Saturday, 29 September 2018

आज हमारे लिए चिन्तक का एक नया पक्ष खुला है की नारी मंदिर में जा सकती है. इसके विरोध का कारन तो केवल अंधविश्वास ही कहा जायेगा 

हा प्रजे क्व गमिष्यसि !


                  हा प्रजे क्व गमिष्यसि !

  देश में दो प्रकार की प्रवृत्ति दिखाई देती है। एक तरफ हजारों करोड़ का कर्ज लेकर या छल कपट से धन जमाकर तथाकथित कुबेर दिखाई देते हैं तो दूसरी तरफ अपने परिवार को रोटी, कपड़ा, मकान जुटाते अतिनिर्धन। निर्धन याचक बना है तो धनी कृपण। कुबेर बैंकों को लूट कर जनता की गाढ़ी कमाई का करोवार कर दिवालिया बन देश विदेश में रह रहे हैं तो कहीं शुक्राचार्य (भृगुवंशी) निर्धनता में आरत बन वंचित कुकर्म कर रहे हैं। देश की ही नहीं पूरे विश्व की यह स्थिति बनी हुई है। भारत में पिछले ७२-७३ वर्षों से यही हॉल देखने को मिल रहा है।

विरासत परंपरा और जातीय बोध  किसी भी देश और उस जाती की पहचान होते है।  उस देश के निवासियों की अस्मिता की पहचान इसके बिना संभव नहीं हो सकती। आज भारत में एक नहीं कई - कई मोर्चों पर लड़ाई चल रही है। धनबल की, राजबल की, विदेशीबल की । जन को कोई पूँछ नहीं रहा है।  जनता को हर राजनीतिक दल भगवान कह रहा है। धन जहां व्यक्ति को भ्रष्ट कर रहा है  , वहीँ समाज को भी। ऐसे में केवल राजनीतिक दल को दोष देना उचित नहीं ज्ञात होता है।

 मित्र दुनिया में सबसे महत्वपूर्ण मना
 गया है। तुलसी बाबा ने कहा है ‘ धीरज. धर्म, मित्र अरु नारी । आपात कल परिखिहही चारी।। आज मित्र और नारी दोनों संकट में है। आइये एक कथा से समझाने का प्रयत्न करें।

आचार्य क्षेमेन्द्र के कला विलास में कथा आती है कि शुक्राचार्य अपनी गरीबी से तंग आकर अपने मित्र कुबेर के पास जाते हैं और उनसे कहते हैं, ‘मित्र ! देव और दानवों की अपेक्षा भी अधिक तेरा पूर्ण वैभव मित्र को अतिशय आनन्द देता है और शत्रुओं को दु:ख। तेरी अपार कीर्ति का कुछ पारावार नहीं परन्तु तुझ जैसे धनाढ्य मित्र के रहते मैं दरिद्री रहता हूँ। परम्परा से मान्य है कि दु:ख और सुख में मित्र को सहायता करने के लिए अवश्य कहना चाहिए , अत: मैं तुम्हारे पास आया हूँ..अधिक पुण्य से प्राप्त कर यत्नों के कारण से संग्रह कर धरा हुआ भंडार जैसे अनुपम सुख दे कर सुख-दु:ख में सहायता करता है, वैसे ही पूर्वपुण्य से प्राप्त मित्रमणि भी सदा सुख और दु:ख में सहायक होता है।’ 

कुबेर ने बात सुनी और कहने लगे, ‘तू मेरा मित्र है, मैं तुझको पहचानता हूँ परन्तु प्राणपण सदृश अति बल्लभ इस अपार धन में से तुझको किचिंतमात्र भी नहीं दूँगा।

कथा विस्तार पाती है और शुक्राचार्य कपट कर कुबेर की काया में प्रवेश कर उनसे अपने ही शिष्यों को भेजकर धन की याचना करते हैं और शुक्राचार्य कुबेर के भण्डार का एक-एक पाई दान कर देते हैं। शुक्राचार्य जैसे ही उनकी काया से बाहर आते हैं कुबेर को सब ध्यान में आता है और वे न्याय के लिए शिव के पास जाते हैं। शिव के शुक्राचार्य को समझाने पर कि तूने कृतघ्र होकर अपने मित्रमणि को ठग कर कांचवत् बना दिया है, यह बहुत ही अनुचित कार्य तूने किया, कारण कि कृतघ्र भी मित्र पर द्रोह नहीं करता। 

