वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि ।
मंगलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ॥
अक्षरों, अर्थ समूहों, रसों, छन्दों और मंगलों को करने वाली सरस्वती और गणेश की मैं वंदना करता हूँ ॥
भवानीशंकरौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम्॥
श्रद्धा और विश्वास के स्वरूप पार्वती और शंकर की मैं वंदना करता हूँ, जिनके बिना सिद्धजन अपने अन्तःकरण में स्थित ईश्वर को नहीं देख सकते॥
वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शंकररूपिणम् ।
यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते॥
ज्ञानमय, नित्य, शंकर रूपी गुरु की मैं वन्दना करता हूँ, जिनके आश्रित होने से ही टेढ़ा चन्द्रमा भी सर्वत्र वन्दित होता है॥
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स्मरणीय बातें – जय जवान ,जय किसान ,जय विज्ञान,जय अनुसंधान ।
पञ्च प्रण:
+भारत को विकसित देश बनाना है ।
+जीवन से गुलामी का अंश मिटाना है ।
+हमें विरासत पर गर्व हो ।
+एकता और एकजुटता पर जोर ।
+नागरिक के कर्तव्य पर जोर ।
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भारतीय ज्ञान परम्परा में ‘सा विद्या या विमुक्तये’ की बात कही गई है । शिक्षा और विद्या के अंतर को जीवन का लौकिक और पर लौकिक विकास समझना चाहिए । जीवन के पुरुषार्थ को विद्या के माध्यम से साधा जा सकता है और उसका प्रवेश द्वार है,‘शिक्षा’ ।
भारत में गुरुकुल परंपरा प्राचीन काल से भारत के सत्य को जानने को प्रयत्नशील है । भारतीय गुरु-शिष्य परंपरा भारत के आर्थिक, सांस्कृतिक पुरुषार्थ में, सनातन धर्म की साधना में, कोमलता में, ऋजुता में, विवेक में, धर्म और श्रेष्ठ कार्य में, ईश्वरीय उपासना के माध्यम से बौद्धिक चेतना के जागरण का राजसूय यज्ञ कराती है । बौद्धिक आलस्य को छोड़कर हमें पुरुषार्थ करना होगा, इतिहास को समझना होगा, इसके लिए कठोर बौद्धिक परिश्रम करने की आवश्यकता है । हमारी गुरु परंपरा इसके लिए हमें प्रेरणा देती है ।
बोध वाक्य:“ जब तक समाज में आजकल की प्रचलित सभी कुरीतियों के विरुद्ध जबरदस्त आंदोलन न होगा, कुरीतियों पर जबरदस्त कुठाराघात न होगा, तब तक न तो समाज में समानता का भाव आएगा और न उसका कल्याण होगा।”-शहीद राजेंद्रनाथ लाहिड़ी
प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइन्स्टीन कहता है- ‘विज्ञान की अपनी अन्तिम खोज करते समय हमे ईश्वर का अस्तित्व समझ में आया।’
बोध वाक्य: “पंथ, संप्रदाय, मजहब अनेक हो सकते हैं, परंतु धर्म तो एक ही होता है । यदि पंथ- संप्रदाय उस ईश्वर की उपासना के लिए प्रेरणा देते हैं तो ठीक अन्यथा महाशक्ति का बाना पहनकर सांप्रदायिकता को बढ़ावा देना न ईश्वर भक्ति है न धर्म।”-शहीद रामप्रसाद बिस्मिल
