वरिष्ठ पत्रकार राघवेंद्र सिंह जी आप ठीक कह रहे हैं किंतु -
यह सफल राजनीति होगी! किन्तु राष्ट्र नीति नहीं है।
सत्ता रहेगी। व्यक्तिगत पद प्रतिष्ठा प्राप्त होगी। किंतु समाज का एक बड़ा तबका जेंडर कोई भी हो जिस तरह प्रलोभी और अकर्मण्य हो रहा है उसका क्या होगा?
समाजिक सम्मान,समानता समरसता के नाम पर आरक्षण के दंश से पीड़ित प्रतिभा बहुराष्ट्रीय कंपनियों की शरण में देश -विदेश में कब तक शरणागत बधुआ मजदूर रहेगी।
आपको स्मरण होगा गरीबी उन्मूलन के समय और 1980 के आसपास से जिस तरह अर्जुन सिंह जी गरीबों के मसीहा बने थे, उसका हश्र क्या हुआ?
बोरा जी आये और उस काल से जो प्रदेश में तुष्टिकरण चला उसने सबसे पहले शिक्षा विभाग की रीढ़ तोड़ दी। बाद में दिग्विजय सिंह की अतिथि,संविदा,कर्मी विदेशी आयातित योजना ने प्रदेश के तंत्र को करप्शन और निठल्ले पन में ऐसा ढकेला। सड़कें, पुलिया तो धूल धूसरित गड्ढे में बदली ही थी, पंचायती राज ने पूरे गांवों को कई धड़ों में बांट दिया। तथाकथित अगड़ी -पिछड़ी सामाजिक संरचना में जबरदस्त खाई बढ़ती गई।
आज शिवराज सिंह जी को भी सम्हालना कठिन हो रहा है। बल्कि उसी रास्ते पर चलना भी पड़ रहा है।
न चर्च कम हुए न मस्जिद और न ही श्रद्धा के नाम पर गली कूचों में खड़े होते जमीन अतिक्रमण के नाम पर मंदिर!
ऊपर से करैला और नीम चढ़ा ब्यूरोक्रेट्स! गोविन्द नारायण सिंह के बाद अर्जुन सिंह जी और वीरेंद्र कुमार सकलेचा जी ही दो मुख्यमंत्री रहे जिनके आंख के इशारे से ब्यूरोक्रेट्स नाचते थे।
मुख्यमंत्री की घोषणाएं विभाग और वित्त विभाग के बीच फुटबॉल बनी हैं। शीर्षस्थ ब्यूरोक्रेट्स का आपसी झगड़ा भी बड़ा कारण है।
एक व्यक्ति के इर्द-गिर्द सारी सरकार घिर गई है। मंत्री अपने सचिवों से परेशान हैं तो ब्यूरोक्रेट्स अपने अधीनस्थ से।
पहले मंत्रालय के अंडर सेक्रेटरी का फोन कलेक्टर को हड़बड़ा देता था,अब पीएस, एसीएस की बात कलेक्टर मानने बाध्य नहीं तो स्थानीय मंत्री, नेता की कौन सुनता है! सबके अपने-अपने आका जो हैं।
ऐसे में घोषणाओं के वशीकरण से सरकार भले किसी की बन जाये असरकार दलों को दल-दल में फंसना अपरिहार्य है।
किसी ने फेसबुक पर लिखा है कि इतनी कैडरवान पार्टियों में मंत्री के लिए 24 कैरेट छोड़िए आठारह कैरेट के 30 चेहरे नहीं मिलते हैं। फिर 200 से ऊपर लाने का नारा किसी तरफ का हो क्या संदेश दे रहा है?