यश की चाह न करने वाले, अपनी मर्यादा को लोप करने वाले कृतघ्री जैसी ठगाई करते हैं, वैसी ही ठगाई अपने प्रेमपात्र एकमात्र मित्र से करना तुझ सदृश के लिए उचित नहीं। अरे सुमति! ऐसा कार्य क्या तेरे जैसे विद्धान को उचित कहायेगा ? ऐसा आचरण सदगुणों को नाश करनेवाला है। ..तू भृगु के निर्मल वंश को क्यों कलंक लगा रहा है।

शुक्राचार्य का उत्तर था, ‘महाराज! जो भाग्य अच्छे हों तो इन्द्र के मुकुट पर विश्राम करनेवाली-इन्द्रादि देवों से स्वीकृत आपकी आज्ञा को कौन नहीं स्वीकार करेगा ? परन्तु जिस दरिद्र के घर में लडक़ी-लडक़ा, नौकर-चाकर आदि दु:खी रहते हों उसका पराये का धन हरण करने में बुरे-भले का विचार आदि नहीं रहता। .. शठशिरोमणि लोभी कुबेर ने तो स्पष्ट अस्वीकार किया और मेरी आशा नष्ट कर दी। उसने बिना शस्त्र के मेरा बध किया, बिना विषपान कराये और बिना अग्रि के उसने मुझे दग्ध किया। इस कारण ऐसे परम शत्रु को छलना कोई नीच कर्म नहीं।

यह सुन शंकर ने कहा, ‘हे शुक्र कुबेर का धन उसे लौटा दे।शुक्र ने कहा प्रभु लिया हुआ धन भी लौटाया गया है, कहीं आप ने सुना है? प्राणांत तक उसका धन नहीं दूँगा।

  शंकर उसे अपनी जठराग्रि में डालकर मर्मांतक पीड़ा देते हैं किन्तु शुक्राचार्य को महादेव की कमजोरी ज्ञात थी वह धीरे से पार्वती का स्मरण करता है और पार्वती प्रसन्न होकर शिव की स्तुति करती हैं  और वह बाहर आ जाता है।

 क्षेमेन्द्र लिखते हैं कि हे चन्द्रगुप्त! लोभी मनुष्य इस प्रकार असह्य दु:ख सहते हैं परन्तु अपने प्राण जाने तक भी हलके लोगों की तरह अपनी कुटिलता नहीं छोड़ते तथा सहज मिल सके ऐसे धन का भी त्याग नहीं कर सकते। इस कारण लोभी होना उत्तम नहीं लोभी का संसर्ग भी अनुचित है।

जरा आज का परिदृश्य देखें तो समझ में आता है कि शुक्राचार्य निर्धनता में कुबेर से मित्रवत याचना करते हैं किन्तु धन न मिलने पर आरत की तरह कुकर्म करते हैं। शिवरूपी राजतंत्र का मुखिया उसे सजा देता है किन्तु मुखिया को नियंत्रित करनेवाली शिवशक्ति न्यायपालिका शुक्र की याचिका स्वीकार करने शिवसत्ता को मजबूर कर देती है। क्या यह समस्या केवल चार-छह वर्षों से ही उत्पन्न हुई है? या यह समाज की सहज कुवृत्ति है, विचार करना चाहिए कि इसका समाधान क्या हो सकता है।

दूसरी ओर  सुप्रीम कोर्ट के निर्णय ने एक बहस प्रारम्भ कर दी है, जिस देश में नारी को अर्धांगिनी कहा जाता है, पूजा से लेकर हर पुनीत कार्य में वामा को दक्षिण में बैठा कर पूजा में हिसेदारी दी जाती है,  जिसके शील मर्यादा के चलते घर को स्वर्ग कहा जाता है ; उसे पश्चिम की अवधारणा पर अधिकार की वस्तु कह कर उसे स्वतंत्रता दी जा रही है। 

 यह विचारने की बात है की क्या भारत का सर्व सामान्य जन नारी को भोग की वास्तु मानता है। तो मेरे न्यायाधीशो यह बता दे की भारत की हर नारी अपने पति के साथ भोग की आयु पार करने के बाद भी किस कारण  से साथ रहती है?

 कितनी नारियां हैं भारत में जो भोग के अमर्यादित व्यवहार के लिए अपने पतिओं को त्याग देती है। कुछ आधुनिक युग की छाया में पल रही स्त्रियों के कारन पूरे समाज को दोषी और कलुषित बताना कहाँ का न्याय है ? नारी के निर्णय को करते हुए नारी की आवाज तो सुनी होती।

फिर दूसरी बड़ी खतरनाक बात यह है की क्या भारत को आप केवल १९५० के आधार पर हस्तक्षेप करेंगे ? क्या भारत १९४७ में राजनीतिक स्वतंत्रता की भांति ही सांस्कृतिक स्वतंत्रता भी पाया है ?  क्या भारत का सांस्कृतिक जीवन,परिवार व्यवस्था १९५० के बाद आई है ? 