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नौमी भौम बार मधुमासा ।
अवधपुरीं यह चरित प्रकासा ॥
जेहि दिन राम जनम श्रुति गावहिं ।
तीरथ सकल जहाँ चलि आवहिं ॥
चैत्र मास की नवमी तिथि मंगलवार को अयोध्या में यह चरित्र प्रकाशित हुआ । जिस दिन श्री रामजी का जन्म होता है, वेद कहते हैं कि उस दिन सारे तीर्थ वहाँ चले आते हैं ॥
रचि महेस निज मानस राखा ।
पाइ सुसमउ सिवा सन भाषा ॥
तातें
रामचरितमानस बर ।
धरेउ नाम हियँ हेरि हरषि हर ॥
महादेव जी ने इस कथा को अपने मानस में रच रखा था और समय आने पर उसको पार्वती जी को सुनाया, इसीलिए इस ग्रन्थ का नाम रामचरितमानस रखा है ॥
सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा ।
गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा ॥
अगुन अरूप अलख अज जोई ।
भगत प्रेम बस सगुन सो होई॥
मुनि, पुराण, पण्डित और वेद सभी ऐसा कहते हैं कि सगुण और निर्गुण में कोई भेद नहीं है जो अलख और अजन्मा है, वही भक्तों के प्रेमवश सगुण हो जाता है ॥
नेति नेति जेहि बेद निरूपा ।
निजानंद निरुपाधि अनूपा ॥
संभु
बिरंचि बिष्नु भगवाना।
उपजहिं जासु अंस तें नाना ॥
ऐसेउ प्रभु सेवक बस अहई ।
भगत हेतु लीलातनु गहई ॥
जिन्हें वेद यह नहीं, यह भी नहीं निरूपित करते हैं, जो आनन्द स्वरुप हैं, जिनके अंश से शिव, ब्रहमा और विष्णु उत्पन्न होते हैं, ऐसे प्रभु सेवक और भगत के लिए शरीर धारण करते हैं ॥
नौमी तिथि मधु मास पुनीता ।
सुकल पच्छ अभिजित हरिप्रीता ॥
मध्यदिवस
अति सीत न घामा ।
पावन काल लोक बिश्रामा ॥
पवित्र चैत्र का महीना था, नवमी तिथि, शुक्ल पक्ष और भगवान का प्रिय अभिजित् मुहूर्त था । दोपहर का समय न बहुत सर्दी, न धूप थी वह समय सब लोक को शांति देने वाला था ॥
बोध वाक्य-“मैं एक ऐसे धर्म में विश्वास करता हूं जो स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे का प्रचार करता है।”- चंद्रशेखर आजाद
एषाम् न विद्या न तपो न दानम् ज्ञानम् न शीलम् न गुणो न धर्म: ।
ते मर्त्यलोके भुविभारभूता मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ॥
जो व्यक्ति शिक्षित नहीं है, जो परिश्रम करने के लिए तैयार नहीं है, जो अपने पास जो कुछ भी दान नहीं करता है, जिसके पास ज्ञान नहीं है, जिसके पास अच्छे चरित्र, अच्छे गुण नहीं हैं और जो धर्म का पालन नहीं करता है, ऐसा व्यक्ति इस धरती पर सिर्फ एक बेकार व्यक्ति है, वह किसी भी अन्य जानवर की तरह अच्छा है।
बोध वाक्य: “भारत माता के रंगमंच का अपना पार्ट हम अदा कर चुके हैं । हमने गलत सही जो कुछ किया,वह स्वतंत्रता प्राप्ति की भावना से किया । हमारे इस काम की कोई प्रशंसा करेंगे और कोई निंदा । किन्तु हमारे साहस और वीरता की प्रशंसा हमारे दुश्मनों तक को करनी पड़ेगी।”-शहीदअशफाक उल्ला खां
भारति, जय, विजयकरे !कनक-शस्य-कमलधरे !
