिंग शरीर जो कर्मफल से लिप्त रहता है उसके साथ जीवात्मा जन्मांतर में प्रवेश करता है । इसे ब्रह्मचक्र या विश्वमाया कहा गया है । जब तक अविद्या के कारण जीव अपने को भोक्ता, जगत् को भोग्य और ईश्वर को प्रेरिता मानता अथवा ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान को पृथक् पृथक् देखता है तब तक इस ब्रह्मचक्र से वह मुक्त नहीं हो सकता । ब्रह्म का श्रेष्ठ रूप निर्गुण, त्रिगुणातीत, अज, ध्रुव, इंद्रियातीत, निरिंद्रिय, अवर्ण और अकल है । वह न सत् है, न असत्, जहाँ न रात्रि है न दिन, वह त्रिकालातीत है । देह में व्याप्त ब्रह्म का प्रणव द्वारा निरंतर ध्यान करके उसका साक्षात्कार किया जा सकता है। इसमें प्राणायाम और योगाभ्यास की विधि विस्तारपूर्वक बतलाई गई है ।
श्रीमद्भगवतगीता
कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जो उपदेश दिया था । वह श्रीमद्भगवदगीता के नाम से प्रसिद्ध है । मूलत: यह संस्कृत
महाकाव्य महाभारत की एक उपकथा के रूप में प्रारम्भ होता है । आज से लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व भवान कृष्ण ने अपने मित्र तथा
भक्त अर्जुन को श्रीमद्भगवतगीता का उपदेश दिया था । यह मानव इतिहास की सबसे महान दार्शनिक तथा धार्मिक वार्ताओं में से एक है । यह महाभारत के भीष्मपर्व का अंग है । गीता में १८ अध्याय और ७०० श्लोक हैं ।प्रत्येक अध्याय एक-दूसरे से गुथे हुए हैं और निरन्तर हैं । गीता की गणना प्रस्थानत्रयी में की जाती है, जिसमें उपनिषद् और ब्रह्मसूत्र भी संमिलित हैं। अतएव भारतीय ज्ञान परंपरा के अनुसार गीता का स्थान वही है जो उपनिषद् और ब्रह्मसूत्रों का है । गीता के माहात्म्य में उपनिषदों को गौ और गीता को उसका दुग्ध कहा गया है। गीता अध्यात्म विद्या है। उपनिषदों की अनेक विद्याएँ गीता में हैं । जैसे, सांसारिक स्वरूप, के अश्वत्थ विद्या, अव्ययपुरुष विद्या, परा प्रकृति के विषय में अक्षर पुरुष विद्या और अपरा प्रकृति या भौतिक जगत के विषय में क्षरपुरुष विद्या। इस प्रकार वेदों के ब्रह्मवाद और उपनिषदों के अध्यात्म, इन दोनों की विशिष्ट सामग्री गीता में संनिविष्ट होने से उसे ब्रह्मविद्या कहा गया है । गीता में 'ब्रह्मविद्या' का आशय निवृत्ति परक ज्ञानमार्ग से है। गीता में ‘योगशास्त्रे’ शब्द है । यहाँ ‘योगशास्त्रे’ का अभिप्राय नि:संदेह कर्मयोग से ही है । गीता में योग की दो परिभाषाएँ पाई जाती हैं । एक निवृत्ति मार्ग की दृष्टि से जिसमें ‘समत्वं योग उच्यते’ कहा गया है । योग की दूसरी परिभाषा है ‘योग: कर्मसु कौशलम’ अर्थात् कर्मों में लगे रहने पर भी ऐसे उपाय से कर्म करना कि वह बंधन का कारण न हो और कर्म करनेवाला उसी असंग या निर्लेप स्थिति में अपने को रख सके जो ज्ञान मार्गियों को मिलती है । इसी युक्ति का नाम बुद्धियोग है ।
