"जैसे जैसे ३१ दिसम्बर पास आ रहा है, मद्यविक्रयकेन्द्रों में भीड़ बढ़ रहीं है ।
वाह रे नया वर्ष मनाने का बेहुदा ढँग !"
- यह एक वयोवृद्ध आचार्य की पीड़ा है।
मेरा मत है-
मधुशाला अधिक उचित है। ,🙏 हमारा सामाजिक जीवन भ्रमित है। हम लोकायतन दर्शन के अधिकाधिक पास जा रहे हैं।
व्यवहार चतुराई भरा है। क्रिस्चियन स्कूल घर में चल रहे हैं।
महाजन भी इन दिनों सपरिवार मौज में रहते हैं,तो भूखा पेट मधुशाला के मार्ग से ही जीवन खो रहा है।
दूर बैठा विलियम वर्ड्सवर्थ भारत की चेतना समझता है-"Our birth is but a sleep and forgetting."
आगे कहता है- "The world is too much with us."
हमारा सामूहिक आध्यात्मिक प्रयास कमजोर हुआ है। हम यांत्रिक हो गये हैं।
इसलिए जीवन नष्ट हो रहा है।
नीरस, उपेक्षित, वंचित भौतिक जीवन भी एक कारण है।