लंका पदतल शतदल
गर्जितोर्मि सागर-जल,
धोता-शुचि चरण युगल
स्तव कर बहु-अर्थ-भरे ।
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी ।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ॥
सम्पूर्ण प्राणियों के लिए जो रात्रि के समान है, उस नित्य ज्ञानस्वरूप परमानन्द की प्राप्ति में स्थितप्रज्ञ योगी जागता है और जिस नाशवान सांसारिक सुख की प्राप्ति में सब प्राणी जागते हैं, परमात्मा के तत्व को जानने वाले मुनि के लिए वह रात्रि के समान है॥
आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं -समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् ।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वेस शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥
जैसे नाना नदियों के जल सब ओर से परिपूर्ण, अचल प्रतिष्ठा वाले समुद्र में उसको विचलित न करते हुए ही समा जाते हैं, वैसे ही सब भोग जिस स्थितप्रज्ञ पुरुष में किसी प्रकार का विकार उत्पन्न किए बिना ही समा जाते हैं, वही पुरुष परम शान्ति को प्राप्त होता है, भोगों को चाहने वाला नहीं॥
बोध वाक्य– “ वन की अग्नि चंदन की लकड़ी को भी जला देती है अर्थात दुष्ट व्यक्ति किसी का भी अहित कर सकता है। – चाणक्य
अरुण यह मधुमय देश हमारा।
जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।।
सरल तामरस गर्भ विभा पर, नाच रही तरुशिखा मनोहर।
छिटका जीवन हरियाली
पर, मंगल
कुंकुम सारा।।
अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः ।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ॥
सभी प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं, अन्न की उत्पत्ति वर्षा से होती है, वर्षा की उत्पत्ति यज्ञ सम्पन्न करने से होती है और यज्ञ की उत्पत्ति नियत-कर्म (वेद की आज्ञानुसार कर्म) के करने से होती है ।
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥
महापुरुष जो-जो आचरण करता है, सामान्य मनुष्य भी उसी का ही अनुसरण करते हैं, वह श्रेष्ठ-पुरुष जो कुछ आदर्श प्रस्तुत कर देता है, समस्त संसार भी उसी का अनुसरण करने लगता है ।
बोध वाक्य– “ मैने अनुभव किया है कि आंतरिक संतोष-सहानुभूति और करुणा से प्राप्त होता है । हम दूसरों की जितनी मदद करेंगे उतनी अधिक खुशी महसूस करेंगे । मन में दूसरों के लिए अच्छी भावनाएं आएंगी तो मन शांत होगा । भीतर का भय और असुरक्षा बहुत कम होगा । भीतरी ताकत बढ़ेगी। यही सफलता का मूल मंत्र है ।”-संत दलाई लामा
मेरे नगपति! मेरे विशाल! साकार, दिव्य, गौरव विराट्,
पौरुष के पुन्जीभूत ज्वाल! मेरी जननी के हिम-किरीट !
मेरे भारत के दिव्य भाल ! मेरे नगपति ! मेरे विशाल !
-युग अजेय, निर्बन्ध, मुक्त, युग-युग गर्वोन्नत, नित महान,
निस्सीम व्योम में तान रहायुग से किस महिमा का वितान?
कैसी अखंड यह चिरसमाधि! यतिवर कैसा यह अमर ध्यान?
तू महाशून्य में खोज रहा किस जटिल समस्या का निदान ?
उलझन का कैसा विषम जाल ? मेरे नगपति मेरे विशाल !
तू पूछ, अवध से, राम कहाँ? वृन्दा ! बोलो, घनश्याम कहाँ?
ओ मगध ! कहाँ मेरे अशोक ? वह चन्द्रगुप्त बलधाम कहाँ ?
री कपिलवस्तु ! कह,बुध्ददेव के वे मंगल - उपदेश कहाँ ?
तिब्बत, इरान, जापान,चीन तक गये हुए सन्देश कहाँ?
प्राची के प्रांगण-बीच देख, जल रहा स्वर्ण-युग-अग्निज्वाल,
तू सिंहनाद कर जाग तपी ! मेरे नगपति ! मेरे विशाल !
कह दे शंकर से, आज करें वे प्रलय-नृत्य फिर एक बार।
सारे भारत में गूँज उठे ,'हर-हर-बम' का फि र महोच्चार।
ले अंगडाई हिल उठे धराकर निज विराट स्वर में निनाद
तू शैली विराट हुँकार भरे फट जाए कुहा, भागे प्रमाद
तू मौन त्याग,कर सिंह नाद रे तपी आज तप का न काल
नवयुग- शंखध्वनि जगा रही तू जाग, जाग, मेरे विशाल!