श्रीकृष्णअर्जुनसेकहतेहैंकितुममेरेपरममित्रहोइसलिएतुम्हेंमैंयहविद्यासिखारहाहूं । अर्जुनकहतेहैंकिआपभगवानपरमधाम, पवित्रतम , परमसत्यहैं । आपशाश्वत , दिव्यआदिपुरुष, अजन्मतथामहानतमहैं । नारद , असित, देवलतथाव्यासजैसेसमस्तमहामुनिइसबातकीपुष्टिकरतेहैं । आपनेजोकहाहै , उसेपूर्णरूपसेमैंसत्यमानताहूं। हेप्रभू न तोदेवताऔर न असुरआपकेव्यक्तिवकोसमझसकतेहैं । श्रीमद्भगवदगीताकीविषयवस्तुमेंपांचमूलसत्योंकाज्ञाननिहितहै, यथा- ईश्वरक्याहै, जीवक्याहै, प्रकृतिक्याहै, दृश्यजगतक्याहैतथायहकालद्वाराकिसप्रकारनियंत्रितहैऔरजीवोंकेकार्यकलापक्याहैं । गीतामेंभौतिकप्रकृतिकोअपराप्रकृतितथाजीवकोपराप्रकृतिकहागयाहै। भौतिकप्रकृतितीनगुणोंसेनिर्मितहै- सतोगुण, रजोगुणएवंतमोगुण। इन्हींतीनोंगुणोंसेप्रत्येकजीवकर्मफलकादुखऔरसुखभोगतेहैं। यहीकर्मकहलाताहै। भौतिकप्रकृति ( अपरा ) परमेश्वरकीभिन्नाशक्तिहै। परमईश्वरकीस्थितिपरमचेतनास्वरूपहै। जीवभीईश्वरअंशहोनेसेचेतनहै। लेकिनदोनोंमेंअंतरहै। ईश्वर, जीव , प्रकृति, कालतथाकर्ममेंसेकर्मकोछोड.करचारशाश्वतहैं। जीवबद्धहोताहै। अर्थातव्यक्तिदेहात्मबुद्धिमेंलीनरहनेसेअपनेस्वरूपकोभूलजाताहै। गीतामेंबतायागयाहैकिब्रह्मभीपूर्णपरमपुरुषकेअधीनहै। पूर्णभगवानमेंअपारशक्तियांहैं । सांख्यदर्शनकेअनुसारयहभौतिकजगतभी 24 तत्वोंसेभीसमन्वितहोनेकेकारणपूर्णहै। वैज्ञानिकशोधगीताकीइसदृष्टिकोपकड़नहींपातेहैंक्योंकिवेइंद्रियोंपरआधारितहैं। गीतामेंप्रकृतिकेगुणोंकेअनुसारतीनप्रकारकेकर्मोंकाउल्लेखहै-सात्विककर्म, राजसिककर्मतथातामसिककर्म । इसीप्रकारसात्विक, राजसिकतथातामसिकआहारकेभीतीनभेदहैं । गीतामेंजीवऔरईश्चरदोनेांकोसनातनबतायागयाहै। अत: गीतासंदेशदेतीहैकिहमेंसनातनधर्मकोजागृतकरनाहैजोकिजीवकीशाश्वतवृत्तिहै, इसलिएसनातनधर्मकिसीसाम्प्रदायिकधर्मकासूचकनहींहै। जिसका न आदिहैऔर न अंतहैवहसनातनहै। सनातनधर्मविश्वकेसमस्तलोगोंकाहीनहींअपितुब्रहमहाकेसमस्तजीवोंकाहै। गीतामानतीहैकि ‘ जिनकीबुद्धिभौतिकइच्छाओंद्वाराचुरालीगईहै, वेदेवताओंकीशरणमेंजातेहैंऔरअपने-अपनेस्वभावकेअनुसारपूजाकरतेहैं’ भगवानश्रीकृष्णकहतेहैंकिमेरापरमधाम न तोसूर्ययाचंद्रमाद्वारा , न हीअग्नियाबिजलीद्वाराप्रकाशितहोताहै । जोलोगवहांपहुंचजातेहैंवेफिरकभीनहींलौटतेहैं , इसेगोलोककहतेहैं । गीताकेपंद्रवेंअध्यायमेंभौतिकजगतकाचित्रणकरतेहुएकहाहै – भौतिकजगतवहवृद्धहैजिसकीजड़ेउर्ध्वमुखीहैंऔरशाखाएंअधोमुखीहैं। यहभौतिकजगतआध्यात्मिकजगतकाप्रतिबिंबहै । अत: इसअध्यात्मिकजगतकोझूठेभौतिकभोगोंकेआकर्षणोंमेंमोहग्रस्तजीवयामनुष्यप्रवेशनहींकरपाताहै। गीताकहतीहैंकिमृत्युकेसमयब्रह्मकाचिंतनकरनेसेवहजिसभावकोस्मरणकरताहैअगलेजन्ममेंउसभावकोनिश्चितरूपसेप्राप्तहोताहै। इसलिएहेअर्जुन ! कृष्णकेरूपमेरासदैवचिंतनकरोऔरयुद्धकर्मकरतेरहो। अर्जुनकहतेहैंकिहेमधुसूदन !आपनेजिसयोगपद्वतिकासंक्षेपमेंवर्णनकियाहैवहमेरेलिएअव्यवहारिकअसहयप्रतीतहोतीहैक्योंकिमनअस्थिरतथाचंचलहै। भगवानश्रीकृष्णकहतेहैंहेअर्जुन !जोव्यक्तिपथपरविचलितहुएबिनाअपनेमनकोनिरंतरमेरास्मरणकरनेमेंव्यस्तरखताहैऔरभगवानकेरूपमेंमेराध्यानकरताहै, वहमुझकोअवश्यप्राप्तहोताहै।