क्या जिस भारतीयता की दृष्टि के लिए कबीर, तुलसी, रसखान जूझते रहे वह गणतंत्रता के बाद  समाप्त हो गई है।  स्त्री का यह मूल्याकन देश को कहाँ ले जायेगा कहना कठिन है। 

कुछ लोंगो के लिए यह फौरी राहत हो सकती है। लेकिन समाज को इस पर चेतना होगा । वैदिक कल में ऋषियों ने जिस पति -पत्नी परंपरा के साथ परिवार व्यवस्था को स्थापित किया क्या हम उसे तोड़ देना चाहते हैं ? जिस समाज को माता पिता को पिक्चर देखते संतान दूर चली जाती हो उसे नारी की स्वतंत्रता की बात बताकर समाज को तोड़ने के अतिरिक्त इसे कुछ नहीं कहा जा सकता।

जिस देश का कवि गा रहा हो –

कौन पथ भूले की आये ! 
स्नेह मुझसे दूर रहकर 
कौन से वरदानन पाए ?
यह किरण-वेला  मिलन-वेला 
 बनी अभिशाप होकर 
और जगा  जग ,सुला  
अस्तित्व अपना पार होकर 
छलक ही उठे , विशाल 
 न उर-सदन में तुम समाये 
 उठ उसांसों ने, सजन 
अभिमानिनी  बन गीत गाये 
फूल कब के सूख  बीते 
शूल थे मैंने  बिछाये ।

शूल के अमरत्व पर 
बलि फूल  कर मैंने चढाये, 
 तो न आये थे मनाये -
 कौन पथ भूले ,की आये ।

उस देश में नारी की स्वच्छन्दता पर न्यायलय आगे आये और एक पूरा पढ़ा लिखा वामी समाज उसके साथ खड़ा हो जाय , इससे आश्चर्य और क्या हो सकता है। 
द्वार मौन है
कुआ सूना है
पनिहारिन घूघट नहीं खोल पा रही है
कौन प्रस्तावक खड़ा हो जाय
 तुम अपने पुरुष की सम्पति नहीं ।
 चलो हमारे साथ।तब क्या होगा ? जिस रक्त को आमंत्रण दे रहा यह न्याय उसके पास इसका उत्तर है क्या ? वासना कितने क़त्ल कर रही है , अब तो आपने प्रमाणपत्र दे दिया। समाज को आगे आना ही होगा। आयेगा भी। सरकार क्या कराती है यह भी देखेने की बात है। 

कल यदि हजारों पुत्र कोर्ट में न खड़े होकर सड़क पर अपनी माँ की अस्मिता के लिए खड़े होते हैं तो इसके लिये कौन जिम्मेदार होंगा? क्या कुलपुत्रियों के रक्त से वसुधा सिंचेगी? दानवी संतान बनकर कौन जीना चाहेगा, एक सुर्न्पंखा के कारण सीता हरण होता है तो क्या यह स्थिति फिर आएगी। विचार करना होंगा । 

मुझे प्रसाद याद आ रहे हैं की ‘ यदि प्रतिष्ठा के लिए  जो लड़कर मर नहीं गया , वह  कायर नहीं तो  और क्या है ?’ आज करनी सेना कहाँ गई. ?  जब प्रसाद का तक्षक कहता है ‘ हम असभ्य जंगली लोग धर्म को पवित्र , अपनी मानवी प्रवृत्ति
से परे, एक उदार वास्तु मानते हैं। अपनी आवश्यकता को, अपनी लालसामायी  दुर्बलता को उसमें नाहीं मिलाते , उसे बालक की निर्मल  हंसी  के समान  अछूता  रहने देते हैं। पाप को पाप ही कहते है. उस पर धर्म –न्याय का मिथ्या  आवरण नहीं चढाते । ‘ तब क्या आज का न्याय हमें बात समझाने की दृष्टि नहीं देता.?