बोध वाक्य –“अध्यापक का कार्य केवल तात्कालिक शिक्षण या परीक्षा में अच्छे अंक अर्जित करने के लिए प्रेरित करना ही नहीं है, बल्कि उन्हें ऐसे मूल्य सिखाना भी है, जो उनका चरित्र निर्माण कर सकें, जो स्थाई हो और विद्यार्थी को जीवन में सफल बनने में मदद करें ।”- डॉ अब्दुल कलाम
आकाशात् पतितं तोयं यथा गच्छति सागरम् ।
सर्वदेवनमस्कार: केशवं प्रति गच्छति । ।
जिस प्रकार आकाशसे गिरा जल विविध नदियों के माध्यम से अंतिमत: सागर से जा मिलता है उसी प्रकार सभी देवताओंके लिए किया हुआ नमन एक ही परमेश्वरको प्राप्त होता है ||
चिरविजय की कामना ले , कर्म पथ पर चल तरूण मन।
संगठन की साधना में ,प्राण अर्पित और तन- मन ।।
पतित पावन राम ने थे , गिरी अरण्य महान घूमे ।
छोड़कर माया अवध की , ऋषिजनों के पांव चूमे ।
दीं दुखियों पर दया के , अश्रु कण छलके वरुण वन ।
चिर विजय …………
भक्ति का धुव भाव लेकर , बढ़ चलो तुम ध्येय पथ पर ।
पवन सूत की शक्ति लेकर , बढ़ चलो तुम गेय बनकर।
फिर उदित इठला रहा है , आज राघव के नयन बन ।
चिर विजय …………
टूट विद्युत के पड़ो तुम ,राक्षस की वृत्तियों पर ।
गिर पड़ो तुम आज फिर से , वज्र बन आपत्तियों पर ।
पाश नागों के चले है , काट डालो तुम गरुड़ बन ।
चिर विजय …………..
अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे ।
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः ॥
अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति ।
सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः ॥
दूसरे कितने ही योगीजन अपान वायु में प्राणवायु को हवन करते हैं, वैसे ही अन्य योगीजन प्राणवायु में अपान वायु को हवन करते हैं तथा अन्य कितने ही नियमित आहार करने वाले प्राणायाम परायण पुरुष प्राण और अपान की गति को रोककर प्राणों को प्राणों में ही हवन किया करते हैं। ये सभी साधक यज्ञों द्वारा पापों का नाश कर देने वाले और यज्ञों को जानने वाले हैं ॥
श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः ।
ज्ञानं लब्धवा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ॥
जितेन्द्रिय, साधनपरायण और श्रद्धावान मनुष्य ज्ञान को प्राप्त होता है तथा ज्ञान को प्राप्त होकर वह बिना विलम्ब के तत्काल ही भगवत्प्राप्ति रूप परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है ॥
बोध वाक्य : “जिसके हृदय में हरि का निवास नहीं है, वह तो सूने घर के समान है। ईश्वर की शक्ति से ही समस्त जगत प्राणमय है । उसकी गति विचित्र है, वह किसी से भी किसी समय अलग नहीं है। ईश्वर का नाम ही भवसागर से पार उतारने में समर्थ है।”- संत रज्जब
अयं निजः परोवेति गणना लघुचेतसाम्।
उदारचरितानां तु वसुधैवकुटम्बकम्॥
यह मेरा है, वह उसका है जैसे विचार केवल संकुचित मस्तिष्क वाले लोग ही सोचते हैं ।
यम-‘अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमा:’
(2) नियम- ‘‘शौचसंतोषतप:स्वाध्यायेश्वरप्राणिधानानि नियमा:’’।
बोध वाक्य : “ अपार संपत्ति एकत्र करना अथवा योगी बनकर शरीर में भस्म लगाना, पांच प्रकार की अग्नि को सहना या समुद्र के आर पार के राज्य को जीत लेना, अनेक प्रकार के तप और संयम करना, हजारों तीर्थों की यात्रा करना आदि व्यर्थ है, यदि नंदकुमार श्री कृष्ण से प्रेम ना किया और उनका दर्शन ना किया ।”- रसखान
यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टवगांनि।।