सारांशयहकिश्रीमद्भगवदगीतादिव्यसाहित्यहैजिसकेअंदरमनुष्यकीमुक्तिकेलिएकर्म ,ज्ञानऔरभक्तियोगकाविस्तारसेवर्णनकियागयाहै। अंतमेंश्रीकृष्णकहतेहैंकिहेअर्जुन! “ सबधर्मोंकोत्यागकरमेरीहीशरणमेंआओ। मैंतुम्हेंसमस्तपापोंसेमुक्तकरदूंगा। तुमडरोमत ” व्याससंजयकेगुरुथेऔरसंजयस्वीकारकरतेहैंकिव्यासकीकृपासेवहभगवानकोसमझसकेऔरगीताकेअंतमेंधृतराष्टसेकहा “ आपअपनीविजयकीबातसोचरहेहैंलेकिनमेरामतहैकिजहांश्रीकृष्णऔरअर्जुनउपस्थितहैंवहींसम्पूर्णश्रीहोगी । ”
ब्रह्मसूत्र:वेदांत दर्शन का आधारभूत ग्रन्थ है। इसके रचयिता महर्षि बादराय हैं। इसे वेदान्त सूत्र, उत्तर-मीमांसा सूत्र, शारीरक सूत्र और भिक्षु सूत्र आदि के नाम से भी जाना जाता है। इस पर अनेक आचार्यांने भाष्य भी लिखे हैं। ब्रह्मसूत्र में उपनिषदों के दार्शनिक एवं आध्यात्मिक विचारों को साररूप में एकीकृत किया गया है। ब्रह्मसूत्रों को न्याय प्रस्थान कहने का अर्थ है कि ये वेदान्त को पूर्णतः तर्कपूर्ण ढंग से प्रस्तुत करता है। ब्रह्मएकलाक्षणिकसत्यहैं । ब्रह्मकोकिसीमूर्तरूपमेंहमनहींदिखासकतेहैं। ब्रह्मकोबोधकरानेकेलिएसूत्रकारद्वाराजिससूत्रकानिरुपणकियागयाहै , वहब्रह्मसूत्रहै। सूत्रकिसेकहतेहैं, थोड़ेशब्दोंमेंअसंधिग्दबातकोजिसकेअंदरपुनरुक्तिनहींहैऔरकोईदोषनहींहै। श्ब्दऔरवाक्यकोप्रयोगकियाजाताहैउसेसूत्रकहतेहैं। सूत्रवेदांतयाउपनिषदकोसमझनेकेलिएहमारेपासकुछआधारभूतस्पष्टताचाहिए। वेदएकप्रमाणहै, उपनिषदएकप्रमाणहै। ऐसेप्रमाणकीएकनिरदृष्टिवस्तुहोतीहैजैसेआंखएकप्रमाणहै। कानएकप्रमाणहै। आंखकाकामदेखनाहै , कानकाकामसुननाहै। अत: आंखकाकामकाननहींकरसकताऔरकानकाकामआंखनहींकरसकतीहै। श्रुतिएकप्रमाणहैजिसकोसमझनेकेलिएइंद्रियसामर्थ्यनहींहै। इसमें थोड़े-से शब्दों में परब्रह्म के स्वरूपका साङ्गोपाङ्ग निरूपण किया गया है, इसीलिये इसका नाम ‘ब्रह्मसूत्र’ है। उत्तरभाग की श्रुतियों में उपासना एवं ज्ञानकाण्ड है; इन दोनों की मीमांसा करनेवाले वेदान्त-दर्शन या ब्रह्मसूत्र को ‘उत्तर मीमांसा’ भी कहते हैं ।दर्शनों में इमका स्थान सबसे ऊँचा है; क्योंकि इसमें जीवके परम प्राप्य एवं चरम पुरुषार्थ का प्रतिपादन किया गया है ।प्रायः सभी सम्प्रदायोंके आचार्योने ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखे हैं ।