 जरा गाँधी महाराज को भारत की नारी के बारे में जाने- ‘ हिन्दू-संसार में विवाह कोई ऐसी-वैसी चीज नहीं। वर-कन्या के माता-पिता विवाह के पीछे बरबाद होते हैं; धन लुटाते हैं और समय लुटाते हैं। महीनों पहले से तैयारियाँ होती हैं। कपड़े बनते हैं, गहने बनते हैं, जातिभोज के खर्च के हिसाब बनते हैं, पकवानों के प्रकारों की होड़ बदी जाती है। औरतें, गला हो चाहे न हो, तो भी गाने गा-गा कर अपनी आवाज बैठा लेती हैं; बीमार भी पड़ती हैं, पड़ोसियों की शांति में खलल पहुँचाती हैं। बेचारे पड़ोसी भी अपने यहाँ प्रसंग आने पर यही सब करते होते हैं, इसलिये शोरगुल, जूठन, दूसरी गंदगियाँ, सब कुछ उदासीन भाव से सह लेते हैं। पिताजी किस-किस प्रसंग पर कहाँ बैठे थे, इसकी याद मुझे आज भी जैसी की वैसी बनी है। बाल-विवाह की चर्चा करते हुये पिताजी के कार्य की जो टीका मैंने आज की है, वह मेरे मन ने उस समय थोड़े ही की थी? तब तो सब कुछ योग्य और मनपसंद ही लगा था।

ऐसे दुख हिन्दु स्त्री ही सहन करती है, और इस कारण मैंने स्त्री को सदा सहनशीलता की मूर्ति के रूप में देखा है। नौकर पर झूठा शक किया जाये तो वह नौकरी छोड़ देता है, पुत्र पर ऐसा शक हो तो वह पिता का घर छोड़ देता है। मित्रों के बीच शक पैदा हो तो मित्रता टूट जाती है, स्त्री को पति पर शक हो तो वह मन मसोस कर बैठी रहती है, पर अगर पति पत्नी पर शक करे, तो पत्नी बेचारी का तो भाग्य ही फूट जाता है। वह कहाँ जाये ? उच्च माने जाने वाले वर्ण की हिन्दू स्त्री अदालत मे जाकर बँधी हुई गाँठ को कटवा भी नहीं सकती, ऐसा इकतरफा न्याय उसके लिये रखा गया है। इस तरह का न्याय मैंने दिया, इसके दुख को मैं कभी नहीं भूल सकता। इस संदेह की जड़ तो तभी कटी जब मुझे अहिंसा का सूक्ष्म ज्ञान हुआ, यानी जब मैं ब्रह्मचर्य की महिमा को समझा और यह समझा कि पत्नी पति की दासी नहीं, पर उसकी सहचारिणी है, सहधर्मिणी है, दोनों एक-दूसरे के सुख-दुख के समान साझेदार हैं और भला-बुरा करने की जितनी स्वतंत्रता पति को है, उतनी ही पत्नी को है। संदेह के उस काल को जब मैं याद करता हँतो मुझे अपनी मूर्खता और विषयान्ध निर्दयता पर क्रोध आता है और मित्रता-विषयक अपनी मूर्छा पर दया आती है।‘
एक और दृश्य –‘ धीरे-धीरे स्त्रीत्व का तेज उस·ी आत्मा में उदय हुआ। गर्व और दृढ़ प्रतिज्ञा के चिह्न उस·के नेत्रों में छा गए। वह साँपनी की तरह चपेट खा·र उठ खड़ी हुई। उसने एक और खत लिखा -
       'दुनिया के मालिक ! आपकी बीवी और ·नीज होने की वजह से आपके हुक्म को मानकर मरती हूँ, इतनी बेइज्जती पाकर एक मलिका का मरना ही मुनासिब है, मगर इतने बड़े बादशाह को औरतों को इस ·दर नाचीज तो न समझना चाहिए कि अदना-सी बेवकूफी की इतनी बड़ी सजा दी जाय। मेरा कुसूर तो इतना ही था कि मैं बेखबर सो गई थी। खैर, फिर एक बार हुजूर को देखने की ख्वाहिश लेकर मरती हूँ। मैं उस पाक परवरदिगार के पास जाकर अर्ज करुँगी कि वह मेरे शौहर को सलामत रक्खें।
एक तीसरा दृश्य – ‘जीवनलाल ठहाका मार-मार·र हँस पड़े और ·ाफी देर त· हँसते रहे। लीला ·ुछ न समझकर उन्हें देखती रही। हँसी का दौर ·म होने पर हाँफते हुए और हँसते हुए ·हा,"तुम मुझे बहुत प्यार करती हो। वरना तुम्हारे मुँह से आज सच हरगिज न सुन पाता...। मेरे मन का मुर्दा बोझ उतर गया। ओह अब तुम मुझसे घृणा क़रो लीला, जी चाहे जितनी ·रो, मेरा जीवन मुरझाएगा नहीं और खिलेगा, नित नया होकर महकेगा। 
       सहसा पासा पलट गया। सती पत्?नी को दुराचारी पति ·ी उदारता ·के सामने अपनी बदला लेने की संकीर्ण वृत्ति मन-ही-मन बुरी तरह से गडऩे लगी। हर व्?यक्ति अपनी परिस्थितियों के अनुसार बुरा भी है और भला भी। लोग दूसरों की बुराइयों को मारना चाहते हैं और अपनी बुराइयों के प्रति करुणा प्रट करते हैं। यह केसा अन्याय है? अगर जीवनलाल ने एक तरह से अन्याय किया है तो लीला ने दूसरी तरह से। लीला सोचने लगी कि वह नारी हो·र भी बेहद कठोर है। वह जीवनलाल से बहुत महँगा बदला ले रही है। क्या उसे अपने पति को घुला-घुलाकर मार डालना है?
       लीला ने कनखियों से अपने पति की ओर देखा, 'ये कितने दुबले हो गए हैं।'

