भारतीय ज्ञान परम्परा में माना जाता है कि " विद्यार्थी आचार्य पारायण होना चाहिए, आचार्य विद्यार्थी पारायण होना चाहिए, दोनों ज्ञान पारायण होना चाहिए और ज्ञान सेवा पारायण होना चाहिए।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 का आग्रह शिक्षक- शिक्षण पर है। यह नीति सर्वव्यापी और सर्वस्पर्शी है इसलिए इसका विस्तार जन गण मन तक ही नहीं तो उसके कर्तित्व, व्यक्तित्व, अर्थात् मन,बुद्धि,वाणी और हृदय तक होनी चाहिए। अर्थात् प्रत्येक विद्यार्थी का व्यक्तिगत जीवन सामाजिक जीवन बने और उसकी जीवन दृष्टि भारतीय सांस्कृतिक दृष्टि बनें।
इसके लिए भारतीय ज्ञान परम्परा आधारित शिक्षा के दो विधायक पहलू हैं। शिक्षा का आधारभूत ढांचा सम्पूर्णता के साथ खड़ा हो। दूसरा बड़ा मनुष्य खड़ा हो।
इसके लिए भी दो पहलू सामने आते हैं-अभ्युदय और नि:श्रेयस।
विचार करें तो कहा गया " सा विद्या या विमुक्तये। और इसका आधार वाक्य आया-" अध्यात्म विद्या विद्यानाम" अब केवल अध्यात्म विद्या कह देने से बात समझ आती नहीं, तो स्पष्ट किया कि अध्यात्म अधिभूत और अधिदैव है। और एकात्म विज्ञान , आत्म ज्ञान, आत्मविद्या और व्यवहारिक अध्यात्म जो जीवन दृष्टि के साथ सामने आता है।
यह भी समझना होगा कि भारत का धर्म और भारत का धर्म समाज क्या है। भारत का संविधान और भारत के धर्म में कितना सामान्य है। धर्म और रिलीजन,धर्म की शिक्षा और धर्म तथा योग का क्या सम्बन्ध है।धर्म के क्या कुछ लक्षण भी हैं।
आर्यदृष्टि और हिन्दू दृष्टि एक है या अन्तर है। क्या वर्तमान संविधान वर्तमान की स्मृति है। भारत माता और धरती माता दो शब्द हैं या एक ही अभिव्यक्ति है।
दूसरा पक्ष है कि युग परिवर्तन हुआ है तो क्या भारत का समाज शास्त्र भी बदला है।
स्वतंत्रता के पचहत्तर वर्ष बाद मेरा गांव कहां है। क्या वंचित और बाल्मीकि इस देश के आंदोलन के कल पुर्जे बन गये हैं। क्या इस्लाम और ईसाइयत हिंदू संगठन के लिए प्राणतत्व हैं। क्या भारत का भविष्य जाति और वर्ण की राजनीति पर बढ़ेगा। क्या हमें समाज की युगानुकूल रचना नहीं करनी होगी। क्या भारतीय कुटुंब व्यवस्था और परिवार व्यवस्था एक ही है।
प्राचीन हिन्दू माताएं क्या आज महिला विमर्श का आधार नहीं हो सकती। छूटती परम्पराओं को क्या शिक्षा फिर से मिला पायेगी।
क्या इसके लिए भारतीय शिक्षा के मूल तत्वों को फिर स्थापित नहीं करना होगा।लोक शिक्षा की यात्रा क्या कुटुंब शिक्षा से ही प्रारंभ होगी।
अठारहवीं सताब्दी तक की गुरुकुल परम्परा आज के विश्वविद्यालय प्राप्त कर सकेंगे। कुलपति कुलगुरु कब बनेंगे।
अनुसंधान किसके लिए विनाश या विकास के लिए। ज्ञान, ज्ञानार्जन और ज्ञानार्जन प्रक्रिया क्या हो।शिक्षा का समग्र विकास हो या शिक्षा से समग्र विकास हो। शिक्षा के भारतीय करण का आधार पश्चिम से आयेगा या भारतीय शिक्षा के भारतीय करण से। उसके लिए क्या वेदकालीन शिक्षा अपरिहार्य है।
अर्थ और शिक्षा के शास्त्र का समन्वय होना चाहिए या केवल शिक्षा संस्थाओं का पर्वोत्सव हो।
इसलिए मित्रों इतने प्रश्नों के बीच दो बातें विचारणीय हैं- एक, भारत के सार्वजनिक शिक्षा का स्वरूप कैसा हो और इस वैश्विक संकट में भारतीय शिक्षा की भूमिका क्या हो?
ऐसे में समझना अपरिहार्य होगा कि हिन्दुत्व, राष्ट्रीयत्व और भारतीयत्व एक ही हैं।
तभी समझा जा सकता है कि भारत का अर्थशास्त्र भी आध्यात्मिक है तो राजनीति शास्त्र भी।
तभी वेद,गौ,यज्ञ, प्रकृति, ब्रह्माण्ड, सृष्टि और पृथ्वी की ऐतिहासिकता और एकात्मकता का बोध सम्भव है।
और यह प्रारंभ होता है सृष्टि कथा से और समाप्त होता है पंचभूत में।
आइये प्रत्यभिज्ञा आधारित इस राष्ट्रीय शिक्षा नीति -2020 को वैश्विक परिप्रेक्ष्य में धारण करें। (क्रमशः)
नमस्कार
25/5/22