ब्रह्मसूत्र में चार अध्याय हैं जिनके नाम हैं - समन्वय, अविरोध, साधन एवं फलाध्याय। प्रत्येक अध्याय के चार पाद हैं। कुल मिलाकर इसमें ५५५ सूत्र हैं।ब्रह्मसूत्रमेंशोकनिवृतिकेलिएइनचारोंअध्यायोंकेएकत्वकीबातकहीगईहै। व्यासजीकहतेहैंकिसारासंसारब्रह्ममयहोनेकेकारणउपनिषदमेंजोविषयआएहैंवहभीसभीब्रह्ममयहै। ब्रह्मसूत्रमेंबतायागयाहैकिइसनिर्गुणनिराकारब्रह्मकोबिनासगुणसाकारस्वरूपकीकल्पनाकेसमझानहींजासकताहै । पहलाअध्यायसमन्वय, इसअध्यायमेंभीचारपादहैं। प्रथमपादमेंब्रह्मकाप्रमाणोंद्वाराप्रतिपादनहै। आनंदमयशब्द, विज्ञानमय , आकाश, प्राण, ज्योति, तथागायत्रीनामसेश्रुतिमेंपरमब्रह्मकाहीवर्णनहै। दूसरेपादमेंवेदांतवाक्योंमेंपरमब्रह्मकानिरूपणहै । साथहीहदयगुहामेंस्थितिजीवात्मातथापरमात्माकाप्रतिपादनहै। तीसरेपादमेंब्रह्मकोअक्षरएवंओमसेप्रतिपादितकियाहै। ज्योतिऔरआकाशभीब्रह्मकेवाचकहै। चौथेपादमेंअव्यक्तशब्दपरविचारकियागयाहै।
दूसराअध्यानअविरोध। प्रथमपादमेंब्रह्मकारणवादकेविरुद्वउठाईहुईशंकाकासमाधान। जीवऔरउनकेकर्मोंकीअनादिसत्ताकाप्रतिपादन। दूसरापाद, सांख्यमतप्रधानकारणवादकाखंडन। पांन्चरात्रकीचर्चा। तीसरापाद, ब्रह्मऔरजीवकीचर्चा। चौथापाद, इंद्रियोंकीउत्पत्तिपंचभूतसेनहींपरमात्मासेहोतीहै। प्राणकीउत्पत्तिभीब्रह्मसेहोतीहै।
तीसराअध्यायसाधन । पहलापाद, जीवऔरयमयातनाकावर्णन । दूसरापाद, स्वप्नमायामात्रऔरशुभऔरअशुभकासूचक । कर्मोकाफलपरमात्माहीदेताहै, कर्मनहीं । तीसरापाद,वेदांतवर्णितसमस्तब्रह्मविद्याओंकीएकता । चौथापाद, ज्ञानसेहीपरमपुरुषार्थकीसिद्धि ।
चौथा फलाध्याय । पहलापाद, ब्रह्मविद्यामेंनिरंतरअभ्यासकीआवश्यकता। प्रारब्धकाभोगनाशहोनेपरज्ञानीकोब्रह्मकीप्राप्ति । दूसरापादउत्क्रमणकालमेंवाणीकीअन्यइंद्रियोंकेसाथ , मनकीप्राणमेंऔरप्राणकीजीवात्मामेंस्थितिकाकथन। तीसरापाद, विभिन्नलोकोंकाप्रतिपादन।
चौथेपाद, ब्रह्मलोकमेंपहुंचनेवालेउपासकोंकीतीनगतियोंकावर्णन ।
ब्रह्मसूत्रजिसेवेदांतदर्शनभीकहतेहैं, इसकेपहलेअध्यायकापहलापाद ‘अथतोब्रह्मजिज्ञासा’ सेप्रारंभहोताहै। इसकासंपूर्णग्रंधसूत्ररूपमेंबद्धहै। इसकेअंतिमअध्यायकेअंतिमपादकाकासमापनजिससूत्रसेहोताहै, वहहै “अनावृत्ति:शब्दादनावृत्ति:शब्दात् ”। जिसकाअर्थहैकिब्रह्मलोकमेंगएहुएआत्माकापुनरागमननहींहोता।
भारतीय ज्ञान परम्परा
आचार्य शंकर वाणी –
कस्त्वं कोऽहं कुत आयातः, का मे जननी को मे तातः।
इति परिभावय सर्वमसारम्, विश्वं त्यक्त्वा स्वप्न विचारम्॥
‘‘बोध वाक्य :चक्षु सम्पन्न व्यक्ति देखेंगे कि भारत का ब्रह्मज्ञान समस्त पृथ्वी का धर्म बनने लगा है। प्रात:कालीन सूर्य की अरुण किरणों से पूर्वदिशा आलोकित होने लगी है, परन्तु जब वह सूर्य मध्याह्न गगन में प्रकाशित होगा, उस सय उसकी दीप्ति से समग्र भूमण्डल दीप्तिमय हो उठेगा।’’ - रवीन्द्र नाथ टैगोर
ऊँ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावषिष्यते।।
ऊँ शांति शांति शंति