तभी एक दूसरे छोर से एक आवाज आती है, वंचित को बार-बार अपने स्वार्थवश जब हम उसे लालीपाप देते हैं और कर्ज लेकर अनपेक्षित सुविधाओं में जीनेके का उसका स्वभाव स्थायी बन जाता है तो उसे सुविधाओं से वंचित करना कठिन ही नहीं दुसाध्य रोग बन जाता है। तब साहित्यकार की भूमिका क्या हो का समाधान देते हुए स्मरण आते हैं पं. माखनलाल चतुर्वेदी, ‘दृष्टि का काम बाहर को देखना भी है और भीतर को भी। जब वह बाहर को देखती है, तब रचनाओं पर समय के पैरों के निशान पड़े बिना नहीं रहते। जब वह भीतर को देखती है, तब मनोभावनाओं के ऐसे चित्रण कलम पर आ जाते हैं, जिन्हें समय द्वारा शीघ्र पोंछा नहीं जा सकता-यदि मनोभावनाओं की सतह ऐसी हो जिसमें अगणितों का उल्लास और उनकी भावना प्रतिबिम्बित हो उठी हो, और जिनकी कहानी, अपने अवतरण में, दुहराहटों के दाग से बची रह सकी हो ? यही कारण है कि नेत्र से दीखने वाले सब-कुछ की ओर से आँखें मूँद लेने पर उसका पता नहीं लगता; किन्तु भीतर को देखने वाली दुनिया आँख मूँद लेने के बाद भी दीखती है और सूझती रहती है, इसलिए वह समय के हाथ के  मिटाये नहीं मिटती। इसलिए, समय के निशानों वाली वस्तु, समय बदलते ही अपना अस्तित्व खोने लगती है, और समय का नियंत्रण करनेवाली, समय से परे की वस्तु, विश्व में क्लासिकया संस्कृतके नाम से पुकारी जाती रही है। युग का लेखक, न तो खुली आँखों से देखकर, उलट-पुलट होते जगत् पर अपना रक्तदान करने से चूक सकता, न मुँदी आँखों की दुनिया में महामहिम मानव की कोमलतर और प्रखरतर मनोभावनाओं की पहुँच तक जाने से ही रुक सकता है।’’
जब-जब समाज के अन्दर एक बिखराव, टूटन, संघर्ष की स्थिति बनी है तब-तब साहित्यकारों की गंभीर भूमिका सामने आई है। पं. माखन लाल चतुर्वेदी लिखते हैं, ‘वस्तुओं में उनके रूप, स्वाद और उनकी उम्र की तरह घटते-बढ़ते रहनेवाले, तथा उनके अस्तित्व के कारण की तरह छिपकर अमर होकर बैठने वाले तत्त्व को कौन सा नाम दिया जाये ? मानव-मनोभावनाओं के विकार मानव-निर्माण के दिन से भले ही सुसंस्कृत होते गये हों, किन्तु उनके स्रोत है गिने-चुने ही। तत्त्वज्ञ उनके मूल स्रोतों तक मन को पहुँचाने में यत्नशील रहा; कवि उन स्रोतों को उज्ज्वल रूप और बेदाग वाणी प्रदान करने में अपने स्वप्रों में जागरूक रहा। यही कारण है कि कवि मानव की, मानवी की, नदी की, पर्वत की, पत्थर की, पानी की, झरने की किस-किसकी ओर से नहीं बोला ? उसकी बोली उसकी अनुभूति और आकलन का अनोखा आविष्कार बनकर आती रही। वह खुली आँखों के कौशल को भी रूप, रस और वाणी दान करता रहा और सूझ के पैरों अनुभूतियों तक पहुँचने के अपने मूक वैभव को भी। शायद उसकी इसी बात के समर्थन में, अनन्त युगों के ऐसे पुराने लोग, जिनकी वाणी पुरानी नहीं हो पाई, कह गए हैं कि- ‘‘ यदि मानव की महत्ता है जानना और सोचना, तो इस दोनों पक्षियों की उड़ान का प्राण है याद। और याद के इतिहास को पीछे खींचो, तो उसी दिन से मानव निर्मित होता चला आ रहा है’’तभी तो कवि की याद मुखर हो उठती है, ‘सूली का पथ ही सीखा हूँ, सुविधा सदा बचाता आया, मैं बलि-पथ का अंगारा हूँ, जीवन-ज्वाल जलाता आया।क्या साहित्यकार की यह भूमिका वर्तमान संक्रमित-राजनीतिक परिवेश में समाज को जगाने की नहीं हो सकती ?  
एक कथाकार के कुछ प्रश्र हैं, सरेआम किसी को पीटने या मार डालने के लिए अचानक एक बड़ी भीड़ कैसे जुट जाती है? उस भीड़ में प्राय: किसी एक ही दल / संगठन या विचारधारा के लोग क्यों होते हैं ? पिटने वाला या मारा जाने वाल प्राय: मुसलमान या दलित ही क्यों होता है? पिटाई या लिंचिंग के समय पुलिस प्राय: सूचना मिलने पर भी अनुपस्थित या उपस्थित हो कर भी निष्क्रिय क्यों रहती है? या पीटने और मार डालने वाले अव्वल तो गिरफ्तार ही नहीं किये जाते या किये भी जाते है तो प्राय: आसानी से जमानत पर या यूँ ही छोड़ क्यों दिये जाते हैं? किसी की पिटाई या हत्या करने वाले प्राय: स्वयं ही अपने अपराध का वीडिओ बना बनाकर उसे सोशल मीडिया पर फैलाने की हिम्मत या हिमाकत कैसे कर पाते हैं? वीडियो बनाने और उसे सोशल मीडिया पर फैलाने वाले कुछ लोग पिटाई या हत्या करने वाले नहीं, बल्कि तमाशाई होते हैं, लेकिन वे पिटने या मारे जाने वाले की मदद करने के बजाय आराम से वीडियों क्यों बनाते रहते हैं? पिटने वाला या मारा जाने वाला व्यक्ति चाहे किसी भी धर्म, सम्प्रदाय या जाति से जुड़ा हो प्राय: गरीब ही क्यों होता है? किसी धनी व्यक्ति के साथ ऐसा क्यों नहीं होता ? ठीक है, प्रश्रों को देखने में कोई बुराई नहीं है किन्तु इसके लिए चलिए थोड़ा सन्दर्भों से जुड़ा जाये।
पूरी दुनिया में इस्लामिक सुफिस्म, बहाई धर्म, कादियानी अहमदिया, नियाजी मुस्लिम, शिया इस्लाम, सुन्नी मत, वहाबी इस्लाम, मोतजला आदि अनेक शाखाएँ हैं किन्तु सभी को मिलाकर इस्लाम या मुसलमान कहा जाता है।
ईसाइयों में प्रचलित मत मसीही व क्रिश्चियन, इब्राहीमी, कैथोलिक, प्रोटैस्टैंट, लूथरन, कैलविनिस्ट, एंग्लिकन, बैप्टिस्ट, मेथोडिस्ट, आर्थोडोक्स, एवानजिलक आदि आदि हैं फिर भी वे सब मतगणना में, सम्बोधन में ईसाई हैं। 
प्रश्र यह है कि इस्लाम और ईसाईयत की यह शाखाएँ प्रशाखाएँ आपको सम्बोधन और लेखन में क्यों नहीं दिखाई देती ? जनगणना में इनको आधार क्यों नहीं बनाया जाता ? जब जनगणना में हिन्दुत्व को माननेवाले समाज के अन्दर आप अगड़ा, पिछड़ा, जैन, सिख, बौद्ध, अनुसूचित जाति, जनजाति के आधार पर विषय रखेंगें तो कुल मिलाकर हानि किसकी होगी? देश में छोटे-मोटे मतपंथों को छोड़ दे तो क्या जनगणना हो या सामाजिक व्यवहार जिस तरह मुसलमान  और ईसाइयों की अनेक शाखाओं के बावजूद संविधान और प्रशासन में वे एक हैं, उनकी जनसंख्या एक मानी जाती है तो उसी तरह हिन्दु मतावलंम्बियों की पूजापंथ की सभी शाखाओं को केवल हिन्दू क्यों नहीं कहा जाता? क्या हमें शिर्फ हिन्दुओं के अन्दर ही या दलित, पिछड़े, अगड़े, आदिवासी दिखाई देते हैं। दलित कह कर क्या आप हिन्दुओं की एक बड़ी जनसंख्या को समाज से अलग करना चाहते हैं। हिंसा में मारेजाने वाले मुसलमान, ईसाई की गणना एक तो दलित और हिन्दुओं के लिए आपके मापदण्ड पृथक क्यों ? क्या यह सोचा समझा षडय़ंत्र नहीं है।
 यदि आपको गांधी याद हो तो उन्होंने हिन्दुओं को भीरु और मुसलमानों को गुंडा कहा था। यह प्रवृत्ति आज भी नहीं दिखाई देती? फिर आपको यहाँ विचारधारा और जाति, उपजाति विशेष ही क्यों दिखाई देती हैं। यह मानना ही होगा कि राजनीतिक भाषा और मान्यता को छोड़ दें (जो सत्ता के लिए हैं, घातक भी हैं) तो हिन्दु समग्रता में हिंसक नहीं होता। आतंकी की कोई जाति नहीं होती कहने वाला केवल हिन्दू है, मुसलमान दंगाई या आतंकवादी भी हो तो उसे दफनाने की व्यवस्था की माँग मानवाधिकार से क्यों उठती है? मेरा प्रतिप्रश्र है जब सोमनाथ एक्सप्रेस में कारसेवक बोगी में जला दिए गये तब आपने यह प्रश्र क्यों नहीं किया? आप केरल या पश्चिम बंगाल में जा कर यह दृश्य क्यों नहीं देखते ? क्या आपको उत्तर प्रदेश का एक साल पुराना प्रशासन भूल गया अथवा केरल, पश्चिम बंगाल को आप भूल रहे हैं जहाँ दोषी का न पकड़े जाने का कारण या तो वे किसी राजनीतिक दल के कार्डहोल्डर होते हैं या किसी जाति के गुंडे। कश्मीर में आतंकवाद के विरुद्ध लडऩेवाले मुसलमान सिपाही को उसके घर के अन्दर से निकाल कर हत्याएँ कौन कर रहे हैं? सेना पर पत्थर कौन फेक रहे हैं?नक्सल को बढ़ावा देने वाले तथाकथित क्रू र माओवादी विचारक रातोरात किस तरह मानवतावादी या मानवाधिकार के कार्यकर्ता बन बैठते हैं? इस राष्ट्र के हितचिंतन के बारे में न्यायालय से जब कोई आदेश परित होता है तो न्यायाधीश विचारधारा और जाति से क्यों जोड़ा जाता है? राष्ट्र की अस्मिता का प्रश्र खड़ा होते ही सेक्युलिरज्म क्यों पैदा हो जाता है?
मित्रो, राष्ट्र को राजनीतिक, भाषाई, मतपंथ और जातीय प्रदेशों के आधार पर विचार नहीं किया जा सकता। हिंसक मनोवृत्ति को टुकड़ों में नहीं लड़ा जा सकता। मेरा एक प्रश्र और है कि पिटाई, जातीय प्रतारणा, मानव उत्पीडऩ, हत्याएँ, लूटपाट, घरेलू हिंसा आपको स्वतंत्रता के इतने वर्षों वाद क्यों दिखाई दे रही है?जरा विचार करें साहित्य में, इतिहास में जिस मध्यकाल को बाबर, हुमायु, अकबर, औरगजेब आदि के नाम पर पढ़ाते हुए अच्छे प्रशासक बताते नहीं थकते गौरान्वित होते हैं, जहाँ दुर्गावती, शिवाजी, महाराणा प्रताप, छत्रसाल, लक्ष्मीबाई, तात्याटोपे, नाना पेशवा, को उपेक्षित करने में कोई ग्लानि महसूस नहीं करते। मुझे यहाँ माखनलाल चतुर्वेदी का यादशब्द  फिर याद आ रहा है।
 वस्तुत: जब परिस्थिति और राजनीतिक महत्वाकांक्षाएँ देश हितैषी होती है और नकारात्मकता पर अंकुश करने का प्रयत्न किया जाता हैं तब इस तरह के ढेर प्रश्र खड़े होते हैं? समाज परिवर्तन करना है, सामाजिक समभाव पैदा करना हैं, देश से गरीबी हटाना है,भारत को भारत बनाना है तो इन प्रश्रों को कुछ समय के लिए अपने विशेष ऐनक से बाहर रखकर समाधान ढूँढऩा होगा। ईमानदारी से जो इस दिशा में विभिन्न प्रवृत्तियों और मनोवृत्तियों के बीच से समाधान निकाल रहे हैं उनका सहयोग करना होगा। वस्तुत समाज को समग्रता के दर्पण में देखना होगा और उसके लिए व्यापक दृष्टि और ऐनक रखना होगा। हिंसा पोषित मानसिकता को छोडऩा ही होगा। स्मरण रहे, ‘स्वधर्म के लिए उठो और स्वराज्य प्राप्त करोइस तत्त्व ने हिन्दुस्थान के इतिहास में कितने दैवी चमत्कार किए हैं ? श्री समर्थ रामदास ने महाराष्ट्र को ढाई तीन सौ वर्ष पहले यही दीक्षा दी थी- धर्मासाठी मरावें, मरावें अवघ्यांसि मारावें। मारिता मारिता ध्यावें, राज्य आपुलें।समर्थ की इस बात को उन मनोवृत्तियों को मारने के लिए यदि हम स्वीकार करते हैं जो राष्ट्र को पराजित करने के लिए तुली हैं तो सभी प्रकार का समाधान मिल सकेगा।
 जब आचार्य क्षेमेन्द्र हा प्रजे क्व गमिष्यसि !की बात करते हैं तो उसमें न तो कोई सम्प्रदाय है, न कोई मतपंथ। वे पूरे समाज की चिंता व्यक्त कर रहे हैं, राष्ट्र उनके लिए सर्वोपरि है। क्या हम भी वैसा ही नहीं सोच सकते?
अब जरा क्षण भर रुककर विचार रें हम किसकी  संतानें हैं? क्यों हमें अपने उन शोधर्ता ऋषियों पर गर्व है? क्या हम उनका अनुसरण नहीं कर सकते  हैं। तात्पर्य यह है की  विश्व ल्याणजैसे बड़े-बड़े वाक्यों का प्रयोग करने के  पहले उसका  बोध, उसके  छोटे से अंश जगतका बोध रना आवश्य है। अन्यथा हमारी दृष्टि एकनगी हो स·ती है, हम ग्लोबलाइजेशनके शिकर  हो स·ते हैं। चुकी  भारत ने उस बोध को  प्राप्त किया है इसलिए वह दुनिया का आदर्श बने, दुनिया उस दृष्टि को  प्राप्त रे यह कार्य हमारे साहित्यकारों के  चिन्तन पर, अभिव्यक्ति पर है। जरा इस बोध की  पड़ताल की  जाये। यह भ्रम क्यों?
तय यह रना है की  मनुष्य को  चाहिए क्या ? अर्थ और ·ेवल अर्थ या धर्माधारित (अथार्थी)अर्थ और काम। और क्या वस्तुत: हम अर्थ की  अवधारणा को  समझते भी हैं या नहीं? यदि हमें अर्थ का  ही चिन्तन प्रधान लगता है तो हम भारत के  पुरुषार्थ की चर्चा क्यों नहीं ·रते? क्यों हमें माक्र्स या उसके  पूर्वज आदर्श ही आदर्श दिखते हैं ?अठरहवीं-उन्नीसवीं शताब्दी की  चिन्तना की  पैरवी ·रने वाले पश्चिमी-वामी दृष्टिपोषित भारतीय साहित्यका, मनीषी हाँ चले जाते हैं जब हमारे यहाँ के पुरुषार्थ में अर्थ चिन्तन पहले से ही है।
देशी और विदेशी चिन्तकों के  मत को रखते हुए बिना किसी  टिप्पणी के  धर्मपाल जी की  पीड़ा के साथ बात समाप्त करूंगा  धर्मपाल की  इतिहास दृष्टि : हमारा स्वधर्म : हमारा संल्पअब हम कैसे  भारतीयता को  प्राण दें ? और उसका साहस एवं उत्साह वापस लायें। ऐसी परिस्थिति में एक जागरुक नागरिक और साहित्य के विद्यार्थी का दायित्व है कि इस सम्बन्ध में जो भी राष्ट्रीय प्रेरणा से लिखा पढ़ा गया है उसे पाठकों के सामने लाया जाये। इसलिए सम्पूर्ण पुस्तक में वह सब तथ्यात्मक सामग्री रखी गई है जो हमारे ध्येयनिष्ठ अग्रजों / पूर्वजों ने हमें देने का प्रयत्न किया है।